बुधवार, 19 जून 2013

इस आपदा के जिम्मेदार हम खुद हैं ...

मानसून इस देश का वार्षिक पर्व हैं, कृषि प्रधान देश में पड़ने वाली इन बूंदों का महत्व अपने आप में बहुत अधिक हैं। धन, धान्य और उर्जा के परिप्रेक्ष्य में मानसून इस देश के लिए वरदान हैं। इस देश में रहने वाला हर व्यक्ति इस पर्व को अपने अपने तरीके से मनाता हैं। लेकिन हर साल इस पर्व में खलल भी पड़ता हैं और ये खलल पड़ता हैं प्राकृतिक आपदाओं सें।


प्राकृतिक आपदाएं इस देश का सच हैं, जो समय समय पर इस देश को झकझोरती हैं और बतलाती हैं कि इस देश में मानव और प्रकृति के बीच के अन्तर्संबंधो में कमी आई हैं। बदलती आर्थिक प्राथमिकताओं नें इस दूरी को गढ्ढें से खाई मे परिवर्तित कर दिया हैं। अत: इससें पनपे नुकसान का भुगतान हम केवल आर्थिक कमजोरी से नही चुका रहें हैं, बल्कि सामाजिक और राजनैतिक रूप से भी भुगत रहें है। जिसकी भयावहता का अनुमान हम बड़ी आसानी से किसी भी आपदा ग्रस्त इलाके पर एक नजर ड़ालनें से समझ सकते हैं, और आज इसका ताजा उदाहरण उत्तराखंड में आई भीषण बाढ के रूप में देख सकते हैं। हालात पर नजर रखने वालें इस बाढ की विभीषिका को काफी बड़ा आँक रहे हैं और आने वाली स्थितियां बतला रही हैं कि उत्तराखंड में हालात बेकाबू हैं। हालात बेहद गंभीर हैं, कई जगहों से संपर्क पूरी तरह कटा हुआ है और कोई सूचना नहीं मिल रही है, मरने वालों की संख्या पर सिर्फ अनुमान लगाए जा रहे हैं। उत्तराखंड में भयानक बारिश के बाद अर्द्धसैनिक बलों को राहत कार्यों में लगाया गया है, लेकिन भूस्खलन और बाढ नें मिलकर हालातों को निंयत्रण मानव नियंत्रण से बाहर कर  दिया हैं।  
इस तरह की आपदाओं के बाद कई सवाल महत्वपूर्ण हो जाते हैं, जिन पर विचार करना अति महत्वपूर्ण हो जाते हैं। पहला सवाल, कि क्या आपदाओं को रोका नहीं जा सकता ? दूसरा इन आपदाओं को रोकने के उपाय क्या होगें?  अगर रोका नहीं जा सकता तो क्या साल दर साल हमें इतनी ही बड़ी विपदाओं का सामना करना पडेगा ?
सवालों के जवाब इतने भी कठिन नहीं हैं। पहले सवाल पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता हैं कि आज के परिदृश्य और बदलती प्राकृतिक और भारत की भौगोलिक संरचना में यह संभव ही नहीं हैं कि इन प्राकृतिक आपदाओं को रोका जा सकें। बदलती आर्थिक प्रतियोगिता में हमने जिस तरह से प्रकृति के साथ अपने संबधों में परिवर्तन किए हैं उसनें हमें विश्व के सबसे बडें प्राकृतिक आपदा ग्रस्त ईलाकों में लाकर खड़ा कर दिया हैं। प्रति वर्ष भारत जीडीपी का 2 %  और राजस्व का 12 % नुकसान सिर्फ और सिर्फ इन आपदाओं की वजह से उठाता हैं। नीचें दी गई सारणी अपने आप में स्पष्ट कर रही हैं कि प्रतिवर्ष हमें इन आपदाओं की वजह से एक भारी कीमत चुकानी पड़ रही हैं।
1993 से 2012 तक भारत में विभिन्न आपदाओं की स्थिति और उनसे होने वाले नुकसान का विवरण
Disaster
कुल घटनाओं की संख्या
मृत
संख्या
कुल प्रभावित जनसंख्या
कुल हानि
(000 US$)
सूखा
5
20
351175000
204112
भूकंप (सुनामी सहित)
9
47679
8373265
4434750
महामारी ( जीवाणु, परजीवी + वायरल)
36
3103
334617
-
 तापमान (ठंड, गर्मी और चरम शीतकालीन)
24
8856
-
-
बाढ़ ( फ्लैश,  / तटीय बाढ़, स्थानीय
136
25592
517412587
27834379
हिमस्खलन/ लैंड स्लाइड)
25
1811
1333804
54500
तूफान
45
17535
34660320
548116
  
