सोमवार, 26 मई 2014

आपदा की सुगबुगाहट


16 मई के बाद देश में नए निजाम का चयन हो गया है, यानी देश में राजनैतिक भविष्य के बादल छट चुके हैं। अब देश उन तमाम समस्याओं की ओर फिर से लौटेगा, जिन पर पिछले कुछ महिनों से उसका ध्यान ही नहीं गया है। कृषि प्रधान देश में मानसून एक प्रमुख विषय होगा। भारत में मानसून जून के पहले सप्ताह से लेकर दूसरे सप्ताह तक देश के बडे भू – भाग में फैल जाता है। इसमें देरी देश की बड़ी जनसंख्या के माथे पर बल ला देती है। इस साल कुछ इसी तरह की सुगबुगाह चुनावों के शोर के बीच से आने लगी थी, जो भारतीय मानसून की चिंता का विषय है। चुनावी शोर के बीच छन छन आ रही खबरों ने इस ओर ड़र को बढाया ही था।
यह खबर है अल-नीनो के सक्रिय होने की खबर। विश्व की दो प्रमुख संस्थाए आस्ट्रेलिया की व्यूरों ऑफ मीटिरिओलॉजी तथा अमेरिका की क्लामेट प्रिडिक्शन सेंटर ने वर्ष 2014 में अल-नीनो के सक्रिय होने का अनुमान जारी किया है। इसी आधार पर विश्व की प्रमुख ग्लोबल रेटिंग ऐजेन्सी मूडीज ने भी भारतीय मानसून के लिए चिंता जतायी है। अपने इस साल के आर्थिक आकलन में भारतीय अर्थव्यव्स्था को 4.5 - 5.5 फीसदी के बीच आँक रही हैं। इसी प्रकार की झलक भारत की प्रमुख रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के अनुमान में साफ देखी जा सकती हैं, जिसने अपनी रिपोर्ट में वित्त वर्ष 2014-15 के लिए भारत की आर्थिक विकास दर 6 % से घटा कर 5.2% कर दिया है। अगर यह अनुमान सही निकले तो निश्चित ही भारत 2013 के बाद 2014 में एक बार बड़ी आपदा का सामना करेगा। अल-नीनो के प्रभाव से सन 2002, 2004, 2009 में सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ा था। जिसमें 2009 की स्थिति सबसे अधिक भयावह थी। जिसने देश के कई हिस्सों में अकाल की स्थितियां पैदा कर दी थी और देश की तमाम खाद्य सुरक्षा योजनाओं के सामने संकट खड़ा कर दिया था।

अल-नीनो दक्षिण अमेरिका में पेरू, इक्वाडोर के आसपास प्रंशात महासागर के समुद्री तापमान के बढ़ जाने के कारण उपजने वाली प्राकृतिक स्थिति है। जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव मानसून पर पड़ता है। तापमान वृद्धि से मध्य और पूर्वी प्रशांत महासागर में हवा के दबाव में कमी आने लगती है। इसके प्रभाव से विषुवत रेखा के ईर्द- गिर्द चलने वाली ट्रेड विंड कमजोर पड़ने लगती है। यही हवाएं मानसूनी हवाएं है, जिनसे वर्षा होती है। इनके कमजोर होने से मानसून धीमा पड़ जाता है। जिसके चलते भारत मे मानसून अस्त-व्यस्त हो जाता है। असंयमित मानसून सूखे की स्थिति को पैदा करता हैं, जिससे देश की कृषि विकास पर व्यापक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिसका सीधा प्रभाव भारतीय आर्थिक विकास पर पड़ता है। सिचाई, पेयजल उपलब्धता, भूमिगत जलस्तर में कमी, बाधों में जल की कमी जिससे उर्जा उत्पादन में कमी, कीमतो में अत्यधिक वृद्धि, खाद्यान्न उत्पादन में कमी जो देश की खाद्य सुरक्षा पर ही सवाल खड़ा करने वाला होगा।
