मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

खुद को रिक्लेम करो... ना कि 16 दिसंबर का इंतजार


किसी की मौत उसके नाम के उपयोग करने की अनुमति नहीं देती। हम नहीं जानते हैं कि उसने अपना नाम इसके लिए आगे किया भी था कि नहीं, फिर भी हमने उसके नाम का उपयोग किया। अपनी कमजोरी से लड़ने से लिए एक प्रतीक को उठा कर आगे कर दिया ताकि हमारी चेतना उस स्तर पर बनी रहे। हमें सोचना होगा कि कब तक हम अपने लिए प्रतीकों से अपनी लड़ाईयाँ लड़ते रहेगें। कब तक अपने लिए नेता खोजते रहेगें। हो सकता हैं कि आप  अपने लिए व्यापक संदर्भों में नेता की खोज करने को सही आँक लें.. ( देश, काल, समाज के सन्दर्भ में हम भी इस राय से अलग राय नहीं रखते)। लेकिन उसकों प्रतीक के रूप में आगे कर के खुद के लिए नैतिक और सामाजिक लड़ाईयाँ करते रहेगें । ध्यान रहें इस सारी जंग में हम उस इंसान के साथ बेईमानी कर रहे होते हैं जिसके साथ ये गुजरा होता हैं। लाखों दामनियाँ अपने वजूद का हिसाब मांग रही हैं, ना कि आप के आंदोलन का कि आप उनके जाने के बाद कितनी देर तक सड़क पर रहे या कितने कानून बदलवा लिए। व्यक्तिगत पहचान की ईकाई परिवार में क्या बदला? जवाब उसका दीजिए। सड़क पर ना बदलने का रोना मत रोईएं. कानून आज भी परिवार की सीमा से बाहर हैं। सामाजिक नैतिकता के आधार पर हुए फैसलों पर जिन्होनें वर्ग को ही अपराधी घोषित कर दिया उन पर सामाजिक चेतना कहाँ हैं?  इन दीवार को तोड़ने के लिए क्या किया सवाल खुद का हैं कब तक दूसरे की कॉलर पर हाथ रख कर जवाब माँगते रहेगें?

16 दिसम्बर बीत गया। चर्चा और तैयारियां पूरी थीं, ताकि एक वर्ष पहले 16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली में हुई बलात्कार की घटना के बाद, उपजे विरोध से महिला अधिकारों में हुए परिवर्तन की समीक्षा की जा सके। इस दिन समीक्षा कि जाएगी कि क्या 16 दिसम्बर 2012 के बाद दिल्ली की सड़कों पर जिन लोगों ने महिलाओं के लिए रातों को रिक्लेम करों रिक्लेम करों -2 के नारे लगाए थे, वे इन अधिकारो में से कुछ क्लेम कर भी पाए हैं या नहीं। उम्मीद हैं कि, इस दिन सभी मंच एक सुर में विभिन्न आकड़े पेश हुए जिन्होने इस बहस को जारी रखा कि महिला अधिकारों में कोई भी गुणात्मक परिवर्तन नही हुआ है। आकड़ें उनका सहयोग ही कर रहे थे। लगातार दर्ज और बेदर्ज किए हुए आकड़े यह बताने के लिए पर्याप्त थे कि परिवर्तन कागजी हुआ है, व्यवहार में कुछ नहीं बदला है। एक साल की चेतना के बाद भी महिला अधिकारों में हुए परिवर्तन ना के बराबर हुए हैं। सरकार जस्टिस जे. एस. वर्मा कमेटी की सिफारिशों पर बदले कानूनों को आगे कर अपने दामन को बचाने का प्रयास करती रही, तो वार्ताकार आकड़े पेश कर सरकार के प्रयास को आइना दिखाने का प्रयास रहे।  
