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सोमवार, 22 जुलाई 2013

राजनैतिक मरीचिका साबित ना हो खाद्य सुरक्षा अध्यादेश

देश में खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के जारी होते ही एक बार फिर से गरीब और गरीबी मुख्य धारा की चर्चा का विषय हैं। जो आम दिनों में सामान्यतया चर्चा से लगभग गायब ही रहते हैं। खाद्य सुरक्षा अध्यादेश उन दो तिहाई लोगों के भोजन की गांरटी की चर्चा हैं, जिन्हें सरकारों ने एक लम्बें समय तक अनेदेखा किए रखा और इन्हें आकड़ों की भाषा में उलझाएं रखा। सरकारी आकड़े जहाँ गरीबों को 78 प्रतिशत से लेकर 37.2 प्रतिशत तक आँकते रहें, तो वहीं कुपोषण की दरें विभिन्न सर्वें में 42 प्रतिशत से 45 प्रतिशत के बीच (0-6 साल के बच्चों मॆ) छिटकती रही। इन सब के बीच 11 से 18 वर्ष के किशोर खुद को शारीरिक विकास के पैमानें पर अल्पविकसित ही पाते रहें। बाजार की खाई ने लगातार खाद्यानों और पोषण से एक बड़े वर्ग को दूर ही रखा। ऐसें में अब जब सरकार खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लेकर आई हैं तो संभावनाओं के साथ तमाम आशंकाओं ने भी घेर लिया हैं। जो इस कार्यक्रम के भविष्य की कार्ययोजना पर एक गंभीर चिंता उभारता हैं।
चिंता कई स्तरों पर हैं, सबसे बड़ी चिंता का विषय इस अध्यादेश को संसद के आगामी मानसूम सत्र में मंजूरी दिलानें को लेकर होगी। अभी यह अध्यादेश के रूप में देश पर लागू हुआ हैं, यानी अभी इसे आने वाले मानसून सत्र में इसें संसद की मंजूरी के लिए रखा जाएगां। जिसके हंगामेदार होने के लक्षण अभी से दिखने लगें हैं। राजनैतिक दलों नें इस ओर अपनी अपनी तैयारी शुरू भी कर दी हैं। आगामी चुनावों के राजनैतिक हित को साधने के लिए जिस तरह से सत्ता पक्ष ने आनन फानन में इस को अध्यादेश के रूप में लागू किया हैं उससे निपटने के लिए विपक्ष क्या, साथ खडी पार्टियां सपा, बसपा भी पीछे रहने वाले नही हैं। खाद्य सुरक्षा जैसें मुद्दे पर सरकार की अदूरदर्शिता का प्रभाव इस पूरे प्रक्रिया पर जरूर पड़ेगा, क्योंकि विपक्षी पार्टियां इस अध्यादेश के जरिए राजनैतिक हित को साधने के लिए सत्ता पक्ष को मौका नहीं देंगी। जिससे इस महत्वपूर्ण बिल जिसका इतने लंबे समय से इंतजार किया गया वो एक तुच्छ राजनीति की भेट भी चढ सकता हैं। ऐसी स्थिति में देश की जरूरतों के आवश्यकताओं के अनुसार खाद्य सुरक्षा पर एक गहन चर्चा हो जाए इस ओर भी भरोसा रख पाना कठिन ही होगा।
दूसरी चिंता का विषय इसके वितरण प्रणाली की वर्तमान प्रावधानों के साथ साथ भविष्य में प्रणाली में होने वाले परिवर्तनों के मद्देनजर हैं। हाँलाकि अभी सरकार इसें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से शुरूआत करने वाली हैं, जिसके तहत वह प्रति व्यकित 5 किलों अनाज देने का प्रावधान रखा हैं। जिसमें ग्रामीण ईलाकों से 75 प्रतिशत और शहरी ईलाकों से 50 प्रतिशत जनता को इसके दायरे में लाया जाएगां। जिसमें 1 रू प्रति मोटा अनाज, 2 रू प्रति किलों गेहूँ औऱ 3 रू प्रति किलों चावल दिया जाएगा। साथ ही साथ 6000 रू का मातृत्व लाभ और 6 से 14 साल के बच्चों के लिए पका पकाया भोजन और अत्यन्त गरीबों को अन्त्योदय योजना के तहत 35 किला अनाज कानूनी अधिकार के साथ मिलेगा। इसके लिए सरकार को प्रतिवर्ष 125000 करोड़ धनराशि की आवश्यकता होगी। निश्चित ही यह एक महत्वाकांक्षी योजना होगी।
