उत्तर
प्रदेश के बदायूं में दो लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार और फिर उनकी हत्या के बाद मैं इस बार मुठ्ठी भीचे सड़को पर
नहीं था, और ना ही रातो को रिक्लेम करो या हम क्या चाहते आजादी सरीखे नारे लगा रहा था। मेरे अलावा भी बहुत सारे लोग इस
बार सड़को पर नहीं थे, जो 16 दिस्मबर 2012 के बाद कई दिनों तक सड़को पर किसी की
परवाह किए बिना सड़क पर तंत्र को जड़ से झकझोरने पर आमादा थे, और बिना कोर्ट के
निर्णय के आए, एक ऐसा माहौल बना दिया गया कि फाँसी के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था।
यह स्पष्ट नहीं हो रहा इस
बार हम लोग सड़क पर क्यूँ नहीं थे? आखिर अंतर क्या था इस घटना और 16
दिसम्बर की घटना में?
यहाँ एक नहीं दो जिंदगियों को लाशों में तब्दील कर दिया गया। बर्बरता की सीमा कही
से कमतर नहीं थी, बलात्कार के बाद जिंदा पेड़ पर टांग दिया गया। पोस्टमार्टम
रिपोर्ट इसकी गवाह है, कि बलात्कार के बाद उन्हें मारा गया, वो भी नृशंस तरीके से,
फिर भी हम सड़को पर ना थे।
इन
सबके बाद आखिर ऐसी क्या कमी रह गई जो हमारी संवेदना को उद्वेलित न कर सका और हमें
सड़को पर ना ला सका। क्या ये बलात्कारी और हत्यारे उस स्तर के नहीं थे जो 16
दिसंबर 2012 के थे। तो क्या मौसम खिलाफ था, दिसम्बर में तो हाड कपा देने वाली ठंडक
थी फिर भी हम सड़को पर थे। तो क्या पुलिस की भूमिका स्पष्ट नहीं थी? इस घटना में तो पूर्णतया मिलीभगत थी 16
दिसम्बर 2012 में पुलिस की गैरजवाबदेही थी फिर भी हमने कमिश्नर के कॉलर को पकड़
लिया था। इस बार जिस निजाम के खिलाफ जाना था वो बहुत ताकतवर था, ऐसा भी नहीं 16
दिंसम्बर 2012 में तो राज्य और केन्द्र दोनों के खिलाफ एक साथ खिलाफ खडें थे,
उत्तर प्रदेश की सरकार उनके सामने कमजोर ही है। तो मीडिया के कैमरे नही थे? ऐसा भी नहीं हैं, राजनेताओ के भ्रमण
कार्यक्रम के साथ साथ उत्तर प्रदेश की सरकार के खिलाफ काफी कुछ चला है। तो फिर,
क्या 16 दिंसम्बर 2012 के बाद कड़े कानून आ गए इसलिए हम निश्चिंत हो गए थे? ऐसा भी नहीं कानून के बाद बलात्कार की घटनाओं
के आँकडे उठा कर देखिए, बलात्कार की घटना में कही कोई कमी नहीं आई है । तो आखिर
वजह क्या है?
लड़कियों
कमजोर वर्ग से थी इसलिए वो हमारे सरोकारो को ना झकझोर पाई। उनका ग्रामीण होना, हमारी बौद्धिक और सिविल
सोसाइटी के समर्थन पाने लायक नहीं था, हां यही वो वजहें हैं जिनकी वजह से हम
सड़को पर नहीं उतरे। 16 दिसम्बर 2012 के वक्त भी यह सवाल उठा था कि आखिर अब तक चुप
क्यूँ थे, जबकि बलात्कार हर रोज देश के किसी ना किसी हिस्से में हकीकत का हिस्सा
है, और उनकी बर्बरता भी किसी भी मायने में किसी घटना से अलग नही थी। उस वक्त भी
हमारे पास जवाब ना था लेकिन मामला हमारे वर्गीय हिस्से से जुड़ा हुआ था और उस वक्त
इस बात से संतोष कर लिया गया कि कोई नहीं, पहले नहीं तो अब ही सही नारी सम्मान और
अधिकार के प्रति शायद समाज में इस तरह के विरोध के बाद चेतना का प्रचार प्रसार हो
जाए और लम्बे दौर से जिसे यूँ ही सह लिए जाने वाले अपराधा के खिलाफ नाकेबंदी कर दी
जाए। उस वक्त भी कानून और अपराध पर कठोर दंड को सीमित भूमिका में ही आँका गया था।
सामाजिक चेतना और सामाजिक विरोध की संस्कृति को सिंचित करने पर ही बल दिया गया था।
लेकिन 16 दिसम्बर 2012 के बाद काफी कुछ बदला पर विरोध करने की वर्गीय चेतना में
कोई खास परिवर्तन नहीं आया, जिसकी वजह से हर दिन कोई ना कोई इस जघन्य अपराध का
शिकार बनता रहा और हम चुपचाप अपने सघर्ष को पूर्ण मानकर अपनी अपनी सामाजिक
सरोकारिता से पल्ला झाड आराम फरमा रहे थे। आँकडे गवाह हैं और जंतर मंतर में बैठी
भागाणा के दलित महिलाएं हमारी वर्गाय चेतना में शून्य हो चुकी सामाजिकता और
सरोकारिता पर तमाचा है।
महिलाओं