अब सवाल ये उठता हैं कि अगर विश्व की तमाम अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं अल- नीनो के संबध में बयान जारी कर रही हैं, तो इस ओर भारत की संस्थाएं क्या कर रही हैं। इन चेतावनी के बावजूद भारतीय संस्थाएं अभी भी किसी तरह का आँकलन कर, किसी निर्णय पर पहुच पाने में असमर्थ हैं। मौसम संबधी भविष्यवाणियां करने वाली भारत का प्रमुख संस्था भारतीय मौसम विभाग इन अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की भविष्यवाणी को संदेह की नजर से देख रहा है। विभाग का मानना है कि यह सारी भविष्यवाणियां एक साजिश की तरह से की जा रही हैं, क्योंकि इससे भारत का कमोडिटीज और स्टॉक मार्केट पस्त होगा, जिसका फायदा आस्ट्रेलिया और अमेरिका को होगा। इस डर से लोग जमाखोरी करने लगेंगे, जो बाजार में कृतिम तंगी ला देगा। भारतीय मौसम विभाग इस विषय में अपनी भविष्यवाणी अगले माह जारी करेगा। हाँलाकि भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणियों की सटीकता पर हमेशा ही सवाल उठता रहा है।
भारतीय पहलू जो भी हो पर भारतीय संस्थाए अभी भी किसी विशेष निर्णय पर नहीं पहुच पाई हैं। इनमें से अगर कोई भी स्थिति भारत में उपजती हैं तो स्थिति भयावह ही होगी।। अगर अल-नीनो की स्थितियां उपजती हैं तो देश इस साल कमजोर मानसून की चपेट में आ जाएगा, और देश को सूखें जैसी गंभीर आपदा से रूबरू होना पडेगा, और अगर ऐसा होता हैं तो आपदा प्रंबधन के साथ साथ खाद्य सुरक्षा के सामने एक बड़ी चुनौती होगी, और पुराने अनुभव दोनों संस्थाओं की क्षमता पर एक बड़ा सवाल उठाते हैं। दूसरी स्थिति में अगर ये भविष्यवाणियां किसी प्रयोजन के तहत फैलायी जा रही हैं तो भी इन अफवाहों का असर निश्चित ही भारतीय बाजार और खाद्य सुरक्षा पर पडेगा। जमाखोरी बढेगी। वस्तुओं की कीमत में उछाल आएगा, और आपूर्ति के अभाव में रोजमर्रा की चीजे गरीबो के लिए ख्बाब में बदलते देर नहीं लगेगी। समय समय पर प्याज और दाल संकट इसके प्रमाण है। जमाखोरी की समस्या भारत का ऐसा कोढ़ है जिसको तमाम उपायों के बाद भी निपटा नहीं जा सका है, इनके पीछे कारणों की एक लम्बी लिस्ट है। अत: निश्चित ही इन दोनो स्थितियां भारत की जनता के लिए आपदा ही हैं।
इन आपदाओं का सीधा प्रभाव देश की उस जनता पर सबसे ज्यादा पड़ेगा जिसके निर्धारण में देश के तमाम अर्थशास्त्रियों और विद्वानों के पैमाने छोटे पड़ते रहे हैं, लेकिन वह हमेशा ही बड़ी संख्या में इस देश में रहती है, यानी गरीब। मानसून की विफलता देश के बड़े भू-भाग को प्रभावित करेगा, जिसके व्यास में देश के हर कोने का गरीब आ जाता है, जबकि अन्य आपदाओं में आपदा का प्रभाव भौगौलिक विशेष और वहां की जनता पर परिलक्षित होता है। ऐसे में दोनो स्थितियों से निपटने के लिए ईमानदारी भरे प्रयासों की जरूरत होगी, वरना परिणाम भयावह ही होगें।
