गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

विरोध की प्रयोगशाला राजपथ नहीं आपका अपना घर होना चाहिए

बीते हफ्ते दिल्ली में हुए 23 वर्षीय छात्रा के बलात्कार के बाद दिल्ली में बलात्कार के विरोध में एकाएक जनता सड़क पर उतरी। जिसमें युवाओं की बड़ी भागीदारी दिखी। सड़क पर उतरी जनता ने इस अमाननवीय कृत्य का पुरजोर विरोध किया गया। जिसने सरकार की चूल्हें हिला कर रख दी। इस विरोध ने राज्य सरकार क्या केन्द्र सरकार के प्रमुख जिम्मेदार ओहदे पर बैठे लोगों को अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही के लिए मजबूर किया। इस विरोध के बाद महिलाओं की सुरक्षा और उनके सार्वजनिक जगहों पर अधिकार को लेकर सभी मंचो पर एक चर्चा का माहौल बना। इस माहौल को ना तो गुजरात के मोदी का जादू ही धूमिल कर सका और ना ही क्रिकेट के भगवान सचिन तेदुलकर का एकदिवसीय क्रिकेट से सन्यास। इस विरोध ने इस महत्वपूर्ण चर्चा को जिंदा रखा जो आमतौर पर इतनी बडी खबरों के बाद स्वत: ही दम तोड़ देती है।               

ऐसा नहीं हैं कि बलात्कार इस देश में पहली बार हुआ था या सरकार का विरोध पहली बार हो रहा हैं। लेकिन फिर भी यह जनाक्रोश अपने आप में काफी अलग था। जिसने दिखाया कि ने अगर इस देश के हालात में कुछ बदलाव आ सकता हैं वो सिर्फ और सिर्फ युवाओं के विरोध से बदल सकता हैं, क्योंकि छात्रों और युवाओं का एक मात्र विरोध बचा हैं जो लोकतांत्रिक देश में एक परिवर्तनकारी शक्ति रखता हैं और पवित्र हैं। यह विरोध हालातों में और महत्वपूर्ण हो जाता हैं जब राजनीति और महत्वपूर्ण विरोध की आवाजों में धर्म, जाति, क्षेत्र और वर्ग का असर साफ झलकता हैं। ऐसें मे युवाओं का यह ईमानदारी भरा विरोध सच में अपने आप में क्रांतिकारी होता जाता हैं। इन स्थितियों में युवाओं की जिम्मेदारी और भी बढ जाती हैं कि वो किसी भी विषय को सहीं से समझें ही नहीं वरन अपनी आवाज सामाजिक न्याय और कमजोरो के लिए उठाते रहें।

विरोध के बाद से कुछ परिवर्तन होना तय तो हैं, लेकिन ये लड़ाई यहीं खत्म नहीं हो जाती हैं। अभी भी महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई बडी लम्बी हैं क्योंकि इस विरोध सें हम कानून के नियमों में परिवर्तन तो करा ले जाएगें, अपराधियों को दंड भी दिला दे जाएगें, लेकिन उस संस्कृति का क्या करेंगें जिसने इस तरह के अपराधों की पौध को खुद ही सीचा और बड़ा कर रखा हैं। सबसे बड़ा सवाल यह हैं कि समाज इस तरह के अपराधों से पीड़ित छात्रा को कहाँ तक जीने देगी ? समाज का एक वर्ग जहां विरोध कर के परिवर्तन करने की मांग कर रहा हैं वहीं दूसरी और देश के हर कोने में बलात्कार, भ्रूण हत्या और महिलाओं के प्रति अपराध जारी हैं। इस घटना के अगले ही दिन बिहार और तमिलनाडु में हुए बलात्कार के बाद हत्या की घटनाए इस पर मोहर लगाती हैं। ऐसे में यह सवाल अपने आप में एक कठोर कानून कहाँ तक महिलाओं और उनके अधिकारों को सुरक्षित कर सकेगा। जबकि समाज महिलाओं के प्रति अपनी सामंती और पित्रृसतात्मक सोच से बाहर निकलने के लिए तैयार ही नहीं हैं। जिस समाज में महिलाओं से जुडे अपराधों में महिलाओं को अपराधी बनाने की प्रवृत्ति प्रमुख हैं, उस समाज में सिर्फ इंडिया गेट का विरोध कहाँ तक कारगर होगा। मेरी चिंता तब और बढ जाती हैं जब महिला को ही उनके साथ हुए अपराध के लिए दोषी ठहरा दिया जाता हैं। महिला के साथ हुई घटना के बाद, जगह घटना की जगह, वक्त उनका पहनावा और उसका उस वक्त उस जगह होने का कारण प्रमुख हो जाता हैं। तो ऐसे में यह विरोध सिर्फ अपराधी और कठोर कानून के अलावा क्या महिलाओं को एक समाज में लोकतांत्रिक जगह दिलाने में सक्षम हो पाएगा ? इस पर मुझें शक हैं। मेरा शक उस वक्त और बढ जाता हैं जब समाज में महिलाओं का घरों में रह कर विरोध करने का भी अधिकार सुरक्षित नहीं दिखाई पड़ता हैं। तो ऐसें में उनका सड़क पर वक्त बेवक्त चलनें के अधिकार और सार्वजनिक जगहों पर समान भागेदारी की कल्पना करना दिन मे दिवास्वप्न देखने सरीखा नहीं होगा ?

