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बुधवार, 11 जून 2014

आज हमने दिल को समझाया..कि हमने क्या खोया और क्या पाया

1982 में बनी फिल्म "साथ साथ" की कहानी के सभी चरित्र, घटनाएं, आज तमाम कैंपसों में अपने सपने की जीने की कोशिश कर रहे अविनाशो की कहानी है। जो खुद को जीना चाहते हैं। अपने सपनो को, अपनी उम्मीदों को, अपने लिए, अपनी ईमानदारी को रंग देना चाहते हैँ। इसके लिए वो ईमानदार भरी कोशिश भी कर रहे हैं। इस जद्दोजहद में वे अपने आस पास को ईमानदार बनाने के लिए लड़ने के लिए तैयार हैं, और लड़े भी जा रहे हैँ। बहुत से ऐसे भी लोग हैं जो फिल्म के अन्य किरदारों की तरह उसी धारा में बहने के लिए भी तैयार हैं, जिस ओर धारा उन्हें ले जाना चाहती है। इन सब के बीच तमाम हालात हैं जिन्हें फिल्म के किरदार अपने अपने नजरिए से देखना चाहते हैं और बदलना चाहते हैं, हर बार की तरह इन हालातों को बदलने से  कुछ ना कुछ  रोकता हैं और कुछ के लिए बदलाव जैसा सवाल ही नही पनपता। मैं नहीं जानता वो हालात क्या हैं, हर एक के निजी अनुभव अलग अलग हो सकते हैं मेरे भी अपने हैं, आपके के मेरे इतर हो सकते हैं पर ये हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता ।
                        32 साल बाद भी (फिल्म के), आज के हालातों में ऐसा कुछ नहीं बदला, जो उस फिल्म में कहानी का हिस्सा न रहा हो, उसे आप आसानी से जी सकते हैं। जबकि हालात और भी पुराने ही होगें। बाजार तब भी मुनाफे के लिए थे, अखबार तब भी बेईमान थे, और सपने, हां सपने तब भी अपनी दिशाएं बदलते थे। आज भी हालात वैसे ही हैं। सपने हैं, अखबार हैं, बाजार है और तमाम अविनाश भी। गीता (दीप्ति नवल) सरीखे किरदार भी जो अविनाश ( फारूख शेख ) से प्रभावित भी होती हैं और उन्हें जीना भी चाहती हैं, वे उस अविनाश  के साथ ना केवल चलने को तैयार हैं बल्कि उन जगहों पर टोक भी रही हैं, जहाँ से हालातों को आसानी से मजबूरी का आभूषण पहनाया जा सकता है। लेकिन फिर भी बहुत कुछ हैं जो हर बार की तरह यथास्थितिवादी हो जाता है। जिसके चलते कही ना कही हम खुद को उसी तरह अनदेखा किए जाते हैं, जैसा कि अविनाश करता है। हम में से बहुत लोग खुद को जीने को भी तैयार नहीं हैं और जो कुछ लोग तैयार हैं वे कब पाला बदलते हैं वो उन्हें खुद भी नहीं पता। यानी सामान्य रूप से इन स्थितियों में तमाम लड़ाई के बाद कुछ ऐसा नहीं बदला जिन्हें अलग करके यह कहा जा सके कि इन हालातों में ऐसा परिवर्तन हो चला हैं जिसे बदलते वक्त के साथ खुद के लिए जीत कहा जा सके।
       इन हालातो को थोड़ा सा नीचे करके सामाजिक सच की ओर ले जाया जाए तो भी हालातो में ठीक वैसी ही स्थिति हैं जैसे एक वक्त में हुआ करती थी। हालातों में थोड़ा बहुत परिवर्तन तो हैं पर वक्त और लगी उर्जा को मापक बनाए तो पता चलता हैं कि खिसका जरूर हैं पर नाममात्र का। तमाम वो मुद्दे जो इंसानो से जुड़े है, और जिन्हें आज भी मुद्दों के रूप में देखा जा रहा हैं।  उनसे जुडें लोग खुद के इंसान होने का इतंजार कर रहे है।  वे इंतजार कर रहे हैं कि इन मुद्दों से छुुटकारा मिले ताकि वो भी इंसान हो सकें। सच में इंसान की इतनी अधिक पहचान है, इंसान खुद भी यह भूल चुका हैं कि असली रूप क्या है। हैं भी कि नही या वो एक मुद्दें के रूप में आया था और एक मुद्दें के रूप में चला जाएगा। तो ऐसे में जब पुरानी पीढी अपनी नई पीढी से बेहतर होने का दावा करती हैं। तो सोचना लाजमी हैं कि कैसे पुरानी पीढी के दावों को आसानी से स्वीकार कर लिया जाए, जबकि उनके वक्त के हालात ऐसे ही थे जैसा कि हम आज जी रहे हैँ।

