शुक्रवार, 17 मई 2013

तकाजा है पाकिस्तान के साथ खड़ा होना

हम तकदीर बदल सकते हैं पड़ोसी नहीं



कल जब पाकिस्तान की आम जनता वोट के रूप में अपनी लोकतांत्रिक ताकत का प्रयोग कर अपने लिए एक लोकतांत्रिक सरकार को चुनेगी, तो वो पाकिस्तान के इतिहास में एक सुखद पन्ना होगा। पाकिस्तान के 66 सालों के इतिहास में यह पहली बार होगा, जब एक सत्ता का हस्तानान्तरण एक जन प्रतिनिधियों की चुनी सरकार दूसरी जनता द्वारा चुनी गई सरकार को करेगी। यह सुखद पन्ना केवल पाकिस्तान के लिए ही एक महत्वपूर्ण दिन नहीं होगा वरन् द्क्षिण एशियाई देशों की अस्थिरता की राजनीति में एक महत्वपूर्ण मुकाम होगा। यह मौका भारत के लिए भी अपने सबसे निकट पडोसी के साथ संबधों को सुधारने के लिए एक नये सिरे से अवसर होगा। पडोसी देशों के साथ समस्या भारत को औपनिवेशिक शासन की विरासत के रूप में मिली है। इन सब देशों से रिश्तो के बीच भारत और पाकिस्तान की गाथा, कलह की गाथा हैं। इन दोनों देशों में दुश्मनी नई नहीं है। आजादी के बाद 6 दशक बीत जाने के बाद भी हालातों में परिवर्तन न के बराबर हुआ हैं। आज भी ये दोनों देश कई मोर्चो पर लड़ रहे हैं। भारत और पाकिस्तान तीन बार जंग के मैदान में आमने सामने आ चुके हैं। जीत हार के परे हो कर देखें, तो बडे पैमाने पर जन और धन की हानि दोनो ओर से हुई और दोनों ही देशों के हाथ में कुछ नहीं लगा हैं ।
पाकिस्तान के साथ भारत के संबध हमेशा ही कूटनीतिक तनाव भरे रहे हैं, जिनकी परिणाम युद्ध रहे हैं। इन युद्धों ने दोनों देशों की संस्कृति को घृणा की संस्कृति में बदल कर रख दिया हैं। इतिहास गवाह रहा हैं इन युद्धों के पीछे वहाँ के सैनिक शासन या सैन्य ताकते बड़ी भूमिका रहीं हैं। ऐसें में भारत का वो हिस्सा जिसमें हमारी अपनी विसारत का सौन्दर्य छिपा हैं, उसके खिलाफ खडा हो जाता हैं। ऐसें में हमारा हड़प्पा वाला पाकिस्तान, मोहन जोदड़ो वाला पाकिस्तान, बुल्ले शाह वाला पाकिस्तान, फ्रंटियर गांधी वाला पाकिस्तान, आज आएसआई वाले पाकिस्तान, लश्करे तैयबा और हिजबुल वाला पाकिस्तान के रूप में बदल चुका हैं। ऐसें में एक सिर्फ और सिर्फ लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार से संभावना दिखलाई पड़ती हैं जो दोनों देशों के बीच चली आ रही संस्कृति में सकारात्म बदलाव ला सकती हैं। क्योंकि दोनों देशों का बटवारा जनता की एक राय से नहीं वरन राजनैतिक रूप से किया गया फैसला था, जिसका खामियाजा आज तक दोनों देश उठा रहे हैं। ऐसें में आने वाली लोकतांत्रिक सरकार एक राजनैतिक पहल की संभावनाए जगाती हैं ताकि दोनों देश अपनी इस समस्या को राजनैतिक तरीके से सुलझा सकें। हाँलाकि संभावनाओ को लेकर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगा, पर संदेह में ही संभावनाए हमेशा अपना हिस्सा लिए हुए होती हैं।
दोनो देशों की आम जनता एक दूसरे को लेकर हमेशा अतिसंवेदनशील बनी रहती हैं, ऐसे में छोटी सी छोटी घटना का प्रतिफल दोनों देशों के साथ हो रही किसी भी तरीके बढ रहीं नजदीकियाँ और भी बड़ी दूरियों में तब्दील हो जाती हैं और दोनो देशों के हरेक मंच से जनमानस की देश भक्ति से लबरेज आवाज उठने लगी हैं जो कि तुरंत हमला कर के सबक सिखाने के पक्ष में होती हैं । लेकिन ये देशभक्ति से उभरी आवाजो की हुंकार के नीचे वो आवाजे हमेशा दम तोड़ देती हैं, जो इन दोनों के बीच विवाद के कारण सबसे ज्यादा नुकसान उठाती हैं। शहीद सैनिकों से लेकर आम जनता जिनके टैक्स का एक बड़ा हिस्सा सैन्यब़जट के रूप में उड़ा दिया जाता हैं, उनकी आवाजों के आगे ये राष्ट्रभक्ति की आवाजो के आगे दम तोड़ देती है। ऐसे में वो मुद्दे जिन पर दोनों देशों को मिलकर कई मोर्चों पर लड़ने की जरूरत हैं, पर सैनिक मोर्चों से बात कभी आगे बढ़ ही नहीं पाते हैं, और सामाजिक सांस्क़ृतिक विरासत के भागीदार ये दोनों देश एक दूसरे के खिलाफ खडें हो जाते हैं।
  
