शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

विरोध की दिशा बदलिए,

उत्तर प्रदेश के मोहनलालगंज में एक और महिला की लाश महान सांस्कृतिक विरासत पर औधे मुह पड़ी है। लाश अपने साथ हुई बर्बरता का अमिट गान बहते हुए खून के साथ सुना रही थी। जिसमें सामाजिकता समेत संस्कृति के पैमाने स्वत: छोटे होते जा रहे थे। उसके निर्वस्त्र शरीर ने भी अपने आराध्य से किसी ना किसी रूप में आ कर खुद को बचाने की गुहार की होगी, लेकिन शायद इंसानी बर्बरता को देखकर ईश्वर की हिम्मत भी ना हुई कि वो उसकी मदद करने आगे आ सकेँ। इसीलिए एक लाश सभ्य समाज के प्राथमिक मंदिर, प्राथमिक विद्मालय के प्रांगण में पड़ी हुई थी। लाश खुद ही गवाही दे रही थी अपने प्रति अपराध का, लेकिन हम अभी भी खोज रहे थे अपराधी को, ताकि उसके लिए फाँसी या उससे अधिक कुछ जो हो सकता था मांग कर अपने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर इस विषय से अपनी अपनी नैतिकता का पल्ला झाड़ लें।


यह पहली बार नहीं हुआ था, जब कुछ इसी तरह की स्थितियों का हम सामना कर रहे हैं। इससे ना जाने पहले कितनी बार कुछ इसी तरह के हादसों का जो समाज स्त्री के प्रति करता हैं, हम उन अपराधों के गवाह बने हैं। लेकिन हम सहज हैं। थोडी देर के लिए असहज हो सकते हैं लेकिन फिर सहज हो जाते हैं।  इसका एक प्रमाण हर हादसे के बाद उपजे सवाल हैं, जो उस महिला की पवित्रता से लेकर उसके घटना स्थल तक पहुचने तक के जवाबों में पवित्रता खोजना चाहते हैँ, ताकि कुछ तो मिल सके चर्चा के विश्लेषण के लिए जिसे उदाहरण या तथ्य बना कर लोगों के लिए सबब बना सकें। इन उदाहरणों का उपयोग करके हम महिलाओं को सार्वजिनक स्थानों पर तयशुदा समय के बाद स्थान छोड़ने का अघोषित नियम बनाना चाहते हैं।
निसंदेह यह सामान्य अपराध नहीं है, फिर भी हम इनके प्रति काफी सहज हैं, आखिर हम इन अपराधों को इतनी सहजता से कैसे ले सकते हैं? इतनी सहजता की मानवीय मूल्यों की अर्थी भी सहज रूप से निकाले जा रहे है कि हमें खुद भी पता नहीं चल रहा हैं कि हम किस ओर खडें हैं। अपराध के बाद कुछ पुलिस कर्मियों को इसलिए संस्पेंड कर दिया क्यूँ कि उन्होने निर्वस्त्र पड़ी लाश पर कपड़ा तब तक नहीं डाला जब तक उसका उन्होंने प्राथमिक निरीक्षण नहीं कर लिया, और घटनास्थल पर कागजी कार्यवाही के लिए फोटोग्राफ्स नहीं उतार लिए। निसंदेह यह एक संवेदनहीन रवैया था, जिसके लिए उन्हें तुंरत बर्खास्त कर दिया गया। लेकिन इन सब के बीच एक सवाल जो अनदेखा किया जा रहा हैं कि क्या सबसे पहले पुलिस घटनास्थल पर पहुची थी? नहीं ना! वहां काफी भीड़ थी, आखिर उनमें से किसी की संवेदनशीलता क्यूँ जगी, आखिर वहां खडें लोगों में से किसी ने कपड़े का एक टुकड़ा उस शरीर पर क्यूँ नहीं डाला। आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी थी, कि उस भीड़ में से किसी एक के हाथ भी उस निर्वस्त्र शरीर पर कपडा नहीं डाल सका। पुलिस वालों को कम से कम अपनी संवेदनहीनता का दंड कुछ हद तक मिल गया लेकिन आप का क्या किया जाए? आप को क्या कहा जाए? अगर हम इसे अपराध और अपराधी के प्रति सहजता नहीं कहेगें तो क्या कहेगें।
