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शुक्रवार, 9 मई 2014

चुनावी मौसम में आपदा के संकेत..

मई का महिना आशाओं का महिना होता हैं। कृषि प्रधान देश में इस महिने में किसान अपनी फसल से हुए नुकसान और फायदें का आकलन करते हुए भविष्य के लिए योजनाएं बनाते हैं। जो उनकी आशाओं का हिस्सा होता है। हाँलाकि हर बार आर्थिक क्षेत्र के साथ साथ राजनैतिक सरगर्मियां भी मई की गर्मी में तप रही हैं। भारतीय किसान भला ही राजनैतिक सरगर्मियां में थोड़ी देर के लिए रमा हो और कृषि से जुड़े मसलों पर ध्यान कम दे रहा हो लेकिन चुनाव खत्म होते ही वो एक बार से उस ओर ही चिंता करेगा, जिस पर उसकी खेती निर्भर करती है, यानी आने वाला मानसून।
भारतीय मानसून की अनिश्चितता हमेशा ही किसानों का भविष्य से खेलती हैं, लेकिन इस बार चुनावी शोर के बीच छन छन आ रही खबरों से इस ओर ड़र बढता जा रहा है। ये खबरे हैं अल-नीनो के सक्रिय होने की खबर। विश्व की दो प्रमुख संस्थाए आस्ट्रेलिया की व्यूरों ऑफ मीटिरिओलॉजी तथा अमेरिका की क्लामेट प्रिडिक्शन सेंटर ने वर्ष 2014 में अल-नीनो के सक्रिय होने का अनुमान जारी किया है। जो भारतीय मानसून के लिए चिंता का विषय है। अल- नीनो प्रभाव के चलते भारत मे मानसून अस्त-व्यस्त हो जाता है। असंयमित मानसून सूखे की स्थिति को पैदा करता हैं, जिससे देश की कृषि विकास पर व्यापक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिसका सीधा प्रभाव भारतीय आर्थिक विकास पर पड़ता है। इसकी एक झलक भारत की प्रमुख रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के अनुमान में साफ देखी जा सकती हैं, जिसने अपनी रिपोर्ट में वित्त वर्ष 2014-15 के लिए भारत की आर्थिक विकास दर 6 % से घटा कर 5.2% रह आंकी है। अगर यह अनुमान सही निकले तो निश्चित ही भारत 2013 के बाद 2014 में एक बार बड़ी आपदा का सामना करेगा। इस तरह का प्रभाव सन 2002, 2004, 2009 में सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ा था। जिसमें 2009 की स्थिति सबसे अधिक भयावह थी। जिसने देश के कई हिस्सों में अकाल की स्थितियां पैदा कर दी थी और देश की तमाम खाद्य सुरक्षा योजनाओं के सामने संकट खड़ा कर दिया था।