   खेल का छोटा सा मैदान दोनों देशों में जंग के मैदान सरीखे लगने लगता हैं, जिसे जीतना दोनों देशों की प्रतिष्ठा का सवाल बना रहता हैं, और इस प्रतिष्ठा को हवा देने का काम अतिउत्साही बाजारू संस्कृति सें पीड़ित मीडिया और इन दोनों देशों की अवसरवादी राजनीति पार्टियां करती हैं जिन्हें सिर्फ जनता को बरगलाना ही आता हैं। हाल में ही भारत में आयोंजित क्रिकेट सीरीज में भारतीय टीम की लगातार दो हारों के बाद तीसरे खेल से पहले छपी खबरों में अब जीतना ही होगांसरीखें खबरों से आसानी से परिलक्षित हो जाता हैं। जो दोनों देशों में गहरे अविश्वास को दिखलाता हैं। जो कि दोनो देशों के हित में नही हैं। दोनों देशों की राजनैतिक पार्टियों ने एक दूसरे के खिलाफ दुश्मनीं को अपने अपने देशों में राजनैतिक हित और अपनी आंतरिक सुरक्षा पर असफल होने के बचाव के रूप में करती आ रही हैं, और दोनों देशों के बीच एक घृणा की संस्कृति विकसित कर दी हैं जिसका ओर छोर नहीं दिखलाई पड़ता हैं।

इन विषम स्थितियों पाकिस्तान में जनता के प्रति जवाबदेह सरकार होने से एक उम्मीद जगती हैं जिसमें दोनों देशों के बीच एक राजनैतिक मंच से दोनों देशों के बीच मुद्दों को बातचीत के जरिए सलझानें की कोशिश को फिर से पंख लगेगें। दोनो सरकारे अपने अपने देश की जनता के प्रति जवाबदेही तय करते समय उन तमाम मूलभूत मुद्दों पर एक दूसरे की मदद की लेगी जो दोनों देशों की मूलभूत समस्या हैं। दोनों देश गरीबी, भुखमरी, अशिक्षां, स्वास्थ्य और आंतकवाद, आंतरिक सुरक्षा के मोर्चों पर लड रहें हैं, जिनकी प्रकृति लगभग एक समान हैं। इनसे निपटने के लिए दोनों देश अगर मिल कर काम करे तो राजनैतिक और सांस्कृतिक रूप से एक मजबूत सहयोगी बन कर उभरेगें। ऐसें में अगर लोकतांत्रिक सरकारें युद्ध से ध्यान हटाती हैं तो युद्ध पर दोनों देशों का लगने वाली एक बड़ी धनराशि मूलभूत समस्या पर लग सकती हैं, जिनको हमेशा सैन्य बजट के आगे कम धनराशि मुहैया कराई जाती रही हैं।
 आकडों के हिसाब से भी देखें तो भारत नें 2012-13 के आम बजट में रक्षा बजट को करीब 17 फीसदी बढ़ाकर 1,93,407 करोड़ रुपए कर दिया गया जो साल 2011-12 में यह 1,64,415 करोड़ रुपए था। भारत अपनी रक्षा जरूरतों के लिए आवश्यक सामग्री के 70 फीसद का आयात करता है और अमेरिका, फ्रास. रूस और ब्रिटेन भारत को हथियार निर्यात करने वालें बडें देश हैं। ऐसें में भारत विश्व बाजार में हथियारों की खरीज फरोख्त में बडा खरीददार हैं । पाकिस्तान में भी हालात ऐसे ही हैं। इस तरह भारत औऱ पाक अमेरिका के हथियारों के परीक्षण की प्रयोंगशाला बने हुए हैं। देश में आम जनता के टैक्स से जमा पैसे में से एक बडा हिस्सा विकास की जगह हथियार खरीदनें में चला जाता हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, पेय सुविधाएं जो मूलभूत सुविधाएं हैं, और जिनसें इन दोनो देशों की जनता महरुम हैं, उनके लिए बजट में रक्षा बजट की तुलना में लगभग आधा खर्च किया जाता हैं। 2012-13 मानव संसाधन मंत्रालय ने उच्चशिक्षा तथा स्कूल शिक्षा के लिए कुल 75,000 करोड रूपए मांगे थे, लेकिन सरकार नें आवंटित बजट में 5199 करोड रूपए की कमी करने का फैसला किया और बजट में केवल 61,407 करोड रूपये की स्वीकृति प्रदान की। वहीं स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए भी सिर्फ 34488 करोड़ का ब़जट तय किया गया। पेयजल और स्वच्छता के लिए केवस 14,000 करोड का बजट ही स्वीकृत किया। ऐसें में अकेला रक्षा ब़जट ही इन तीनों से अधिक हैं। ऐसें में जिन दशों में आधी से अधिक आबादी के बाद स्वास्थ्य, शिक्षा, जल औऱ स्वच्छता सम्बन्धित मूलभूत सुविधआओं का अभाव हैं, उसें एक और युद्ध की ओर ढकेल देना कहाँ कि समझदारी हैं।