इन 20 साल के आकड़ों के बाद स्पष्ट हो जाता हैं कि बाढ इन सब समस्याओं में से ना केवल एक बडी भूमिका निभाता हैं वरन धन, जन औऱ संख्या में भी सबसे अधिक हो जाता हैं। बाढ की प्रकृति इन आकड़ों को हमेशा गंभीर बनाए रखेगी इसमें भी कोई शक नहीं हैं। जो इस बात का उदाहरण हैं कि भारत में आपदाएं रोकी जा सकती हैं यह एक पूर्णतया हास्यापद विचार हैं।
भारत में आने वाली बाढ की प्रकृति दो प्रकार की होती हैं। पहली होती हैं फ्लैश फ्लड़ ( अचनाक आने वाली बाढ) और दूसरी आवर्ती ( बार बार आने वाली) होती हैं। इन दोनो में केवल अंतर मानव के अनुमान का होता हैं जहाँ फ्लैश फ्लड़ ( अचनाक आने वाली बाढ) का अनुमान लगाना थोड़ा कठिन होता हैं वहीं दूसरी ओर दूसरी आवर्ती ( बार बार आने वाली) बाढ का अनुमान लगाया जा सकता हैं। उत्तराखंड़ में आई बाढ फ्लैश फ्लड़ का ही उदाहरण हैं, और कुछ समय बाद मैदानी इलाकों में फैलने वाली बाढ आवर्ती ( बार बार आने वाली) बाढ का उदाहरण होगी।
अब सबसे बडी समस्या यह हैं कि अगर हम इन्हे रोक नहीं सकते हैं तो क्या इनकी विभिषका के आगे हमें साल दर साल इसी तरह सर झुकाना होगा। निश्चित ही यह सवाल ना केवल महत्वपूर्ण हैं वरन एक चिन्ता का विषय हैं। आज का सच यह हैं कि हमने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के चक्कर में इतना अधिक असंतुलन खड़ा कर दिया हैं कि हमें इन विभिषिकाओं के प्रहार के सामने झुकना ही होगा, लेकिन इसका ये बिल्कुल मतलब नहीं हैं कि हम इनसे अपना बचाव नहीं कर सकते हैं। इन आपदाओं से बचाव के दो ही तरीके हैं एक प्रंबधन के स्तर पर और दूसरा प्राकृतिक रिश्तों को सुधार कर।
प्रंबधन के स्तर पर बात करें तो भारत में आपदाओं से निपटने के लिए एक त्रिस्तरीय व्यवस्था का निर्माण भारत सरकार ने कर रखा हैं भारत में 2002 में आपदा को देश की आंतरिक सुरक्षा का मसला मानते हुए इसे गृहमंत्रालय के अन्तर्गत लाया गया (इससे पहले आपदा प्रंबधन कृषि मंत्रालय के अन्तर्गत देखा जाता था)। आपदा प्रंबधन के इतिहास में भारत में एक कांत्रिक परिवर्तन 2005 में डिजास्टर मैनेजमैंट एक्ट 2005 के तहत भारत सरकार ने अपनी कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया, इस व्यवस्था के अन्तर्गत राष्ट्रीय स्तर, राज्य स्तर, औऱ जिले स्तर पर कार्य योजना बनाई जाती हैं। जिसमें आपदा के आने के बाद, इस पर बचाव, नुकसान की भरपाई, फिर निदान और फिर आपदा पूर्व तैयारी की जाती हैं। जो आज भी जारी हैं।

