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सोमवार, 17 जून 2013

धार्मिक चेहरें लोकतंत्र के लिए अहितकर होगें...

आज कल एक ही व्यक्ति चर्चां के केन्द्रबिंदु में हैं। राजनैतिक उठापटक अपने शबाब पर है। उनको लेकर हो रही उठापटक आने वाले भारत की राजनीति का दिशा और दशा तय करेगी, इसमें कोई शक नहीं हैं। राजनैतिक गलियारों से लेकर मीडियां के पन्नें सिर्फ एक ही कि चर्चा में रंगें हैं और वह कोई और नहीं, वरन गुजरात के कट्टरहिंदू वादी छवि रखने वाले मुख्यमंत्री नेरन्द्र मोदी हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा की चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष क्या बनाए गया, देश की राजनैतिक में ना रिश्तों मित्रता का भाव बच रहा हैं और ना ही गुरू और लघु का भेद। जिसके फलस्वरूप आड़वानी का रूठना हुआ और जदयू अपना 17 साल पुराना रिश्ता तोड़ने में भी संकोच नहीं कर रहा हैं। इन सब के बाद भी भारतीय जनता पार्टी ना तो मोदी को लेकर कोई समझौतें के मूड में नजर आ रही है और ना ही किसी और विकल्प के बारे में सोच रही हैं। आखिर ऐसा क्या हैं मोदी में जो उन्हें इस पूरे प्रकरण में केन्द्र में रखे हुए हैं ?