मेरे लिए आसान हैं यह सब लिख पाना क्यूँ कि मैं इनमें से कई का हिस्सा नहीं रहा हूँ और शायद होऊगां भी नही। आप में से भी तमाम लोग मुझ जैसे ही हालातो से है और इन स्थितियों के हिस्सें नहीं होगे। लेकिन जरा एक पल सोचिए और देखिए कि अगर आप इन हालातों के हिस्से में होते तो। कि किन परिस्थितियों में एक मासूम बच्चा अपने हालातो में अपनी छोटी सी उम्र में इतना समझदार हो जाता हैं जितना कि हम सारी उम्र खर्च करके भी नहीं हो पाते। लिखने और कहने में सच में बड़ा रूमानी हैं फिल्में देख कर उन हालातो पर सोच लेना हमारी खुद के लिए संवेदनशील होने का प्रमाण होती है, लेकिन ईमानदारी से कहता हूँ कि आप की तमाम लड़ाईयां उस बच्चें से बड़ी नहीं हो सकती हैं, और आपकी बौद्धिकता के पैमाने उन्हें नहीं नाप सकते जिन्हें वो बच्चा हर दिन ना केवल नाप रहा है, वरन अपने आप को बनाए हुए है। बिडम्बना ये हैं कि उन हालातों के लिए उसने कुछ किया भी नहीं हां जी जरूर रहा है।

 मैं यहां  कि आदर्शो को जीने की ना तो वकालत करना चाह रहा हूँ और ना ही उन्हें छोड़ देने की सलाह देना चाह रहा हूँ। औऱ ना ही मेरा मानवता और मानवीयता के पक्ष में लेख लिख कर अपने ब्लॉग में लेखों की संख्या को बढाना हैं। मेरा इन सब को लिखने का एक ही मकसद हैं कि क्या हम एक पल के लिए रूक नहीं सकते।  इन सब पर हम एक पल के लिए  सोच नहीं सकते हैं।  जो बीत रहा हैं और जिन पर बीत रहा हैं वो उनके बारे में बस थोड़ी सी ईमानदारी से साेच कर देखिए और अगर लगता हैं कि सच में कुछ तो बदलना चाहिए तो बस वहीं बदल लीजिए जो आप बदल सकते हैं, इसमें दूसरे कि मदद की भी जरूरत नहीं। औऱ हां अगर नहीं लगता कि कुछ बदलने के लिए तो चल पडिए जैसे पहले चले जा रहे थे। लेकिन अगर किसी भी झुरमुट में थोड़ी सी आहट हो तो कृपया पलट कर  देखिएगा जरूर...



 शिशिर कुमार यादव ... 

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

बिट्टी जिसे जिंदा भूत निगल गए

सालों बीत जाने के बाद भी स्त्री सघर्ष की हर लड़ाई में वह चेहरा याद आ जाता हैं. ना जाने कितनी बार वहीं सवाल मन में उठता हैं कि जो इतना चुप रहा करती थी, वो इतना बोलने कैसे लगीं, और जब शांत हुई, तो चीखों के साथ, जिसकी आवाज किसी के कानों तक ना पहुची। जी हाँ वह एक रहस्मयी मौत मार दी गई। बिट्टी ( अवध प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में लड़कियों के लिए सम्बोधन) जिसे मैं जानता था, उस बिट्टी ने पगली तक का सफर कब तय कर लिया किसी को खबर नही. हाँ सहयोग सबने किया और सबसे ज्यादा सहयोग उन्होनें किया, जिन्हें वो अपना ही मानती थी.

