सोमवार, 22 जुलाई 2013

राजनैतिक मरीचिका साबित ना हो खाद्य सुरक्षा अध्यादेश

देश में खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के जारी होते ही एक बार फिर से गरीब और गरीबी मुख्य धारा की चर्चा का विषय हैं। जो आम दिनों में सामान्यतया चर्चा से लगभग गायब ही रहते हैं। खाद्य सुरक्षा अध्यादेश उन दो तिहाई लोगों के भोजन की गांरटी की चर्चा हैं, जिन्हें सरकारों ने एक लम्बें समय तक अनेदेखा किए रखा और इन्हें आकड़ों की भाषा में उलझाएं रखा। सरकारी आकड़े जहाँ गरीबों को 78 प्रतिशत से लेकर 37.2 प्रतिशत तक आँकते रहें, तो वहीं कुपोषण की दरें विभिन्न सर्वें में 42 प्रतिशत से 45 प्रतिशत के बीच (0-6 साल के बच्चों मॆ) छिटकती रही। इन सब के बीच 11 से 18 वर्ष के किशोर खुद को शारीरिक विकास के पैमानें पर अल्पविकसित ही पाते रहें। बाजार की खाई ने लगातार खाद्यानों और पोषण से एक बड़े वर्ग को दूर ही रखा। ऐसें में अब जब सरकार खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लेकर आई हैं तो संभावनाओं के साथ तमाम आशंकाओं ने भी घेर लिया हैं। जो इस कार्यक्रम के भविष्य की कार्ययोजना पर एक गंभीर चिंता उभारता हैं।
चिंता कई स्तरों पर हैं, सबसे बड़ी चिंता का विषय इस अध्यादेश को संसद के आगामी मानसूम सत्र में मंजूरी दिलानें को लेकर होगी। अभी यह अध्यादेश के रूप में देश पर लागू हुआ हैं, यानी अभी इसे आने वाले मानसून सत्र में इसें संसद की मंजूरी के लिए रखा जाएगां। जिसके हंगामेदार होने के लक्षण अभी से दिखने लगें हैं। राजनैतिक दलों नें इस ओर अपनी अपनी तैयारी शुरू भी कर दी हैं। आगामी चुनावों के राजनैतिक हित को साधने के लिए जिस तरह से सत्ता पक्ष ने आनन फानन में इस को अध्यादेश के रूप में लागू किया हैं उससे निपटने के लिए विपक्ष क्या, साथ खडी पार्टियां सपा, बसपा भी पीछे रहने वाले नही हैं। खाद्य सुरक्षा जैसें मुद्दे पर सरकार की अदूरदर्शिता का प्रभाव इस पूरे प्रक्रिया पर जरूर पड़ेगा, क्योंकि विपक्षी पार्टियां इस अध्यादेश के जरिए राजनैतिक हित को साधने के लिए सत्ता पक्ष को मौका नहीं देंगी। जिससे इस महत्वपूर्ण बिल जिसका इतने लंबे समय से इंतजार किया गया वो एक तुच्छ राजनीति की भेट भी चढ सकता हैं। ऐसी स्थिति में देश की जरूरतों के आवश्यकताओं के अनुसार खाद्य सुरक्षा पर एक गहन चर्चा हो जाए इस ओर भी भरोसा रख पाना कठिन ही होगा।
दूसरी चिंता का विषय इसके वितरण प्रणाली की वर्तमान प्रावधानों के साथ साथ भविष्य में प्रणाली में होने वाले परिवर्तनों के मद्देनजर हैं। हाँलाकि अभी सरकार इसें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से शुरूआत करने वाली हैं, जिसके तहत वह प्रति व्यकित 5 किलों अनाज देने का प्रावधान रखा हैं। जिसमें ग्रामीण ईलाकों से 75 प्रतिशत और शहरी ईलाकों से 50 प्रतिशत जनता को इसके दायरे में लाया जाएगां। जिसमें 1 रू प्रति मोटा अनाज, 2 रू प्रति किलों गेहूँ औऱ 3 रू प्रति किलों चावल दिया जाएगा। साथ ही साथ 6000 रू का मातृत्व लाभ और 6 से 14 साल के बच्चों के लिए पका पकाया भोजन और अत्यन्त गरीबों को अन्त्योदय योजना के तहत 35 किला अनाज कानूनी अधिकार के साथ मिलेगा। इसके लिए सरकार को प्रतिवर्ष 125000 करोड़ धनराशि की आवश्यकता होगी। निश्चित ही यह एक महत्वाकांक्षी योजना होगी।
