मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

तूफान के अंत में


उत्तराखंण्ड की बाढ (पानी) से हम अभी उबरे भी ना थे, कि ओडिशा और आंध्रप्रदेश में 200 किलों मीटर प्रति घंटा से चलने वाली हवाओं नें चुनौती दी। निंसदेह यह वाक्या भी, ‘प्रकृति और मानव संबधो के बिगड़ते संबधों से उभरी ही एक चुनौती थी। लेकिन जैसा ही हम कह कई लेखों में कह चुके हैं कि वर्तमान स्थितियों में हम आपदा को रोक नहीं सकते हैं, हां उनसे बचाव कर के उसके प्रभाव को कम कर सकते है। तो उडीसा की इन हवाओं की चुनौती को भारतीय आपदा प्रंबधन (डिजास्टर मैनेजमेंट) ने इसी दृष्टिकोण के साथ स्वीकारा। भारत का आपदा प्रंबधन इस ओर तैयार था, चुनौती स्वीकार की गई, और बहुत कम समय में आपदा से पूर्व की तैयारी के साथ प्रंबधन ने ना केवल इस समस्या का सामना किया बल्कि भारतीय आपदा इतिहास में इतना अच्छा बचाव पहले नही किया था। उन्ही के ही प्रयासों का ही फल था कि 3.61 लाख लोगों को समय रहते संकट वाली जगहों से हटा लिया गया था। इतनी बड़ी संख्या में लोगों को सुरक्षित पहुचाना सच में एक बड़ी सफलता मानी जा सकती है, इसके लिए आपदा राहत से जुडें तमाम संगठन बधाई के पात्र हैं, जो इस ओर काम कर रहे हैं। इस आपदा में कुल मरने वाले लोगों की संख्या 14 (अधिकारिक आँकडा) ही रही। जबकि 1999 में आए ऐसे ही साइक्लोन ने उडीसा में भारी तबाही मचाई, उसमें ना केवल 9885 व्यक्तियों (अधिकारिक आँकडे) की मृत्यु हो गई थी वरन लाखों लोगों को अपने आधार यानी अपने घरों, रोजगारों और जमीनों से ही हाथ धोना पड़ा था। 

