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गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

‘आप’ ‘खाप’ और मीड़िया का अर्नबाइजेशन

आम आदमी पार्टी (आप) ने खाप नाम का जाप क्या किया, देश में तमाम मंचों से खाप पर फिर से चर्चा शुरू हो गई है। चर्चा का रूप राजनैतिक है। चर्चा का स्वरूप कुछ इस तरह है कि जिस तंत्र को खुद सुप्रीम कोर्ट ने वैधानिक रूप से नकार दिया है, बल्कि उसे असंवैधानिक भी कहा है, उसे आम आदमी पार्टी, जो 21 सदी के राजनीति की सबसे बड़ी झंड़ाबरदार है, उसका समर्थन कैसे कर सकती है। भारतीय समाज की में खाप की पहचान एक स्वंयभू जातिवादी संगठन की है जो ना केवल अलोकतांत्रिक है और कई मामलों में अमानवीय तक रही है। उसका समर्थन करने के बाद आप की प्रगतिशीलता पर ना केवल सवाल उठ रहा है वरन उनका राजनीति में खुद को  विकल्प के रूप में पेश करने पर भी सवाल उठ रहे है। यह चर्चा इतनी तीखी और कठोर हो चली हैं कि आम आदमी पार्टी के किसी भी प्रतिनिधि को इस विषय पर दी गयी प्रतिक्रिया को सहज रूप स्वीकार नहीं किया जा रहा है, साथ ही साथ उन्हें भी खाप समर्थक बता कर ही मंचों पर पेश किया जा रहा है। अर्नव गोस्वामी के कार्यक्रम में प्रों. आनंद कुमार के साथ हुई कुछ तंज बहस बस उसी का हिस्सा भर थी।
निंसदेह, आम आदमी पार्टी (आप) खाप के मसले पर बैकफुट पर है, और वो खुद उसी उन्माद का शिकार बन रही है, जो उन्माद कभी उसके समर्थन में अन्ना आंदोलन में भष्ट्राचार के विषय पर उनके साथ खड़ा था, जहां हर वो आदमी भष्ट्राचारी हो जाता था, जो अन्ना का विरोध करता था। ठीक उसी तरह की परिस्थितियां आज है, कि खाप के पक्ष में कुछ शब्द बोल भर देने से आप खाप समर्थित पार्टी हो गई है, जिसका खामियाजा कई मंचो से आलोचना के रूप में झेलना पड़ रहा है।
हम आप खुद खाप का समर्थन नहीं करते और उसका विरोध करते है, लेकिन क्या विरोध करते हुए खाप रूपी तंत्र पर प्रतिबंध लगा भर देने से खाप समाप्त हो जाएंगी? क्या खाप कोई तंत्र है या भवन जिसको ध्वस्त कर देने भर से खाप का आंतक उस समाज से हट जाएगा जहां खाप का आंतक छाया हुआ है? अगर हां तो हम सब को वहाँ चलना चाहिए जहां ये तंत्र और भवन है, उन्हे ध्वस्त करके समाज को खाप जैसी सड़ी हुई व्यव्स्था से मुक्ति दिलानी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है, खाप कोई भवन या तंत्र नहीं जिसको ध्वस्त या सिर्फ प्रंतिबंध और उसकी वैधानिकता पर सवाल उठा देने या तय कर देने से समाप्त हो जाएगी। खाप एक विचार धारा है, जो हर उस व्यक्ति में तंत्र के रूप में स्थापित है, जो दूसरे के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन अपने उन सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर करता आ रहा है जो ना केवल अलोकतांत्रिक है वरन अमानवीय भी है।
हमे समझने की जरूरत हैं जिन खाप पंचायतों का चित्रण हमारी आधुनिक मीडिया द्वारा आम जनमानस को दिखलाया है, वो पूर्ण खाप नहीं है, जहाँ समाज के कुछ बूढें अपने ही समुदाय के पुरूषों के साथ बैठकर दूसरों के बारे में निर्णय सुनाते है, ये हिस्सा खाप का एक छोटा हिस्सा भर हैं जो हाथी के दिखाने के दांत सरीखे है। उस खाप का क्या जो हर दिन हमारी आपकी विचारधारा के रूप में उस छोटे समूह द्वारा तय की गए समस्त निर्णयों को वा केवल स्वीकृति देता है, वरन सामाजिक बल की तरह उन्हें निष्पादित भी करवाता है। ये असली खाप हैं, जो विचारधारा के रूप में वहां के आम जन मानस में घर किया हुआ है, जिस पर हमारी आधुनिक मीडिया में कोई चर्चा नहीं होती हैं, इस ओर आधुनिक मीड़िया की समझ काफी कमतर ही रही है। इसीलिए खाप के विरोध में लड़ी जा रही तमाम लड़ाईयां खाप के विरूद्ध कुछ भी ठोस कर पाने में सक्षम नहीं रही हैं, और खाप आज भी अपने अलोकतांत्रिक व्यवहार को जी रही हैं, मुज्जफरनगर दंगों में बलात्कार आरोपियों के समर्थन में उनका बयान उसकी अगली कड़ी भर है।