लेकिन फिर भी इसके संचालन को लेकर चिंता हैं, यह योजना देश में पहली योजना नहीं होगी जिसें जन वितरण प्रणाली के द्वारा संचालित किया जाएगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से कुछ इसी तरह की योजनाएं पहले से भी चलाई जा रही हैं, लेकिन इस योजना में अंतर सिर्फ इतना होगा कि अब तक जहाँ सरकार पहले से चल रही योजनाओं को कल्याणकारी योजना की तरह चला रही थी अब इसें जनता के अधिकार के रूप में सुरक्षित करेगीं। जिसके तहत यह (खाद्य सुरक्षा) आम जनता का कानूनी अधिकार होगा, जिसें न्यायिक हस्तक्षेप द्वारा कार्यान्वित कराया जा सकता है। इस तरह यह खाद्य सुरक्षा में व्यक्ति अपनी हकदारी सुनिश्चित करता हैं। लेकिन सवाल हैं, कि संचालन होगा कैसें। क्या वर्तमान व्यवस्था के कंधों से ही इस महत्वाकांक्षी योजना का संचालन होगा, और अगर ऐसा होता हैं तो क्या यह व्यवहारिक होगा, कि जिस तंत्र के लिए योजना आयोग का खुद का मानना हैं कि लोगों तक 1 रूपया लाभ पहुचाने में सरकार को 3.65 रूपया खर्च करना होता हैं उसी से इस योजना का विस्तार किया जाए।
हाँलाकि सरकार कुछ हद तक इस बार के राष्ट्रपति के सयुक्त सदन के अभिभाषण में संकेत दे दिए थें कि इस योजना को भी अतत: नकद हस्तांतरण माध्यम से ही संचालित की जाएगी। हाँलाकि बढते दबाव के कारण अभी ऐसा नहीं किया हैं लेकिन भविष्य में इस व्यवस्था को जारी रखने की संभावना कम ही नजर आती हैं। तो सरकार विकल्प रूप में नगद हस्तांतरण की प्रक्रिया लागू करेगी। ऐसें में सरकार खाद्य सुऱक्षा में इस प्रयोग में गरीबों की खरीदने की शक्ति को बढा कर खाद्यानों के दाम को बाजार के हाथों में सौप देगी ऐसें में खाद्य सुरक्षा के बजाय यह व्यवस्था बाजार सुरक्षा में परिवर्तित हो जाएगी । मांग को बढता देख बाजार में खाद्यों के दाम में अतिशय वृद्धि होगी ही यह अर्थशास्त्र मूलभूत सिद्धान्त हैं। ऐसें में गरीबों को खाद्यान्नों को महगी दरों पर खाद्यान खरीदना होगा। नगद हस्तांतरण के आते ही केन्द्र सरकार खाद्यानों के मूल्य तय करने वाली सेन्ट्रल इश्यू प्राइस विधि को से बाजार को नियत्रित करने का नैतिक हक भी खो देगी, क्यूकि अभी तक सरकार इसी सेन्ट्रल इश्यू प्राइस प्रणाली के तहत बाजार को नियत्रितं करती रही हैं। ऐसें में यह खाद्य सुरक्षा के अधिकार को कैसे सुरक्षित रखेगी यह निष्कर्ष निकालना कठिन होगा। अभी भविष्य में किस तरह की व्यवस्था जारी की जाएगी यह सुनिश्चित करना कठिन होगा लेकिन इस और उपजने वाले खतरों को ध्यान में रखने की अत्यन्त आवश्यकता है।
इसके अलावा इस योजना में कृषि प्रणाली में सुधार ताकि लघु और सीमांत कृषको को बढावा, कृषि निवेश, कृषि अनुसंधान पर विकास, सिचाईं विकास, उचित प्रंबधन और विपणन सुविधाओं का विकास, भूमि का उचित प्रयोग को बढावा देकर खाद्य सुरक्षा को दीर्घ-कालीन परिदृश्यों में रखने का प्रयास किया जा रहा हैं। जिसके लिए एक कुशल राजनैतिक इच्छाशक्ति और योजना की आवश्यकता हैं। क्योंकि अलग अलग स्तरों पर इन और राज्य और केन्द्र सरकारे काफी पैसा खर्च करती रही हैं।
इन सब के मद्देनजर रखते हुए यह देखना बहुत ही जरूरी हैं कि जन अधिकारों में एक महत्वपूर्ण योजना किसी भी राजनैतिक नीतियों और आर्थिक कमियों की भेट ना चढ जाएं। देश के आर्थिक और सामाजिक स्थिति को देथते हुए इस ओर व्यवस्था के व्यापक प्रयास करने की जरूरत हैं ताकि सही अर्थों में खाद्य सुरक्षा सुरक्षित की जा सकें, और अगर इस व्यवस्था में अगर इस तरह की खामियाँ रह गई तो यह एक राजनैतिक एक और मरीचिका सरीखा होगा, गरीब जनता के लिए सिर्फ आभास होगा खाद्य सुरक्षा नहीं। इसलिए मरीचिका के प्रभाव को ना पनपने देने के लिए एक कुशल कार्यकारी औऱ समेकित योजना पर बल देने की जरूरत हैं।