दोनों देशों में एक लोकतांत्रिक सरकारे इस बजट पर काफी हद तक नियंत्रण कर सकती हैं। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम चाहें विश्वपटल में कितना भी विकसित हो जाए लेकिन एक असुरक्षित पडोसी देश, हमारे अपने देश की सुरक्षा के लिए हमेशा बडा खतरा बना रहेंगा। हम कुछ भी कर लें पर अपना पडोसी नहीं बदल सकते हैं। ऐसें में युद्ध की रणभूमि में बार बार निपटने की सोच सिवाय आत्मघाती हमलें के अलावा कुछ औऱ न होगा। भारत और पाकिस्तान की आर्थिक, सास्कृतिक, सामाजिक लगभग एक सी रही हैं, ऐसें अगर दोनों देश अपनी अपनी युद्ध नीति की कूटनीति के इतर आर्थिक, सास्कृतिक, सामाजिक परस्पर संबधों की ओर देखें तो यह दोनो ही देशों के लिए बेहतर होगा। युद्ध हमें सिर्फ और सिर्फ कड़वी यादों के साथ रहने पर मजबूर करता हैं। हाँलाकि विभिन्न विद्वान दोनो देशों के मध्य मधुर संबधों को दूर की कौडी मानते हैं पर उन्हें कभी नहीं भूलना चाहिए कि यूरोपीय देश जब हजार सालों की शत्रुता भुला कर और दो बड़े विश्व युद्ध लड़कर, शान्ति से रह सकते हैं तो हम अपने ही पुराने हिस्सें के साथ शांति से क्यों नहीं रह सकतें। जिसमें दोनो देशों की भलाई हैं।
भारत को बड़े भाई होने के नाते पाकिस्तान में आने वाली अगली सरकार के साथ एक कूटनीतिक और एक सुदृण विदेशनीति के साथ आगे बढने की जरूरत पर बल देना चाहिए ताकि वो दक्षिण एशियां में एक बड़े और भरोसेमंद देशों के रुप में उभर सकें। जो इन दोनो देशों की आतंरिक और बाहरी सुरक्षा दोनों के लिए अत्यन्त ही महत्पूर्ण हैं। यहाँ हमें एक बात ध्यान में रखनी होगीं कि तकदीर बदल सकते हैं पर पड़ोसी नहीं, तो पड़ोसियों से मधुर संबधों में ही सार्थक औऱ सुदृण विकास छुपा हैं। तो आज आज पाकिस्तान के साथ खड़े होने की जरूरत है,  
जिए पाकिस्तान।जिए हिन्दुस्तान। जिए अमन।जिए जम्हूरियत।


('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 18 मई 2013 को प्रकाशित लेख है) 