के अधिकारों की एक छोटी लड़ाई लड़ कर हम कानून के नियमों में परिवर्तन तो करा ले गए, अपराधियों को दंड भी दिला दे जाएगें, लेकिन उस संस्कृति को यू ही फलने फूलने के लिए
छोड़ दिया जिसकी छाव में इस तरह के अपराधों की पौध को ना केवल सीचा जाता हैं वरन
उन्हें संरक्षित भी किया जाता है। सबसे बड़ा सवाल यह हैं कि समाज इस तरह के
अपराधों को किन खाँचों में देखने का प्रयास करता है? समाज का
एक वर्ग जहां विरोध कर के परिवर्तन करने की मांग करता हैं वहीं दूसरी और देश के हर
कोने में बलात्कार, भ्रूण हत्या और महिलाओं के प्रति अपराध जारी रखता
हैं, और इन परिस्थितियों में हम अपनी लडाई को पूरा मानकर चुप बैठे है। तो क्या ये सघर्ष को बीच में छोड़ देना सरीखा नहीं हैं। ऐसे
में यह सवाल अपने आप में महत्वपूर्ण हो जाता हैं कि एक कठोर कानून कहाँ तक महिलाओं
और उनके अधिकारों को सुरक्षित कर सकेगा। जबकि समाज महिलाओं के प्रति अपनी सामंती
और पित्रृसतात्मक सोच से बाहर निकलने के लिए तैयार ही नहीं हैं। जिस समाज में
महिलाओं से जुडे अपराधों में महिलाओं को अपराधी बनाने की प्रवृत्ति प्रमुख हैं, उस समाज में इस तरह की चुप्पी, और महिला की
पृष्ठभूमि और वर्ग को
देखकर कर अपनी आवाज उठाना केवल आत्ममोही प्रयास होगा।
किसी समाज में निम्न जाति के लड़की के साथ
बलात्कार जैसे अपराध को अंजाम देने के बाद उसका सार्वजनिक रूप से मार कर पेड से
लटका कर प्रदर्शन करना उसी बर्बर मानसिकता का प्रमाण हैं जो पुरूषों का महिलाओं के
प्रति असहिष्णुता, संप्रभु जाति का अपने से निम्न जाति के प्रति सांमती प्रवृत्ति
का द्योतक है। अगर इस तरह की संस्कृति का विरोध नहीं किया गया तो हम सामाजिक
गैरजिम्मेदारी औऱ राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव को अनदेखा कर रहे है। जो इनका मूल
हैं। जो आज भी नारी अधिकारों के रास्ते तय कर रहें हैं वो नारी देह को आजाद करने
के लिए तैयार ही नहीं हैं। हम किस ओर लड़ रहे हैं यह एक महत्वपूर्ण सवाल हैं। हम
लगातार असली जड़ को लगातार अनदेखा किए जा रहे हैं जिनसे हमें सच में लडना हैं। हम
कब तक अपराधियों से अपराध के लिए लड़ते रहेगे ? इस लडाई से राजनैतिक
जिम्मेदारी को एक हद तक जवाबदेह बना लेगें लेकिन सामाजिक जवाबदेही के इस तरह की
किसी भी राजनैतिक जवाबदेही का कोई औचित्य नहीं होगा। सामाजिक जवाबदेही के बिना
हमारी लडाई अधूरी ही रह जाएगी और राजनैतिक जवाबदेही को भी बच निकलने का पूरा मौका
मिल जाएगा जैसा कि खाँप पंचायतो के मामले में हआ था। ऐसें में लडाई राजनैतिक दबाब के साथ साथ सामाजिक
जवाब देही की ओर मोड़ने की भी जरूरत हैं, जहाँ पितृसत्तात्मक समाज के अलोकतांत्रिक
नियमों के तलें महिलाएं एक लम्बे दौर से अपने लोकतात्रिक हको का बलिदान करती आ रही
हैं।
इसीलिए महिला अधिकारों के लिए जलाई गई मशाल को
अपनी सुविधा के अनुसार कुछ जगहो पर आलोकित करना कही न कही, सामाजिक तानेबाने को
सामाजिक जवाबदेहिता से बच निकलने का मौका देने शरीखा होगा। इसीलिए विरोध स्थान,
पृष्ठभूमि, वर्ग और जाति के इतर किए जाने की जरूरत है, जहाँ महिला की पहचान किसी
दूसरे खाँचों में ना खीची जाए। इस घटना के बाद समाज से किसी बड़ी प्रतिक्रिया का
ना आना स्पष्ट करता हैं कि विरोध भी विरोध स्थान, पृष्ठभूमि, वर्ग और जाति में बटा
हुआ है, और महिला अधिकारो की लड़ाई लड़ने वाले किसी एक वर्ग या पृष्ठभूमि से आने
वालों के लिए ही विरोध की पाठशाला खोलेगें। अगर ऐसा जारी रहेगा तो निश्चिंत रहिए
वो वर्ग भी जल्द ही इसकी जद में घिरा दिखेगा जिसके रहनुमा आप बने हुए है। 16
दिसम्बर की घटना उसी का एक प्रमाण थी। जरूरत वर्गीय चेतना के इतर महिलाओ के
अधिकारों के लिए ईमानदारी भरे आंदोलन की ताकि आने वाले वक्त में आधी आबादी की
आजादी सुनिश्चित की जा सके।
शिशिर कुमार यादव
इस लेख को दैनिक जागरण ने अपने राष्ट्रीय संस्करण में 10 जून 2014 को जगह दी है।