हम तकदीर बदल सकते हैं पड़ोसी नहीं
कल जब पाकिस्तान की आम जनता वोट के रूप में अपनी
लोकतांत्रिक ताकत का प्रयोग कर अपने लिए एक लोकतांत्रिक सरकार को चुनेगी, तो वो
पाकिस्तान के इतिहास में एक सुखद पन्ना होगा। पाकिस्तान के 66 सालों के इतिहास में
यह पहली बार होगा, जब एक सत्ता का हस्तानान्तरण एक जन प्रतिनिधियों की चुनी सरकार
दूसरी जनता द्वारा चुनी गई सरकार को करेगी। यह सुखद पन्ना केवल पाकिस्तान के लिए ही
एक महत्वपूर्ण दिन नहीं होगा वरन् द्क्षिण एशियाई देशों की अस्थिरता की राजनीति
में एक महत्वपूर्ण मुकाम होगा। यह मौका भारत के लिए भी अपने सबसे निकट पडोसी के
साथ संबधों को सुधारने के लिए एक नये सिरे से अवसर होगा। पडोसी देशों के साथ समस्या भारत को औपनिवेशिक
शासन की विरासत के रूप में मिली है। इन सब देशों से रिश्तो के बीच भारत और
पाकिस्तान की गाथा, कलह की गाथा हैं। इन दोनों देशों में दुश्मनी नई नहीं है।
आजादी के बाद 6 दशक बीत जाने के बाद भी हालातों में परिवर्तन न के बराबर हुआ हैं।
आज भी ये दोनों देश कई मोर्चो पर लड़ रहे हैं। भारत और पाकिस्तान तीन बार जंग के
मैदान में आमने सामने आ चुके हैं। जीत हार के परे हो कर देखें, तो बडे पैमाने पर
जन और धन की हानि दोनो ओर से हुई और दोनों ही देशों के हाथ में कुछ नहीं लगा हैं ।
पाकिस्तान के साथ भारत के संबध हमेशा ही कूटनीतिक
तनाव भरे रहे हैं, जिनकी परिणाम युद्ध रहे हैं। इन युद्धों ने दोनों देशों की
संस्कृति को घृणा की संस्कृति में बदल कर रख दिया हैं। इतिहास गवाह रहा हैं इन
युद्धों के पीछे वहाँ के सैनिक शासन या सैन्य ताकते बड़ी भूमिका रहीं हैं। ऐसें
में भारत का वो हिस्सा जिसमें हमारी अपनी विसारत का सौन्दर्य छिपा हैं, उसके खिलाफ
खडा हो जाता हैं। ऐसें में हमारा हड़प्पा वाला
पाकिस्तान, मोहन जोदड़ो वाला पाकिस्तान, बुल्ले
शाह वाला पाकिस्तान, फ्रंटियर
गांधी वाला पाकिस्तान, आज आएसआई वाले पाकिस्तान, लश्करे तैयबा और हिजबुल वाला
पाकिस्तान के रूप में बदल चुका हैं। ऐसें में एक सिर्फ और सिर्फ लोकतांत्रिक रूप
से चुनी गई सरकार से संभावना दिखलाई पड़ती हैं जो दोनों देशों के बीच चली आ रही
संस्कृति में सकारात्म बदलाव ला सकती हैं। क्योंकि दोनों देशों का बटवारा जनता की
एक राय से नहीं वरन राजनैतिक रूप से किया गया फैसला था, जिसका खामियाजा आज तक
दोनों देश उठा रहे हैं। ऐसें में आने वाली लोकतांत्रिक सरकार एक राजनैतिक पहल की
संभावनाए जगाती हैं ताकि दोनों देश अपनी इस समस्या को राजनैतिक तरीके से सुलझा
सकें। हाँलाकि संभावनाओ को लेकर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगा, पर संदेह में ही
संभावनाए हमेशा अपना हिस्सा लिए हुए होती हैं।
दोनो देशों की आम
जनता एक दूसरे को लेकर हमेशा अतिसंवेदनशील बनी रहती हैं, ऐसे में छोटी सी छोटी
घटना का प्रतिफल दोनों देशों के साथ हो रही किसी भी तरीके बढ रहीं नजदीकियाँ और भी
बड़ी दूरियों में तब्दील हो जाती हैं और दोनो देशों के हरेक मंच से जनमानस की देश
भक्ति से लबरेज आवाज उठने लगी हैं जो कि तुरंत हमला कर के सबक सिखाने के पक्ष में
होती हैं । लेकिन ये देशभक्ति से उभरी आवाजो की हुंकार के नीचे वो आवाजे हमेशा दम