                                                                                                                            शिशिर कुमार यादव 

शनिवार, 11 मई 2013

मैं, सरकार और गुडें


यादव होने के नाते एक बन्धु ने कहा कि आपकी सरकार में तो खुली गुड्डागर्दी जारी हैं। बस हम लोग इसी चीज से मुलायम और सपा के आने से डर रहे थें, कि खुले आम गुन्डागर्दी का माहौल बन जाएगा इसी का ड़र था, लीजिए जो ड़र था अब सच हो गया हैं। मैं उनसे और उनकी बात से पूरी तरह अक्षरश: सहमत हूँ। विरोध का विकल्प था भी नहीं। पर इन बातो को सोचते सोचते मेरे मन में सिर्फ एक ही सवाल कौध रहा था, कि क्या सच में इस व्यवस्था विकल्प खोजा सकता हैं और अगर है तो क्या?  विकल्प बनाएगा कौन? किससे उम्मीद की जा सकती हैं। ये ऐसे सवाल हैं जिनका जबाव हम आप आसानी से नहीं खोज सकते हैं क्योंकि इन सब सवालों का केवल एक ही जवाब हैं आपकी अपनी नैतिकता जो की ना जाने हम औऱ आप कब की जला कर ताप चुके हैं। तो ऐसी स्थितियों के लिए बचाव लाए भी तो लाए कहाँ सें। आज कोई ज़िया उल हक़ मारा गया हैं कल कोई और मारा जाएगां , पर मारा जरूर जाएगा।
आप सोच रहे होगें कि मैं अति निराशावादी हूँ पर मेरे होने की बडी वजह हैं, जिनके जवाब हम आप दे भी नही सकते। जब विरोध और बदलाव का जब भी मौका आता हैं तो हम और आप जाति वादी से लेकर ना जाने कौन कौन वादी हो जाते हैं, और बदलाव करने से झिझकते हैं। जिस तालाब औऱ जिस भइया की बात हम आप कर रहे हैं वो किसी क्षेत्र में किसी धर्म और जाति के मसीहा होते हैं और जब भी इन्हे बदलने की बारी आती हैं तो हम आप अपने अपने क्षेत्र के मसीहा के रूप में जिंदा रख कर इन्हे जितवाते हैं। बस चेहरे बदल जाते हैं हम कुछ उखाड़ नही पाते हैं। कभी राज ठाकरें, औवेसी, तोगडिया, मोदी, तो कभी मुखिया के रूप में सामने आते हैं, जिनका आप कुछ नही कर सकते और ना ही आपका बना बनाया तंत्र। क्योंकि इस तंत्र के मुखियाँ तो हम आप ने इन्ही को चुन रखा हैं तो ऐसे में ये अपने ही खिलाफ कार्यवाही करवा ले ऐसा कैसे हो सकता हैं, मेरी समझ से बाहर हैं। और जब हम इन्हे बाहर कर सकते हैं तो हम इन्हें ही मसीहा मान कर चुन आते हैं क्योंकि सत्ता और ताकत इन्ही के पास हैं और हम भी इन्ही में अपना हित देख कर खुद को ताकतवर बनाने के लिए इन्ही का चुनान करते रहते हैं। अगर ऐसा ना होता तो सत्ता के केन्द्र में इतने अपराधी कहा से आ गएं हैं। किसी की इतनी हैसियत नही हैं कि वो लोकप्रिय वोट के आधार पर अपने आप को जितवा सके। तो ऐसें में मेरा खुद का मानना हैं कि स्वहित के आगे कोई और हित जिंदा ही कहा रहा हैं। इतिहास की पंरपरा को आज की राजनैतिक पार्टिया अच्छे से भुनाती आ रही हैं. औऱ आज आप और हम सिर्फ अपने गुडें वाली पार्टी का इंतजार कर रहे होते हैं ताकि अपने अपने स्वहित पूरे हो सके. भाजपा .आए तो गुंडें..बसपा आए तो गुडें..सपा आई तो गुडडे तो हम औऱ आप बस अपनी अपनी गुडों वाली पार्टी का इंतजार करते हैं और ये पार्टिया हमारे पंसदीदा गुडें को ढूढ कर हमारे क्षेत्र से चुनाव का टिकट देती हैं ताकि आप अपनी गुडों वाली सरकार को आसीनी से चुन सकें। और हम चुनते भी हैं ना चुनते तो आते कहाँ से हर पार्टी में ।
उत्तर प्रदेश में बड़े आला अफसर हैं (नाम नही ले रहा हूँ )...लेकिन वो कहते कहते कह गए कि जिस जिले में ये घटना हुई हैं, वहाँ जो उत्तर प्रदेश से जुड़े हैं वो जानते हैं कि कैसे हालत कैसे रहे हैं या वहाँ का इतिहास कैसा हैं ..खैर हिचकते हुए ही सही उन्होनें ये माना कि राजनीति का अपराधीकरण इस हद तक हुआ हैं कि अपराधी ही नेता हैं.। जिनका कुछ नही किया जा सकता हैं। तो ऐसें में आप उम्मीद किससे कर सकते हैं। समस्या केवल सिर्फ इस सरकार से नही, बल्कि, यह तो सत्ता का चरित्र ही बनता चला जा रहा हैं और देश की राजनीति इसी तरह चल रही है। बाहुबली, बलात्कारी, भ्रष्ट-दबंग नेता कमोबेश सभी सरकार में होते हैं
रवीश की रिपोर्ट में कानपुर से लेकर लखनऊ के थानेदारो में यादवों की संख्या पर प्रकाश डाला गया और बताया गया कि ये आकडें हैं... पर रवीश को कौन बताएं...कि माया सरकार में यादव होना ही गुनाह था  अगर थोडी तहकीकात करें तो पाएगें कि जितने यादव आज दिखते हैं, वो माया सरकार में या तो बंगाल की खाडी में थें या रवीश ही खोज सकते हैं.. और इस सरकार में भी किसी एक जाति के लोग हासिएँ पर हैं, और अगली सरकार में ये लोग जो अभी आकडे बने हुए हैं वो हासिएँ पर होगें।. खैर तो साहब हित के आगे आपका अपनी गुडों वाली सरकार हैं बस और कुछ नहीं...