लेकिन फिर भी इसके संचालन को लेकर चिंता हैं, यह योजना देश में पहली योजना नहीं होगी जिसें जन वितरण प्रणाली के द्वारा संचालित किया जाएगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से कुछ इसी तरह की योजनाएं पहले से भी चलाई जा रही हैं, लेकिन इस योजना में अंतर सिर्फ इतना होगा कि अब तक जहाँ सरकार पहले से चल रही योजनाओं को कल्याणकारी योजना की तरह चला रही थी अब इसें जनता के अधिकार के रूप में सुरक्षित करेगीं। जिसके तहत यह (खाद्य सुरक्षा) आम जनता का कानूनी अधिकार होगा, जिसें न्यायिक हस्तक्षेप द्वारा कार्यान्वित कराया जा सकता है। इस तरह यह खाद्य सुरक्षा में व्यक्ति अपनी हकदारी सुनिश्चित करता हैं। लेकिन सवाल हैं, कि संचालन होगा कैसें। क्या वर्तमान व्यवस्था के कंधों से ही इस महत्वाकांक्षी योजना का संचालन होगा, और अगर ऐसा होता हैं तो क्या यह व्यवहारिक होगा, कि जिस तंत्र के लिए योजना आयोग का खुद का मानना हैं कि लोगों तक 1 रूपया लाभ पहुचाने में सरकार को 3.65 रूपया खर्च करना होता हैं उसी से इस योजना का विस्तार किया जाए।
हाँलाकि सरकार कुछ हद तक इस बार के राष्ट्रपति के सयुक्त सदन के अभिभाषण में संकेत दे दिए थें कि इस योजना को भी अतत: नकद हस्तांतरण माध्यम से ही संचालित की जाएगी। हाँलाकि बढते दबाव के कारण अभी ऐसा नहीं किया हैं लेकिन भविष्य में इस व्यवस्था को जारी रखने की संभावना कम ही नजर आती हैं। तो सरकार विकल्प रूप में नगद हस्तांतरण की प्रक्रिया लागू करेगी। ऐसें में सरकार खाद्य सुऱक्षा में इस प्रयोग में गरीबों की खरीदने की शक्ति को बढा कर खाद्यानों के दाम को बाजार के हाथों में सौप देगी ऐसें में खाद्य सुरक्षा के बजाय यह व्यवस्था बाजार सुरक्षा में परिवर्तित हो जाएगी । मांग को बढता देख बाजार में खाद्यों के दाम में अतिशय वृद्धि होगी ही यह अर्थशास्त्र मूलभूत सिद्धान्त हैं। ऐसें में गरीबों को खाद्यान्नों को महगी दरों पर खाद्यान खरीदना होगा। नगद हस्तांतरण के आते ही केन्द्र सरकार खाद्यानों के मूल्य तय करने वाली सेन्ट्रल इश्यू प्राइस विधि को से बाजार को नियत्रित करने का नैतिक हक भी खो देगी, क्यूकि अभी तक सरकार इसी सेन्ट्रल इश्यू प्राइस प्रणाली के तहत बाजार को नियत्रितं करती रही हैं। ऐसें में यह खाद्य सुरक्षा के अधिकार को कैसे सुरक्षित रखेगी यह निष्कर्ष निकालना कठिन होगा। अभी भविष्य में किस तरह की व्यवस्था जारी की जाएगी यह सुनिश्चित करना कठिन होगा लेकिन इस और उपजने वाले खतरों को ध्यान में रखने की अत्यन्त आवश्यकता है।
इसके अलावा इस योजना में कृषि प्रणाली में सुधार ताकि लघु और सीमांत कृषको को बढावा, कृषि निवेश, कृषि अनुसंधान पर विकास, सिचाईं विकास, उचित प्रंबधन और विपणन सुविधाओं का विकास, भूमि का उचित प्रयोग को बढावा देकर खाद्य सुरक्षा को दीर्घ-कालीन परिदृश्यों में रखने का प्रयास किया जा रहा हैं। जिसके लिए एक कुशल राजनैतिक इच्छाशक्ति और योजना की आवश्यकता हैं। क्योंकि अलग अलग स्तरों पर इन और राज्य और केन्द्र सरकारे काफी पैसा खर्च करती रही हैं।
इन सब के मद्देनजर रखते हुए यह देखना बहुत ही जरूरी हैं कि जन अधिकारों में एक महत्वपूर्ण योजना किसी भी राजनैतिक नीतियों और आर्थिक कमियों की भेट ना चढ जाएं। देश के आर्थिक और सामाजिक स्थिति को देथते हुए इस ओर व्यवस्था के व्यापक प्रयास करने की जरूरत हैं ताकि सही अर्थों में खाद्य सुरक्षा सुरक्षित की जा सकें, और अगर इस व्यवस्था में अगर इस तरह की खामियाँ रह गई तो यह एक राजनैतिक एक और मरीचिका सरीखा होगा, गरीब जनता के लिए सिर्फ आभास होगा खाद्य सुरक्षा नहीं। इसलिए मरीचिका के प्रभाव को ना पनपने देने के लिए एक कुशल कार्यकारी औऱ समेकित योजना पर बल देने की जरूरत हैं।


