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गुरुवार, 16 जनवरी 2014

दंगो की बर्बरता को सामाजिक पहल से ही रोका जा सकता है।


दंगें बर्बरता की निशानी होते हैं। सभ्य समाज के अवधारणा में दंगें उन काले धब्बों सरीखे हैं, जिन्हे कभी भी साफ नहीं किया जा सकता। कुछ इसी तरह मुजफ्फरनगर में घटित हुआ जिसमें हर दिन मानवता शर्मसार हुई। मुजफ्फरनगर से फैले दंगों के बाद, उत्तर प्रदेश सरकार की खूब आलोचना हुई। सरकार में बैठे प्रमुख बयानबीरो ने भी इसमें काफी मिर्च डाली, और रही सही कसर सैफई उत्सव के नाम पर आए हुए कलाकारों और उन पर खर्च हुए पैसों ने पूरी कर दी। सच में किसी भी सरकार का रवैया अपने ही नागरिको के प्रति निश्चित ही निंदनीय है। देश के तमाम राजनैतिक मंच से इसकी आलोचना जारी है, किंतु क्या सच में इन दंगों के बाद उपजी स्थितियों को सिर्फ और सिर्फ राजनीति के पैमाने और उससे जुडें सरोकार के भीतर सुलझाने की कोशिश सही होगी। निंसदेह इन उपजी स्थितियों में राजनैतिक हल और प्रयास एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता हैं, लेकिन राजनैतिक सीमाओं के इतर इस पूरे घटना क्रम को समाजिक तथ्यों के साथ समाजविज्ञान के खाँचों में देखने की जरूरत है, ताकि इस ओर हो रहे राजनैतिक प्रयासों को सामाजिक स्थिति में बदल कर, जमीन पर प्रभावित और पीडितों को सहायता दी जा सके।

   शामली जिले के काँधला नगर पालिका से मलकपुर के राहत शिविरों तक मिलने वाले हर दंगा पीडितों से बात करने पर एक बात जो उभर कर आई वो, अपने ही बगल वाले के प्रति उपजा अविश्वास। जिसके कारण वो विषम से विषम परिस्थितियों में प्लास्टिक शीट्स में सोने को तैयार है, अपनो को कच्ची कब्रों में दफनाने को तैयार हैं, फिर भी उन ईलाकों में लौटने को तैयार नही, जो ईलाके कभी उनकी पहचान रहे हैं। अपनों को खोने के गम के साथ अपनी जड़ो तक ना लौट पाने की परिस्थितियाँ सच में इन लोगों के जीवन के सबसे कठिन दौर का हिस्सा है।

