आईपीएल वाकई एक खेल है। 26 मई या 2 जून की
बैठक के बाद ऐसा कुछ नहीं घटा, जिसके बारें में लिखा जाए । एक टीम विजेता बन गई एक
नया कार्यकारी अध्यक्ष बन गया पर, पर हारा कोई नहीं। सभी अपने अपने हिस्से का लाभ
कमा चुके, और ये खेल की मंडी उठ गई अगले साल फिर सजने के लिए। सच में यह एक ऐसा
खेल है, जिसमें सभी लाभ में रहें, खिलाड़ी, कोच, आयोजक, प्रायोजक, और सटोरियें भी,
बस दुखी वो हुआ जिसकों ये खेल समझ में ही नहीं आया और दाए बगाहें, वो इस खेल का
हिस्सा बनता चला आया। पर दुख जब तक ज्ञात ना हो तब तक काहें का दुख, सो अगले सीजन
में दर्शक खुद को एक नये खेल का हिस्सा बनानें के लिए फिर आ धमकेगें। तब तक
बहुतेरें खेल होगें हम आप उसका हिस्सा
बनते रहेगें श्रीनिवासन के बाद डालमिया तो इसकी बानगी भर हैं। आप तैयार हैं ना हो
या ना हो पर इस खेल से बच नहीं सकते, तो आप तो हिस्सा बनेगें ही, चाहें आप कितनी भी
सजगता बरत लें, क्यों आप बाजार जो ठहरे, और आपको लुभाने के लिए कंपनियां सब कुछ
लुटा देगीं, सो आप निश्चिंत रहें, आप फिर लुटेगें।
भारतीय आंचलिक व्यगं परंपरा परम्परा में ‘खेल’
शब्द का अपना एक मतलब है, और अगर इस मतलब को समझनें की कोशिश
करें तो, “एक ऐसा वाक्या ( घटी घटना)
जिसमें हम और आप किसी दूसरे के पूर्वनियोजित चक्रव्यूह का हिस्सा बनते जाते हैं पर
हमें उसका पता भी नहीं चलता है, और चक्रव्यूह रचने वाले को
लाभ ही लाभ होता है”। इसमें होने वाले मुनाफे को कमाने वाली
ताकतों को पहचाना काफी कठिन होता है। कुछ ऐसा ही हाल आईपीएल का है, जो
उद्योगपतियों और काले धन को सफेद करने वालों का रचा चक्रव्यूह हैं, जिसके हम और आप
हिस्से हैं ( क्यों कि हम बाजार के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं)। लाभ सिर्फ और सिर्फ ऐसे
लोगों को हो रहा है, जो सामने दिखते नहीं हैं। लाभ कमाने वालों की सूची लम्बी है,
पर संक्षेप में कहें तो बंटरबार मची है, सब अपने अपने तरीको से लूट रहें हैं। इस खेल
(लूट) की एक इलक इस बार की फिक्सिंग में दिखी, जिसमें नेता, उद्योगपति, खिलाड़ी,
फिल्म जगत से लेकर अन्डरवर्ड के लोग खेल खेलते नजर आए हैं, और हम आप सिर्फ मूक
दर्शक बनें रहें।
क्रिकेट में लिए इस तरह का खेल कोई नया
नहीं है। इतिहास पलट कर देखें तो क्रिकेट हमेशा ही किसी ना किसी खेल के रूप में ही
खेला गया है। इस खेल के पीछे आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक और बाद पूजीपतियों के
हितों का खेल लम्बें दौर तक खेला जाता रहा हैं, और आज भी अनवरत जारी हैं, बस
फार्मेट बदलते रहें। क्रिकेट की शुरूआत इग्लैण्ड़ में हुई, यह खेल ग्रामीण
इग्लैण्ड वालों की उपज थी और इसके प्रमाण भी मिलते हैं, विद्वानों का कहना है,
क्यूकिं ग्रामीण जिंदगी की रफ्तार धीमी थी इसलिए इस खेल के आविष्कारक वही हैं, इसीलिए
शुरूआती दौर में इस खेल को तब तक खेला जाता था जब तक दूसरी टीम के सारे खिलाड़ी
आउट ना हो जातें, बाद में टेस्ट क्रिकेट इसी का एक परिष्कृत भाग था। लेकिन जैसें
ही औद्योगिक कांत्रि उपजी तो उसने हर जगह लाभ देखा और इससे जुडे नियम गाठें और बना
दिया जेंटिलमैन का खेल। जिससे वो अपनी राजनीति और आर्थिक लाभ साध सकें। इसकी एक मिसाल
भारतीय स्वत्रतां संग्राम के इतिहास में देखी जा सकती है, कि किस तरह से इस खेल के
माध्यम से धार्मिक राजनैति को खेला गया और ताकि औपनिवेशिक मंसूबों ( फूट डालों
राज्य करों) को पूरा किया जा सकें।
भारत में हिन्दुस्तानी क्रिकेट यानी