शिशिर कुमार यादव.

सोमवार, 17 जून 2013

धार्मिक चेहरें लोकतंत्र के लिए अहितकर होगें...

आज कल एक ही व्यक्ति चर्चां के केन्द्रबिंदु में हैं। राजनैतिक उठापटक अपने शबाब पर है। उनको लेकर हो रही उठापटक आने वाले भारत की राजनीति का दिशा और दशा तय करेगी, इसमें कोई शक नहीं हैं। राजनैतिक गलियारों से लेकर मीडियां के पन्नें सिर्फ एक ही कि चर्चा में रंगें हैं और वह कोई और नहीं, वरन गुजरात के कट्टरहिंदू वादी छवि रखने वाले मुख्यमंत्री नेरन्द्र मोदी हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा की चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष क्या बनाए गया, देश की राजनैतिक में ना रिश्तों मित्रता का भाव बच रहा हैं और ना ही गुरू और लघु का भेद। जिसके फलस्वरूप आड़वानी का रूठना हुआ और जदयू अपना 17 साल पुराना रिश्ता तोड़ने में भी संकोच नहीं कर रहा हैं। इन सब के बाद भी भारतीय जनता पार्टी ना तो मोदी को लेकर कोई समझौतें के मूड में नजर आ रही है और ना ही किसी और विकल्प के बारे में सोच रही हैं। आखिर ऐसा क्या हैं मोदी में जो उन्हें इस पूरे प्रकरण में केन्द्र में रखे हुए हैं ?