खाप पर हो रही तमाम बहसो के जितने भी चित्र खीचे गए है उनमें अधिकतर लड़ाई खाप एक तंत्र के रूप में लड़ी जा रही हैं। खाप एक विचारधारा की बहस शायद पीछे छूट चुकी है, इसीलिए मीडिया खुद जिसका अर्नबाइजेशन (इसे अर्नब गोस्वामी सरीखी पत्रकारिता से ही जोडें) हो चुका है वो खाप एक बर्बर तंत्र को ध्वस्त करने पर ही जोर देता आ रहा है। इसके इतर की बहस से वो काफी दूर हो चुका है और अपनी अदूरदर्शिता के चलते जब भी कोई इस कोई उस ओर सवाल खड़ा करके चर्चा और संवाद स्थापित करने की कोशिश करता है, तो बजाए विचारधारा पर बहस करने के, वो इसे सामाजिक पिछड़ापन, नारी सशक्तिकरण और व्यक्तिगत अधिकारो के हनन के प्रमुख केंद्र के रूप में स्थापित करके सारी की सारी बहस खाप एक तंत्र तक सीमित कर देता है, जहाँ खाप एक विचारधारा हमेशा ही हाशिएं का सवाल बना रह जाता है, और सारी की सारी लड़ाई खाप एक तंत्र तक ही सीमित रह जाती है।
आम आदमी पार्टी के विचार के बाद भी कुछ इसी तरह की बहस जारी हैं, जहाँ खाप तंत्र को सुप्रीमकोर्ट के निर्णय पर आधार पर खारिज करने की तेजी जरूर है, लेकिन विचारधारा पर बहस का माहौल बना कर चर्चा स्थापित करने की कोई कोशिश नही दिख रही है। समस्त राजनैतिक, सामाजिक और मीड़िया मंचों से विचारधारा की बहस लगभग गायब है। हमे यहाँ समझने की जरूरत हैं कि खाप कोई प्रथा नही है, जिस पर प्रतिबंध लगाकर रोका जा सकता है, और ना ही कोई तंत्र है जिसे ध्वस्त करके समाप्त किया जा सकता है, खाप एक विचारधारा है, जिसे किसी भौतिक तंत्र की जरूरत नही। वह बिना तंत्र के भी एक व्यक्ति के भीतर तंत्र के रूप में जिदा रह सकती है। इसीलिए खाप को एक सामाजिक समस्या की तरह देखा जाना चाहिए। जिसके हल वैधानिक, राजनैतिक के साथ साथ सामाजिक होगे। अकेले वैधानिक या राजनैतिक हल खाप के लिए अपर्याप्त होगें।
 यह सच है कि किसी भी समस्या को हल करने में राजनैतिक और वैधानिक पक्ष महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, लेकिन वो उस समस्या के लिए पूर्ण हो जरूरी नहीं। इसीलिए जब मसले सामाजिक समस्या के हो तो उनके हल भी सामाजिक खांचों में खोजने की जरूरत पर बल देने की जरूरत होती है। वरना उस और किए गए सारे राजनैतिक और सामाजिक प्रयास सफेद हाथी सरीखे होते है। देहज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, महिलाओं की सुरक्षा पर बने कानून इनके गवाह हैं, इन पर बने तमाम कानूनों के बाद इन समस्याओं में सुधार नाम मात्र का हुआ है। ऐसे में हमें खाप पंचायत से इस लड़ाई को कानूनी, राजनैतिक के साथ साथ सामाजिक पृष्ठभूमि में खीचने की जरूरत है। जहां से इस लड़ाई को उस हर युवा तक लेकर जातने की जरूरत है जो खुद की सामाजिकता और सामाजिक जवाबदेही इस विचारधारा को बनाए रखने में रखता है। उसे इस विचार धारा के खिलाफ करने के तक लड़ना होगा। और यह सिर्फ छोटे छोटे विरोधों से ही स्थापित हो सकता है। इन विरोधो के लिए हमें किसी बड़े राजनैतिक मंच की जरूरत भी नही होगी। इसकी शुरूआत छोटे छोटे घरो से करनी होगी, और ये विरोध लगातार होने चाहिए। इस तरह के छोटे छोटे विरोधो से इन अलोकतांत्रिक संगठनो को बड़ी गहरी चोट पहुचती है। उदा. के लिए सर पर दुपट्टा ना रखना आधुनिकता का परिचायक है, जिसने समाज में काफी कुछ बदला।
 इन परिस्थितियों में युवाओ का विरोध जिसमें बदलाव की क्षमता है उनकी जिम्मेदारी और बढ जाती हैं क्यों कि जो बीत गया वो बीत चुका हैं पर हमें जिस समाज में रहना हैं उसका निर्माँण खुद करना होगा ताकि समाज जिन अपराधों को देखे -अनदेखे में लगातार बढावा देता आ रहा हैं उस बढावें को एक करारा धक्का लग सकें। मजूबत लोगों ने कमजोरो के अधिकारों को सहर्ष नहीं दिया है बडी लडाईयां लडनी पडी हैं। इतिहास साक्षी है हर लड़ाई का। कई चेहरे है इन लडाईयों के। जब भी उनका अधिकार खिसके हैं, तो मजबूत वर्ग द्वारा अपराध ही कियें गए है। ऐसे में दमनकारी विचारधारा को पहचान कर उसका लोकतांत्रिक विरोध करने का वक्त हैं। इसलिए इस जब आम आदमी पार्टी ने एक बार फिर से खाप के मुद्दे को चर्चा में ला दिया हैं, तो विमर्श विचारधारा पर केंद्रित कर लड़ाई को आगे ले जाने की जरूरत पर बल देने की जरूरत है ना कि तंत्र को वैधानिक नियमों के तहत तंत्र को प्रंतिबधित करने की आधी अधूरी मांग कर के खुद की जीत मनाने का।