सरकार राहत बाट कर खुश है और बचे लोगों को किसी राजनैतिक दल से प्रेरिक बता कर अपना पल्ला झाड रही है, वहीं राजनैतिक दल अपने लिए  राजनैतिक अवसर समझ कर अपनी अपनी नैतिकता के साथ खडे है। लेकिन इन सबके इतर टेंटों में रह रहे लोग अपनी जिंदगी के साथ हर रात दो- दो हाथ कर रहे है, पर उन जगहों पर लौटने के लिए तैयार नही है।
 यह अविश्वास यूँ ही नहीं पनपा है। यह अविश्वास इतना गाढा है कि आसानी से मिटाया भी नही जा सकता है। दंगों के इतिहास पर नजर डाले को कुछ एक अवसरो को छोड़ दे तो हम पाते हैं कि दंगे शहरों तक ही सीमित रहे है, गांवो तक इनकी आँच नहीं पहुच पाती थी। इसकी बड़ी वजह गांवों में सामाजिक संबध का मजबूत गठजोड़ होना। जिन्हे सोशल नेटवर्क कहा जाता हैं, इसके कई चरण होते है, पहले चरण में किसी वर्ग के अंतर्गत संबधो के साथ समाज बधा होता है, और दूसरा संबध दो भिन्न वर्ग के अंतर्गत होते है, जिनकी वजह से ग्रामीण समाज एक विशेष प्रकार का सामाजिक सुरक्षा के साथ रहता है। इन्ही गठजोडों मे उसकी आर्थिक, सामाजिक और मनौवैज्ञानिक आवश्यकताए पूरी होती है। इसीलिए दंगे शहरो में फैल जाते थे जहाँ के सामाजिक संबध कमजोर होते थे, किंतु गांवो तक आते आते ये खुद ब खुद दम तोड देते थे। सामाजिक सुरक्षा के जिम्मेदारी किसी एक वर्ग की ना होकर सभी वर्गों की होती है, जिसके कारण इस तरह की स्थितियाँ गाँवों में कम पनपती रही है।
लेकिन मुजफ्फरनगर औऱ शामली में फैला दंगा अपने आप में विशेष है कि जिन जगहो पर ये स्थितियाँ पनपी है, वहा ना इससे पहले कभी इस तरह का सांप्रदायिक दंगे की स्थितियाँ पनपी थी, और आस पास अन्य जिलों में हुए सांप्रदायिक दंगों (उदा. मेरठ) का चरित्र सदैव ही शहरी जनसंख्या  तक सीमित था। लेकिन इस बार पहली बार ना केवल इस इलाके ग्रामीण में दंगे हुए बल्कि इन दंगों ने उन इलाकों को और गांवो को चपेट में लिया जो सामाजिक सौहार्द के प्रमुख केंद्र हुआ करते थे। इसलिए इस ईलाके में उपजे अविश्वास ने ना केवल लोगों का अविश्वास इतना गहरा कर दिया हैं कि हर आयु वर्ग के लोगों में यह अविश्वास आसानी से पढा जा सकता है। यही वो अविश्वास है, जिसकी वजह से राहतराशि प्राप्त करने और तमाम आश्वासनों के बाद भी लोग अभी भी उन कठिन परिस्थितियों के साथ रहने के लिए तैयार है, लेकिन अपने घरों को लौटने को तैयार नही हैं।
 आखिर इस ओर क्या किया जाना चाहिए? जिन्हें उपाय में बदला जा सके। क्या सच में राहत राशि बाँट कर और लोगों को ग्रांम सभा की जमीने दे कर उन्हें बसा देना इन पीडितों के साथ न्याय होगा, अपराधियों पर मुकदमें चला कर उन्हे सजा मिल जाने भर से इस उपजे अविश्वास से कैसे ऩिपटेगे? यह बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल हैं, जिनके अगर जवाब नहीं खोजे गए तो निश्चित ही ऐसी सामाजिक परिस्थितियाँ पैदा होगीं जिनके परिणाम ना केवल दूरगामी होगें वरन आने वाले वक्त में स्थितियाँ और भी कष्टप्रद होगीं।
इसका सीधा और सरल उपाय यही है कि राहत शिविरों में रह रहे लोगों को सम्मान और मर्यादा के साथ उन्हे अपने अपने घरों तक वापस पहुचाया जाय और अपराधियों को अपराधी ही मानकर उन्हें सजा दिलाई जाए।सरकारे ये काम बिना सामाजिक जवाबदेही, दबाव और हिस्सेदारी के नहीं सुनिश्चित कर सकती है। समाज के अन्तर्निहित घेरों में सरकार की उपस्थिति किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं कर सकती जब तक समाज के विभिन्न वर्ग इसमें अपनी जवाबदेही नहीं तय करते। किसी भी समाज में अल्पसंख्यक वहाँ की जिम्मेदारी होते हैं, ऐसे में अल्पसंख्यकों के साथ हुई किसी भी ज्यादती की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी बहुसंख्यक वर्ग की है। जिनसे बचना किसी भी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं हो सकता है। दंगें बर्बर समाज का हिस्सा हैं, और बहुसंख्यकों के शामिल और उदासीन होने की वजह से ही दंगाई समाज के अमन चैन को लूटने में सक्षम होते है। ऐसे में जब एक स्थिति आप के हाथ से निकल गई है, तो सउन स्थितियों को सुधारने से बचने की जद्दोजहद एक बडी आपदा को आहुत करेगी। जिसमें ताकत की ही श्रेष्ठता है, और आप कब कमजोर वर्ग में शामिल हो जाएगे पता भी नही चलेगा।
    अगर ऐसा नहीं होता है और शरणार्थियों को अलग जमीन देकर नए घेटो (किसी विशेष स्थान पर इकठ्ठा होना) बनाने के सोच समाज में उस तरह के तनाव के केंन्द्र बन जाएगें, जो किसी वर्ग के लिए घृणा के केन्द्र होगे। ऐसे केन्द्र समाज में सामाजिक वैमनस्यता को बढावा देगें। इन केन्द्रों में रह रहे लोग भी अपना सब कुछ खो जाने और अपने प्रति हुए अन्याय के कारण अन्य वर्गों और समूहों के प्रति वैमनस्य भाव ही रखेगे। ऐसे में इस विकल्प पर विचार करके सामाजिक जवाबदेही से बचने सरीखा है। इससे गलती को सुधारने के बजाए, उससे लीपापोती करना सरीखा होगा, और इन आक्रोशों का उपयोग समाज को तोडने वाले भी उठा सकते है, जो की लम्बे दौर के लिए सामाजिक सौहार्द के लिए खतरा होगा।
ऩिसंदेह सामाजिक समस्या का राजनैतिक हल होता हैं, लेकिन राजनैतिक हल सामाजिक जवाबदेही से तय की जा सकती हैं। राजनैतिक हल बिना सामाजिक हिस्सेदारी और जवाबदेही के साथ नहीं तय किए जा सकते है। जब मसला दंगे सरीखा हो तो इसमें सामाजिक बर्बरता का तांड़व होता हो, उसमें बदलाव करने के लिए सामाजिक प्रयास ना केवल महत्वपूर्ण हो जाते है बल्कि इस और ईमानदारी से प्रयास की जरूरत है। इस समय चल रही बहसो जो कि सरकार की आलोचना कर रहे है औऱ दोनो पक्षों के पैरोकार है, उन्हे इस ओर ध्यान देने की जरूरत हैं कि वो सामाजिक सौहार्द को बनाने के लिए मंच बनाए ताकि सामाजिक बर्बरता के जो बीज दंगाईयों ने बो दिए है, उन्हे पेड़ बनने से रोका जा सके और लोगो का अपनी जड़ो और जमीनो पर विश्वास कर अपने कुनबों को लौट सके।

इस लेख को दैनिक जागरण ने अपने राष्ट्रीय संस्करण में 17 जनवरी 2014 को जगह दी है।

शिशिर कुमार यादव