 निसंदेह यह कुशल प्रंबधन की एक बड़ी जीत हैं, लेकिन इस जीत को इतना बड़ा करके आकने की जरूरत नहीं है कि आत्ममुग्धता की स्थिति पनप जाए। क्योंकि यह आपदा प्रंबधन की तैयारी का यह केवल पहला चरण हैं, और अगर आगे के चरणों को भी इसी जिजीविषा से के साथ पूरे नहीं किए गए तो इस चरण की सफलता भी अधूरी रह जाएगी। जैसा कि हम जानते हैं कि 2005 में डिजास्टर मैनेजमैंट एक्ट 2005 के तहत भारत सरकार ने अपने आपदा कार्यक्रम और कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया। जिसमें आपदा के आने के बाद, इस पर बचाव, नुकसान की भरपाई, फिर निदान और फिर आपदा पूर्व तैयारी की जाती हैं। जो आज भी जारी हैं। प्रंबध तंत्र इसी कार्य योजना पर कार्य करता है।
 उड़ीसा और आध्रंप्रदेश में आए तूफान से अभी तक बचाव हुआ है, बाकि दो चरणों की पूर्ति करना बाकी है, और ये चरण किसी भी आपदा के लिए ना केवल महत्वपूर्ण होते हैं वरन इनके अभाव के बिना वो लोग सबसे प्रभावित होते हैं, वो इन चरणो के अपने – अपने जीवन में विकास की अवधारणा से कई दशक पीछे चले जाते हैं। इसलिए आपदा के बचाव के बाद के चरणों के पूरे हुए बिना यह जीत अधूरी रह जाती है।
चक्रीय कार्ययोजना के लागू हो जाने के बाद के ही आकडें उठा कर देखें, तो हम पाते हैं कि हर साल आपदा से होनें वाले नुकसान में इजाफा ही हुआ है और हम एक ही प्रकार की समस्याओं से जूझते नजर आते हैं। ऐसें मे यह तय कर पाना एक कठिन काम हैं कि क्या वाकई यह तंत्र इन समस्याओं से निपटने में सक्षम हुए भी हैं कि नही? हाल में देश में कैग की रिपोर्ट ने भारत के आपदा प्रंबधन पर ना केवल सवाल उठाया था बल्कि उन्हें देश की आपदाओं से लड़ने के लिए पूर्ण रूप से अक्षम माना था । उत्तराखंण्ड में आई आपदा के बाद तो यह स्पष्ट रूप से सबके सामने आ गया था कि भौगोलिक रूप से इतनी विविधता वाले देश में एक भी समर्थ तंत्र नहीं हैं जो आपदा और आपदा के होने के बाद लड़ सकें। इस तरह कैग ने आपदाओं को लेकर देश की तैयारी पर श्वेत पत्र जारी कर दिया था, और जिसने सरकारी दावों को आइना दिखलाया था। हाँलाकि कैग की रिपोर्ट एक बड़ा सच थी, लेकिन इस बार उड़ीसा में हुए प्रयास उस तैयारी का हिस्सा हैं जिसे आपदा प्रंबधन लम्बें समय से कर रहा था। लेकिन अभी भी काम पूरा नही हुआ हैं। चक्रीय क्रम के दो प्रमुख चरण निदान (मिटीगेशन) औऱ फिर आने वाली आपदा के लिए तैयारी ( प्रिवेंशन) के चरण बाकी हैं।
मिटीगेशन और प्रिवेंशन के चरण तभी पूरे हो सकते हैं, जब आपदा के समय हुए नुकसान का आकलन और जल्द से जल्द करके अस्थाई रूप से सेल्टरों में रह रहे लोगों को अपनी पुरानी जिंदगीं में वापस भेजा जा सके। हर आपदा में बहुत से लोग अपने पुराने रोजगार और आजीविका से हाथ धो बैठते हैं। आपदा के बाद आजीविका महत्वपूर्ण विषय होता है, जिस पर बिना ध्यान दिए बिना प्रंबधन सिर्फ पुनर्निमाण करती रहती है। ऐसें ही 2004 में आई सुनामी के बाद देश विदेश आए पैसे ने पुनर्निमाण का काम तो बड़े पैमाने पर किया पर बाद में खत्म हो चुके रोजगारों को पुनर्जीवित नहीं किया गया, और जिन रोजगरों को उपलब्ध कराया गया उनका जीवन बहुत अधिक लम्बा नहीं था। इस तरह से उस ओर किए गए प्रयास व्यर्थ साबित हुए और आपदा प्रंबधन के चरण बचाव के बाद आगे नहीं बढ पाए। इस तरह आपदा मे उठाए गए कदम उनके लिए अधूरें ही साबित हुए जिनके लिए इनकी सबसे अधिक जरूरत थी।
आपदा के आने के बाद बचाव की ओर तो सभी का ध्यान होता हैं, मीडिया भी भावपूर्ण चित्रों से इस समस्या के चित्रांकन करती हैं, लेकिन जब असल समस्या से लड़ने की बारी आती हैं, लगभग सभी लोगों का ध्यान आपदा और उस और चल रहे बचाव कार्यों से हट चुका होता हैं। सरकारे भी उसे अपनी विफलता का प्रतीक मानकर उनसे जुडी खबरों को बाहर नहीं आने देती है, और मीडियां के लिए वो खबरे बासी हो चुकी होती हैं, ऐसे आपदा के बाद के चरण जिनपर सबसे अधिक ध्यान देने की जरूरत होती है, वो बिना किसी समीक्षा के कब समाप्त हो जाते हैं किसी को पता भी नहीं चलता है। इस ओऱ फिर से ध्यान तब जाता हैं जब अगली आपदा आ चुकी होती हैं।
तंत्र के पास योजना और पैसा दोनों ही हैं लेकिन फिर भी हम हर मोर्चों पर असफल हो रहे हैं, इसका सीधा और सरल मतलब है, कि योजनाओं को संचालित करनें वाले और योजनाओं को लेनें वालें दोनों लोगो के बीच बडें स्तर पर खामियाँ हैं। ऐसें में सिर्फ तंत्र की ओर उंगली उठा कर हम दूसरें पक्ष की लापरवाही को अनदेखा भी नहीं कर सकते हैं, और ये भी किसी से छुपा नहीं हैं कि इस लापरवाहीं को बढावा देने वालें कौन हैं। ऐसें में जब प्राकृतिक आपदा के परिणाम और प्रभाव सामाजिक हो चले हो तो सिर्फ प्राकृतिक आपदा मान कर हम कब तक अपनी कार्य योजना को संचालित करते रहेंगें।
ऐसें में हमें इन आपदाओं के उपरान्त होने वाले प्रभावों से लड़नें के लिए सामाजिक रूपरेखा तैयार कर फिर लड़नें पर बल देनें की जरूरत हैं ना कि सिर्फ प्राकृतिक कारणों से निपटनें पर अपनी सारी ऊर्जा खत्म करनें की। समय की मांग यह है कि हम अपनी योजनाओ का निर्धारण बराबरी के आधार पर करने की बजाय जरूरत के आधार पर करें। ताकि हम सच में प्रभावित होनें वालों को बचा सकें और आपदाओं के प्रभाव को कम कर सकें। वरना साल दर साल हम इन आपदाओं के सामनें मूक दर्शक बनें रहेंगें और ये आपदाएं हमारा मजाक उड़ाती रहेगीं।
ऐसे जब एक बार ओडिशा औऱ आंध्रप्रदेश में आए साइक्लोन में आपदा प्रंबधन ने पहले चरण को सावधानी से पूरा कर लिया हैं तो बाकी बचे चरणों पर भी सावधानी के साथ चलने की जरूरत हैं। वरना हर आपदा की तरह इस आपदा राहत/ बचाव का कार्य भी अधूरा ही रह जाएगां। और पहली बार राष्ट्रीय आपदा प्रंबधन अपने आप को बेहतर साबित करने का मौका भी खो देगा।