शिशिर कुमार यादव

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

दंगो की बर्बरता को सामाजिक पहल से ही रोका जा सकता है।


दंगें बर्बरता की निशानी होते हैं। सभ्य समाज के अवधारणा में दंगें उन काले धब्बों सरीखे हैं, जिन्हे कभी भी साफ नहीं किया जा सकता। कुछ इसी तरह मुजफ्फरनगर में घटित हुआ जिसमें हर दिन मानवता शर्मसार हुई। मुजफ्फरनगर से फैले दंगों के बाद, उत्तर प्रदेश सरकार की खूब आलोचना हुई। सरकार में बैठे प्रमुख बयानबीरो ने भी इसमें काफी मिर्च डाली, और रही सही कसर सैफई उत्सव के नाम पर आए हुए कलाकारों और उन पर खर्च हुए पैसों ने पूरी कर दी। सच में किसी भी सरकार का रवैया अपने ही नागरिको के प्रति निश्चित ही निंदनीय है। देश के तमाम राजनैतिक मंच से इसकी आलोचना जारी है, किंतु क्या सच में इन दंगों के बाद उपजी स्थितियों को सिर्फ और सिर्फ राजनीति के पैमाने और उससे जुडें सरोकार के भीतर सुलझाने की कोशिश सही होगी। निंसदेह इन उपजी स्थितियों में राजनैतिक हल और प्रयास एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता हैं, लेकिन राजनैतिक सीमाओं के इतर इस पूरे घटना क्रम को समाजिक तथ्यों के साथ समाजविज्ञान के खाँचों में देखने की जरूरत है, ताकि इस ओर हो रहे राजनैतिक प्रयासों को सामाजिक स्थिति में बदल कर, जमीन पर प्रभावित और पीडितों को सहायता दी जा सके।

