मई का महिना आशाओं
का महिना होता हैं। कृषि प्रधान देश में इस महिने में किसान अपनी फसल से हुए
नुकसान और फायदें का आकलन करते हुए भविष्य के लिए योजनाएं बनाते हैं। जो उनकी
आशाओं का हिस्सा होता है। हाँलाकि हर बार आर्थिक क्षेत्र के साथ साथ राजनैतिक
सरगर्मियां भी मई की गर्मी में तप रही हैं। भारतीय किसान भला ही राजनैतिक
सरगर्मियां में थोड़ी देर के लिए रमा हो और कृषि से जुड़े मसलों पर ध्यान कम दे
रहा हो लेकिन चुनाव खत्म होते ही वो एक बार से उस ओर ही चिंता करेगा, जिस पर उसकी
खेती निर्भर करती है, यानी आने वाला मानसून।
भारतीय मानसून की
अनिश्चितता हमेशा ही किसानों का भविष्य से खेलती हैं, लेकिन इस बार चुनावी शोर के
बीच छन छन आ रही खबरों से इस ओर ड़र बढता जा रहा है। ये खबरे हैं अल-नीनो के
सक्रिय होने की खबर। विश्व की दो प्रमुख संस्थाए ‘आस्ट्रेलिया की व्यूरों ऑफ मीटिरिओलॉजी’ तथा ‘अमेरिका
की क्लामेट प्रिडिक्शन सेंटर’ ने वर्ष 2014 में
अल-नीनो के सक्रिय होने का अनुमान जारी किया है। जो भारतीय मानसून के लिए चिंता का
विषय है। अल- नीनो प्रभाव के चलते भारत मे मानसून अस्त-व्यस्त हो जाता है। असंयमित
मानसून सूखे की स्थिति को पैदा करता हैं, जिससे देश की कृषि विकास पर व्यापक
नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिसका सीधा प्रभाव भारतीय आर्थिक विकास पर पड़ता है।
इसकी एक झलक भारत की प्रमुख रेटिंग एजेंसी ‘क्रिसिल’ के अनुमान में साफ देखी जा सकती हैं, जिसने अपनी
रिपोर्ट में वित्त वर्ष 2014-15 के लिए भारत की आर्थिक विकास दर 6 % से घटा कर 5.2% रह
आंकी है। अगर यह अनुमान सही निकले तो निश्चित ही भारत 2013 के बाद 2014 में एक बार
बड़ी आपदा का सामना करेगा। इस तरह का प्रभाव सन 2002, 2004, 2009 में सूखे की
स्थिति का सामना करना पड़ा था। जिसमें 2009 की स्थिति सबसे अधिक भयावह थी। जिसने
देश के कई हिस्सों में अकाल की स्थितियां पैदा कर दी थी और देश की तमाम खाद्य
सुरक्षा योजनाओं के सामने संकट खड़ा कर दिया था।
अल-नीनो दक्षिण
अमेरिका में पेरू, इक्वाडोर के आसपास प्रंशात महासागर के समुद्री तापमान के बढ़
जाने के कारण उपजने वाली प्राकृतिक स्थिति है। जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव मानसून पर
पड़ता है। तापमान वृद्धि से मध्य और पूर्वी प्रशांत महासागर में हवा के दबाव में
कमी आने लगती है। इसके प्रभाव से विषुवत रेखा के ईर्द- गिर्द चलने वाली ट्रेड विंड
कमजोर पड़ने लगती है। यही हवाएं मानसूनी हवाएं है, जिनसे वर्षा होती है। इनके
कमजोर होने से मानसून धीमा पड़ जाता है। जिसका प्रभाव भारत जैसे देशों में कृषि से
शुरू होकर अर्थव्यवस्था के हरेक हिस्से को प्रभावित करता हैं जिसका सरोकार आम जनता