तोड़ देती हैं, जो इन दोनों के बीच विवाद के कारण सबसे ज्यादा नुकसान उठाती हैं।
शहीद सैनिकों से लेकर आम जनता जिनके टैक्स का एक बड़ा हिस्सा सैन्यब़जट के रूप में
उड़ा दिया जाता हैं, उनकी आवाजों के आगे ये राष्ट्रभक्ति की आवाजो के आगे दम तोड़
देती है। ऐसे में वो मुद्दे जिन पर दोनों देशों को मिलकर कई मोर्चों पर लड़ने की
जरूरत हैं, पर सैनिक मोर्चों से बात कभी आगे बढ़ ही नहीं पाते हैं, और सामाजिक
सांस्क़ृतिक विरासत के भागीदार ये दोनों देश एक दूसरे के खिलाफ खडें हो जाते हैं।
खेल का
छोटा सा मैदान दोनों देशों में जंग के मैदान सरीखे लगने लगता हैं, जिसे जीतना
दोनों देशों की प्रतिष्ठा का सवाल बना रहता हैं, और इस प्रतिष्ठा को हवा देने का
काम अतिउत्साही बाजारू संस्कृति सें पीड़ित मीडिया और इन दोनों देशों की अवसरवादी
राजनीति पार्टियां करती हैं जिन्हें सिर्फ जनता को बरगलाना ही आता हैं। हाल में ही
भारत में आयोंजित क्रिकेट सीरीज में भारतीय टीम की लगातार दो हारों के बाद तीसरे
खेल से पहले छपी खबरों में “अब जीतना ही
होगां” सरीखें खबरों से आसानी से परिलक्षित हो जाता हैं। जो
दोनों देशों में गहरे अविश्वास को दिखलाता हैं। जो कि दोनो देशों के हित में नही
हैं। दोनों देशों की
राजनैतिक पार्टियों ने एक दूसरे के खिलाफ दुश्मनीं को अपने अपने देशों में
राजनैतिक हित और अपनी आंतरिक सुरक्षा पर असफल होने के बचाव के रूप में करती आ रही
हैं, और दोनों देशों के बीच एक घृणा की संस्कृति विकसित कर दी हैं जिसका ओर छोर
नहीं दिखलाई पड़ता हैं।
इन विषम
स्थितियों पाकिस्तान में जनता के प्रति जवाबदेह सरकार होने से एक उम्मीद जगती हैं
जिसमें दोनों देशों के बीच एक राजनैतिक मंच से दोनों देशों के बीच मुद्दों को
बातचीत के जरिए सलझानें की कोशिश को फिर से पंख लगेगें। दोनो सरकारे अपने अपने देश
की जनता के प्रति जवाबदेही तय करते समय उन तमाम मूलभूत मुद्दों पर एक दूसरे की मदद
की लेगी जो दोनों देशों की मूलभूत समस्या हैं। दोनों देश गरीबी, भुखमरी, अशिक्षां,
स्वास्थ्य और आंतकवाद, आंतरिक सुरक्षा के मोर्चों पर लड रहें हैं, जिनकी प्रकृति
लगभग एक समान हैं। इनसे निपटने के लिए दोनों देश अगर मिल कर काम करे तो राजनैतिक
और सांस्कृतिक रूप से एक मजबूत सहयोगी बन कर उभरेगें। ऐसें में अगर लोकतांत्रिक
सरकारें युद्ध से ध्यान हटाती हैं तो युद्ध पर दोनों देशों का लगने वाली एक बड़ी
धनराशि मूलभूत समस्या पर लग सकती हैं, जिनको हमेशा सैन्य बजट के आगे कम धनराशि
मुहैया कराई जाती रही हैं।
आकडों के हिसाब से भी देखें तो भारत नें 2012-13 के आम बजट में रक्षा बजट
को करीब 17 फीसदी बढ़ाकर 1,93,407 करोड़
रुपए कर दिया गया जो साल 2011-12 में यह 1,64,415 करोड़ रुपए
था। भारत अपनी रक्षा जरूरतों के लिए आवश्यक
सामग्री के 70 फीसद
का आयात करता है और अमेरिका, फ्रास. रूस और ब्रिटेन भारत को हथियार निर्यात करने
वालें बडें देश हैं। ऐसें में भारत विश्व बाजार में हथियारों की खरीज फरोख्त में
बडा खरीददार हैं । पाकिस्तान में भी हालात ऐसे ही हैं। इस तरह भारत औऱ पाक अमेरिका
के हथियारों के परीक्षण की प्रयोंगशाला बने हुए हैं। देश में आम जनता के टैक्स से