   शामली जिले के काँधला नगर पालिका से मलकपुर के राहत शिविरों तक मिलने वाले हर दंगा पीडितों से बात करने पर एक बात जो उभर कर आई वो, अपने ही बगल वाले के प्रति उपजा अविश्वास। जिसके कारण वो विषम से विषम परिस्थितियों में प्लास्टिक शीट्स में सोने को तैयार है, अपनो को कच्ची कब्रों में दफनाने को तैयार हैं, फिर भी उन ईलाकों में लौटने को तैयार नही, जो ईलाके कभी उनकी पहचान रहे हैं। अपनों को खोने के गम के साथ अपनी जड़ो तक ना लौट पाने की परिस्थितियाँ सच में इन लोगों के जीवन के सबसे कठिन दौर का हिस्सा है।

सरकार राहत बाट कर खुश है और बचे लोगों को किसी राजनैतिक दल से प्रेरिक बता कर अपना पल्ला झाड रही है, वहीं राजनैतिक दल अपने लिए  राजनैतिक अवसर समझ कर अपनी अपनी नैतिकता के साथ खडे है। लेकिन इन सबके इतर टेंटों में रह रहे लोग अपनी जिंदगी के साथ हर रात दो- दो हाथ कर रहे है, पर उन जगहों पर लौटने के लिए तैयार नही है।
 यह अविश्वास यूँ ही नहीं पनपा है। यह अविश्वास इतना गाढा है कि आसानी से मिटाया भी नही जा सकता है। दंगों के इतिहास पर नजर डाले को कुछ एक अवसरो को छोड़ दे तो हम पाते हैं कि दंगे शहरों तक ही सीमित रहे है, गांवो तक इनकी आँच नहीं पहुच पाती थी। इसकी बड़ी वजह गांवों में सामाजिक संबध का मजबूत गठजोड़ होना। जिन्हे सोशल नेटवर्क कहा जाता हैं, इसके कई चरण होते है, पहले चरण में किसी वर्ग के अंतर्गत संबधो के साथ समाज बधा होता है, और दूसरा संबध दो भिन्न वर्ग के अंतर्गत होते है, जिनकी वजह से ग्रामीण समाज एक विशेष प्रकार का सामाजिक सुरक्षा के साथ रहता है। इन्ही गठजोडों मे उसकी आर्थिक, सामाजिक और मनौवैज्ञानिक आवश्यकताए पूरी होती है। इसीलिए दंगे शहरो में फैल जाते थे जहाँ के सामाजिक संबध कमजोर होते थे, किंतु गांवो तक आते आते ये खुद ब खुद दम तोड देते थे। सामाजिक सुरक्षा के जिम्मेदारी किसी एक वर्ग की ना होकर सभी वर्गों की होती है, जिसके कारण इस तरह की स्थितियाँ गाँवों में कम पनपती रही है।
लेकिन मुजफ्फरनगर औऱ शामली में फैला दंगा अपने आप में विशेष है कि जिन जगहो पर ये स्थितियाँ पनपी है, वहा ना इससे पहले कभी इस तरह का सांप्रदायिक दंगे की स्थितियाँ पनपी थी, और आस पास अन्य जिलों में हुए सांप्रदायिक दंगों (उदा. मेरठ) का चरित्र सदैव ही शहरी जनसंख्या  तक सीमित था। लेकिन इस बार पहली बार ना केवल इस इलाके ग्रामीण में दंगे हुए बल्कि इन दंगों ने उन इलाकों को और गांवो को चपेट में लिया जो सामाजिक सौहार्द के प्रमुख केंद्र हुआ करते थे। इसलिए इस ईलाके में उपजे अविश्वास ने ना केवल लोगों का अविश्वास इतना गहरा कर दिया हैं कि हर आयु वर्ग के लोगों में यह अविश्वास आसानी से पढा जा सकता है। यही वो अविश्वास है, जिसकी वजह से राहतराशि प्राप्त करने और तमाम आश्वासनों के बाद भी लोग अभी भी उन कठिन परिस्थितियों के साथ रहने के लिए तैयार है, लेकिन अपने घरों को लौटने को तैयार नही हैं।
 आखिर इस ओर क्या किया जाना चाहिए? जिन्हें उपाय में बदला जा सके। क्या सच में राहत राशि बाँट कर और लोगों को ग्रांम सभा की जमीने दे कर उन्हें बसा देना इन पीडितों के साथ न्याय होगा, अपराधियों पर मुकदमें चला कर उन्हे सजा मिल जाने भर से इस उपजे अविश्वास से कैसे ऩिपटेगे? यह बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल हैं, जिनके अगर जवाब नहीं खोजे गए तो निश्चित ही ऐसी सामाजिक परिस्थितियाँ पैदा होगीं जिनके परिणाम ना केवल दूरगामी होगें वरन आने वाले वक्त में स्थितियाँ और भी कष्टप्रद होगीं।