शिशिर कुमार यादव
shishirdis@gmail.com

प्राण का फाल्के पुरस्कार गुमनाम कलाकारो के नाम ...

प्राण जिन्होनें अपने अभिनय से ना जाने कितनी फिल्मों में प्राण डाले

महानता की अपनी एक कीमत होती है कोई भी इस कीमत को चुकाएं बिना महान नहीं हो सकता है। भरोसेमंद, दीवार, रीढ होना और न जाने क्या क्या, इसी महानता के पर्यायवाची है। हर एक शब्द की अपनी राजनीति है और उसका एक उद्देश्य होता है। पर इन सभी शब्दों में भरोसेमंद होने का अपना ही एक अलग मजा और एक अलग दृष्टिकोण है, हम उन्हें भरोसेमंद कह देते है जिन्हें हम वो जगह नहीं दे पाते जिनके वों हकदार होते हैं, लेकिन करें क्या ? हम उन्हें छोड़ भी नहीं सकते, क्योंकि उन जैसा दूसरा कोई है भी नहीं। जीवन के रिश्तों में यह हकीकत है। आप इसे तभी महसूस कर सकते है जब आप किसी इंसान के लिए बेहतर और उसें सुरक्षित रखनें की कोशिश करते है, और वो भी उससे बिना कुछ मागें। हो सकता है मेरी कुछ पक्तियां बहुतो के करीब से गुजर गयी हों, पर मेरा यह उद्देश्य भी है... जिस बात का उल्लेख मैं यहां करने जा रहा हूँ उसके लिए यह पक्तियां अक्षरश: सहीं है, मैं हिंदी सिनेमा के सबसे चर्चित विलेन रहे प्राण की बात कह रहा हूँ। जिन्हें दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया. प्राण सरीखें अभिनेता हिंदी फिल्म जगत के वो किरदार रहें जिनकी आलोचना में ही तारीफ छुपी होती है और तारीफ में ना जाने क्या क्या। 
आज प्राण को दादा साहेब फाल्के अवार्ड मिलने पर लगा कि सच में अवार्ड की इज्जत बढ गई की प्राण जैसे किरदारों के लिए ये अवार्ड बना। बचपन से लेकर 18- 19 की उम्र तक प्राण के किरदारों से घृणा होती थी। फिल्मों की समझ हो ना हो हम फिल्म के हीरो के साथ हो लेते थें। फिल्मी पर्दा हो या  अखबार का पेज पंसद सिर्फ हीरो ही आता थां। फिल्म में क्या कहीं अन्य जगहों पर भी प्राण जैसें किरदारों को देखते ही मन अपने आप नींबू जैसा खट्टा हो जाता थां। फिल्मों की बढती समझ ने समझ में आया कि मेरी वो घृणा दरअसल प्राण के किये गए काम की सराहना होती थी यहीं तो प्राण चाहते थें, कि फिल्मों की समझ हो या ना हो पर वो अपने किरदार को हर समझने और ना समझने वाले को समझा देते थें।
सच में प्राण एक अभिनेता रहें और हैं, जिन्होने अपने अभिनय से समाज के वो किरदार जिए, जिन्हें जीना सच में अपने आप में एक कठिन चुनौती था। हिन्दी फिल्म जगत की नायक प्रधान समाज में खुद को खलनायक बना कर अपनी पहचान और दर्शकों के बीच स्वीकार्यता बना पाना किसी भी अभिनेता के लिए हमेशा  चुनौती रहा हैं, और इसी चुनौती में दर्शकों द्वारा खुद के अभिनय के लिए सराहना पाना उन सबसे और अधिक दुष्कर काम था लेकिन प्राण उन चुंनीदा लोगों में से एक हैं जिन्होनें ना केवल इन किरदारो को पर्दे पर जिया बल्कि उस किरदार के रूप में पूरा न्याय किया, जिनकी वजह से हमें पर्दे से अपने लिए नायक चुननें में सुविधा रहीं।
 1969 में भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के की सौंवीं जयंती के अवसर पर शुरू किया गया यह भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा पुरस्कार है, जो आजीवन योगदान के लिए केंद्र सरकार की ओर से दिया जाता है। भारत सरकार द्वारा यह पुरस्कार भारतीय सिनेमा के संवर्धन और विकास में उल्लेखनीय योगदान करने के लिए दिया जाता है। 1969 से शुरू हुए इस पुरस्कार को अब तक प्राण समेत 44 लोगों को दिया गया हैं। जिनमें अभिनेत्रीयों, अभिनेता, पार्श्व गायक, पार्श्व गायिका, निर्देशक, छायाकार, फ़िल्म निर्माता और फ़िल्म पटकथा लेखकों को मिल चुका हैं लेकिन प्राण अभिनेता वर्ग का प्रतिनिधित्व करेगें, जिनके अभिनय की चर्चा सिनेमा हॉल के बाहर बहुत कम ही होती हैं। फिल्म की सफलता और असफलता की श्रेय से वंचित ये वो किरदार होते हैं जो नीव के पत्थर तो बन सकते हैं पर भवन के कंगूरें पर सज जाएं ये लगभग नामूमकिन हैं। ऐसें में उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हुए एक कलाकार होने के नाते प्राण का ये मुकाम दादा साहब फाल्के पुरस्कार पाने वाले अन्य कलाकारों से अलग हैं और विशिष्ट भी। प्राण को दादा साहब फाल्के पुरस्कार सिनेमा जगत के उन हर कलाकार को एक सम्मान सरीखा  और प्रेरणा सरीखा हैं, जिन्हें सिनेमा की रंगीन दुनिया में अभिनेता रूपी सितारों के आगे चमकने ही नहीं दिया।
आज इस वक्त में जब प्राण के समकालीन सभी अभिनेता धीरें धीरें क्षितिज के तारे बनते जा रहें हैं ऐसें में प्राण अभिनय की एक जीता जागता रास्ता हैं जिसका कोई भी अनुसरण कर के कोई भी अपनी मंजिल आसानी से पा सकते हैं। खास कर वो लोग जो रंगीन सपनो के साथ इस शहर में आते हैं और इसकी चकाचौध में कही पूरी तरह खो जाते हैं। ऐसें में प्राण सरीखे कलाकार उन सभी के लिए प्रेरणा स्त्रौत हैं, जो अपने व्यक्तित्व से ईमानदारी और निष्ठा अपने काम करने को तवोज्जों देते हैं। हम सब को जंजीर फिल्म का यारी हैं ईमान मेरी, यार मेरी जिंदगींशब्द तो याद होगें आज प्राण के लिए इऩ्हीं शब्दों को के साथ कहा जा सकता है कि अभिनय हैं ईमान तेरा अभिनय तेरी जिंदगीं
शिशिर कुमार यादव 