जवाब इतना भी कठिन नहीं हैं कि इसके लिए बगल झाँकना पड़े, इसका जवाब बहुत आसान सा  हैं, उनकी छवि। एक ऐसे कट्टर हिंदूवादी नेता की जो मुसलमानों से सम्मान की टोपी भी नहीं पहन सकते हैं। धार्मिक धुव्रीकरण के आकाश में हिंदूवादी सोच के एकमात्र तारें, जिसने लोकतांत्रिक राजनीति में रहते हुए भी अपनी छवि को कभी भी लिबरल बनाने की कोशिश नहीं की। तो ऐसें में भाजपा उन्हें धीर्मिक रूप में पेश कर के अपने लिए उस मध्यम वर्गीय सवर्ण हिंदू वोट बैंक को को फिर से पाना चाहती हैं, जिसें समय समय पर लिबरल छवि पाने के चक्कर में भाजपा  ने गवां दिया।
चुनाव सर पर हैं ऐसे में राजनैतिक दल मुद्दों के अभाव से जूझ रहें हैं। भष्टाचार, विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य देश के लिए कभी मुद्दे नहीं हो पाते क्योंकि देश की लगभग सारी पार्टियाँ जानती हैं कि इन पर इनके दामन इतने काले हैं कि अगर कोशिश भी कि तो दूसरे के दामन को काला बताने के चक्कर में खुद का भी काला चेहरा सामने आ जाएगा। तो सभी दल ऐसे में अपने लिए ऐसे ऐसे मुद्दे खोज रहे हैं जिससे एक बार फिर से जनता को भ्रमित और फुसलाया जा सकें। जिसकी शुरूआत हो चुकी हैं भाजपा जहाँ मोदी की हिंदूवादी छवि के साथ मीडियां प्रंबधन के साथ उतरना चाहते हैं, वहीं कांग्रेस मनमोहन सिंह के कार्यकाल को मौन कांत्रि का चेहरा देने का प्रयास करने में लगीं हैं, जिसका एक सेमीफाइनल आजकल दिल्ली सरकार के मीडिया प्रचार के स्वरूप में कर रखी हैं। 
भाजपा की एक मात्र उम्मीद बची हैं तो वो हैं नरेन्द्र मोदी जिन्होने अपनी छवि कट्टर हिंदूवादी नेता की बना रखी हैं। भाजपा अच्छें से जानती हैं कि उसकी पार्टी के उदय औऱ विकास का केवल और केवल एक कारण उसका हिंदूवादी चेहरा ही हैं, जिसने भाजपा को राजनैतिक आधार प्रदान किया हैं। ऐसे में भाजपा इस बार अपनी मूल छवि के बहुत हट कर उतरना कहीं से भी बुद्धिमानी भरा नहीं मान रही हैं क्योंकि इससे पहले के अनुभव उसके लिए बहुत सुखद नही रहें है। सो इस बार वो अपनी पुरानी छवि के साथ मैदान में उतरना चाहती हैं। भाजपा में हिंदूवादी नेता की छवि रखने वाले नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ी हैं और अपनी जगह से हटने को तैयार नहीं हैं। आडवानी का त्यागपत्र और जदयू का मोह भी कुछ नही कर सका।
भाजपा यह भी अच्छे से जानती हैं कि अगर वो इस पोजीशन से हटती हैं तो भी मुस्लिम वोट की उम्मीद रखना एक ख्वाब सा हैं। क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टियों की सेध के चलते और पार्टी की पुरानी छवि के चलते मुस्लिम कभी भाजपा के साथ खडा नही होगा। तो ऐसें में चुनाव के लिए उस वोट बैंक का तुष्टीकरण करने की जरूरत ही क्या हैं जिसके साथ होने के प्रायिकता नगण्य है। इसलिए इस बार नरेन्द्र मोदी को आगें कर के वो उस पुराने शहरी, सवर्ण और मध्यम वर्ग औऱ परम्परावादी वोटबैंक को फिर से साधने की कोशिश में लगे हैं, जो उनके हाथ से ना जाने कब खिसक गया। धार्मिक भीरूता औऱ राष्ट्रवादी सोच के चलते इस वर्ग को अपने साथ लाना आसान भी होगा। तो बस भाजपा वहीं कर रही हैं। इसलिए वह मोदी के हिंदूवादी छवि को आगे कर के हिंदूओं के वोट को अपनी ओर रिझाना चाहते हैं।  