अल-नीनो दक्षिण अमेरिका में पेरू, इक्वाडोर के आसपास प्रंशात महासागर के समुद्री तापमान के बढ़ जाने के कारण उपजने वाली प्राकृतिक स्थिति है। जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव मानसून पर पड़ता है। तापमान वृद्धि से मध्य और पूर्वी प्रशांत महासागर में हवा के दबाव में कमी आने लगती है। इसके प्रभाव से विषुवत रेखा के ईर्द- गिर्द चलने वाली ट्रेड विंड कमजोर पड़ने लगती है। यही हवाएं मानसूनी हवाएं है, जिनसे वर्षा होती है। इनके कमजोर होने से मानसून धीमा पड़ जाता है। जिसका प्रभाव भारत जैसे देशों में कृषि से शुरू होकर अर्थव्यवस्था के हरेक हिस्से को प्रभावित करता हैं जिसका सरोकार आम जनता से है। सिचाई, पेयजल उपलब्धता, भूमिगत जलस्तर में कमी, बाधों में जल की कमी जिससे उर्जा उत्पादन में कमी, कीमतो में अत्यधिक वृद्धि, खाद्यान्न उत्पादन में कमी जो देश की खाद्य सुरक्षा पर ही सवाल खड़ा करने वाला होगा।
हाँलाकि भारतीय मौसम विभाग इन अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की अल- नीनो संबधी भविष्यवाणी को संदेह की नजर से देख रहा है। विभाग का कहना है कि यह सारी भविष्यवाणियां एक साजिश की तरह से की जा रही हैं, क्योंकि इससे भारत का कमोडिटीज और स्टॉक मार्केट पस्त होगा, जिसका फायदा आस्ट्रेलिया और अमेरिका को होगा। क्योंकि इस डर से लोग जमाखोरी करने लगेंगे, जो बाजार में कृतिम तंगी ला देगा। भारतीय मौसम विभाग इस विषय में अपनी भविष्यवाणी अगले माह जारी करेगा। हाँलाकि भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणियों की सटीकता पर हमेशा ही सवाल उठता रहता है।
अगर इन सभी पहलुओ पर एक नजर डालें तो दोनो ही स्थितियां ही होगीं। अगर अल-नीनो की स्थितियां उपजती हैं तो देश इस साल कमजोर मानसून की चपेट में आ जाएगा, और देश को सूखें जैसी गंभीर आपदा से रूबरू होना पडेगा, और अगर ऐसा होता हैं तो आपदा प्रंबधन के साथ साथ खाद्य सुरक्षा के सामने एक बड़ी चुनौती होगी। हाँलाकि पुराने अनुभव भारत की दोनों ही क्षमता पर एक बड़ा सवाल उठाते हैं। दूसरी स्थिति में अगर ये भविष्यवाणियां किसी प्रयोजन के तहत फैलायी जा रही हैं तो भी इन अफवाहों का असर निश्चित ही भारतीय बाजार और खाद्य सुरक्षा पर पडेगा। जमाखोरी की समस्या भारत का ऐसा कोढ़ है जिसको तमाम उपायों के बाद भी निपटा नहीं जा सका है। यानी दोनो ही स्थितियां भारत की जनता के लिए आपदा ही हैं।
इन आपदाओं का सीधा प्रभाव देश की उस जनता पर सबसे ज्यादा पड़ेगा जिसके निर्धारण में देश के तमाम अर्थशास्त्रियों और विद्वानों के पैमाने छोटे पड़ते रहे हैं, लेकिन वह हमेशा ही बड़ी संख्या में इस देश में रहती है, यानी गरीब। मानसून की विफलता देश के बड़े भू-भाग को प्रभावित करेगा, जिसके व्यास में देश के हर कोने का गरीब आ जाता है, जबकि अन्य आपदाओं में आपदा का प्रभाव भौगौलिक विशेष और वहां की जनता पर परिलक्षित होता है। ऐसे में दोनो स्थितियों से निपटने के लिए ईमानदारी भरे प्रयासों की जरूरत होगी, वरना परिणाम भयावह ही होगें।