दिसम्बर 2009 में दिल्ली से पत्रकारिता का पहला सेमेस्टर पूरा कर जब घर लौटा तो, पूछा कि कुछ नया ? तो छोटी बहन ने लगभग चिंतित स्वर में कहा अरे जानता है वो बिट्टी हैं ना पागल हो गई है, बहुत बोलने लगी है, किसी से भी बात करने लगती है, उसके घर वालों का कहना है कि उसे भूत लग गए हैं. खैर बहन ने खुद ही बात को काटते हुए कहा कि भूत - वूत कुछ नहीं, 15-16 साल की लड़की की शादी एक अधेड़ से कर दी तो पागल नहीं होगी तो क्या होगी ? मैंने  जब उसके जवाबों में अपने सवालों की उत्सुकता जोड़ी, तो संकोच भरे शब्दों में उसने कहा अरे  28 साल का लड़का एक लड़की के साथ जबर्जस्ती ही करेगा ना और वो थी भी तो थोडी सीधी, लड़की तो थी ही नहीं सिर्फ घर का काम करती थी. कितना काम करती थी, है ना ?”
अपनी बात को बल देने के लिए बहन ने मेरी ओर सवाल उछाल दिया था. (हमारे गांवो में घर के काम में पशुओं की देखभाल प्रमुख हैं जो सबसे बडा काम है). बहन अपनी बात में और जोड़ती हैं कि अब ससुराल वाले कहते हैं कि वो काम ही नहीं करती, शायद गर्भ से भी थी पर ठहरा नहीं तो अब वो उतना एक्टिव नहीं रहती और उसका मन भी नहीं लगता तो उसके ससुराल वाले उसे भूत चढने का बहाना कर गाँव छोड गए हैं, और गाँव वाले उसे चिढा चिढा कर परेशान करते हैं, ऐसें में वो थोड़ी सी मेंटल डिस्टर्ब हो गई, तो गाँव वाले उसे पगली कहने लगें. वो ना भी हो तो उसे पागल कर देगें. बहन ने लगभग एक सामजिक विज्ञानी की तरह पूरे कारण सहित व्याख्या कर डाली थी. मैं भी उससें पूर्ण सहमत था पर दोष और दोषी खोज लेने भर से बिट्टी को देने के लिए हमारे पास कुछ ना था.
खैर गाँव पहुचते ही बहन की हर बात अक्षरश: सही थी, बिट्टी बहुत बोलती पगली में बदल चुकी थी, चचेरे भाई ने मेरे सामने प्रमाण देने के लिए उसके पति का नाम ले लिया और वह शुरू हो गई गालियाँ देने. किसी ने कहा मैं भी हूँ तो आवाज में नरमी के साथ मेरी ओर बढ आई, लगभग पैर छूते हुए पूछा भईया कैइसे हय”? जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर घर में सब का हाल पूछ गई। मैं लगभग संशकित भाव से और थोडा सा असहज हो कर उसके सवाल को सुनता रहा। शायद मैं भी डर रहा था। बिट्टी हर सवाल चमकती आँखों से पूछ रही थी जिसमें बार बार एक ही सवाल था कि मेरी हालातों की वजह क्या है ? पर आस पास सवालों पर उठती हँसी उसके हौसले को तोड़ देते हैं और वो उदास भाव से अपने जवाब को लिए बिना ही बड़वडाती चली जाती हैं । 

इतनी सक्षिप्त मुलाकात के एक साल बाद खबरों में सुना की उसने खुद को आग ली. उसकी मौत भी एक रहस्य थी, वो जल कर मरी थी और 10 से 15 मीटर बाहर बैठे लोगों को उसकी चीखे तक नहीं सुनाई दी थी. सबको धुआँ उठने तक का इंतजार करना पड़ा था, पर हाँ वो मर जरूर गई थीं. उसके मरने पर काफी सवाल थे, जो समय के साथ खत्म होते चले गए. गांव के जिम्मेदार लोगों ने पुलिस केस से बचा कर उसको अंतिम यात्रा पर भेज अपने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली. सब विस्मित थे. शायद सब को सवालो के जवाब पता था पर जवाबदेही  के साथ उन सवालो के जवाब कोई नहीं देना चाहता था. कोई भी उन सवालों की ओर ध्यान नहीं दे रहा था जिन सवालों को बिट्टी ने हर दिन हर उस इंसान से पूछा, कि मेरी ये हालत क्यों हैं? वो हर इंसान से यही कहती तुमने तो मुझें देखा हैं मैं ऐसी तो ना थी, फिर मेरे ऐसे होने की वजह क्या हैं ?
आज भी वे सवाल जिंदा हैं, क्योंकि किसी ने उन सवालों के जवाब नहीं दिए थें. ऐसे में कोई ना कोई बिट्टी आपके अपने गाँव में आप से इस तरह के सवाल पूछते मिल सकती हैं.उस बिट्टी को तो कोई जवाब नहीं मिला था और शायद अनुत्तरित चेहरों को देख कर वो यहाँ से चली गई. पर उसके सवालो की चीख आज भी बरकरार है. जिसे हम लगभग अनसुना करते आ रहे हैं. खैर जो उसकी जिंदा चीखों को ना सुन सके वो इन सवालो की चीखों को क्या सुनेगें। उन सवालो के जवाब कोई और ना माँग ले इसलिए उन सवालों को पूछने वाले को पगली बना कर अपने समाज से अप्राकृतिक मौत मरने के लिए मजबूर कर दिया और सवालों को पगली के सवालों में तब्दील कर दिया. जब भी स्त्री अधिकारों की बात आती हैं तो मैं ऐसे समाज से स्त्री अधिकारों के लिए मांगू भी तो क्या मांगू जो स्त्रीयों को सिर्फ अप्राकृतिक मौते ही उपहार में दे सकता हैं (बिट्टी की मौत का जिम्मेदार मैं खुद को भी मानता हूँ क्योंकि उस समाज का मैं भी हिस्सा था और हूँ भी.