हिन्दुस्तानियों द्वारा क्रिकेट को खेलने की शुरूआत का श्रेय पारसियों को जाता है,
जिन्होनें 1848 में बंबई में क्रिकेट क्लब की स्थापना की, जिसे ओरिएंटल क्रिकेट क्लब
के नाम से जाना गया, तब भी इसके प्रायोजक पारसी समुदाय के धनाढ्य माने जाने वाले
उद्योगपति टाटा और वाडिया जैसे पारसी व्यापारी थे। इसी क्लब नें 1889 में गोरो के
क्लब बांम्बे जिम खाने को हरा कर एक राजनैतिक जीत हासिल की थी, जिसके तहत बंबई में
पार्क की जमीन पर हक भारतियों का हो गया था। इस क्लब के धार्मिक और राजनैतिक
निहतार्थ निकले और धर्म आधारित क्लब उपजने लगें, जिनमें हिंदू जिम खाना इस्लाम जिम
खाना सामने आने लगें। इन क्लबों को आसानी से मान्यता भी मिलती रही क्यूकिं इससे
समाज आसानी से राजनैतिक और धार्मिक धड़ों में बटा रहता था, औऱ अंग्रेज यहीं चाहते
थे। इन क्लबों ने देश में नस्लीय और सांप्रदायिक आधारों पर संगठित करने की रियावत
डाली। आज भी भारत अपने बहुत सारे मसले क्रिकेट डिप्लोमेसी के जरिए सुलझाता रहता
हैं, इस तरह से क्रिकेट और राजनीति के जुड़ाव का तरीका बदला पर प्रकृति अभी भी
वहीं हैं, जिसमें इस क्रिकेट के पीछे का खेल कुछ और ही होता हैं। तब भी इस के
प्रायोजक और आयोजक धनाढ्य लोग थे और आज भी यह खेल उद्योगपतियों और पूजीपतियों के
हाथ की कठपुतली बना हुआ है।
इसी
पूजी के अथाह भंडार को देखते हुए कैरी पैकर ने वनडें क्रिकेट को, जो कि अपने शुरूवाती
दौर में ही था, उसमें पूजी की अथाह
संभावनाओं को पूरी तरह ना केवल पहचाना वरन 51 खिलाडियों को बागी बनाकर 2 सालों तक वर्ड सीरिज क्रिकेट के नाम से
समांतर गैर अधिकृत टैस्ट और एकदिवसीय मैचों का आयोजन करया। इस पूरे सर्कस में
रंगीन वर्दी, हेलमेट. क्षेत्ररक्षण के नियम, रात को क्रिकेट खेलने का चलन औऱ प्रसारण
के अधिकारों का जन्म हुआ। खेल के इस रूप नें खेल के अंदर छुपे बाजार के
जिन्न को बाहर निकाल दिया, और ये बाजार आज पूरी तरह से इस खेल पर हावी हैं। जिसमें खेल के नाम पर कुछ और ही खेला जा रहा हैं।
कुछ ऐसा ही वाक्या आईपीएल के शुरू होने से पहले आईसीएल और बीसीसीआई विवाद के रूप
में आया, जिसें बाद में ताकतवर संस्था बीसीसीआई द्वारा आईसीएल को कुचल दिया गया,
और खुद की एक बड़ी मंडी सजा कर आईपीएल के रूप में आया।
जिसमें
सब कुछ बिकने वाला था। खिलाड़ी से लेकर सब कुछ। और बिका भी सब कुछ। कुछ तहों की
पर्ते उधड़ गई तो उनके चिथड़े सामने हैं, लेकिन अभी भी बहुत बड़ा खेल पर्दें के पीछे
से ही खेला जा रहा हैं, जिसे ये पूजीपति औऱ उद्योगपति कभी सामने नहीं लाने देगें।
इसमें राजनैतिक और उद्योगपतियों की मिली भगत से इस खेल को पूरी तरह से कटपुतली का
खेल बना दिया हैं, जहाँ खिलाड़ी सिर्फ और सिर्फ अपने मालिक की गुलामी करता है। खेल
भावना, सीनियर- जूनियर का सम्मान, खेल की तकनीकि, नियम सब पैसों के आगें बौने बने
हुए हैं। गौतम गंभीर और विराट का किस्सा हो या हरभजन और श्रीसंत का नाटक सब इसी का
एक हिस्सा भर हैं।
इस पूरे क्रम में आईपीएल के 6 सीजन बीत
चुके हैं, हर सीजन एक नया विवाद लेकर आता हैं, और हम उसे तमाशे का हिस्सा मान कर
आसानी से पचा ले जाते हैं, पर वह क्रिकेट के खेल का हिस्सा नही वरन एक ऐसे खेल का
हिस्सा होता हैं, जिसें हम टीवी के पर्दे और अपनी आँखों से देख भी नहीं सकते हैं।
इन मायनो में अगर आईपीएल को एक खेल ( पारंपरिक आंचलिक भाषा में) कहा जाए तो अतिशयोक्ति
नहीं होगी। जिसमें राजनीति, धार्मिकता और उद्योग जुड़ा ही रहेगा।
शिशिर
कुमार यादव