इस स्थिति में निपटने के लिए सबसे प्रमुख और कारगर उपाय होगा खाद्यान्न उपलब्धता। अगर खाद्यान्न उपलब्धता को कायम किया जा सके, और साथ ही साथ इसका समुचित प्रंबधन, वितरण और उपलब्धता सुनिश्चित कर सके तो इन दोनो ही स्थितियों (सूखा और जमाखोरी) से आसानी से निपटा जा सकता है, और इनके प्रभावों को न्यूनतम किया जा सकता है। यह तभी सुनिश्चित किया जा सकता हैं जब देश की सरकारी मशीनरी इस ओर ईमानदारी से काम करें। इसके लिए सबसे पहले इस वर्ष हुए उत्पादन का समुचित भंडारण और उसके सुरक्षित रख रखाव किये जाने की जरूरत है ताकि इसका उपयोग विषम परिस्थितियों में किया जा सके।
हाँलाकि इस ओर भारत का तंत्र काफी कमजोर है। देश के प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा भारत की भंडारण और रखरखाव की समस्या को इन आपदाओं का सहयोगी मानते हैं और कहते हैं कि हम समुचित भंडारण क्षमता उपलब्ध करा पाने में विफल रहे हैं, जिसकी वजह से उत्पादन होने के बावजूद हम कुछ भी सार्थक नहीं कर पाते है। यह सच हैं कि कृषि उत्पादनों में भारत ने आशातीत वृद्धि की है लेकिन आज ही भंडारण और उसके रखरखाव में हम पूर्णतया विफल रहे हैं। उदाहरण के लिए पहली अप्रैल तक पंजाब में 143 लाख टन अनाज भंडारण की क्षमता थी लेकिन समस्या यह है कि इसमें से 121 लाख टन के लिए जगह पहले वाली फसलों से ही भरी हुई है। इस वर्ष अकेले पंजाब से तकरीबन 140 लाख टन गेहूं की खरीदारी की उम्मीद है। इसमें से 70 फीसद हिस्सा खुले में रखा जाएगा। प्लेटफार्म के किनारे तिरपाल से ढककर बोरियों में भी अनाज रखा जा रहा है। इससे कुल 114 लाख टन अनाज के लिए अतिरिक्त जगह उपलब्ध हुई है, लेकिन इसमें से 40 लाख टन जगह पहले से भरी हुई है। हम जानते हैं कि खुले में पड़ा खाद्यान्न न केवल खराब होता जाता है, बल्कि यह मानव स्वास्थ्य और यहां तक कि पशुओं के उपभोग के लिहाज से भी खाने योग्य नहीं होता।
ऐसे मे जिस उपाय को प्राथमिक सीढी के रूप में उपयोग किए जा सकता है, वे खुद ब खुद टूटी हुई बैशाखी के सहारे चल रहा हैं। अल- नीनो क कारण प्राकृतिक हो सकता हैं लेकिन उसका बचाव केवल और केवल पूर्व की गई तैयारियों के साथ ही किया जा सकता है, जिसमें खाद्य उपलब्धता एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। भारत इस ओर अपने पुराने अनुभवों से पाठ तो पढता हैं लेकिन उससे बचने के प्रयासों की ओर अपनी सुस्ती नहीं छोड़ पा रहा है। ये प्रशासनिक धीमापन भी इस तरह की आपदाओं का सहयोग ही करते है। ऐसे में प्रतिस्पर्धी विश्व में अपनी स्थिति को मजबूत बनाए रखने के लिए भारत को मजबूत प्रंबध तंत्र को विकसित करने की जरूरत हैं ताकि आपदा के प्राथमिक प्रभावों को जो अन्य चरणों की अगुवाई भी करता है, उनसे बचा जा सके।
हाँलाकि दोनो ही स्थितियां भविष्य के गर्त में हैं लेकिन इनकी सुगबुगाहट से यह तो स्पष्ट हैं कि अगर यह उपजती हैं तो 2013 के बाद भारत एक और बड़ी आपदा का साक्षी होगा, जिसमें हमारे प्रंबध तंत्र की कमी की भी अपनी हिस्सेदारी होगी। उम्मीद करते हैं कि 16 मई के बाद नई सरकार के निजाम इस स्थितियों को गंभीरता से लेगें और इस और ईमानदारी भरे प्रयास करेगें।

