विश्व जगत में पोलियों मुक्त होकर भारत भले ही अपनी
पीठ थपथपा रहा हो पर अभी भी स्वास्थ्य सुविधाओं के ऑकड़े भारत में स्वास्थ्य के
निम्न स्तर का बयान करते है। भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र और स्वास्थ्य सेवाओं की
हालत काफी खराब है। स्वास्थ्य संबधी सभी सूचकांक मातृ मृत्युदर, शिशुमृत्यु दर,
प्रशिक्षित संस्थागत प्रसव, जनसंख्या के अनुपात में अस्पतालों की संख्या, प्रति
हजार मरीजो पर बेड की संख्या, मरीजों के अनुपात में डॉक्टरों और नर्सो की संख्या
या कोई अन्य सूचकांक उठा कर देखा जाए, तो वे सभी भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं के कमजोर
स्वास्थ्य का ही बखान करते हैं। उदाहरण के लिए डब्लू एच ओ के ऑकड़ो के अनुसार प्रति
1700 मरीजों पर एक डॉक्टर है। विशेषज्ञता वाले डॉक्टरों की संख्या और भी अधिक कम
है। कुछ इसी तरह की स्थिति नर्सों से लेकर अन्य कर्मियों को लेकर है जो अस्पतालों
में मूलभूत सुविधाओं को उपलब्ध कराते हैँ।
भारत में इन सभी व्यवस्थाओं को सुधारने का प्रयास
किया जा रहा है, लेकिन अभी भी लक्ष्य अपनी सफलता से कोसो दूर है। स्वास्थ्य संबधी
योजनाओं को सरकार ने एक मिशन बनाया जिसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन नाम दिया है, और
इस मिशन के तहत शहरी और ग्रामीण स्वास्थ्य में सुधार लाने का प्रयास कर रही है।
फिर भी जमीन पर ऐसा कुछ नहीं दिखता जिसे सराहनीय कहा जा सके। किसी भी शहर से 10
कदम दूर जाते ही, जहाँ से ग्रामीण अंचल शुरू होता है वहां तमाम सरकारी दावे
निर्मूल साबित हो जाते है। ऐसे में ये सवाल उठता है कि चिकित्सा सेवाओं के विस्तार
और उनकी उपलब्धता को बढ़ाने के मामले में चूक कहां हो रही है। क्या ये आंकड़ें
नीति-निर्माण के स्तर पर होने वाली चूक और लापरवाही के नतीजे हैं या बीते सालों
में स्वास्थ्य क्षेत्र के प्रति सरकारों की बदली प्राथमिकताओं के? गौर से देखा जाए तो चिकित्सा सुविधाओं और डाक्टरों समेत स्वास्थ्य कर्मियों
की बढ़ती अपर्याप्तता स्वास्थ्य क्षेत्र के बढ़ते निजीकरण का नतीजा है। आजादी के
बाद निजी अस्पतालों में आई बाढ उसका एक जीता जागता प्रमाण है।
इसका एक जीता जागता उदाहरण हाल के दिनों में
कर्मचारी राज्य बीमा निगम द्वारा नर्सिंग और पैरामेडिकल स्टॉफ के पदों पर भर्ती को
उदाहरण से समझा जा सकता है। देश के विभिन्न हिस्सों में सरकार इन्हें भर्ती करने
के लिए टेंडर मगां रही हैं ताकि इन महत्वपूर्ण पदों के लिए किसी भी गैरसरकारी
संस्थाओं को ठेका दिया जा सके। ये ठेके देश के विभिन्न हिस्सों में निकाले गए हैं।
उदाहरण के लिए दिल्ली और बग्लुरू के ये चित्र है। पैरामेडिकल स्टॉफ जो किसी भी
अस्पताल में लैब
टैक्निशयन, एक्स रे टैक्निशयन, ओटी टैक्नीशियन, वैक्सीन फ्रीजिंग से लेकर वेटिलेटर
मैकेनिक और उसको निंयत्रित एवं अन्य तरीके के अनगिनत कामों को करने के लिए रखे
जाते है। ये सभी काम अस्पताल में अमर्जेन्सी सुविधाओं के होते हैं। जिनके लिए हरेक
अस्पतालों में इस तरह के कर्मचारियों की नियुक्ति होती है। अस्पतालों में
महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन करते है।
जहाँ इन
पदों के लिए सरकार सरकार को खुद एक निश्चित व्यक्ति की नियुक्त करनी चाहिए, वहां
सरकार टेंडर के माध्यम से लगड़ी स्वास्थ्य व्यवस्था को टूटी बैशाखी पकड़ा रही है।
टेंडर व्यवस्था, इन पदों का ना केवल बाजारीकरण करने की प्रक्रिया का पहला चरण है
वरन इसके माध्यम से सरकार अस्पताल के पदों का निगमीकरण (कार्पोरेटाइजेशन) करने की
ओर कदम बढा रही है, जो सिर्फ बिचौलियों को लाभ पहुचाने वाली होगी। सरकार इन्हें इन
पदों पर दूरगामी भर्तियों से पूर्ण वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में बता रही हैं पर इस
व्यवस्था पर कई सवाल है, जैसें आखिर इन्हीं सेवाओं का टेडर क्यूँ ? दूसरा इनसे उपजने वाली
समस्याओं ( कर्मचारियों) का निदान कैसे होगा? इस व्यवस्था
में कर्मचारियों के हितों के साथ क्या होगा ?