शनिवार, 4 मई 2013

आपदा प्रंबधन की क्षमता पर सवाल...


ईरान और पाकिस्तान को हिला जाने वाला भूंकप जिसकी कपकपी से हम सब भी कांप उठे, उसकी धमक अभी थमी ही नहीं थी, आपदा प्रंबधन पर, नियंत्रक एंव महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट से देश एक बार फिर सहमा हुआ हैं। कैग ने आपदा प्रंबधन को लेकर सरकार की तैयारियों की धज्जियाँ उड़ाते हुए दावा किया, कि देश का प्रंबधन तो दूर की कौड़ी हैं, प्रधानमंत्री आवास के लिए किए गए उपाय भी आपात कालीन स्थितियों में पर्याप्त नहीं होने वाले हैं। जबकि देश में प्रंबधन देखने वाली संस्था राष्ट्रीय आपदा प्रंबधन प्राधिकरण (नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथारिटी) के अध्यक्ष स्वंम प्रधानमंत्री होते हैं।

प्राकृतिक आपदाएं इस देश का सच हैं, जो समय समय पर इस देश को झकझोरती हैं और बतलाती हैं कि इस देश में मानव और प्रकृति के बीच के अन्तर्संबंधो में कमी आई हैं। बदलती आर्थिक प्राथमिकताओं नें इस दूरी को गढ्ढें से खाई मे परिवर्तित कर दिया हैं। अत: इससें पनपे नुकसान का भुगतान हम केवल आर्थिक कमजोरी से नही चुका रहें हैं, बल्कि सामाजिक और राजनैतिक रूप से भी भुगत रहें है। जिसकी भयावहता का अनुमान हम बड़ी आसानी से किसी भी आपदा ग्रस्त इलाके पर एक नजर ड़ालनें से समझ सकते हैं।

   आपदाओं की परिभाषा पर ध्यान दें तो हम पाते हैं कि  आपदाए वे होती हैं जो बड़ें पैमाने पर होने वाली एकाएक प्राकृतिक गतिविधियां है, जिसका प्रभाव मानव जाति पर नकारात्मक पड़ता हैं। बाढ, भूकंप, सूखा, चक्रवाती तूफान और वे सभी हादसें जिनसे मानव प्रभावित होता हैं आपदाए कहलाती हैं जिनमें प्रकृति और मानव के कारण उत्पन्न आपदाएं सम्मलित हैं। प्रतिवर्ष भारत अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह सें इन आपदाओं का बड़ा शिकार बनता हैं, जिसमें प्रतिवर्ष बडे पैमाने पर जन और धन की हानि होती हैं।