इन सदिग्ध परिस्थितियों में ऐसा क्या किया जाए, कि इन दोनो स्थितियों का प्रभाव कम किया जा सके। अगर सही से आंकलन करें तो दोनो ही स्थितियां खाद्य सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। अगर किसी तरह खाद्य उपलब्धता को सुनिश्चित किया जा सके, तो इस आने वाली आपदा के प्रभाव को कम किया जा सकता है। समुचित प्रंबधन, वितरण और उपलब्धता सुनिश्चित कर सके तो इन दोनो ही स्थितियों (सूखा और जमाखोरी) से आसानी से निपटा जा सकता है, और इनके प्रभावों को न्यूनतम किया जा सकता है। इसके लिए सबसे पहले इस वर्ष हुए उत्पादन का समुचित भंडारण और उसके सुरक्षित रख रखाव किये जाने की जरूरत है ताकि इसका उपयोग विषम परिस्थितियों में किया जा सके।
भारत में इस ओर भी तंत्र में काफी कमजोरियां है। देश के प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा भारत की भंडारण और रखरखाव की समस्या को इन आपदाओं का सहयोगी मानते हैं और कहते हैं कि हम समुचित भंडारण क्षमता उपलब्ध करा पाने में विफल रहे हैं, जिसकी वजह से उत्पादन होने के बावजूद हम कुछ भी सार्थक नहीं कर पाते है। यह सच हैं कि कृषि उत्पादनों में भारत ने आशातीत वृद्धि की है लेकिन आज ही भंडारण और उसके रखरखाव में हम पूर्णतया विफल रहे हैं। उदाहरण के लिए पहली अप्रैल तक पंजाब में 143 लाख टन अनाज भंडारण की क्षमता थी लेकिन समस्या यह है कि इसमें से 121 लाख टन के लिए जगह पहले वाली फसलों से ही भरी हुई है। इस वर्ष अकेले पंजाब से तकरीबन 140 लाख टन गेहूं की खरीदारी की उम्मीद है। इसमें से 70 फीसद हिस्सा खुले में रखा जाएगा। प्लेटफार्म के किनारे तिरपाल से ढककर बोरियों में भी अनाज रखा जा रहा है। इससे कुल 114 लाख टन अनाज के लिए अतिरिक्त जगह उपलब्ध हुई है, लेकिन इसमें से 40 लाख टन जगह पहले से भरी हुई है। हम जानते हैं कि खुले में पड़ा खाद्यान्न न केवल खराब होता जाता है, बल्कि यह मानव स्वास्थ्य और यहां तक कि पशुओं के उपभोग के लिहाज से भी खाने योग्य नहीं होता।
ऐसे मे जिस उपाय को प्राथमिक सीढी के रूप में उपयोग किए जा सकता है, वे खुद ब खुद टूटी हुई बैशाखी के सहारे चल रहा हैं। भारत इस ओर अपने पुराने अनुभवों से पाठ तो पढता हैं लेकिन उससे बचने के प्रयासों की ओर अपनी सुस्ती नहीं छोड़ पा रहा है। ये प्रशासनिक धीमापन भी इस तरह की आपदाओं का सहयोग ही करते है। ऐसे में प्रतिस्पर्धी विश्व में अपनी स्थिति को मजबूत बनाए रखने के लिए भारत को मजबूत प्रंबध तंत्र को विकसित करने की जरूरत हैं ताकि आपदा के प्राथमिक प्रभावों को जो अन्य चरणों की अगुवाई भी करता है, उनसे बचा जा सके।
हाँलाकि दोनो ही स्थितियां भविष्य के गर्त में हैं लेकिन इनकी सुगबुगाहट से यह तो स्पष्ट हैं कि अगर यह उपजती हैं तो 2013 के बाद भारत एक और बड़ी आपदा का साक्षी होगा, जिसमें हमारे प्रंबध तंत्र की कमी की भी अपनी हिस्सेदारी होगी। उम्मीद करते हैं कि नई सरकार के निजाम इस सुगबुगाहट को गंभीरता लेगें, और विभिन्न स्तरों पर ईमानदारी भरे प्रयास करेगें।
                                                                                                                       शिशिर कुमार यादव