शिशिर कुमार यादव.

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

बिट्टी जिसे जिंदा भूत निगल गए

सालों बीत जाने के बाद भी स्त्री सघर्ष की हर लड़ाई में वह चेहरा याद आ जाता हैं. ना जाने कितनी बार वहीं सवाल मन में उठता हैं कि जो इतना चुप रहा करती थी, वो इतना बोलने कैसे लगीं, और जब शांत हुई, तो चीखों के साथ, जिसकी आवाज किसी के कानों तक ना पहुची। जी हाँ वह एक रहस्मयी मौत मार दी गई। बिट्टी ( अवध प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में लड़कियों के लिए सम्बोधन) जिसे मैं जानता था, उस बिट्टी ने पगली तक का सफर कब तय कर लिया किसी को खबर नही. हाँ सहयोग सबने किया और सबसे ज्यादा सहयोग उन्होनें किया, जिन्हें वो अपना ही मानती थी.

दिसम्बर 2009 में दिल्ली से पत्रकारिता का पहला सेमेस्टर पूरा कर जब घर लौटा तो, पूछा कि कुछ नया ? तो छोटी बहन ने लगभग चिंतित स्वर में कहा अरे जानता है वो बिट्टी हैं ना पागल हो गई है, बहुत बोलने लगी है, किसी से भी बात करने लगती है, उसके घर वालों का कहना है कि उसे भूत लग गए हैं. खैर बहन ने खुद ही बात को काटते हुए कहा कि भूत - वूत कुछ नहीं, 15-16 साल की लड़की की शादी एक अधेड़ से कर दी तो पागल नहीं होगी तो क्या होगी ? मैंने  जब उसके जवाबों में अपने सवालों की उत्सुकता जोड़ी, तो संकोच भरे शब्दों में उसने कहा अरे  28 साल का लड़का एक लड़की के साथ जबर्जस्ती ही करेगा ना और वो थी भी तो थोडी सीधी, लड़की तो थी ही नहीं सिर्फ घर का काम करती थी. कितना काम करती थी, है ना ?”
अपनी बात को बल देने के लिए बहन ने मेरी ओर सवाल उछाल दिया था. (हमारे गांवो में घर के काम में पशुओं की देखभाल प्रमुख हैं जो सबसे बडा काम है). बहन अपनी बात में और जोड़ती हैं कि अब ससुराल वाले कहते हैं कि वो काम ही नहीं करती, शायद गर्भ से भी थी पर ठहरा नहीं तो अब वो उतना एक्टिव नहीं रहती और उसका मन भी नहीं लगता तो उसके ससुराल वाले उसे भूत चढने का बहाना कर गाँव छोड गए हैं, और गाँव वाले उसे चिढा चिढा कर परेशान करते हैं, ऐसें में वो थोड़ी सी मेंटल डिस्टर्ब हो गई, तो गाँव वाले उसे पगली कहने लगें. वो ना भी हो तो उसे पागल कर देगें. बहन ने लगभग एक सामजिक विज्ञानी की तरह पूरे कारण सहित व्याख्या कर डाली थी. मैं भी उससें पूर्ण सहमत था पर दोष और दोषी खोज लेने भर से बिट्टी को देने के लिए हमारे पास कुछ ना था.
खैर गाँव पहुचते ही बहन की हर बात अक्षरश: सही थी, बिट्टी बहुत बोलती पगली में बदल चुकी थी, चचेरे भाई ने मेरे सामने प्रमाण देने के लिए उसके पति का नाम ले लिया और वह शुरू हो गई गालियाँ देने. किसी ने कहा मैं भी हूँ तो आवाज में नरमी के साथ मेरी ओर बढ आई, लगभग पैर छूते हुए पूछा भईया कैइसे हय”? जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर घर में सब का हाल पूछ गई। मैं लगभग संशकित भाव से और थोडा सा असहज हो कर उसके सवाल को सुनता रहा। शायद मैं भी डर रहा था। बिट्टी हर सवाल चमकती आँखों से पूछ रही थी जिसमें बार बार एक ही सवाल था कि मेरी हालातों की वजह क्या है ? पर आस पास सवालों पर उठती हँसी उसके हौसले को तोड़ देते हैं और वो उदास भाव से अपने जवाब को लिए बिना ही बड़वडाती चली जाती हैं । 

