शनिवार, 14 जून 2014

गलतियों से ना सीखने की जिद

एक साल पहले ठीक इसी वक्त हम उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा में मानवीय सहयोग की समीक्षा कर रहे थे। बड़े पैमाने पर हुई उस आपदा के बाद आपदा प्रंबधन को कोस रहे थे, उस समीक्षा में पाया गया कि देश में आपदा प्रंबधन का तंत्र ना केवल कमजोर हैं वरन वो तमाम स्तरों पर पूर्णतया खोखले है। लेकिन विभीषिका की उस स्थिति को देख कर बचाव में मानवीय सीमा को एक हद तक स्वीकार कर लिया गया था और उससे सबक लेकर इस तंत्र को मजबूत करने पर बल देने की बात। लेकिन मानवीय भूमिका में बदलाव लाने पर सहमति बनी थी ताकि किसी भी प्रकार के हादसे से बचा जा सके। ठीक एक साल बाद हिमाचल प्रदेश में लारजी प्रोजेक्ट से छोड़े गए व्यास नदी के पानी में बह कर 25 जानों की कीमत पर एक बार फिर चर्चा कर रहे हैं और कोसने के लिए एक बार फिर आपदा प्रंबधन तंत्र ही है। इस बार ऐसा कुछ नहीं था जिसे टाला नहीं जा सकता था। इस विफलता की कीमत 25 लाशे हैं जिन्हें अभी अपने सपनों की उड़ान उडना था, लेकिन तंत्र की लापरवाही ने उन्हें उडने से पहले ही दफना दिया। जिनमें से 16 लोगों को आज भी खोजा जा रहा हैं ताकि उनके अवशेषों को लेकर परिजन उन्हें अंतिम यात्रा के लिए विदा कर सके।


परिजनों के जाते ही इस हादसे का इतिहास हो जाना तय है। चल रही जाँच किसी परिणाम तक पहुचेगी, इसमें संशय ही है क्याँ इसे सामान्य एक हादसा मान लिया जाए और आगे बढ जाया जाए ? या इस ओऱ कुछ बदलने पर जोर दिया जाए। आखिर यह हादसा हुआ क्या? गलती किसकी थी उन बच्चों की जो नदी के कम पानी की यादों को अपने साथ ले जाने वाले थे या उस प्रंबधन तंत्र की जिसने उनकी यादों को सदा के लिए वही दफन कर दिया। कारण इतने भी कठिन नहीं हैं, हादसों के कारणो के कुछ पन्ने पलटे और वजह को कुरेदना शुरू करे तो आसानी से समझ में आ जाएगा कि कितनी गैरजवाबदेही से तमाम नियम कानून ताक पर रख दिए गए। इसके साथ ही साथ ऊर्जा उत्पादन के नाम पर प्रकृति को बाधने की तेजी में, उभरने वाले खतरों से निपटने के लिए किसी भी प्रकार के तंत्र के पूर्ण अभाव को दर्शाता है। अगर इस हादसे की कहानी की ओर देखें तो जिस कारण को प्रमुखता से बताया जा रहा है और उस पर अगर भरोसा किया लिया जाए तो इसके पीछे उत्तरी ग्रिड को बचाने के लिए लारजी प्रोजेक्ट से बिजली उत्पादन में गिरावट को माना जा रहा है। इस प्रोजेक्ट से उत्पादन को 138 मेगा वाट से गिराकर 32 मेगावाट पर लाने का आदेश स्टेट लोड डिस्पेच सेंटर (एसएलडीसी) द्वारा दिया जाता है ताकि उत्तरी ग्रिड पर अतिरिक्त बिजली के दबाव के चलते ग्रिड के फेल होने को रोका जा सके। जिसके चलते अतिरिक्त जल को बाहर करना पड़ा। जिसके चलते व्यास नदी के जलस्तर तेजी से बढा और जिंदगियाँ बह गई।