से है। सिचाई, पेयजल उपलब्धता, भूमिगत जलस्तर में कमी, बाधों में जल की कमी जिससे
उर्जा उत्पादन में कमी, कीमतो में अत्यधिक वृद्धि, खाद्यान्न उत्पादन में कमी जो
देश की खाद्य सुरक्षा पर ही सवाल खड़ा करने वाला होगा।
हाँलाकि भारतीय मौसम
विभाग इन अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की अल- नीनो संबधी भविष्यवाणी को संदेह की नजर
से देख रहा है। विभाग का कहना है कि यह सारी भविष्यवाणियां एक साजिश की तरह से की
जा रही हैं, क्योंकि इससे भारत का कमोडिटीज और स्टॉक मार्केट पस्त होगा, जिसका
फायदा आस्ट्रेलिया और अमेरिका को होगा। क्योंकि इस डर से लोग जमाखोरी करने लगेंगे,
जो बाजार में कृतिम तंगी ला देगा। भारतीय मौसम विभाग इस विषय में अपनी भविष्यवाणी
अगले माह जारी करेगा। हाँलाकि भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणियों की सटीकता पर
हमेशा ही सवाल उठता रहता है।
अगर इन सभी पहलुओ पर
एक नजर डालें तो दोनो ही स्थितियां ही होगीं। अगर अल-नीनो की स्थितियां उपजती हैं
तो देश इस साल कमजोर मानसून की चपेट में आ जाएगा, और देश को सूखें जैसी गंभीर आपदा
से रूबरू होना पडेगा, और अगर ऐसा होता हैं तो आपदा प्रंबधन के साथ साथ खाद्य
सुरक्षा के सामने एक बड़ी चुनौती होगी। हाँलाकि पुराने अनुभव भारत की दोनों ही
क्षमता पर एक बड़ा सवाल उठाते हैं। दूसरी स्थिति में अगर ये भविष्यवाणियां किसी
प्रयोजन के तहत फैलायी जा रही हैं तो भी इन अफवाहों का असर निश्चित ही भारतीय बाजार
और खाद्य सुरक्षा पर पडेगा। जमाखोरी की समस्या भारत का ऐसा कोढ़ है जिसको तमाम उपायों
के बाद भी निपटा नहीं जा सका है। यानी दोनो ही स्थितियां भारत की जनता के लिए आपदा
ही हैं।
इन आपदाओं का सीधा
प्रभाव देश की उस जनता पर सबसे ज्यादा पड़ेगा जिसके निर्धारण में देश के तमाम
अर्थशास्त्रियों और विद्वानों के पैमाने छोटे पड़ते रहे हैं, लेकिन वह हमेशा ही
बड़ी संख्या में इस देश में रहती है, यानी गरीब। मानसून की विफलता देश के बड़े
भू-भाग को प्रभावित करेगा, जिसके व्यास में देश के हर कोने का गरीब आ जाता है,
जबकि अन्य आपदाओं में आपदा का प्रभाव भौगौलिक विशेष और वहां की जनता पर परिलक्षित
होता है। ऐसे में दोनो स्थितियों से निपटने के लिए ईमानदारी भरे प्रयासों की जरूरत
होगी, वरना परिणाम भयावह ही होगें।
इस स्थिति में
निपटने के लिए सबसे प्रमुख और कारगर उपाय होगा खाद्यान्न उपलब्धता। अगर खाद्यान्न
उपलब्धता को कायम किया जा सके, और साथ ही साथ इसका समुचित प्रंबधन, वितरण और
उपलब्धता सुनिश्चित कर सके तो इन दोनो ही स्थितियों (सूखा और जमाखोरी) से आसानी से
निपटा जा सकता है, और इनके प्रभावों को न्यूनतम किया जा सकता है। यह तभी सुनिश्चित
किया जा सकता हैं जब देश की सरकारी मशीनरी इस ओर ईमानदारी से काम करें। इसके लिए