दिल्ली सरकार के आकड़ों को अगर सहीं माने और उन पर ध्यान दें, तो पाते हैं कि, जहाँ 2012 में 706 रेप केस दर्ज किए गए वहीं 2013 में अक्टूबर तक इनकी संख्या 1330 यानी लगभग दुगनी हो गई। छेडछाड़ के मामलों मे जहाँ 2012 में 727 मामलें थानों की चौखट तक आए थे वहीं 2013 में अक्टूबर तक 2844 मामले थानों तक पहुची। बढें हुए आँकड़ों को हम आप यह भी कह सकते हैं कि लोग आगे बढ कर इस अपराध के खिलाफ थानों तक पहुचने लगें हैं, इसलिए आँकड़ो की संख्या में परिवर्तन हुआ है। लेकिन इस तर्क से यह खारिज भी नहीं किया जा सकता हैं कि घटनाओं में कोई भी कमी 16 दिसंबर के बाद बढी या सामाजिक चेतना के विकास के कारण हुआ। थाने तक ना पहुचने वाले आकड़ों की काल्पनिक संख्या जोड़ ली जाए तो यह संख्या निसंदेह ही हमें आप को शर्मसार ही करेगी।
इस बात में कोई सदेंह नहीं हैं कि परिवर्तन नाम मात्र का है। परिवर्तन की व्यवहारिकता महिलाओं के प्रति दिनों दिन बढ़ते आकड़ों से साफ जाहिर हो भी जाती हैं। आखिर बदलाव क्यूँ नहीं ? जबकि इच्छा सबकी हैं कि इन्हें बदलने की, फिर भी नतीजा सिफर। ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तरों को खोजने का प्रयास आने वाली 16 दिसम्बर को अखबारों, टीवी से लेकर सोशल मीडिया के मंचों पर खोजा गया। क्या सच में यह सवाल इतना कठिन हैं कि इसके लिए हमें रॉकेट साइंस सरीखे ज्ञान की आवश्यकता हैं।
   इसका सीधा साधा जवाब हैं कि हमनें अभी भी खुद को नहीं बदला हैं और अगर बदल भी लिया हैं तो अपने बगल वाले को टोंकना नहीं सीखा है। इसीलिए 16 दिसम्बर 2012 के कुछ दिनों बाद देश के तमाम हिस्सें में हो रही महिला हिंसा की घटनाओं पर ना ही किसी तरह का प्रतिरोध दर्ज किया और ना ही इस ओर जागें। अखबारों में हर दिन छप रहीं खबरें हमारे लिए इतनी सामान्य हो चली की इनका कोई मतलब ही नही रहा। कुछ अति उत्साही पत्रकारों ने हर छोटी बड़ी घटना को बलात्कार (रेप) की श्रेणी में लाकर इस विषय को इतना सतही कर दिया कि हमारी चेतना को जगानें के लिए अब शायद फिर से किसी हादसे का इंतजार हैं।
हमारी चेतना में बदलाव ना आने की एक कहानी यह भी है कि महिलाओं से जुड़ी हिंसा के मामले में महिला को ही दोषी साबित करने की पुरजोर कोशिश में कोई कमीं नहीं आई हैं। इसीलिए घटना के बाद महिला के पहनावे, समय, उस स्थान विशेष पर होने की वजह और उसके चरित्र के सवाल आज भी प्रमुख हैं ताकि अपराध और अपराधी दोनो ही महत्वहीन हो जाएं। हमारी चेतना को तब भी धक्का नहीं लगता जब देश की न्यायालय लगभग एक समान अपराधों पर अलग अलग व्याख्या कर अलग अलग निर्णय सुनाते हैं। 16 दिसम्बर 2012 के अपराधियों को जहाँ अदालत समाज के प्रति अपराध मान कर फाँसी की सजा सुनाती हैं वहीं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देश के मशहूर तंदूर हत्याकांड में आरोपी सुशील शर्मा की फाँसी की सजा को उम्र कैद में बदलने के निर्णय का आधार यह दिया कि, अभियुक्त के द्वारा किया गया अपराध, व्यक्तिगत रिश्तों में उपजी निराशा और शक था। जिसे सामाजिक अपराध और दुलर्भतम अपराधों में नहीं आँका जा सकता हैं, क्योंकि वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता था, और रिश्तो में उपजे शक के कारण भावावेश में उसने ऐसी घटना को अंजाम दे दिया था। हम फांसी के पक्षधर नही