 एक स्तर से देखा जाए तो कारण में इतनी बड़ी समस्या नहीं दिखाई पड़ती है, लेकिन अगर थोड़ी सी पडताल की जाए तो स्थितियाँ चिंतित करने वाली हैं। हिमाचल प्रदेश राज्य से 27000 मेगा वाट विजली उत्पादन के लिए प्रतिबद्ध हैं जिसके चलते राज्य में तेजी से बांधों का विकास हुआ, जिनमें तमाम छोटे बांध तेजी से उभरे। सतलुज, व्यास, चिनाव, रावी, यमुना नदी पर तमाम बिजली प्रोजेक्ट बनाए गए। सरकारी और स्वंतत्र रूप से बिजली उत्पादन करने वाली तमाम संस्थाए बिजली उत्पादन में लगी हुई है। इसमें से अधिक रन आफ द रिवरतकनीक पर ( भागडा को छोड़कर) आधारित हैं, जिसमें थोड़ी देर के लिए नदीं के जल को रोका जाता है और फिर पानी के प्रवाह को जारी रखा जाता है। लारजी प्रोजेक्ट भी इन्ही रन आफ द रिवरतकनीक पर आधारित हैं। अत: यह बात आसानी से समझा जा सकता है, कि यहाँ पानी समय समय पर छोड़ा जाता है और उस दिन छोडा गया पानी उसी सामान्य क्रिया का एक हिस्सा भर था।
लेकिन ऐसी स्थिति में जहाँ जल स्तर पर लगभग पूर्णतया अनिश्चितता हैं वहां किसी तरह का सूचना तंत्र का विकसित ना होना आश्चर्यचकित करने वाला है। इस ओर आपदा प्रंबधन की उदासीनता को कैसे लिया जाए जबकि इस तरह से तेजी से जलस्तर के बढने की घटना आम बात मान कर बैठा हुआ है। शायद जलस्तर के तेजी से बढने को इतना सामान्य मान लिया गया है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री इसे सामान्य घटना मान रहे थे और किसी तरह के सूचना तंत्र के अभाव पर गंभीर नहीं दिख रहे थे। जबकि विशेषज्ञ सामान्य रूप से इस तरह के तंत्र में जहाँ रन आफ द रिवरतकनीक पर आधारित परियोजना हैं वहां इस तरह की स्थितियों को सामान्य मानते हैं लेकिन इसके लिए प्रभावी सूचना तंत्र की वकालत करते हैं ताकि किसी भी प्रकार के हादसो से बचा जा सके। विशेषज्ञ इस तरह के सूचना तंत्र के जाल को कम से कम बांध से 5 किमी तक फैले होने की सिफारिश करते हैँ। लेकिन विचार करने योग्य तथ्य यह हैं कि 27000 मेगावाट के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध हिमाचल इस तरह के तंत्र को विकसित नहीं कर पा रहा हैं, और इस तरह के हादसों को एक सामान्य घटना की तरह आँक कर वह समस्या की गंभीरता को कम करके आँक रहा है। इसमें राज्य आपदा प्रंबधन की उदासीनता भी शामिल हैं जो एक प्रभावी सूचना तंत्र विकसित करने में पूर्णतया विफल रहा हैं जहाँ जल एक संसाधन और समस्या दोनो की वजह है।
दूसरी सबसे बड़ी समस्या इस पूरे घटना क्रम में सरकारी तंत्र की जवाबदेही पर हैं जो इस तरह के बिजली उत्पादन पर ना केवल नजर रखता हैं बल्कि आवश्यक कदम  उठाता है। हिमाचल प्रदेश में स्टेट लोड डिस्पेच सेंटर (एसएलडीसी) द्वारा दिया जाता है। लेकिन इस पूरे हादसे में इसकी कार्यप्रणाली पर भी एक व्यापक सवाल उठता नजर आ रहा है। विचारणीय तथ्य हैं कि अगर उत्तरी ग्रिड को अतिरिक्त दबाव से बचाने के लिए उत्पादन घटाने की स्थिति आ ही गई थी तो केवल सरकारी यूनिटो की बिजली उत्पादन करने को ही क्यूँ कहा गया। लारजी के अलावा पार्वती-3, गिरी के उत्पादनो का घटाना पड़ा था। लेकिन इसके इतर स्वतंत्र उत्पादको