धार्मिक छवि और धर्म के आधार पर राजनीति का यह कोई पहला दौर नहीं हैं, स्वत्रंता आंदोलन के दौरान भी राष्ट्रवादी दल उदाहरण मुस्लिम लीग, इसी धार्मिक आधार पर अपनी राजनीति करता रहा था, और स्वत्रता आंदोलन में भागीदार बना रहा। इसका एक प्रतिफल और खामियाजा दूसरे वर्ग और धार्मिक आधार वाली पार्टी अखिल भारतीय हिंदू महा सभा के रूप में सामने आती हैं। इन्ही दोनो की अदूरदर्शिता का परिणाम यह था कि 1947 के आते आते भारत जिस सबसे बड़ी समस्या से ग्रसित हो चुका था वो था संप्रदायों के प्रति घृणा। जिसका ही फायदा उठा कर अंग्रेजो ने भारत को ना केवल टुकड़ो में बाटाँ वरन एक अशान्त और संदिग्ध पडोसी दे दिया।
इससे सीख लेते हुए भारतीय संविधान निर्माताओं ने इस आधार पर होने वाली उस आधार का ना केवल विरोध किया वरन उन पुरानी व्यवस्थाओं को भी हटाया जो किसी ना किसी रूप से धार्मिक आधार पर राजनैतिक अवसर तलाशने और संभावनाओं को जन्म देती थी। जिसके तहत संविधान नें 1909 में दी मुस्लिमों की दी गई पृथक निर्वाचिका जैसी कोई भी व्यवस्था स्वत्रंत भारत के संविधान का हिस्सा नहीं बना। डॉ भीम राव अम्बेडकर जी भी जो दलितों के लिए स्वत्रंता आंदोलन के दौरान पृथक निर्वाचिका की मांग करते रहें वो भी इस वक्त पृथक निर्वाचिका पर चुप ही रहें।
लेकिन बदलते हालत में मोदी को जिस तरह से कट्टर हिंदूवादी नेता के रूप में पेश किया जा रहा हैं, उसमें दूसरे धर्मों के कट्टरवादी विचारधारा के लोगों को अपने लिए जमीन बनाने का एक अवसर नजर आ सकता हैं, औऱ जिस तरह से अल्पसंख्यों का भरोसा इस देश से धीरे धीरे भय में बदल रहा हैं, उसमें अगर उन्हें भी सामाजिक स्वीकार्यता मिल जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। अवसरवादी पार्टियां बिना सोचें समझे इनके तुष्टीकरण करने में लगकर अगर बढावा दें देगें इसमें सहज ही भरोसा किया जा सकता हैं। तो निश्चित ही मोदी का धार्मिक छवि के साथ मैदान में उतारना और चुनाव को धार्मिक आधार देना किसी भी तरह से भारतीय राजनीति के हक में नहीं होगा। जो कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए भी ठीक नहीं होगा।
किसी लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि समाज के विभिन्न तबकों में कितना आत्मविश्वास पैदा कर पाती हैं, विभिन्न वर्गों के भौतिक आवश्यकाताओं के साथ साथ स्वाभिमान के साथ आध्यात्मिक भाव के साथ जीने की छूट हो। पर बदलती राजनैतिक प्रतियोगिता में इसका अभाव दिख रहा हैं और संकट तब और गंभीर हो जाता हैं जब देश की सबसे बड़ी पार्टी इसकी अगुआई करती दिखलाई पड़ती है।