लेकिन उत्तराखंड़ में हुए घटना क्रम को देखें तो स्पष्ट हो जाता हैं कि किसी भी कार्य योजना का कोई भी खाका ना तो पहले खीचा गया हैं औऱ ना ही इन स्थितियों से निपटने के लिए अभी भी कोई स्पष्ट कार्ययोजना वहा के प्रशासन के पास हैं।  सब कुछ ईश्वर के भरोसे हैं औऱ खुद ईश्वर के स्थान यानी धाम भी इस प्रकोप से नहीं बच पा रहे हैं तो आम जन का क्या जिसके परिणाम स्वरूप ऐसी हानि हुई हैं, जिसका आकलन भी इस आपदा के बाद हो सकेगा। उत्तराखंड़ जैसें संवेदनशील ईलाके में इस तरह के  प्रंबधन की खामी हमारें प्रंबधतंत्र का वो रवैया हैं, जिसमें प्रंबधतंत्र साल दर साल वह अपने कर्तव्यों की खाना पूर्ति करता हैं, और सिर्फ आपदा के बाद आपदा राहत राशि बाटने को ही आपदा प्रंबधन का उद्देश्य समझता हैं। आपदा पूर्व तैयारी की तैयारी सिर्फ जिलास्तर पर हुई बैठको में पूरी कर ली जाती हैं। जमीनी काम के नाम पर कुछ नही होता हैं।
 अगर ऐसा ना होता तो 2010 में भी ऐसी ही भीषण बाढ के ने वहाँ के जीवन को अस्त व्यस्त कर दिया था, और फिर 2013 में उत्तराखंड़ एक बार उसी तरह की विभीषिका का उदाहरण बना हुआ हैं। अगर सरकारी तंत्र से जवाब मागें जाए कि क्या 2010 की भीषण बाढ औऱ भूस्खलन से कोई सबक लिए गए हैं जिनका उपयोग इस बाढ से निपटने के लिए किया जा सकें। तो जवाब के नाम पर कुछ नही हैं और जिसके परिणाम स्वरूप आज फिर से उत्तराखंड एक भीषण विभीषिका की चपेट में हैं, जिसकी प्रकृति 2010 जैसी ही हैं। अति का एक उदाहरण ये भी हैं कि इस घटना 2013 की बाढ के के बारे में एक भी अपडेट और आकड़ें उत्तराखंड सरकार की सरकारी वेबसाईट डिजास्टर मिटिगेशन एंड मैनेजमेंट सेंटर पर उपलब्ध नहीं हैं। सिर्फ अमर्जेंसी नंबरो की एक पट्टी के अलावा वहाँ किसी भी प्रकार की सूचना पूर्णतया नरादर हैं, जो उनके आपदा प्रंबधन की पोल खोल रही हैं।



निश्चित ही इस रवैयें में एक क्रांतिक बदलाव की जरूरत हैं, प्रंबधतंत्र अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारी से बच नही सकता हैं। प्रंबध तंत्र भला ही अपने आप को किनारे कर ले पर आपदाओं से होने वाले प्रकोप से आम जनमानस अपने आप को नही बचा सकती हैं। इसीलिए प्रंबधतंत्र की जमीनी स्तर पर फिर से एक कार्ययोजना की आवश्यकता हैं जिसमें स्थानीय सहभागिता को बढावा दिया जाए और स्थान विशेष की सुरक्षा सुनिश्चित करने में पांरपरिक ज्ञान का उपयोग भी किया जा सकें। प्रंबधतंत्र को अपना रिस्पासं सेन्ट्रिक अप्रोच यानी आपदा के घटित होने के बाद की गई कार्यवाही के बजाय आपदा पूर्व तैयारी औऱ आपदा से निपटने के लिए स्थानीय लोगों को तैयार करने में खर्च करनी चाहिए। सरकारें इस तरह तमाशा देखते हुए जनता को आपदाओं के बीच में नहीं छोड़ सकती हैं। इसके साथ ही साथ हमें अपने बदलते प्राकृतिक रिश्तों ओर सोचना भी बहुत जरूरी है, कोई भी प्रंबधतंत्र प्रकृति में बदलावों के फलस्वरूप स्थितियों में पूर्ण नियंत्रण नहीं कर सकता हैं, इतिहास गवाह रहा हैं कि विश्व की तमाम सभ्यताएं इन्ही के किनारे पल्लवित हुई हैं, और उनका विनाश भी इन्ही आपदाओं की वजह से हुआ हैं।
 प्रंबधन को अपनी कार्ययोजना को बनाते समय स्थानीय स्तर पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और लैगिंक स्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन कर और न्यायसंगतता को ध्यान में रख कर कार्ययोजना बनाने की जरूरत हैं, ताकि सभी वर्गों को समान रूप मे अपने बचाव के समान अवसर उपलब्ध रहें। यहीं सही मायनों में स्थानीय सहभागिता करना होगा। निश्चित ही प्रंबधतंत्र को एक व्यापक दृष्टिकोण के साथ प्रंबधयोजना विकसित करनी ही होगी वरना यह तंत्र सिर्फ राहत आपदा बाटने वाली ईकाई भर रह जाएगा और जनता साल दर साल इसी तरह की आपदाओं का शिकार होती रहेगीं।

यह लेख 20 जून 2013 में सहारा के अंक में प्रकाशित है 



शिशिर कुमार यादव.