यह लेख जनसत्ता अखबार में 13 जुलाई 2013 में दुनिया मेरे आगे के कालम में छपा हैं । 


शिशिर कुमार यादव 

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

स्त्री आधिकारों में ही सभ्य समाज की आत्मा बसती है




पिछले कई दिनों से देश भर में, समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने रूप पर एक चर्चा और विमर्श का माहौल था। अफ़सोस, यह माहौल किसी आत्मचेतना के चलते नहीं बल्कि एक निर्मम बलात्कार और हत्या से उभरे जनाक्रोश के चलते बना था. इस घटना के लगभग चार महीने के बाद भी न समाज शर्मिन्दगी से उबार पाया है न उसी समाज के एक हिस्से के लोग दरिंदगी से और हमारा हासिल वह समाज है जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकती क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वह इस तरह सें जिएं ।16 दिसम्बर 2012 की घटना के बाद आज एक और वीभत्स बलात्कार की घटना ने हमारा ध्यान अपनी ओर खीचा हैं। हैरानी ये भी हैं कि बलात्कार से जुडे तमाम घटनाएं इस बीच हुई, पर हम फिर तब जागे, जब एक 5 साल की बच्ची इस दरिंदगी की शिकार हो गई। इस दरिंदगी की हद के बारे मे सोच लेने भर से रूह काँप उठती हैं, जिनमें तमाम वो दिवा स्वप्न बह जाते हैं जिसमें हम खुद को श्रेष्ठ सामाजिक प्राणी होने का दावा करते आ रहें हैं।