ये चुनाव देश के लिए एक लोकतांत्रिक पर्व सरीखा हैं, जिसके तहत हम अपने लिए आने वाले भविष्य की बागडोर किसी ऐसे दल को देगें जो देश की नियति तय करेगी। अत: निश्चित ही हमें धार्मिक छवि के बजाय अपने लिए उन मुद्दों पर जोर लगाने की जरूरत हैं, जो देश का वर्तमान तो बदले ही, वरन एक मजबूत लोकतंत्र की नीव रखने में सक्षम हो। देश की राजनीति का धार्मिकीकरण की कोशिश अगर सफल हो तो इन लम्हों की खता सजा, सदियों को भुगतना होगा। जो किसी भी रूप में लोकतंत्र की सेहत के लिए हितकारी ना होगा। भूतकाल से सीख कर इस तरह की धार्मिक राजनीति से ओतप्रोत किसी भी राजनीति को सिरे से नकारने की जरूरत हैं ताकि सच्चें लोकतंत्र की आत्मा को जीवित रखा जा सकें।

शनिवार, 11 मई 2013

मैं, सरकार और गुडें


यादव होने के नाते एक बन्धु ने कहा कि आपकी सरकार में तो खुली गुड्डागर्दी जारी हैं। बस हम लोग इसी चीज से मुलायम और सपा के आने से डर रहे थें, कि खुले आम गुन्डागर्दी का माहौल बन जाएगा इसी का ड़र था, लीजिए जो ड़र था अब सच हो गया हैं। मैं उनसे और उनकी बात से पूरी तरह अक्षरश: सहमत हूँ। विरोध का विकल्प था भी नहीं। पर इन बातो को सोचते सोचते मेरे मन में सिर्फ एक ही सवाल कौध रहा था, कि क्या सच में इस व्यवस्था विकल्प खोजा सकता हैं और अगर है तो क्या?  विकल्प बनाएगा कौन? किससे उम्मीद की जा सकती हैं। ये ऐसे सवाल हैं जिनका जबाव हम आप आसानी से नहीं खोज सकते हैं क्योंकि इन सब सवालों का केवल एक ही जवाब हैं आपकी अपनी नैतिकता जो की ना जाने हम औऱ आप कब की जला कर ताप चुके हैं। तो ऐसी स्थितियों के लिए बचाव लाए भी तो लाए कहाँ सें। आज कोई ज़िया उल हक़ मारा गया हैं कल कोई और मारा जाएगां , पर मारा जरूर जाएगा।
आप सोच रहे होगें कि मैं अति निराशावादी हूँ पर मेरे होने की बडी वजह हैं, जिनके जवाब हम आप दे भी नही सकते। जब विरोध और बदलाव का जब भी मौका आता हैं तो हम और आप जाति वादी से लेकर ना जाने कौन कौन वादी हो जाते हैं, और बदलाव करने से झिझकते हैं। जिस तालाब औऱ जिस भइया की बात हम आप कर रहे हैं वो किसी क्षेत्र में किसी धर्म और जाति के मसीहा होते हैं और जब भी इन्हे बदलने की बारी आती हैं तो हम आप अपने अपने क्षेत्र के मसीहा के रूप में जिंदा रख कर इन्हे जितवाते हैं। बस चेहरे बदल जाते हैं हम कुछ उखाड़ नही पाते हैं। कभी राज ठाकरें, औवेसी, तोगडिया, मोदी, तो कभी मुखिया के रूप में सामने आते हैं, जिनका आप कुछ नही कर सकते और ना ही आपका बना बनाया तंत्र। क्योंकि इस तंत्र के मुखियाँ तो हम आप ने इन्ही को चुन रखा हैं तो ऐसे में ये अपने ही खिलाफ कार्यवाही करवा ले ऐसा कैसे हो सकता हैं, मेरी समझ से बाहर हैं। और जब हम इन्हे बाहर कर सकते हैं तो हम इन्हें ही मसीहा मान कर चुन आते हैं क्योंकि सत्ता और ताकत इन्ही के पास हैं और हम भी इन्ही में अपना हित देख कर खुद को ताकतवर बनाने के लिए इन्ही का चुनान करते रहते हैं। अगर ऐसा ना होता तो सत्ता के केन्द्र में इतने अपराधी कहा से आ गएं हैं। किसी की इतनी हैसियत नही हैं कि वो लोकप्रिय वोट के आधार पर अपने आप को जितवा सके। तो ऐसें में मेरा खुद का मानना हैं कि स्वहित के आगे कोई और हित जिंदा ही कहा रहा हैं। इतिहास की पंरपरा को आज की राजनैतिक पार्टिया अच्छे से भुनाती आ रही हैं. औऱ आज आप और हम सिर्फ अपने गुडें वाली पार्टी का इंतजार कर रहे होते हैं ताकि अपने अपने स्वहित पूरे हो सके. भाजपा .आए तो गुंडें..बसपा आए तो गुडें..सपा आई तो गुडडे तो हम औऱ आप बस अपनी अपनी गुडों वाली पार्टी का इंतजार करते हैं और ये पार्टिया हमारे पंसदीदा गुडें को ढूढ कर हमारे क्षेत्र से चुनाव का टिकट देती हैं ताकि आप अपनी गुडों वाली सरकार को आसीनी से चुन सकें। और हम चुनते भी हैं ना चुनते तो आते कहाँ से हर पार्टी में ।
उत्तर प्रदेश में बड़े आला अफसर हैं (नाम नही ले रहा हूँ )...लेकिन वो कहते कहते कह गए कि जिस जिले में ये घटना हुई हैं, वहाँ जो उत्तर प्रदेश से जुड़े हैं वो जानते हैं कि कैसे हालत कैसे रहे हैं या वहाँ का इतिहास कैसा हैं ..खैर हिचकते हुए ही सही उन्होनें ये माना कि राजनीति का अपराधीकरण इस हद तक हुआ हैं कि अपराधी ही नेता हैं.। जिनका कुछ नही किया जा सकता हैं। तो ऐसें में आप उम्मीद किससे कर सकते हैं। समस्या केवल सिर्फ इस सरकार से नही, बल्कि, यह तो सत्ता का चरित्र ही बनता चला जा रहा हैं और देश की राजनीति इसी तरह चल रही है। बाहुबली, बलात्कारी, भ्रष्ट-दबंग नेता कमोबेश सभी सरकार में होते हैं
रवीश की रिपोर्ट में कानपुर से लेकर लखनऊ के थानेदारो में यादवों की संख्या पर प्रकाश डाला गया और बताया गया कि ये आकडें हैं... पर रवीश को कौन बताएं...कि माया सरकार में यादव होना ही गुनाह था  अगर थोडी तहकीकात करें तो पाएगें कि जितने यादव आज दिखते हैं, वो माया सरकार में या तो बंगाल की खाडी में थें या रवीश ही खोज सकते हैं.. और इस सरकार में भी किसी एक जाति के लोग हासिएँ पर हैं, और अगली सरकार में ये लोग जो अभी आकडे बने हुए हैं वो हासिएँ पर होगें।. खैर तो साहब हित के आगे आपका अपनी गुडों वाली सरकार हैं बस और कुछ नहीं...