जमा पैसे में से एक बडा हिस्सा विकास की जगह हथियार खरीदनें में चला जाता हैं।
शिक्षा, स्वास्थ्य, पेय सुविधाएं जो मूलभूत सुविधाएं हैं, और जिनसें इन दोनो देशों
की जनता महरुम हैं, उनके लिए बजट में रक्षा बजट की तुलना में लगभग आधा खर्च किया
जाता हैं। 2012-13 मानव संसाधन मंत्रालय ने
उच्चशिक्षा तथा स्कूल शिक्षा के लिए कुल 75,000 करोड रूपए
मांगे थे, लेकिन सरकार नें आवंटित बजट में 5199 करोड रूपए की
कमी करने का फैसला किया और बजट में केवल 61,407 करोड रूपये
की स्वीकृति प्रदान की। वहीं स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए भी सिर्फ 34488 करोड़ का
ब़जट तय किया गया। पेयजल और स्वच्छता के लिए केवस 14,000 करोड का बजट ही स्वीकृत
किया। ऐसें में अकेला रक्षा ब़जट ही इन तीनों से अधिक हैं। ऐसें में जिन दशों में
आधी से अधिक आबादी के बाद स्वास्थ्य, शिक्षा, जल औऱ स्वच्छता सम्बन्धित मूलभूत
सुविधआओं का अभाव हैं, उसें एक और युद्ध की ओर ढकेल देना कहाँ कि समझदारी हैं।
दोनों देशों में एक लोकतांत्रिक सरकारे इस बजट पर
काफी हद तक नियंत्रण कर सकती हैं। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम चाहें
विश्वपटल में कितना भी विकसित हो जाए लेकिन एक असुरक्षित पडोसी देश, हमारे अपने
देश की सुरक्षा के लिए हमेशा बडा खतरा बना रहेंगा। हम कुछ भी कर लें पर अपना पडोसी
नहीं बदल सकते हैं। ऐसें में युद्ध की रणभूमि में बार बार निपटने की सोच सिवाय
आत्मघाती हमलें के अलावा कुछ औऱ न होगा। भारत और पाकिस्तान की आर्थिक, सास्कृतिक,
सामाजिक लगभग एक सी रही हैं, ऐसें अगर दोनों देश अपनी अपनी युद्ध नीति की कूटनीति के
इतर आर्थिक, सास्कृतिक, सामाजिक परस्पर संबधों की ओर देखें तो यह दोनो ही देशों के
लिए बेहतर होगा। युद्ध हमें सिर्फ और सिर्फ कड़वी यादों के साथ रहने पर मजबूर करता
हैं। हाँलाकि विभिन्न विद्वान दोनो देशों के मध्य मधुर संबधों को दूर की कौडी
मानते हैं पर उन्हें कभी नहीं भूलना चाहिए कि यूरोपीय देश जब हजार सालों की
शत्रुता भुला कर और दो बड़े विश्व युद्ध लड़कर, शान्ति से रह सकते हैं तो हम अपने
ही पुराने हिस्सें के साथ शांति से क्यों नहीं रह सकतें। जिसमें दोनो देशों की
भलाई हैं।
भारत को बड़े भाई होने के नाते पाकिस्तान में आने
वाली अगली सरकार के साथ एक कूटनीतिक और एक सुदृण विदेशनीति के साथ आगे बढने की
जरूरत पर बल देना चाहिए ताकि वो दक्षिण एशियां में एक बड़े और भरोसेमंद देशों के रुप
में उभर सकें। जो इन दोनो देशों की आतंरिक और बाहरी सुरक्षा दोनों के लिए अत्यन्त
ही महत्पूर्ण हैं। यहाँ हमें एक बात ध्यान में रखनी होगीं कि तकदीर बदल सकते हैं
पर पड़ोसी नहीं, तो पड़ोसियों से मधुर संबधों में ही सार्थक औऱ सुदृण विकास छुपा
हैं। तो आज आज पाकिस्तान के साथ खड़े होने की जरूरत है,
।
जिए पाकिस्तान।जिए हिन्दुस्तान। जिए अमन।जिए जम्हूरियत।
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 18 मई 2013 को प्रकाशित लेख है)
जिए पाकिस्तान।जिए हिन्दुस्तान। जिए अमन।जिए जम्हूरियत।
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 18 मई 2013 को प्रकाशित लेख है)
शिशिर कुमार यादव