जवाब इतना भी कठिन नहीं हैं कि इसके लिए बगल झाँकना पड़े, इसका जवाब बहुत आसान सा  हैं, उनकी छवि। एक ऐसे कट्टर हिंदूवादी नेता की जो मुसलमानों से सम्मान की टोपी भी नहीं पहन सकते हैं। धार्मिक धुव्रीकरण के आकाश में हिंदूवादी सोच के एकमात्र तारें, जिसने लोकतांत्रिक राजनीति में रहते हुए भी अपनी छवि को कभी भी लिबरल बनाने की कोशिश नहीं की। तो ऐसें में भाजपा उन्हें धीर्मिक रूप में पेश कर के अपने लिए उस मध्यम वर्गीय सवर्ण हिंदू वोट बैंक को को फिर से पाना चाहती हैं, जिसें समय समय पर लिबरल छवि पाने के चक्कर में भाजपा  ने गवां दिया।
चुनाव सर पर हैं ऐसे में राजनैतिक दल मुद्दों के अभाव से जूझ रहें हैं। भष्टाचार, विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य देश के लिए कभी मुद्दे नहीं हो पाते क्योंकि देश की लगभग सारी पार्टियाँ जानती हैं कि इन पर इनके दामन इतने काले हैं कि अगर कोशिश भी कि तो दूसरे के दामन को काला बताने के चक्कर में खुद का भी काला चेहरा सामने आ जाएगा। तो सभी दल ऐसे में अपने लिए ऐसे ऐसे मुद्दे खोज रहे हैं जिससे एक बार फिर से जनता को भ्रमित और फुसलाया जा सकें। जिसकी शुरूआत हो चुकी हैं भाजपा जहाँ मोदी की हिंदूवादी छवि के साथ मीडियां प्रंबधन के साथ उतरना चाहते हैं, वहीं कांग्रेस मनमोहन सिंह के कार्यकाल को मौन कांत्रि का चेहरा देने का प्रयास करने में लगीं हैं, जिसका एक सेमीफाइनल आजकल दिल्ली सरकार के मीडिया प्रचार के स्वरूप में कर रखी हैं। 
भाजपा की एक मात्र उम्मीद बची हैं तो वो हैं नरेन्द्र मोदी जिन्होने अपनी छवि कट्टर हिंदूवादी नेता की बना रखी हैं। भाजपा अच्छें से जानती हैं कि उसकी पार्टी के उदय औऱ विकास का केवल और केवल एक कारण उसका हिंदूवादी चेहरा ही हैं, जिसने भाजपा को राजनैतिक आधार प्रदान किया हैं। ऐसे में भाजपा इस बार अपनी मूल छवि के बहुत हट कर उतरना कहीं से भी बुद्धिमानी भरा नहीं मान रही हैं क्योंकि इससे पहले के अनुभव उसके लिए बहुत सुखद नही रहें है। सो इस बार वो अपनी पुरानी छवि के साथ मैदान में उतरना चाहती हैं। भाजपा में हिंदूवादी नेता की छवि रखने वाले नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ी हैं और अपनी जगह से हटने को तैयार नहीं हैं। आडवानी का त्यागपत्र और जदयू का मोह भी कुछ नही कर सका।
भाजपा यह भी अच्छे से जानती हैं कि अगर वो इस पोजीशन से हटती हैं तो भी मुस्लिम वोट की उम्मीद रखना एक ख्वाब सा हैं। क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टियों की सेध के चलते और पार्टी की पुरानी छवि के चलते मुस्लिम कभी भाजपा के साथ खडा नही होगा। तो ऐसें में चुनाव के लिए उस वोट बैंक का तुष्टीकरण करने की जरूरत ही क्या हैं जिसके साथ होने के प्रायिकता नगण्य है। इसलिए इस बार नरेन्द्र मोदी को आगें कर के वो उस पुराने शहरी, सवर्ण और मध्यम वर्ग औऱ परम्परावादी वोटबैंक को फिर से साधने की कोशिश में लगे हैं, जो उनके हाथ से ना जाने कब खिसक गया। धार्मिक भीरूता औऱ राष्ट्रवादी सोच के चलते इस वर्ग को अपने साथ लाना आसान भी होगा। तो बस भाजपा वहीं कर रही हैं। इसलिए वह मोदी के हिंदूवादी छवि को आगे कर के हिंदूओं के वोट को अपनी ओर रिझाना चाहते हैं।  
धार्मिक छवि और धर्म के आधार पर राजनीति का यह कोई पहला दौर नहीं हैं, स्वत्रंता आंदोलन के दौरान भी राष्ट्रवादी दल उदाहरण मुस्लिम लीग, इसी धार्मिक आधार पर अपनी राजनीति करता रहा था, और स्वत्रता आंदोलन में भागीदार बना रहा। इसका एक प्रतिफल और खामियाजा दूसरे वर्ग और धार्मिक आधार वाली पार्टी अखिल भारतीय हिंदू महा सभा के रूप में सामने आती हैं। इन्ही दोनो की अदूरदर्शिता का परिणाम यह था कि 1947 के आते आते भारत जिस सबसे बड़ी समस्या से ग्रसित हो चुका था वो था संप्रदायों के प्रति घृणा। जिसका ही फायदा उठा कर अंग्रेजो ने भारत को ना केवल टुकड़ो में बाटाँ वरन एक अशान्त और संदिग्ध पडोसी दे दिया।
इससे सीख लेते हुए भारतीय संविधान निर्माताओं ने इस आधार पर होने वाली उस आधार का ना केवल विरोध किया वरन उन पुरानी व्यवस्थाओं को भी हटाया जो किसी ना किसी रूप से धार्मिक आधार पर राजनैतिक अवसर तलाशने और संभावनाओं को जन्म देती थी। जिसके तहत संविधान नें 1909 में दी मुस्लिमों की दी गई पृथक निर्वाचिका जैसी कोई भी व्यवस्था स्वत्रंत भारत के संविधान का हिस्सा नहीं बना। डॉ भीम राव अम्बेडकर जी भी जो दलितों के लिए स्वत्रंता आंदोलन के दौरान पृथक निर्वाचिका की मांग करते रहें वो भी इस वक्त पृथक निर्वाचिका पर चुप ही रहें।
लेकिन बदलते हालत में मोदी को जिस तरह से कट्टर हिंदूवादी नेता के रूप में पेश किया जा रहा हैं, उसमें दूसरे धर्मों के कट्टरवादी विचारधारा के लोगों को अपने लिए जमीन बनाने का एक अवसर नजर आ सकता हैं, औऱ जिस तरह से अल्पसंख्यों का भरोसा इस देश से धीरे धीरे भय में बदल रहा हैं, उसमें अगर उन्हें भी सामाजिक स्वीकार्यता मिल जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। अवसरवादी पार्टियां बिना सोचें समझे इनके तुष्टीकरण करने में लगकर अगर बढावा दें देगें इसमें सहज ही भरोसा किया जा सकता हैं। तो निश्चित ही मोदी का धार्मिक छवि के साथ मैदान में उतारना और चुनाव को धार्मिक आधार देना किसी भी तरह से भारतीय राजनीति के हक में नहीं होगा। जो कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए भी ठीक नहीं होगा।
किसी लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि समाज के विभिन्न तबकों में कितना आत्मविश्वास पैदा कर पाती हैं, विभिन्न वर्गों के भौतिक आवश्यकाताओं के साथ साथ स्वाभिमान के साथ आध्यात्मिक भाव के साथ जीने की छूट हो। पर बदलती राजनैतिक प्रतियोगिता में इसका अभाव दिख रहा हैं और संकट तब और गंभीर हो जाता हैं जब देश की सबसे बड़ी पार्टी इसकी अगुआई करती दिखलाई पड़ती है।

ये चुनाव देश के लिए एक लोकतांत्रिक पर्व सरीखा हैं, जिसके तहत हम अपने लिए आने वाले भविष्य की बागडोर किसी ऐसे दल को देगें जो देश की नियति तय करेगी। अत: निश्चित ही हमें धार्मिक छवि के बजाय अपने लिए उन मुद्दों पर जोर लगाने की जरूरत हैं, जो देश का वर्तमान तो बदले ही, वरन एक मजबूत लोकतंत्र की नीव रखने में सक्षम हो। देश की राजनीति का धार्मिकीकरण की कोशिश अगर सफल हो तो इन लम्हों की खता सजा, सदियों को भुगतना होगा। जो किसी भी रूप में लोकतंत्र की सेहत के लिए हितकारी ना होगा। भूतकाल से सीख कर इस तरह की धार्मिक राजनीति से ओतप्रोत किसी भी राजनीति को सिरे से नकारने की जरूरत हैं ताकि सच्चें लोकतंत्र की आत्मा को जीवित रखा जा सकें।