हैं, लेकिन इस मामले में अपराधी के अपराध को सामाजिक और दुर्लभतम अपराध ना मानकर, क्या न्यायालय और समाज महिलाओं के प्रति परिवारों में हो रहे अपराधों को छोटा नहीं आँक रहा हैं। क्या इस तरह निर्णय से हम परिवार और समाज दोनों को ही महिला अधिकारों को अपनी सुविधा अनुसार निर्धारित और उसके प्रति कार्रवाइयों को एक हद तक जायज नहीं ठहरा देते हैं। जिनमें प्रेम, भरोसा, रिश्ता, इज्जत, नैतिकता, संस्कृति प्रमुख शब्द के आवरण में महिलाओं के प्रति अपराधों को नए नए स्वरूपों में गढ़ते हैं और उनके प्रति अपराधों की नई विवेचना करते हैं। प्रेम की जिस नई परिभाषा के साथ सुशील शर्मा के कृत्य को सामाजिक अपराध न आँकना क्या वह हमारी एक भूल नहीं? क्या इस भूल के तले हम पहले से चली आ रही अवधारणा को बल नहीं देते जिसमें हम इसे व्यक्तिगत अपराध मानकर पितृसत्ता की उस अवधारणा को सही ठहरा रहे हैं, जिनमें केवल खाप पनपते है। इस निर्णय से क्या हम उस सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें को ढो और पास पोल नहीं रहे हैं, जिसमें हम आधी दुनिया की भागीदारी निभाने वाली स्त्री के मूलभूत अधिकारों को, जिसमें जीने, चलने, चुननें, पहननें, बोलने के अधिकारों को, सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से सही ठहराने पर तुले हैं। बहुतेरे मामलों में वीभत्सता का तो पता ही नहीं चलता, और जिनमें पता चलता हैं उन्हे सामाजिक अपराध ना मानना कहाँ तक सही होगा। इस निर्णय के बाद किसी भी तरह का कोई भी विरोध किसी भी मंच से ना तो सुनाई पड़ा और ना ही दिखाई पड़ा। अपराधी की सजा को लेकर नहीं लेकिन अपराध की व्याख्या पर हमारी चेतना ना जाने किस वर्गीय हित के हिस्सें बलिदान हो गई। ऐसे बहुत से अवसर हम आप के साथ हर दिन किसी ना केसी चेतना के भेट चढ जाते हैं और हम और मुखर नहीं हो पाते।

निसंदेह ही कानून इस तरह के अपराधों के लिए पूर्ण इलाज नही हैं, मात्र इलाज का एक उपकरण हैं। ऐसे में इन अपराधों से लड़ने के लिए एक बड़ी इच्छा शक्ति और सामाजिक सोच की बदलाव की जरूरत हैं, जिससे हम महिलाओं के अधिकारों को पितृसत्ता के ढाँचों में फंसी नैतिकता की बेड़ियों से निकलकर आजादी की साँस ले सकें। निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं। भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वह व्यवस्था जिसमें उनके प्रति किए गए अपराध जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रहे है.  इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं। उनका विरोध करें और विरोध के लिए खुद के घर को ही प्राथमिक प्रयोगशाला बनाएं, अगर घर बदला तो देश के लिए युगान्तकारी परिवर्तन होगें। खुद के बाद अपने बगल वाले को महिला अपराधों को लेकर मुखर हो, ना कि किसी 16 दिसम्बर का इंतजार करें। जिस दिन आप अपनी चेतना को रिक्लेंम करने के लिए मुठ्ठी भीज कर सड़कों पर गले फाड़ आवाज के साथ रातों को रिक्लेम करों -2 के नारें लगा सकें।
                                               शिशिर कुमार यादव