हम समाज के उस नजरिए का क्या करेगें जो अस्पताल में लड रही पीडित के लिए मर जाने को बेहतर विकल्प मान ररहें हैं। क्योंकि अगर वो बच जाती हैं तो उसका जीवन नर्क हो जाएगा औऱ इस नर्क के पीछें का तर्क डॉक्टरों का बयान जिसमें उसके इन्फेक्सन और मातृत्व सुख ना प्राप्त कर पाने का हवाला हैं। जिसमें उसके वैवाहिक जीवन और मातृत्व सुख की कल्पना और कठिनाईयों को केन्द्र में रखा जा रहा हैं। ऐसे में उस पीडित की लडाई कितनी कठिन और कितने मोर्चों पर होगी इसका आकलन करना आसान न होगा। ऐसे हालातों मे क्या उस पीडित की अपनी मौत से लडी और जीती हुई लडाई काफी छोटी न हो जाएगी, जब उसे हर कदम पर अपनें ही समाज में अपने ईर्द गिर्द के लोगों को खिलाफ लडना होगा ।

ये वो सवाल हैं जिनके बारे में हमें सिर्फ चर्चा करनी हैं पर उस पीडित को लडना होगा। वैवाहिक जीवन और मातृत्व के सुख की चिन्ता हमें हमारे उस समाज का असली चेहरा दिखलाता हैं जिसमें जहाँ स्त्री की उपयोगिता विवाह तक सीमित हैं और जहाँ वो बच्चें पैदा करने की मशीन भर हैं। तो ऐसें में जब यह पीडित अपनी मौत से जीत कर बाहर आएगीं तो क्या समाज उसके सामनें कई विषद लडाईयां लड़ने के लिए मैदान तैयार नहीं कर देगा जिसमें समाज पीडित को अयोग्य घोषित कर देगा, क्यों कि वो विवाह और मातृत्व सुख प्राप्त करने लायक नहीं रह जाएगीं। इस लडाई में पीडित को अपनी उपयोगिता साबित करनें के लिए उसे अपनी सारी जिंदगी लडना होगा ? वो हाथ में थाली लेकर अपने आप को समाज रूपी बाजार में खुद को प्रस्तुत तो कर ना सकेगी और किसी समाज दूसरे रूप में उसें स्वीकार भी नहीं करेगा। मातृत्व सुख ना पा पाने की स्थिति में क्या समाजिक संस्थाएं उसका स्वत: तिरस्कार ना कर देगीं ? ऐसें में इंडिया गेट से लेकर राजपथ तक विरोध का असर कहां तक प्रतिफलित होगा यह एक बडा सवाल हैं ? 

तो ऐसें में क्या हम इस विरोध से सिर्फ और सिर्फ अपराधी को सजा और अपराध के लिए कानून के लिए नहीं लड रहें हैं। क्या अपराधी को मौत की सजा और कानून के बाद हमारें कर्तव्यों की इतिश्री हो जाएगीं ? क्या हम इस विरोध में सामाजिक गैरजिम्मेदारी औऱ राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव को अनदेखा नहीं कर रहे है। जो इनका मूल हैं। सच में कानून लैण्डमार्क तय कर सकता हैं पर पूरा रास्ता नहीं। जो रास्ते तय कर रहें हैं वो नारी देह को आजाद करने के लिए तैयार ही नहीं हैं। तो क्या हमारी लडाई की दिशा अधूरी नहीं हैं। हम किस ओर लड़ रहे हैं यह एक महत्वपूर्ण सवाल हैं। हम लगातार असली जड़ को लगातार अनदेखा किए जा रहे हैं जिनसे हमें सच में लडना हैं। हम कब तक अपराधियों से अपराध के लिए लड़ते रहेगे ? क्या इस विरोध के बाद अपराधी फिर से हम और आप के चहरें से उभर नही आएगें ? इस लडाई से राजनैतिक जिम्मेदारी को एक हद तक जवाबदेह बना लेगें लेकिन सामाजिक जवाबदेही का क्या जो राजनैतिक जवाब देही को भी पूरी तरह प्रभावित करता हैं। सामाजिक जवाबदेही के बिना हमारी लडाई अधूरी ही रह जाएगी और राजनैतिक जवाबदेही को भी बच निकलने का पूरा मौका मिल जाएगा जैसा कि खाँप पंचायतो के मामले में हआ था। 