                                                                                                                       शिशिर कुमार यादव

इस लेख को दैनिक जागरण ने अपने राष्ट्रीय संस्करण में 10 मई 2014 को जगह दी है।

सोमवार, 22 जुलाई 2013

राजनैतिक मरीचिका साबित ना हो खाद्य सुरक्षा अध्यादेश

देश में खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के जारी होते ही एक बार फिर से गरीब और गरीबी मुख्य धारा की चर्चा का विषय हैं। जो आम दिनों में सामान्यतया चर्चा से लगभग गायब ही रहते हैं। खाद्य सुरक्षा अध्यादेश उन दो तिहाई लोगों के भोजन की गांरटी की चर्चा हैं, जिन्हें सरकारों ने एक लम्बें समय तक अनेदेखा किए रखा और इन्हें आकड़ों की भाषा में उलझाएं रखा। सरकारी आकड़े जहाँ गरीबों को 78 प्रतिशत से लेकर 37.2 प्रतिशत तक आँकते रहें, तो वहीं कुपोषण की दरें विभिन्न सर्वें में 42 प्रतिशत से 45 प्रतिशत के बीच (0-6 साल के बच्चों मॆ) छिटकती रही। इन सब के बीच 11 से 18 वर्ष के किशोर खुद को शारीरिक विकास के पैमानें पर अल्पविकसित ही पाते रहें। बाजार की खाई ने लगातार खाद्यानों और पोषण से एक बड़े वर्ग को दूर ही रखा। ऐसें में अब जब सरकार खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लेकर आई हैं तो संभावनाओं के साथ तमाम आशंकाओं ने भी घेर लिया हैं। जो इस कार्यक्रम के भविष्य की कार्ययोजना पर एक गंभीर चिंता उभारता हैं।
चिंता कई स्तरों पर हैं, सबसे बड़ी चिंता का विषय इस अध्यादेश को संसद के आगामी मानसूम सत्र में मंजूरी दिलानें को लेकर होगी। अभी यह अध्यादेश के रूप में देश पर लागू हुआ हैं, यानी अभी इसे आने वाले मानसून सत्र में इसें संसद की मंजूरी के लिए रखा जाएगां। जिसके हंगामेदार होने के लक्षण अभी से दिखने लगें हैं। राजनैतिक दलों नें इस ओर अपनी अपनी तैयारी शुरू भी कर दी हैं। आगामी चुनावों के राजनैतिक हित को साधने के लिए जिस तरह से सत्ता पक्ष ने आनन फानन में इस को अध्यादेश के रूप में लागू किया हैं उससे निपटने के लिए विपक्ष क्या, साथ खडी पार्टियां सपा, बसपा भी पीछे रहने वाले नही हैं। खाद्य सुरक्षा जैसें मुद्दे पर सरकार की अदूरदर्शिता का प्रभाव इस पूरे प्रक्रिया पर जरूर पड़ेगा, क्योंकि विपक्षी पार्टियां इस अध्यादेश के जरिए राजनैतिक हित को साधने के लिए सत्ता पक्ष को मौका नहीं देंगी। जिससे इस महत्वपूर्ण बिल जिसका इतने लंबे समय से इंतजार किया गया वो एक तुच्छ राजनीति की भेट भी चढ सकता हैं। ऐसी स्थिति में देश की जरूरतों के आवश्यकताओं के अनुसार खाद्य सुरक्षा पर एक गहन चर्चा हो जाए इस ओर भी भरोसा रख पाना कठिन ही होगा।
दूसरी चिंता का विषय इसके वितरण प्रणाली की वर्तमान प्रावधानों के साथ साथ भविष्य में प्रणाली में होने वाले परिवर्तनों के मद्देनजर हैं। हाँलाकि अभी सरकार इसें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से शुरूआत करने वाली हैं, जिसके तहत वह प्रति व्यकित 5 किलों अनाज देने का प्रावधान रखा हैं। जिसमें ग्रामीण ईलाकों से 75 प्रतिशत और शहरी ईलाकों से 50 प्रतिशत जनता को इसके दायरे में लाया जाएगां। जिसमें 1 रू प्रति मोटा अनाज, 2 रू प्रति किलों गेहूँ औऱ 3 रू प्रति किलों चावल दिया जाएगा। साथ ही साथ 6000 रू का मातृत्व लाभ और 6 से 14 साल के बच्चों के लिए पका पकाया भोजन और अत्यन्त गरीबों को अन्त्योदय योजना के तहत 35 किला अनाज कानूनी अधिकार के साथ मिलेगा। इसके लिए सरकार को प्रतिवर्ष 125000 करोड़ धनराशि की आवश्यकता होगी। निश्चित ही यह एक महत्वाकांक्षी योजना होगी।