शिशिर कुमार यादव
shishirdis@gmail.com

शनिवार, 2 मार्च 2013

काट्जू का मोदी प्रेम: संभावनाएं और प्रतिफल


काट्जू साहब गुस्से फिर गुस्सें में हैं, और इस बार वजह बने, विकास और प्रगति के वैश्विक नेता नरेन्द्र मोदी। जी हां आप सही समझें वहीं नेता जो आजकल राहुल गांधी से युवाओं के नेता का पद छीनने पर लगे हुए हैं, और फेसबुक और ट्विटर पर रहने वाली युवाओं का ऐसा ही सहयोग मिला ना तो जल्दी ही देश को 62 साल का युवा नेता मिल जाएगां (अब देश के प्रधानमंत्री 80 के तो युवा नेता 62 का ही होगा ना)।लेकिन फिर भी काटजू साहब नाराज हैं लिख बैठे एक लेख द हिन्दू सरीखे अखबार में गोधरा से जुडे सरोकारो पर, और भूल गए शानदार स्वागत और तालियों को जो दिल्ली यूनीवर्सिटी में मिली थी, सारी यूनीवर्सिटी नमो नमो कर रही थीं।

खैर मैं समझ सकता हूँ आप लोगों की समस्या। बूढे जो हो रहे हो। तो युवाओं और उनकी पंसद से चिढ़ना तो लाजमी हैं। अरे साहब, युवा जो शहरी हैं, जिसने आज तक गांव के फोटो देखे हैं या फिर फन के साथ मक्के दी रोटी और चने दा साग खाया है, उन लोगों को मालन्यूट्रिशन (कुपोषण), वुमेन मौरटेलिटी रेट ( मातृ मृत्यु दर), ह्यूमन इंडेक्स जैसे, उलूल जूलूल वाले आंकड़े दे कर पथ भ्रमित करने की साजिश करते हैं, शर्म तो आती नही। खैर लज्जा शर्म तो महिलाओं का आभूषण है तो आप क्यूं पहनो, इस लिए बात भी की, तो दलितो, पिछड़ो और आदिवासियों की। उनकी शिक्षा और रोजगार की समस्या पर लिखने लगें। अरे भाई यह समस्या भी कोई समस्या है देश के लिए, हजारो सालों से चली आ रही हैं और आप चाहते हैं कि इतनी जल्दी सुलझा दी जाएं।अरे, जिनके क्षेत्र का लोकतांत्रिक पर्व चुनाव सुर्खिया तक बटोर नहीं पाता  त्रिपुरा में चुनाव बीते 14 फरवरी और 23 फरवरी को मेघालय और नगालैंड में चुनाव थे, वहां की समस्याएं क्या खाक ध्यान आकर्षित करेगीं।