इनके
जवाब इतने भी कठिन नहीं है, सरकार इन पदों को भरने से बचना चाह रही है, इसकी बड़ी
वजह क्या हो सकती है, यह कहना आसान नहीं है, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि इस
व्यवस्था से सरकार उनको मदद जरूर पहुचाएगी, जो स्वास्थ्य सुविधाओं को सरकार से
छीनकर बाजार का हिस्सा बनाना चाहते है। इससे पहले भी सरकार बेहतर सुविधाओं के नाम
पर जिस तरह से आम आदमी के पैसों को पीपीपी ( पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के मॉडल
के साथ हेल्थ बीमा से निजी अस्पतालों को फायदा पहुचा रही है, उसी तरह यह टेंडर
व्यव्स्था भी आने वाले वक्त में स्वास्थ्य माफियाओं की जेबे भरती नजर आएंगी।
दूसरी तरफ देखें, तो हम पाते है कि इन पदों पर
नियुक्तियां अधिकतर निम्न आर्थिक और सामाजिक स्थितियों से आने वाले लोग ही अपने
लिए रोजगार तलाशते हैं, ऐसे में यह वर्ग माफियाओं के विरोध में संगठित भी नहीं हो
सकता है, क्योंकि इस वर्ग की प्राथमिकता रोजगार होती है। ऐसे में रोजगार के किसी
भी अवसर के खिलाफ खड़ा हो जाना इतना आसान नहीं है। नर्सिगं और पैरामेडिकल क्षेत्र
में महिलाओं की संख्या भी अधिक होती हैं, जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति मुखर
विरोध करने के लिए उन्हे इजाजत नहीं देती है। किसी अन्य संगठन के विरोध की संभावना
भी कम ही होती हैं क्योंकि स्वास्थ्य सेवाओं में ये पद काफी निम्न माने जाते है।
ऐसे में इन सभी पदों को बाजार के हवाले करने पर किसी भी तीव्र विरोध का सामना नहीं
करना पडेगा।
इस तरह
की व्यवस्था निश्चित ही इन कर्मचारियों के हित में नहीं होगी। एक बार टेडंर के बाद
कोई भी सरकारी संस्थान इन कर्मचारियों से जुड़ी समस्या के लिए जवाबदेह और
जिम्मेदार नहीं होगा। जिनमें काम के
घंटों, तय वेतन और वेतन देने की तारीख का सुनिश्चित कर पाना कठिन होगा। कागजी
कार्रवाई में स्थितियाँ भले ही साफ सुथरी दिखें पर आंतरिक हालातों का पता लगा पाना
काफी कठिन होगा। ऐसे में जिन लोगों के पास टेंडर होगा वे कर्मचारियों के शोषण के
केन्द्र बन जाए, तो कोई नई बात नहीं होगी। इसके उदाहरण निजी रूप से घरों में काम करने वालों और निजी सुरक्षा
कर्मीयों को उपलब्ध कराने वाली संस्थाएं किस तरह से कर्मचारियों के हितों का शोषण
करती रही हैं ये किसी से छुपा नहीं है। कर्मचारी राज्य बीमा निगम जो खुद श्रम और रोजगार मंत्रालय का अभिन्न अंग
है, उसका इस तरह का प्रयास करना निश्चित ही इन कर्मचारियों के भविष्य से खेलने
सरीखा है, और इस तरह सरकार अपने ही कर्मचारियों की जिम्मेदारी से बच रही
हैं, जो कि स्वास्थ्य सुविधाओं और कर्मचारियों दोनो के लिए ही कष्टप्रद साबित
होगा। ऐसे में यह स्थिति और विषद हो जाती हैं जब भारत की यह संस्था ‘कर्मचारी राज्य बीमा निगम,
जो कर्मचारियों एंव उनके आश्रितों को सामाजिक – आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने वाला
निकाय है।
ऐसे में जब स्वास्थ्य और उससे जुड़ी सेवाएं गरीब
और पिछड़े लोगो की पहुच से बाहर होती जा रही है, और सरकारी अस्पताल मूलभूत
सुविधाओं और कर्मचारियों के अभाव में चल रहे है,
ऐसें में सरकार की एक संस्था कर्मचारी
राज्य बीमा निगम का इन सेवाओं को टेंडर के माध्यम से भरवाने का प्रयास किसी
भी तरह से स्वास्थ्य सेवाओं को ठोस और लम्बी अवधि के लिए दिया गया उपाय नहीं है।
इस ओर हो रहे प्रयासों का विरोध करके इन सेवाओं को सरकार के संरक्षण में ही
स्थापित करने की जरूरत है, ताकि स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ साथ कर्मचारियों के
हितों का भी ध्यान रखा जा सकें। इस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि प्राथमिक
स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं के ढाचे को मजबूती दी जा सके। ना कि स्वास्थ्य सेवाओं
का टेड़रीकरण करके उन्हें बाजार के हवाले कर देना चाहिए।
शिशिर कुमार यादव
इस लेख को दैनिक जागरण ने अपने राष्ट्रीय संस्करण में 4 मार्च 2014 को जगह दी है।