निर्वस्त्र और मृत शरीर आपके कपड़े का मोहताज नहीं था, और ना ही वह उसकी मांग कर रहा था। लेकिन कम से कम अपनी संस्कृति की निर्वस्त्र लाश पर तो दो गज कपड़ा डाल ही सकते थे। लेकिन नहीं हम नहीं कर पाए, क्यूँकि बहुत कुछ हो जाता। जो कपड़ा मिलता वो पुलिस साक्ष्य के रूप में रखती, सवाल करती और परेशान करती इसलिए हम आप ने बड़ी ईमानदारी से अपने हाथों को बाधें रखा और इंतजार किया पुलिस के आने का, आखिर समाज के सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस की है आपकी थोडे ही ना। तो पुलिस आई, अब पुलिस मंगल से तो आई नहीं थी, वो भी हम और आप के बीच से ही आई थी, इसलिए उसने भी वही किया जो हम और आप थोडी देर पहले तक कर रहे थे यानी निरीक्षण। उसे भी कपड़ा डालने की आवश्यकता तब तक नहीं हुई जब तक वह घटना के लिए प्रारंभिक साक्ष्य नहीं जुटा लिए।
निर्वस्त्र शरीर पर कपड़े ढकने की बात को पर जोर देकर यहां सांस्कृतिक या नैतिकता की बहस नहीं कराना चाहता। लेकिन इस बहस में एक ही सवाल रखना चाहते हैं कि क्या सच में हम सच में सामजिक प्राणी होने का दावा कर सकते हैं? इस घटनाओं के बाद नेताओं के बयान के बाद उनकी आलोचना का रस तो हम लेते रहते हैं लेकिन अपनी आलोचना कब करेगें। इन अपराधों के प्रति जिस तरह की सहजता (थोडी असहजता के साथ) हमें हैं, उसको लेकर हम कब असहज होगें। कब हम अपने खिलाफ खडे होगे, और सहज हो चली प्रवृत्ति को बदलेगें। सामाजिक अपराधों में हमारा सहज प्रवृत्ति का ही नतीजा हैं कि आँकडों के पैमाने भी काफी ऊचें हैं, वरना आकडों को भी इन अपराधों को दर्ज करने में काफी परेशानी होगी।
मोहनलालगंज दिल्ली नहीं है, जहाँ अश्लीलता और खुलेपन का आरोप लगा कर छोटे शहर अपनी संस्कृति को इंडिया से इतर कर भारत में होने का दावा कर लेते है। मोहनलालगंज उसी भारत का हिस्सा हैं जहाँ संस्कृति के पैरोकार औऱ पैमाने दोनो ही हर दिन बदलती संस्कति को नापते रहते है। ऐसे में इस तरह के हादसे केवल हमारी और आपकी महिला के प्रति अपराधों की सहजता नहीं हैं तो क्या है। बस इसी पर चोट करने की जरूरत पर बल देना चाहता हूँ कि कुछ तो बदल जाए इन सबके बाद भी। ताकि आने वाली पीढी ऐसे सवालों पर सहज तो ना बनी रहे। होसके तो विरोध करिए, लेकिन इस बार सरकार का नहीं, किसी नेता के संवेदनहीन बयान का नही, किसी प्रशासन की अकर्मणयता का नहीं। हो सके तो उतरिए अपने खिलाफ, करिए खुद के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व, जिसमें सहज हो चली संस्कृति को असहज बना दिया जाए। कि इस तरह के हादसों को हम और आप सहजता से पचा ना ले जाए। यह दौर अपना विरोध करने का है, वरना ना जाने कितने प्रांगण ऐसी ऐसी बर्बर हादसों के गवाह बनते रहेगे। खुद की संस्कृति को बदलने के लिए करिए अगुवाई। नहीं कर सकते तो कृपया किसी नेता के आँकड़ो पर उगली मत उठाईएं।वो सही हैं। कि उनका प्रदेश महिलाओं के हिंसा के मामले में देश में 4 स्थान पर है। हो जाइए खुश और सहज कि आप पहले पर नहीं हैं। 

शिशिर कुमार यादव
इस लेख को डेली न्यूज एक्टविस्ट ने अपने अखबार में 2 अगस्त 2014 को जगह दी है।



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