    आपदाओं का आंकलन करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय डाटाबेस संस्था सेंटर फार द रिसर्च आन इपिडिमियोलाजी आफ डिजास्टर का आकलन  हैं कि भारत 2000 से 2009 के मध्य 24 अरब अमरीकी डालर का नुकसान उठा चुका हैं, जिसमें सबसे ज्यादा नुकसान 17 अरब अमरीकी डालर बाढ की वजह से हैं और 4.5 अरब अमरीकी डालर भूकंप की वजह से 1.5 अरब अमरीकी डालर सूखे की वजह से और बाकी नुकसान अन्य प्रकार की विपदाओं की वजह से उपजा हैं। वर्ड बैंक के आंकलन को सही मानें तो भारत जीडीपी का 2 % और राजस्व का 12 % नुकसान सिर्फ और सिर्फ इन आपदाओं की वजह से उठाता हैं। देश के विभिन्न आकडों पर नजर डालें तो स्थिति स्पष्ट हो जाती हैं कि देश में हर प्रकार से आपदा के सामने सिर्फ और सिर्फ झुकाते चला आ रहा हैं।

1993 से 2012 तक भारत में विभिन्न आपदाओं की स्थिति और उनसे होने वाले नुकसान का विवरण
Disaster
कुल घटनाओं की संख्या
मृत
संख्या
कुल प्रभावित जनसंख्या
कुल हानि
(000 US$)
सूखा
5
20
351175000
204112
भूकंप (सुनामी सहित)
9
47679
8373265
4434750
महामारी ( जीवाणु, परजीवी + वायरल)
36
3103
334617
-
 तापमान (ठंड, गर्मी और चरम शीतकालीन)
24
8856
-
-
बाढ़ ( फ्लैश,  / तटीय बाढ़, स्थानीय
136
25592
517412587
27834379
हिमस्खलन/ लैंड स्लाइड)
25
1811
1333804
54500
तूफान
45
17535
34660320
548116
Source: (EM- DAT: the OFDA/ CRED international Disaster Database-Université Catholique de Louvain, Brussels (Belgium))
स्त्रौत: (अन्तर्राष्ट्रीय डाटाबेस संस्था सेंटर फार द रिसर्च आन इपिडिमियोलाजी आफ डिजास्टर)

यह केवल 20 सालों के आकड़े हैं, जबकि इतिहास और अधिक पुराना और भयानक रहा हैं। ये आकड़े भला ही बहुत बड़े और आम जन की समझ से परे हो, पर इन आपदाओं की वजह से होनें वाले नुकसान की एक छोटी सी समझ सभी के मन में बडी आसानी से उभर सकती है कि, इन आपदाओं में बहुत कुछ बर्बाद हो जाता हैं। कोसी की बाढ, भुज का भूकप, विदर्भ का सूखा आदि तो कुछ एक बडें उदाहरण हैं और तमाम ऐसी प्राकृतिक स्थितियां जिन्हें हर साल बदलते मौसम के साथ देश के विभिन्न भागों में झेलना पड़ता हैं। ये स्थितियां भारत को आपदा प्रधान देश बना देती हैं और कुल समस्याएं मिलकर देश के लिए लगातार एक बडे नुकसान का कारण बनती हैं और इन सबके सामने असहाय जनता सिर्फ और सिर्फ मूकदर्शक बनी रहती हैं।

ऐसा नहीं हैं कि भारत के पास इन आपदाओं से निपटनें का कोई तंत्र नहीं हैं, पर समस्याओं से निपटते हुए उनकी क्षमता और कार्ययोजना पर बडी ही आसानी से सवाल उठाएं जा सकते हैं। भारत में आपदाओं से निपटने के लिए त्रिस्तरीय केन्द्र, राज्य और जिला स्तर पर आपदा प्रबंधन विभाग हैं जो इन आपदाओं पर ना केवल नजर रखते हैं, साथ ही साथ सभी स्तर पर इनसे निपटने के लिए कार्ययोजना का निर्माण भी करते है, लेकिन ऐसा क्या है कि जिसकी वजह से हम साल दर साल इस नुकसान का शिकार बनते जा रहे हैं।

भारत में आपदा के लिए पृथक ध्यान 1990 में कृषि मंत्रालय के अन्तर्गत डिजास्टर मैनेजमेंट सेल के साथ स्थापित किया गया। लेकिन लातूर का भूकंप (1993), मालपा का भूस्खलन (1994), उडिसा के सुपर साइक्लोन (1999), भुज के भूकंप (2001) के बाद देश में पृथक व्यवस्था को महसूस करते हुए जी. सी पंत की अध्यक्षता में हाई पावर कमेटी की रिपोर्ट में एक व्यवस्थित और व्यापक निर्देशों को जारी किया गया। 2002 में आपदा को देश की आंतरिक सुरक्षा का मसला मानते हुए इसे गृहमंत्रालय के अन्तर्गत लाया गया। आपदा प्रंबधन के इतिहास में भारत में एक कांत्रिक परिवर्तन 2005 में डिजास्टर मैनेजमैंट एक्ट 2005 के तहत भारत सरकार ने अपनी कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया। जिसमें आपदा के आने के बाद, इस पर बचाव, नुकसान की भरपाई, फिर निदान और फिर आपदा पूर्व तैयारी की जाती हैं। जो आज भी जारी हैं।