सामान्यतया महिलाओं से जुड़ी हिंसा के मामले में महिला को ही दोषी साबित करने की पुरजोर कोशिश की जाती हैं और समाज उसमें महती भूमिका निभाता हैं। इसीलिए घटना के बाद महिला के पहनावे, समय, उस स्थान विशेष पर होने की वजह और उसके चरित्र के सवाल प्रमुख हो जाते हैं। लेकिन इस मामले को किस नजर से देखा जाए। एक 5 साल की बच्ची के साथ हुए अपराध उन तमाम आरोपों और वजहों को खोखला साबित कर देते हैं, जिन्हे महिलाओं के प्रति अपराधों की बड़ी वजह माना जाता हैं। 2011 में भारतीय गृह मंत्रालय द्वारा की नेशनल क्राइम क बलात्कारों के पर जारी आंकड़ों की उठा कर देखा जाए तो, चित्र बड़ी आसानी से साफ हो जाता हैं कि किसी भी आयु वर्ग की लड़कियां और महिलाए कभी भी सुरक्षित नहीं थी.. यौन कुठाओं के आगे उम्र की भी सीमा नहीं आती हैं 2011 में जारी आकड़ों पर सरसरी नजर डालने से ही पता चल जाता हैं कि 2011 में कुल देश भर में 23939 मामलें दर्ज किए गयें, जिनमें कुल 24003 लोगो पीडि़त थे,(आकड़े इससे और भयानक होगें अगर हर केस के बाद पुलिस केस आसानी से दर्ज कर लें औऱ हर पीडिता अपना केस दर्ज करा लें) जिनमें 0- 10 साल के बीच 790 पीड़ित 10 से 14 साल के बीच 1568, 14 से 18 साल के बीच 4346, 18 से 30 साल के बीच 12986 ,30 से 50 साल के बीच 3573  और 50 से ऊपर की महिलाओं, 139 पीड़ित हुई। ऐसें में 0- से 18 और 50 से ऊपर की महिलाओं को एक साथ जोड़ दें तो कुल 6843 पीडित होगें. जो कुल पीडितो का लगभग 29 प्रतिशत होगा। जो ये दिखलाता हैं कि यौन कुंठा से भरा समाज कितनी घटिया सोच रखता हैं जिसके लिए उम्र के मायने कितने छोटे हैं।  मुझे पूरा भरोसा हैं कि इनमें घरों की बंद दीवारों में घटने वाली यौन हिंसा के मामले जोड दिए जाए और उऩकी भी रिपोर्टिग ठीक ढंग से हो जाए तो सामाजिक संस्कृति का लबादा ओढें हमारा समाज नंगा हो जाएगा।                                ।
इस मामले के बाद एक बार फिर वहीं पुराने सवाल सबसे महत्वपूर्ण हो जाते हैं, कि क्या हम इसी तरह आगे भी रहने वाले हैं, और बदलाव होगा तो कैसे होगां। क्या कठोर कानून इन सारे सवालों का जवाब होगा। जस्टिस जे एस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट के आने तक और उसके लागू हो जाने के बाद भी महिलाओं के प्रति ना तो अपराधों की प्रति बदली हैं औऱ ना उनकी संख्या में कोई कमी आई हैं। हर दिन के अखबार बलात्कार की घटनाओं से रंगे हुए हैं। इससे एक बात तो तय हो जाती हैं  हम हम ऐसे सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें में जी रहे हैं, जिसमे  आधी दुनिया की भागीदार स्त्री के मूलभूत अधिकारों को  हम सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से कुचलता जाता रहा है.  हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जिसमे महिलाओं के प्रति इस बर्बरता को जिंदा रखनें के लिए चरणबद्ध तरीको से जाल बुने जाते हैं और उनके खिलाफ होने वाले अपराधों की फेहरिश्त उनके परिवारों से ही शुरू होती है. भ्रूण हत्या, परिवार के अन्दर यौन हिंसा, दहेज़, दहेज़ हत्या, ध्यान से देखें तो यह सब स्त्रियों के विरुद्ध उनके द्वारा किये जाने वाले अपराध हैं जो अन्यथा उनके बचाव के लिए जिम्मेदार हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि हम जिस देश में रह रहें हैं उसमें इन अपराधों को सामाजिक और राजनैतिक मान्यता की अदृश्य शक्ति मिली हुई हैं. हम और आप इन्हे पहचानते और जानते भी हैं औऱ कई बार इनके हिस्से भी होते हैं पर बदलते नहीं हैं. हमें इनसे दिक्कत सिर्फ तब होती है जब यह हमारे अपनों के साथ हों. हाँ, ऐसे अपराधों के बाद आने वाली प्रतिक्रियायों पर नजर डालने से इन अपराधों को मौन स्वीकृति दिलाने वाले चेहरे भी साफ़ नजर आने लगते हैं. दिल्ली के इस मामले के बाद समाज और सार्वजनिक मंचो से बयान उसकी बानगी हैं। और इसी लिए यह पूछना जरूरी बनता है कि ऑनरकिलिंग को भावनात्मक और सामाजिकता से जुड़ा मुद्दा माननें वाले औऱ चुपचाप भ्रूण हत्या को बढावा देने वाले समाज से, इस हत्या पर ईमानदारी भरी प्रतिक्रिया औऱ बदलाव की उम्मीद करना कहां तक समझदारी भरा कदम होगा।
निसंदेह ही कानून इन तरह के अपराधों के लिए पूर्ण इलाज नही हैं, इन इलाज का एक उपकरण हैं। ऐसे में इन अपराधों से लड़ने के लिए एक बड़ी इच्छा शक्ति और सामाजिक सोच की बदलाव की जरूरत हैं, जिससे हम महिलाओं के अधिकारों को पितृसत्ता के ढाँचों में फसी नैतिकता की बेड़ियों से निकलकर आजादी की साँस ले सकें। निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं. भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी  महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वह व्यवस्था जिसमें उनके प्रति किए गए अपरा
ध जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रहे है. इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं.। उनका विरोध करें और विरोध के लिए खुद के घर को ही प्राथमिक प्रयोगशाला बनाएं, अगर घर बदला तो देश के लिए युगान्तर कारी परिवर्तन महसूस होगें।
(य़ह लेख राष्ट्रीय सहारा में 23 अप्रैल 2013 को प्रकाशित हुआ हैं)