सबसे पहले इस वर्ष हुए उत्पादन का समुचित भंडारण और उसके सुरक्षित रख रखाव किये
जाने की जरूरत है ताकि इसका उपयोग विषम परिस्थितियों में किया जा सके।
हाँलाकि इस ओर भारत
का तंत्र काफी कमजोर है। देश के प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा भारत की
भंडारण और रखरखाव की समस्या को इन आपदाओं का सहयोगी मानते हैं और कहते हैं कि हम
समुचित भंडारण क्षमता उपलब्ध करा पाने में विफल रहे हैं, जिसकी वजह से उत्पादन
होने के बावजूद हम कुछ भी सार्थक नहीं कर पाते है। यह सच हैं कि कृषि उत्पादनों
में भारत ने आशातीत वृद्धि की है लेकिन आज ही भंडारण और उसके रखरखाव में हम
पूर्णतया विफल रहे हैं। उदाहरण के लिए पहली अप्रैल तक पंजाब में 143 लाख टन अनाज भंडारण की क्षमता थी लेकिन समस्या यह
है कि इसमें से 121 लाख टन के लिए जगह पहले वाली फसलों से ही भरी हुई
है। इस वर्ष अकेले पंजाब से तकरीबन 140 लाख टन गेहूं की
खरीदारी की उम्मीद है। इसमें से 70 फीसद हिस्सा खुले
में रखा जाएगा। प्लेटफार्म के किनारे तिरपाल से ढककर बोरियों में भी अनाज रखा जा
रहा है। इससे कुल 114 लाख टन अनाज के लिए अतिरिक्त जगह उपलब्ध हुई है, लेकिन इसमें से 40 लाख टन
जगह पहले से भरी हुई है। हम जानते हैं कि खुले में पड़ा खाद्यान्न न केवल खराब होता
जाता है, बल्कि यह मानव स्वास्थ्य और यहां तक कि पशुओं के
उपभोग के लिहाज से भी खाने योग्य नहीं होता।
ऐसे मे जिस उपाय को प्राथमिक सीढी के रूप में
उपयोग किए जा सकता है, वे खुद ब खुद टूटी हुई बैशाखी के सहारे चल रहा हैं। अल-
नीनो क कारण प्राकृतिक हो सकता हैं लेकिन उसका बचाव केवल और केवल पूर्व की गई
तैयारियों के साथ ही किया जा सकता है, जिसमें खाद्य उपलब्धता एक महत्वपूर्ण भूमिका
अदा करता है। भारत इस ओर अपने पुराने अनुभवों से पाठ तो पढता हैं लेकिन उससे बचने
के प्रयासों की ओर अपनी सुस्ती नहीं छोड़ पा रहा है। ये प्रशासनिक धीमापन भी इस
तरह की आपदाओं का सहयोग ही करते है। ऐसे में प्रतिस्पर्धी विश्व में अपनी स्थिति
को मजबूत बनाए रखने के लिए भारत को मजबूत प्रंबध तंत्र को विकसित करने की जरूरत
हैं ताकि आपदा के प्राथमिक प्रभावों को जो अन्य चरणों की अगुवाई भी करता है, उनसे
बचा जा सके।
हाँलाकि दोनो ही स्थितियां भविष्य के गर्त में
हैं लेकिन इनकी सुगबुगाहट से यह तो स्पष्ट हैं कि अगर यह उपजती हैं तो 2013 के बाद
भारत एक और बड़ी आपदा का साक्षी होगा, जिसमें हमारे प्रंबध तंत्र की कमी की भी
अपनी हिस्सेदारी होगी। उम्मीद करते हैं कि 16 मई के बाद नई सरकार के निजाम इस
स्थितियों को गंभीरता से लेगें और इस और ईमानदारी भरे प्रयास करेगें।
शिशिर कुमार यादव
इस लेख को दैनिक जागरण ने अपने राष्ट्रीय संस्करण में 10 मई 2014 को जगह दी है।