इसका सीधा और सरल उपाय यही है कि राहत शिविरों में रह रहे लोगों को सम्मान और मर्यादा के साथ उन्हे अपने अपने घरों तक वापस पहुचाया जाय और अपराधियों को अपराधी ही मानकर उन्हें सजा दिलाई जाए।सरकारे ये काम बिना सामाजिक जवाबदेही, दबाव और हिस्सेदारी के नहीं सुनिश्चित कर सकती है। समाज के अन्तर्निहित घेरों में सरकार की उपस्थिति किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं कर सकती जब तक समाज के विभिन्न वर्ग इसमें अपनी जवाबदेही नहीं तय करते। किसी भी समाज में अल्पसंख्यक वहाँ की जिम्मेदारी होते हैं, ऐसे में अल्पसंख्यकों के साथ हुई किसी भी ज्यादती की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी बहुसंख्यक वर्ग की है। जिनसे बचना किसी भी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं हो सकता है। दंगें बर्बर समाज का हिस्सा हैं, और बहुसंख्यकों के शामिल और उदासीन होने की वजह से ही दंगाई समाज के अमन चैन को लूटने में सक्षम होते है। ऐसे में जब एक स्थिति आप के हाथ से निकल गई है, तो सउन स्थितियों को सुधारने से बचने की जद्दोजहद एक बडी आपदा को आहुत करेगी। जिसमें ताकत की ही श्रेष्ठता है, और आप कब कमजोर वर्ग में शामिल हो जाएगे पता भी नही चलेगा।
    अगर ऐसा नहीं होता है और शरणार्थियों को अलग जमीन देकर नए घेटो (किसी विशेष स्थान पर इकठ्ठा होना) बनाने के सोच समाज में उस तरह के तनाव के केंन्द्र बन जाएगें, जो किसी वर्ग के लिए घृणा के केन्द्र होगे। ऐसे केन्द्र समाज में सामाजिक वैमनस्यता को बढावा देगें। इन केन्द्रों में रह रहे लोग भी अपना सब कुछ खो जाने और अपने प्रति हुए अन्याय के कारण अन्य वर्गों और समूहों के प्रति वैमनस्य भाव ही रखेगे। ऐसे में इस विकल्प पर विचार करके सामाजिक जवाबदेही से बचने सरीखा है। इससे गलती को सुधारने के बजाए, उससे लीपापोती करना सरीखा होगा, और इन आक्रोशों का उपयोग समाज को तोडने वाले भी उठा सकते है, जो की लम्बे दौर के लिए सामाजिक सौहार्द के लिए खतरा होगा।
ऩिसंदेह सामाजिक समस्या का राजनैतिक हल होता हैं, लेकिन राजनैतिक हल सामाजिक जवाबदेही से तय की जा सकती हैं। राजनैतिक हल बिना सामाजिक हिस्सेदारी और जवाबदेही के साथ नहीं तय किए जा सकते है। जब मसला दंगे सरीखा हो तो इसमें सामाजिक बर्बरता का तांड़व होता हो, उसमें बदलाव करने के लिए सामाजिक प्रयास ना केवल महत्वपूर्ण हो जाते है बल्कि इस और ईमानदारी से प्रयास की जरूरत है। इस समय चल रही बहसो जो कि सरकार की आलोचना कर रहे है औऱ दोनो पक्षों के पैरोकार है, उन्हे इस ओर ध्यान देने की जरूरत हैं कि वो सामाजिक सौहार्द को बनाने के लिए मंच बनाए ताकि सामाजिक बर्बरता के जो बीज दंगाईयों ने बो दिए है, उन्हे पेड़ बनने से रोका जा सके और लोगो का अपनी जड़ो और जमीनो पर विश्वास कर अपने कुनबों को लौट सके।

इस लेख को दैनिक जागरण ने अपने राष्ट्रीय संस्करण में 17 जनवरी 2014 को जगह दी है।

शिशिर कुमार यादव