लेकिन फिर भी इसके संचालन को लेकर चिंता हैं, यह योजना देश में पहली योजना नहीं होगी जिसें जन वितरण प्रणाली के द्वारा संचालित किया जाएगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से कुछ इसी तरह की योजनाएं पहले से भी चलाई जा रही हैं, लेकिन इस योजना में अंतर सिर्फ इतना होगा कि अब तक जहाँ सरकार पहले से चल रही योजनाओं को कल्याणकारी योजना की तरह चला रही थी अब इसें जनता के अधिकार के रूप में सुरक्षित करेगीं। जिसके तहत यह (खाद्य सुरक्षा) आम जनता का कानूनी अधिकार होगा, जिसें न्यायिक हस्तक्षेप द्वारा कार्यान्वित कराया जा सकता है। इस तरह यह खाद्य सुरक्षा में व्यक्ति अपनी हकदारी सुनिश्चित करता हैं। लेकिन सवाल हैं, कि संचालन होगा कैसें। क्या वर्तमान व्यवस्था के कंधों से ही इस महत्वाकांक्षी योजना का संचालन होगा, और अगर ऐसा होता हैं तो क्या यह व्यवहारिक होगा, कि जिस तंत्र के लिए योजना आयोग का खुद का मानना हैं कि लोगों तक 1 रूपया लाभ पहुचाने में सरकार को 3.65 रूपया खर्च करना होता हैं उसी से इस योजना का विस्तार किया जाए।
हाँलाकि सरकार कुछ हद तक इस बार के राष्ट्रपति के सयुक्त सदन के अभिभाषण में संकेत दे दिए थें कि इस योजना को भी अतत: नकद हस्तांतरण माध्यम से ही संचालित की जाएगी। हाँलाकि बढते दबाव के कारण अभी ऐसा नहीं किया हैं लेकिन भविष्य में इस व्यवस्था को जारी रखने की संभावना कम ही नजर आती हैं। तो सरकार विकल्प रूप में नगद हस्तांतरण की प्रक्रिया लागू करेगी। ऐसें में सरकार खाद्य सुऱक्षा में इस प्रयोग में गरीबों की खरीदने की शक्ति को बढा कर खाद्यानों के दाम को बाजार के हाथों में सौप देगी ऐसें में खाद्य सुरक्षा के बजाय यह व्यवस्था बाजार सुरक्षा में परिवर्तित हो जाएगी । मांग को बढता देख बाजार में खाद्यों के दाम में अतिशय वृद्धि होगी ही यह अर्थशास्त्र मूलभूत सिद्धान्त हैं। ऐसें में गरीबों को खाद्यान्नों को महगी दरों पर खाद्यान खरीदना होगा। नगद हस्तांतरण के आते ही केन्द्र सरकार खाद्यानों के मूल्य तय करने वाली सेन्ट्रल इश्यू प्राइस विधि को से बाजार को नियत्रित करने का नैतिक हक भी खो देगी, क्यूकि अभी तक सरकार इसी सेन्ट्रल इश्यू प्राइस प्रणाली के तहत बाजार को नियत्रितं करती रही हैं। ऐसें में यह खाद्य सुरक्षा के अधिकार को कैसे सुरक्षित रखेगी यह निष्कर्ष निकालना कठिन होगा। अभी भविष्य में किस तरह की व्यवस्था जारी की जाएगी यह सुनिश्चित करना कठिन होगा लेकिन इस और उपजने वाले खतरों को ध्यान में रखने की अत्यन्त आवश्यकता है।
इसके अलावा इस योजना में कृषि प्रणाली में सुधार ताकि लघु और सीमांत कृषको को बढावा, कृषि निवेश, कृषि अनुसंधान पर विकास, सिचाईं विकास, उचित प्रंबधन और विपणन सुविधाओं का विकास, भूमि का उचित प्रयोग को बढावा देकर खाद्य सुरक्षा को दीर्घ-कालीन परिदृश्यों में रखने का प्रयास किया जा रहा हैं। जिसके लिए एक कुशल राजनैतिक इच्छाशक्ति और योजना की आवश्यकता हैं। क्योंकि अलग अलग स्तरों पर इन और राज्य और केन्द्र सरकारे काफी पैसा खर्च करती रही हैं।
इन सब के मद्देनजर रखते हुए यह देखना बहुत ही जरूरी हैं कि जन अधिकारों में एक महत्वपूर्ण योजना किसी भी राजनैतिक नीतियों और आर्थिक कमियों की भेट ना चढ जाएं। देश के आर्थिक और सामाजिक स्थिति को देथते हुए इस ओर व्यवस्था के व्यापक प्रयास करने की जरूरत हैं ताकि सही अर्थों में खाद्य सुरक्षा सुरक्षित की जा सकें, और अगर इस व्यवस्था में अगर इस तरह की खामियाँ रह गई तो यह एक राजनैतिक एक और मरीचिका सरीखा होगा, गरीब जनता के लिए सिर्फ आभास होगा खाद्य सुरक्षा नहीं। इसलिए मरीचिका के प्रभाव को ना पनपने देने के लिए एक कुशल कार्यकारी औऱ समेकित योजना पर बल देने की जरूरत हैं।


शिशिर कुमार यादव.