ने अपनी क्षमता से अधिक उत्पादन किया था। जिसमें 1000 मेगावाट के जेपी कंपनी के कडछूम वांगतू प्रोजेक्ट ने 1187 मेगावाट, एनजेवीएन के नाथापा झाकडी प्रोजेक्ट ने 1500 मेगावाट की जगह 1602 मेगावाट, एवरेस्ट पावर कंपनी के मलाणा-2 प्रोजेक्ट ने 100 मेगावाट की जगह 105 मेगा वाट, लैंकों कंपनी के 70 मेगावाट के बुद्धिल प्रोजेक्ट ने 69 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया। ऐसे में संदेह उभर कर आता हैं जिस उत्तरी ग्रिड को बचाने के लिए संस्थानों को बिजली उत्पादन में गिरावट करने का आदेश दिया गया वहीं स्वंत्रत उत्पादक अपनी क्षमता से उत्पादन कैसे कर रहे थे ? स्थानीय मीडिया खबरो और विशेषज्ञों की राय पर भरोसा किया जाए तो यह उन्हें लाभ पहुचाने के लिए किए जाने वाला प्रयास लगता है, क्यूँकि अगर सरकारी बिजली उत्पादन कम रहेगा तो पैसा बनाने का अवसर किसके पास उपलब्ध होगा इसे आसानी से समझा जा सकता है। हाँलाकि यह जाँच का विषय हैं, लेकिन दोनो ही स्थितियां निश्चित ही प्रंबधन तंत्र की कमी को उजागर करता है, अगर सच में उत्तरी ग्रिड पर खतरा था तो इन्हें उत्पादन कम करने को क्यूँ नहीं किया गया?  अगर ये तमाम प्रोजेक्ट भी अपने उत्पादन को कम करते तो लारजी प्रोजेक्ट को अपने उत्पादन में भारी गिरावट (अपने उत्पादन का) नहीं करना पड़ता और उसे इतनी बड़ी मात्रा में पानी भी नहीं छोड़ना पड़ता और शायद इतनी बड़ी विभीषका कारण भी नहीं बनाता। अगर दूसरी स्थिति पर विचार करे जिसमें किसी को अनुचित लाभ पहुचाने का प्रयास किया जा रहा हैं तो यह एक पूरे तंत्र की विश्वसनीयता पर सवाल है। जहाँ एक ओर देश उर्जा समस्या से जूझ रहा है वहां इस तरह की मिलीभगत निश्चित ही देश की उर्जा उपलब्धता पर सवाल उठाएगा ही। निश्चित ही इस ओर एक व्यापक रणनीति बनाने की जरूरत हैं ताकि विभिन्न संस्थानों के बीच ना केवल सामजस्य बनाया जा सके, और पर्यावरणीय पारिस्थितिकीय के साथ साथ पर्यटन के विभिन्न रूपों को बचाया जा सके।
एक स्थिति में जो घटना इतनी छोटे कारण से परिलक्षित होती हैं दरअसल उसकी और भी तहे हैं जिन्हें उधेड़ कर कार्यवाही करना बेहद जरूरी है। राज्य आपदा प्रंबधन तंत्र की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि वो इस तरह के हरेक प्रोजेक्ट के सुरक्षा और सूचना तंत्र की बारीकी से जाँच करे ताकि उस तंत्र को विकसित किया जा सके, जिसमें सुरक्षित पर्यावरण के साथ इस तरह के हादसों को टाला जा सके। इसके साथ एक ऐसे तंत्र का भी विकास करना चाहिए जो पर्यटन और विभिन्न विकास परियोजना के बीच एक सामजस्य स्थापित किया जा सके। इसके साथ  सरकारों को बिजली उत्पादन के पीछे की तमाम राजनीति से जुडे पहलू को एक बार फिर से जाँचने की जरूरत है ताकि उर्जा उपलब्धता के साथ साथ उत्पादन के तहों में भ्रष्टाचार के बीजो को पनपने से रोका जा सके।

शिशिर कुमार यादव
इस लेख को दैनिक जागरण ने अपने राष्ट्रीय संस्करण में 15 जून 2014 को जगह दी है।