26 लोक सभा सीटों वाले राज्य के नेता देश के प्रधानमंत्री बनने के सच्चे अधिकारी हो जाते हैं, और आप हैं कि उन्हे 2002 में हुए दंगों की याद दिलाते हैं। शायद आप भूल गए हैं आजकल मोदी साहब आधा आस्तीन का कुर्ता ही पहन रहे हैं या फुल इस पर भी मीडिया सिर्फ फुल कवरेज दे रहा हैं और आप उस कुर्ते की ओर इशारा कर रहें है जिस पर मासूमों के खून के छीटे पड़े हुए हैं। मोदी का 3डी कैंपेन देखिए, ऊ कुर्ता के चक्कर में काहे को पड़े हैं मालिक। जल्द ही आप ने अपने सुर नहीं बदले ना तो देश भक्ति के रस से सराबोर युवा, जिनके मोदी ही सारथी है, आप के खिलाफ इतना बड़ा आदोलन खड़ा कर देगे, जिसका पता तो उन्हें भी नहीं चलेगा कि वो समर्थन या विरोध किस चीज का कर रहे हैं। आप के जेहन में मैं अन्ना हूँ वाला आंदोलन (जो बाद में केजरीवाल होते हुए खत्म हो गया) नही हैं क्या ? भूलिए मत उनके इस सारथी पर जरा सी आंच आई तो वो क्या नहीं कर गुजरेगें। अन्ना का विरोध करना भष्ट्राचारी बना रहा था, तो मोदी का विरोध आप को राष्ट्रद्रोही तो बना ही सकता हैं। इस द्रोह का बदला लेने के लिए हमारे देश में वध करने की परम्परा रही हैं.. हां सही समझे गांधी जी इसी वध में दुनिया छोड़ गए थे।
आप एक और चीज भूल जाते हैं इस देश में दंगे, बहुसंख्यकों के लिए गर्व के विषय रहे हैं, और बहुसंख्यक इन्हे सिर्फ अल्पसंख्यकों की उद्दण्डता की प्रतिक्रिया में हुई क्रिया के रूप में सहीं ठहराता रहा हैं। 1984 के दिल्ली दंगें, गोधरा के दंगे, देश के हर कोने में दलितों और आदिवासियों के नरसंहार सिर्फ और सिर्फ अल्पसंख्यको और कमजोरों को चेतावनी देते हैं कि हमारे ढंग से रहो वरना................ ( खाली स्थान को भरने के लिए मेरे पास जगह कम है)। और काट्जू साहब आप जिस संस्थान के सर्वेसर्वाओ में से एक रहे है वो भी आज कल न्याय देते वक्त अजीबोगरीब तर्क दे कर न्याय देते हैं। अयोध्या मसले पर बहुसंख्यकों की भावना का ख्याल रखते हुए दिया गया न्याय, साथ ही साथ हाल में हुई अफजल की फांसी को देश की भावना को संतुष्ट करने के पीछे की मंशा भी, न्याय के प्रतीक (न्याय का मंदिर इस लिए नहीं क्यू कि मंदिर ही क्यू ? मस्जिद, गुरूद्वारा और चर्च क्यू नहीं वाली विचार धारा से प्रेरित) पर आस्था को दरकाने वाली ही रही हैं। कमजोरो, पिछड़ो और वंचितों की आवाज भी अगर इसी तरह इन संस्थानों में भी बहुसंख्यकों के दबाव में दम तोड़ती रहेगी, तो मोदी को आप के इन जवाबो को देने की जरूरत भी नहीं है क्योंकि ये सवाल और सरोकार बहुसंख्यको के नहीं हैं, ये उनके सवाल हैं जिनको आज ही नहीं, वरन ना जाने कितनी सदियों से कुछ खांचों में डालकर कर दीवारों में चुनवा दिया जाता रहा हैं। तो सजग रहिए काट्जू साहब हमें आप की चिंता हैं इलाहाबादी होने के नातें ही सही।