इतनी सक्षिप्त मुलाकात के एक साल बाद खबरों में सुना की उसने खुद को आग ली. उसकी मौत भी एक रहस्य थी, वो जल कर मरी थी और 10 से 15 मीटर बाहर बैठे लोगों को उसकी चीखे तक नहीं सुनाई दी थी. सबको धुआँ उठने तक का इंतजार करना पड़ा था, पर हाँ वो मर जरूर गई थीं. उसके मरने पर काफी सवाल थे, जो समय के साथ खत्म होते चले गए. गांव के जिम्मेदार लोगों ने पुलिस केस से बचा कर उसको अंतिम यात्रा पर भेज अपने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली. सब विस्मित थे. शायद सब को सवालो के जवाब पता था पर जवाबदेही  के साथ उन सवालो के जवाब कोई नहीं देना चाहता था. कोई भी उन सवालों की ओर ध्यान नहीं दे रहा था जिन सवालों को बिट्टी ने हर दिन हर उस इंसान से पूछा, कि मेरी ये हालत क्यों हैं? वो हर इंसान से यही कहती तुमने तो मुझें देखा हैं मैं ऐसी तो ना थी, फिर मेरे ऐसे होने की वजह क्या हैं ?
आज भी वे सवाल जिंदा हैं, क्योंकि किसी ने उन सवालों के जवाब नहीं दिए थें. ऐसे में कोई ना कोई बिट्टी आपके अपने गाँव में आप से इस तरह के सवाल पूछते मिल सकती हैं.उस बिट्टी को तो कोई जवाब नहीं मिला था और शायद अनुत्तरित चेहरों को देख कर वो यहाँ से चली गई. पर उसके सवालो की चीख आज भी बरकरार है. जिसे हम लगभग अनसुना करते आ रहे हैं. खैर जो उसकी जिंदा चीखों को ना सुन सके वो इन सवालो की चीखों को क्या सुनेगें। उन सवालो के जवाब कोई और ना माँग ले इसलिए उन सवालों को पूछने वाले को पगली बना कर अपने समाज से अप्राकृतिक मौत मरने के लिए मजबूर कर दिया और सवालों को पगली के सवालों में तब्दील कर दिया. जब भी स्त्री अधिकारों की बात आती हैं तो मैं ऐसे समाज से स्त्री अधिकारों के लिए मांगू भी तो क्या मांगू जो स्त्रीयों को सिर्फ अप्राकृतिक मौते ही उपहार में दे सकता हैं (बिट्टी की मौत का जिम्मेदार मैं खुद को भी मानता हूँ क्योंकि उस समाज का मैं भी हिस्सा था और हूँ भी.

यह लेख जनसत्ता अखबार में 13 जुलाई 2013 में दुनिया मेरे आगे के कालम में छपा हैं । 


शिशिर कुमार यादव 

शनिवार, 6 जुलाई 2013

आपदाओं से बचाव के बहाने सामाजिक न्याय

उत्तराखंड की बाढ के बाद देश में, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को लेकर एक जोरदार बहस छिड़ी हुई हैं। लगभग सभी विचारक एकमत होकर उन सभी मानवीय मूल्यों की आलोचना कर रहे है जिसने प्रकृति के स्वरूप को बदल दिया हैं। निंसदेह बदलती मानवीय प्राथमिकताओं में प्राकृतिक संसाधनों को अतिशय शोषण किया जा रहा हैं जिसका खामियाजा बदलती प्राकृतिक स्थिति और भयावाह आपदाओं के रूप मे करना पड़ना रहा हैं। महाराष्ट्र के सूखे के बाद उत्तराखंड़ की बाढ तो बस कुछ उदाहरण स्वरूप हैं।  

