सोमवार, 22 जुलाई 2013

राजनैतिक मरीचिका साबित ना हो खाद्य सुरक्षा अध्यादेश

देश में खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के जारी होते ही एक बार फिर से गरीब और गरीबी मुख्य धारा की चर्चा का विषय हैं। जो आम दिनों में सामान्यतया चर्चा से लगभग गायब ही रहते हैं। खाद्य सुरक्षा अध्यादेश उन दो तिहाई लोगों के भोजन की गांरटी की चर्चा हैं, जिन्हें सरकारों ने एक लम्बें समय तक अनेदेखा किए रखा और इन्हें आकड़ों की भाषा में उलझाएं रखा। सरकारी आकड़े जहाँ गरीबों को 78 प्रतिशत से लेकर 37.2 प्रतिशत तक आँकते रहें, तो वहीं कुपोषण की दरें विभिन्न सर्वें में 42 प्रतिशत से 45 प्रतिशत के बीच (0-6 साल के बच्चों मॆ) छिटकती रही। इन सब के बीच 11 से 18 वर्ष के किशोर खुद को शारीरिक विकास के पैमानें पर अल्पविकसित ही पाते रहें। बाजार की खाई ने लगातार खाद्यानों और पोषण से एक बड़े वर्ग को दूर ही रखा। ऐसें में अब जब सरकार खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लेकर आई हैं तो संभावनाओं के साथ तमाम आशंकाओं ने भी घेर लिया हैं। जो इस कार्यक्रम के भविष्य की कार्ययोजना पर एक गंभीर चिंता उभारता हैं।
चिंता कई स्तरों पर हैं, सबसे बड़ी चिंता का विषय इस अध्यादेश को संसद के आगामी मानसूम सत्र में मंजूरी दिलानें को लेकर होगी। अभी यह अध्यादेश के रूप में देश पर लागू हुआ हैं, यानी अभी इसे आने वाले मानसून सत्र में इसें संसद की मंजूरी के लिए रखा जाएगां। जिसके हंगामेदार होने के लक्षण अभी से दिखने लगें हैं। राजनैतिक दलों नें इस ओर अपनी अपनी तैयारी शुरू भी कर दी हैं। आगामी चुनावों के राजनैतिक हित को साधने के लिए जिस तरह से सत्ता पक्ष ने आनन फानन में इस को अध्यादेश के रूप में लागू किया हैं उससे निपटने के लिए विपक्ष क्या, साथ खडी पार्टियां सपा, बसपा भी पीछे रहने वाले नही हैं। खाद्य सुरक्षा जैसें मुद्दे पर सरकार की अदूरदर्शिता का प्रभाव इस पूरे प्रक्रिया पर जरूर पड़ेगा, क्योंकि विपक्षी पार्टियां इस अध्यादेश के जरिए राजनैतिक हित को साधने के लिए सत्ता पक्ष को मौका नहीं देंगी। जिससे इस महत्वपूर्ण बिल जिसका इतने लंबे समय से इंतजार किया गया वो एक तुच्छ राजनीति की भेट भी चढ सकता हैं। ऐसी स्थिति में देश की जरूरतों के आवश्यकताओं के अनुसार खाद्य सुरक्षा पर एक गहन चर्चा हो जाए इस ओर भी भरोसा रख पाना कठिन ही होगा।
दूसरी चिंता का विषय इसके वितरण प्रणाली की वर्तमान प्रावधानों के साथ साथ भविष्य में प्रणाली में होने वाले परिवर्तनों के मद्देनजर हैं। हाँलाकि अभी सरकार इसें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से शुरूआत करने वाली हैं, जिसके तहत वह प्रति व्यकित 5 किलों अनाज देने का प्रावधान रखा हैं। जिसमें ग्रामीण ईलाकों से 75 प्रतिशत और शहरी ईलाकों से 50 प्रतिशत जनता को इसके दायरे में लाया जाएगां। जिसमें 1 रू प्रति मोटा अनाज, 2 रू प्रति किलों गेहूँ औऱ 3 रू प्रति किलों चावल दिया जाएगा। साथ ही साथ 6000 रू का मातृत्व लाभ और 6 से 14 साल के बच्चों के लिए पका पकाया भोजन और अत्यन्त गरीबों को अन्त्योदय योजना के तहत 35 किला अनाज कानूनी अधिकार के साथ मिलेगा। इसके लिए सरकार को प्रतिवर्ष 125000 करोड़ धनराशि की आवश्यकता होगी। निश्चित ही यह एक महत्वाकांक्षी योजना होगी।