ऐसें में लडाई सिर्फ कानूनी परिवर्तन के लिए राजनैतिक दबाब के साथ साथ सामाजिक जवाब देही की ओर मोड़ने की भी जरूरत हैं। जहाँ पितृसत्तात्मक समाज के अलोकतांत्रिक नियमों के तलें महिलाएं एक लम्बे दौर से अपने लोकतात्रिक हको का बलिदान करती आ रही हैं। और अगर महिलाओं ने कहीं विरोध उठाने के लिए पहल की वहाँ इस पितृसत्ता द्वारा अपनी दमनकारी निर्णयों और तरीको से इस लोकतांत्रिक विरोध का दमन किया जाता रहा हैं। खुद महिलाओं का भी सामाजीकरण इस तरह किया जाता रहा हैं जहाँ महिलाएं भी महिलाओं के अधिकारो की दुश्मन बनी रही हैं। देहज हत्या, भ्रूण हत्या और अन्तर्जातीय विवाह इनके ज्वलन्त उदाहरण हैं।


इन परिस्थितियों में युवाओ का विरोध जिसमें बदलाव की क्षमता है उनकी जिम्मेदारी और बढ जाती हैं क्यों कि जो बीत गया वो बीत चुका हैं पर हमें जिस समाज में रहना हैं उसका निर्माँण खुद करना होगा ताकि समाज जिन अपराधों को देखे -अनदेखे में लगातार बढावा देता आ रहा हैं उस बढावें को एक करारा धक्का लग सकें। मजूबत लोगों ने कमजोरो के अधिकारों को सहर्ष नहीं दिया हैं। बडी लडाईयां लडनी पडी है। इतिहास साक्षी हैं हर लड़ाई का। कई चेहरे हैं इन लडाईयों के। जब भी उनका अधिकार खिसके हैं, तो मजबूत वर्ग द्वारा अपराध ही कियें गए है। ऐसे में दमनकारी नीतियों का एक लोकतांत्रिक विरोध करने का वक्त हैं। इसके लिए सबसे पहलें हमें अपने घर में आवाज उठाने की जरूरत हैं, वहाँ के नियमो को ना सिर्फ तोडना हैं वरन फिर से लिखने की जरूरत हैं। कई मोर्चो पर काम करने के की जरूरत होगी जिसमें महिलाओं का आर्थिक हिस्सेदारी से लेकर निर्णय की स्वतन्त्रता तक रास्ता तय करना होगा। पितृसत्ता की प्राथमिक और महत्वपूर्ण पाठशाला में महिलाओं के लिए विषय बदलने होगें,स्त्री अधिकारों का सबसे बडें दमनकारी केन्द्र बने हुए हैं। इन्ही से समाज भी बनता हैं । वहाँ आवाज उठी तो भरोसा रखिएं एक युगान्तरकारी परिवर्तन देखने को मिलेगा इसके बाद.इडिया गेट का चेहरा देखनें औऱ लाठी खाने की जरूरत नहीं पडेगी अगर हम और आप ऐसा नहीं कर सके तो ये विरोध और कई दिनो तक की लड़ाई अधूरी और अपनें लक्ष्य को पाएं बिना खत्म हो जाएगी और हम फिर एक और दिल्ली में बलात्कार का इन्तजार कर रहें होगे ताकि फिर से एक बार फिर इंडिया गेट पर पहुच सकें। दिल्ली में इस लिए क्योंकि देश के बाकी हिस्सों में हो रहें लगातार बलात्कार पर हमारा और मीडिया का ध्यान इतनी आसानी से नहीं जाता हैं। समाजिक जवाबदेही की लडाई लम्बी जरूर हैं पर अगर सच में हम अपने समाज को बदलना चाहते हैं तो इसके लिए हमें इसके लिए ना सिर्फ अभी से लड़ना होगा बल्कि एक सामाजिक चेतना के साथ कई मोर्चों पर लडना होगा, तब कहीं हम कुछ बदल सकेगें वरना कैडिल लाइट विरोध और राजपथ का विरोध सिर्फ जो सिर्फ दिखावा रह जाएगा। 



शिशिर कुमार यादव 


य़ह लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में  28 दिसम्बर के  अंक में   "घर बने विरोध की प्रयोगशाला" के नाम से प्रकाशित हुआ