   उत्तराखंड की बाढ के कई दिन बीत जाने के बाद भी बचाव कार्य पूरा नही हो पाया हैं। सेना के उतरने के बाद  बचाव कार्य में तेजी तो आई हैं लेकिन परिस्थियां अभी भी विपरीत हैं। निसंदेह ये परिस्थितियां आपदा की गंभीरता को दर्शाता हैं, और बतलाता हैं कि विभीषिका का स्तर मानवीय क्षमताओं से कहीं अधिक है। प्राकृतिक आपदाएं बार बार एक ही पाठ सिखलाती हैं, जिनमें स्पष्ट संदेश होते हैं कि प्रकृति में अत्यधिक परिवर्तन मानव जाति के लिए सिर्फ और सिर्फ अहितकर होगा। उम्मीद हैं जल्द ही लोगों को सुरक्षित निकाल लिया जाएगां और उसके बाद आपदा के कारण हुई हानि का पूरा पूरा मूल्याकंन हो सकेगा, और हम इस आपदा से कुछ समझ विकसित कर सकेगें ताकि आने वाली आपदा के लिए खुद को तैयार कर सकेगें।
पहले चरण का बचाव लगभग किनारे हैं, और बचे लोगों को लगभग सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया हैं। अब दूसरे चरण की बारी है। दूसरे चरण का बचाव एक महत्पूर्ण होगा, जो ना केवल आपदा का सही मूल्याकन करेगा वरन आने वाले वक्त में आपदा प्रंबधन को किन किन भागों में काम करने की जरूरत हैं उस ओर भी निर्देशित करेगा। दूसरे चरण के मूल्यांकन में हमें आपदा के बाद सामान्य जन जीवन लाने के लिए एक व्यापक कार्य योजना की जरूरत होगी वरना आपदा के बाद ये राहत कार्य भी एक आपदा सरीखा सा होगा। इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण कार्य आपदा से प्रभावित लोगों को पुनर्स्थापित करना सबसे महत्वपूर्ण चुनौती होगी। इस चरण में ही शायद उन सब पर ध्यान भी जाएगां जिनको अभी तक लगभग प्रंबधन तंत्र नें वो सुविधाएं उपलब्ध कराने में अक्षम रहा हैं, वे उत्तराखंड के निवासी हैं। मीडिया के कैमरें और पन्नों में भी ये पूरी तरह गायब थें। लेकिन दूसरे चरण में  यही सबसे प्रमुख चुनौतिया होगें, क्योंकि इनको सामान्य जिंदगी में लाना काफी कठिन होगा, क्योंकि इस आपदा में इनके घर और रोजगार का बड़े पैमाने पर धक्का लगा हैं।
आपदा के बाद सबसे महत्वपूर्ण काम आपदा से प्रभावित उन लोगों की पहचान करना होगा जो सच में आपदा ग्रस्त हैं, जो कि एक कठिन चुनौती होगी। इस तरह की आपदा के बाद के बाद लाभ के कारण हर कोई अपने को आपदा ग्रस्त दिखाने की कोशिश करने लगता हैं ऐसे में आपदा में सचमुच प्रभावित जिन्हें प्राथमिक सहायता की जरूरत होती हैं, उनकी पहचान करना सबसे कठिन हो जाता हैं।