लेकिन फिर भी इसके संचालन को लेकर चिंता हैं, यह योजना देश में पहली योजना नहीं होगी जिसें जन वितरण प्रणाली के द्वारा संचालित किया जाएगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से कुछ इसी तरह की योजनाएं पहले से भी चलाई जा रही हैं, लेकिन इस योजना में अंतर सिर्फ इतना होगा कि अब तक जहाँ सरकार पहले से चल रही योजनाओं को कल्याणकारी योजना की तरह चला रही थी अब इसें जनता के अधिकार के रूप में सुरक्षित करेगीं। जिसके तहत यह (खाद्य सुरक्षा) आम जनता का कानूनी अधिकार होगा, जिसें न्यायिक हस्तक्षेप द्वारा कार्यान्वित कराया जा सकता है। इस तरह यह खाद्य सुरक्षा में व्यक्ति अपनी हकदारी सुनिश्चित करता हैं। लेकिन सवाल हैं, कि संचालन होगा कैसें। क्या वर्तमान व्यवस्था के कंधों से ही इस महत्वाकांक्षी योजना का संचालन होगा, और अगर ऐसा होता हैं तो क्या यह व्यवहारिक होगा, कि जिस तंत्र के लिए योजना आयोग का खुद का मानना हैं कि लोगों तक 1 रूपया लाभ पहुचाने में सरकार को 3.65 रूपया खर्च करना होता हैं उसी से इस योजना का विस्तार किया जाए।
हाँलाकि सरकार कुछ हद तक इस बार के राष्ट्रपति के सयुक्त सदन के अभिभाषण में संकेत दे दिए थें कि इस योजना को भी अतत: नकद हस्तांतरण माध्यम से ही संचालित की जाएगी। हाँलाकि बढते दबाव के कारण अभी ऐसा नहीं किया हैं लेकिन भविष्य में इस व्यवस्था को जारी रखने की संभावना कम ही नजर आती हैं। तो सरकार विकल्प रूप में नगद हस्तांतरण की प्रक्रिया लागू करेगी। ऐसें में सरकार खाद्य सुऱक्षा में इस प्रयोग में गरीबों की खरीदने की शक्ति को बढा कर खाद्यानों के दाम को बाजार के हाथों में सौप देगी ऐसें में खाद्य सुरक्षा के बजाय यह व्यवस्था बाजार सुरक्षा में परिवर्तित हो जाएगी । मांग को बढता देख बाजार में खाद्यों के दाम में अतिशय वृद्धि होगी ही यह अर्थशास्त्र मूलभूत सिद्धान्त हैं। ऐसें में गरीबों को खाद्यान्नों को महगी दरों पर खाद्यान खरीदना होगा। नगद हस्तांतरण के आते ही केन्द्र सरकार खाद्यानों के मूल्य तय करने वाली सेन्ट्रल इश्यू प्राइस विधि को से बाजार को नियत्रित करने का नैतिक हक भी खो देगी, क्यूकि अभी तक सरकार इसी सेन्ट्रल इश्यू प्राइस प्रणाली के तहत बाजार को नियत्रितं करती रही हैं। ऐसें में यह खाद्य सुरक्षा के अधिकार को कैसे सुरक्षित रखेगी यह निष्कर्ष निकालना कठिन होगा। अभी भविष्य में किस तरह की व्यवस्था जारी की जाएगी यह सुनिश्चित करना कठिन होगा लेकिन इस और उपजने वाले खतरों को ध्यान में रखने की अत्यन्त आवश्यकता है।
इसके अलावा इस योजना में कृषि प्रणाली में सुधार ताकि लघु और सीमांत कृषको को बढावा, कृषि निवेश, कृषि अनुसंधान पर विकास, सिचाईं विकास, उचित प्रंबधन और विपणन सुविधाओं का विकास, भूमि का उचित प्रयोग को बढावा देकर खाद्य सुरक्षा को दीर्घ-कालीन परिदृश्यों में रखने का प्रयास किया जा रहा हैं। जिसके लिए एक कुशल राजनैतिक इच्छाशक्ति और योजना की आवश्यकता हैं। क्योंकि अलग अलग स्तरों पर इन और राज्य और केन्द्र सरकारे काफी पैसा खर्च करती रही हैं।
इन सब के मद्देनजर रखते हुए यह देखना बहुत ही जरूरी हैं कि जन अधिकारों में एक महत्वपूर्ण योजना किसी भी राजनैतिक नीतियों और आर्थिक कमियों की भेट ना चढ जाएं। देश के आर्थिक और सामाजिक स्थिति को देथते हुए इस ओर व्यवस्था के व्यापक प्रयास करने की जरूरत हैं ताकि सही अर्थों में खाद्य सुरक्षा सुरक्षित की जा सकें, और अगर इस व्यवस्था में अगर इस तरह की खामियाँ रह गई तो यह एक राजनैतिक एक और मरीचिका सरीखा होगा, गरीब जनता के लिए सिर्फ आभास होगा खाद्य सुरक्षा नहीं। इसलिए मरीचिका के प्रभाव को ना पनपने देने के लिए एक कुशल कार्यकारी औऱ समेकित योजना पर बल देने की जरूरत हैं।


शिशिर कुमार यादव.