 लेकिन इस कार्ययोजना के लागू हो जाने के बाद के ही आकडें उठा कर देखें, तो हम पाते हैं कि हर साल आपदा से होनें वाले नुकसान में इजाफा ही हुआ है और हम एक ही प्रकार की समस्याओं से जूझते नजर आते हैं। ऐसें मे यह तय कर पाना एक कठिन काम हैं कि क्या वाकई यह तंत्र इन समस्याओं से निपटने में सक्षम हुए हैं ? और इसकी कार्य क्षमता पर मौजूदा कैग का प्रश्नचिन्ह आपदओं को लेकर देश की तैयारी पर श्वेत पत्र जारी कर दिया हैं और सरकारी दावों को आइना दिखलाया हैं।

कहानी वहीं हैं जिसमें तत्रं का रोना रो कर, हम बडी आसानी से अपनी समस्याओ को बडा आंक देते हैं। ऐसें में, हम कहीं न कहीं इन समस्याओं से न निपट पाने की विफलता के लिए बहाना ढूढनें की कोशिश करते हैं, ताकि हम अपना बचाव कर सकें। लेकिन इससें हम अपनी जवाबदेही से तो बच सकते हैं पर समस्याओं से बिल्कुल नहीं। इस साल को ही देखें तो पाएगें कि, असम की बाढ, और अब मानसून के धोखे के बाद सूखे का संकट देश के लिए चुनौती बना हुआ हैं। हमारे तंत्र की कमजोरी से भी ये संकट हम पर कोई भी रहम करनें के मूड में नही हैं।  इसलिए जवाबदेही से बच कर हम अपना दामन भला ही छुपा ले लेकिन संकटों से सामना हमें करना ही पडेगा।

 तो आखिर हम करें क्या? जिससें हम इन आपदाओं से लड़ सके। इसकें दो ही तरीके हैं, पहला या तो हम इन आपदाओं को रोकें और या फिर इनसे प्रभावित होनें वालें लोगों को इतना मजबूत कर दें कि उन पर इन आपदाओं का प्रभाव कम से कम दिखलाई पडें। पहला वाला उपाय लगभग नामुमकिन सा हैं लेकिन अगर हम प्रकृति से अच्छें संबध बना ले तो कुछ कमी लायी जा सकती हैं। इसके लिए एक लम्बें समय की दरकार हैं, तो ऐसें में तब तक हम इन आपदाओं के सामनें खुद को बलि के बकरें के रूप में तो पेश करते  रहेगें। हमें हमेशा ही अपने दूसरें विकल्प की ओर सोचना होगा, जिसमें लोगो को मजबूत किया जाए।

     तंत्र के पास योजना और पैसा दोनों ही हैं लेकिन फिर भी हम हर मोर्चों पर असफल हो रहें है, इसका सीधा और सरल मतलब हैं कि योजनाओं को संचालित करनें वाले और योजनाओं को लेनें वालें दोनों लोगो के बीच बडें स्तर पर खामियाँ हैं। ऐसें में सिर्फ तंत्र की ओर उंगली उठा कर हम दूसरें पक्ष की लापरवाही को अनदेखा भी नहीं कर सकते हैं, और ये भी किसी से छुपा नहीं हैं कि इस लापरवाहीं को बढावा देने वालें कौन हैं। ऐसें में जब प्राकृतिक आपदा के परिणाम और प्रभाव सामाजिक हो चले हो तो सिर्फ प्राकृतिक आपदा मान कर हम कब तक अपनी कार्य योजना को संचालित करते रहेंगें।

ऐसें में हमें इन आपदाओं के उपरान्त होने वाले प्रभावों से लड़नें के लिए सामाजिक रूपरेखा तैयार कर फिर लड़नें पर बल देनें की जरूरत हैं ना कि सिर्फ प्राकृतिक कारणों से निपटनें पर अपनी सारी ऊर्जा खत्म करनें की। समय की मांग यह है कि हम अपनी योजनाओ का निर्धारण बराबरी के आधार पर करने की बजाय जरूरत के आधार पर करें। ताकि हम सच में प्रभावित होनें वालों को बचा सकें और आपदाओं के प्रभाव को कम कर सकें। वरना साल दर साल हम इन आपदाओं के सामनें मूक दर्शक बनें रहेंगें और ये आपदाएं हमारा मजाक उड़ाती रहेगीं।
                                   
(यह लेख राष्ट्रीय सहारा में 27 अप्रैल 2013 को प्रकाशित हुआ हैं)
                                               शिशिर कुमार यादव.
लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ( जेएनयू) में
 आपदा विषय में शोधार्थी हैं।