किसी भी आपदा का प्रभाव सभी पर बराबर नही पड़ता हैं। समाज में संवदेनशील जैसें गरीब, पिछड़े, महिलाओं, बच्चों पर इसका प्रभाव काफी अधिक पड़ता हैं। इसें इस उदाहरण से समझा जा सकता हैं, कि बाढ आपदा के ईलाके में ईटों के मकान को तुलनात्मक रूप से कच्चें मकान की तुलना में नुकसान कम होता हैं, इन अर्थों में कच्चें मकान में रहने वाली जनसंख्या का नुकसान अधिक और वे अधिक संवेदनशील होती हैं। इसी प्रकार दैनिक मजदूर जिसकी आजीविका का संसाधन दैनिक मजदूरी से संचालित होती हैं उनकी स्थिति इन आपदाओं में रोजगार के अवसरों की कमी के कारण पूर्णतया कुछ दिनों तक समाप्त हो जाती हैं, और नुकसान की मात्रा इन सब पर सबसे ज्यादा होती हैं। पुरूषों के तुलना में महिलाओं और बच्चों पर इसका प्रभाव अधिक पड़ता हैं। इस लिए आपदा प्रंबधन को इऩ सब पर अलग से ध्यान देने की जरूरत हैं।
लेकिन आपदा के बाद हुई विभिन्न रिसर्चेज जिनमें राहत कार्य को प्रभावित करने वाले कारकों पर प्रकाश डालने की कोशिश की गई हैं। उनमें तथ्य स्पष्ट रूप से यह उभर कर सामने आया हैं कि आपदा प्रंबधन की नैतिकता के आदर्श, हकीकत के मैदान पर आते ही, उन सभी सामाजिक कारणों से दूषित हो जाते हैं, जो सामान्य दिनों में स्थानीय लोगों के जीवन का हिस्सा होते हैं। जिनमें स्थानीय राजनीति, प्रभुत्व जाति का प्रभाव, आर्थिक रूप से सम्पन्नता का प्रभाव, लिंग के आधार पर प्राथमिकताओं का चयन ( जेंडर बॉयसनेस) आसानी से देखा जा सकता हैं। उदाहरण के लिए राहत नुकसान का आकलन करने वाला स्थानीय अधिकारी प्रभुत्व जाति के सम्बन्धों के कारण अधिकारी इन लोगों के नुकसान का आकलन सबसे पहले करता हैं और इनके लिए राहत राशि को को आपदा के के पहले 1 या 2 महिनें में जारी कर देता हैं, लेकिन निम्न सामाजिक और आर्थिक जातियों जो सबसे अधिक ज्यादा संवेदनशील होते हैं, उनके आकलन में तमाम प्रकार की बाधाएं, होती हैं, जिनकी वजह से आपदा के सामान्यतया 3 से 4 माह से पहले किसी भी बड़ी सरकारी मदद की ( ढहे मकान का मुआवजा, पशुओं की मृत्यु का मुआवजा) उम्मीद करना बेईमानी होता हैं। ऐसे में ये कमजोर तबका इन धनवानों से औने पौने दामों में ऋण लेते हैं, और चार माह बाद मिली मुआवजे की कीमत इन ऋणों के व्याज उतारने तक ही खत्म हो जाती हैं। ऐसें में जिनको आपदा ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुचाया हैं, आपदा राहत भी उनकी स्थिति में किसी भी प्रकार से सहायक नहीं हो पाती हैं। वो सतत चलने वाली समस्या में फस जाते हैं जिससे निकलनें का कोई ओर छोर आसानी से नहीं मिलता हैं।
ऐसे में एक बात स्पष्ट रूप से निकल कर बाहर आती हैं कि आखिर आपदा में स्थानीय प्रतिनिधित्व या सहभागिता किसकी, उनकी जो पहले से ही सक्षम हैं, या उनकी जो इन आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। लेकिन मौजूदा तंत्र तो सिर्फ कुछ सक्षम लोगो के नुकसान की भरपाई के लिए बना मालूम पड़ता हैं। जो सर्वमान्य रूप से स्थानीय सहभागिता का अच्छा उदाहरण नही हैं।
इसी लिए स्थानीय सहभागिता को बढावा देने औऱ इस पर कार्ययोजना वाले जिला आपदा निंयत्रण समिति को इस ओऱ ध्यान रख कर कार्ययोजना बनाने की जरूरत हैं ताकि सही मायनों में स्थानीय सहभागिता हो सके और सभी वर्गो को प्रतिनिधित्व मिल सकें। जिससें प्राकृतिक आपदा जिसका प्रभाव सामाजिक हैं, उस ओर हम अपनी योजना को संचालित कर सकें।
इसलिए स्थानीय स्तर पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और लैगिंक स्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन कर कार्ययोजना को बराबरी के आधार के बजाय न्यायसंगतता को ध्यान में रख कर बनाने की जरूरत हैं, ताकि सभी वर्गों को समान रूप मे अपने बचाव के समान अवसर उपलब्ध रहें, यहीं सही मायनों में स्थानीय सहभागिता के विचार को पूर्ण करेगा, वरना यह विचार सिर्फ कुछ लोगों के लाभ के लिए बना एक तंत्र रह जाएगा, जिसमें कमजोर औऱ पिछड़ो के लिए कोई जगह नही होगी। इस तरह की व्यवस्था में अगर बदलाव नहीं हुआ तो आपदा के बाद यह एक और आपदा होगी जिसमें गरीब, पिछडें, महिलाए, और कमजोर वर्ग अपनी बलि लगातार चढाते रहेंगें।


शिशिर कुमार यादव.