शिशिर कुमार यादव 

शनिवार, 23 मार्च 2013

सोलह की उम्र की सहमति के मायने


देश की संसद महिलाओं के साथ बलात्कार पर सशक्त कानून की जरूरत को लेकर एंटी रेप बिल पर बहस करने वाली है। संसद मे जाने से पहले ही इस बिल पर कैबिनेट मंत्रियों की बैठक में इसे अंतिम रूप दे दिया गया हैं। इस बैठक में एक निर्णय के तहत किशोरों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबधों की उम्र को 16 वर्ष निर्धारित करने का प्रस्ताव किया गया हैं यानी अगर कोई 16 साल की लड़की अपनी सहमति के साथ किसी किशोर के साथ यौन संबध बनाती हैं तो उसे बलात्कार नहीं माना जाएगां। इस सहमति के बाद देश भर एक बड़ी बहस यौन संबधों की उम्र को लेकर एक जोरदार बहस छिडी हुई हैं। कि क्या 16 वर्ष के बच्चों को यौन संबध बनाने का यह कानूनी प्रस्ताव भारतीय परिदृश्य में सहीं होगा। पक्ष और विपक्ष दोनो अपनी अपनी बातो से इस प्रस्ताव की आलोचना और समर्थन कर रहे हैं।
पक्ष में दिया गया सबसे बड़ा तर्क यह हैं कि किशोरों का एक दूसरे के प्रति आकर्षण स्वाभाविक और प्राक़तिक हैं, ऐसें में सहमति के साथ बने किसी संबध में लड़के को बलात्कार जैसें गम्भीर आरोप में जेल भेजना न्याय संगत और उसके भविष्य के लिए हितकर नहीं होगा। विरोध में दिया जानें वाला तर्क सहमति को तय करने का मापक और उसके पीछे छुपे अवाछनीय तत्वों से सहमति के भाव का आकलन कैसे किया जा सकता हैं? इस विचार के विरोधी इस नियम को बाल अपराधों और ट्रैफिंकिंग इन्डस्ट्री के वरदान सरीखा आँक रहें हैं। जिसका नुकसान बाल और बचपन बचाओं आंदोलनों को उठाना पडेगा।
दोनो ही तर्को को सिरे से खारिज करना ना ही आसान हैं और ना ही सही भी। पहले तर्क की बात करें तो हाल में गाजियाबाद कोर्ट के मामले को ध्यान में रख कर बात की जाए लड़की के बयान के बाद भी कोर्ट लड़के को अपराधी घोषित करती हैं, क्योंकि न्यायाधीश कानून के तहत उसे निर्दोष नहीं मान सकते थें। हाल में हुए कुछ और निर्णयों में कोर्ट को नियमों के अभाव में सहमति के होते हुए भी किशोर युवक को अपराधी मानने पर मजबूर होना पड़ा। ऐसे में सहमति के साथ बने संबधों में इतनी बडी सजा की नैतिकता पर सवाल उठाया जा रहा हैं। कि आकर्षण प्राकृतिक हैं और ये सहमति का विषय हैं तो ऐसें में इसे अपराध मानना कहाँ तक उचित होगा। ( ध्यान रहें असहमति के साथ किया गया प्रयास बलात्कार की श्रेणीं में ही आएगा)
दूसरी तरफ के तर्क के अनुसार, बहुत सारी लड़कियां भय, लालच और मजबूरी के कारण हर साल बड़ी मात्रा में यौन शोषण का शिकार होती हैं। इनकी संख्या आकड़ो से बहुत अधिक हैं, बहुत सारे मामले खुलकर सामने आते ही नहीं हैं। नेशनल क्राइम रिपोर्ट के आकड़े और चौकाने वाले हैं, इन आकड़ो के हिसाब से 2011 में किशोरो पर दर्ज 30,766  में से 20000 केस जिन्हें भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड) के तहत दर्ज किये गए किशोरो की उम्र 16 से 20 वर्ष की थी। बाकी बचे केस में उम् 7 से 12 ते बीच थी। इसमें भी चौकाने वाली खबर ये थी कि 1231 रेप केस दर्ज हुए थें। बढते अपराधों में 2012 के आकड़े इससे और भी भयावह होगें इसका अनुमान लगाना आसान ही हैं। ऐसें में 16 साल की उम्र में सहमति से बने यौन संबधो को कानूनी तौर पर मान्यता देने के बाद यौन अपराधों में इजाफा होना स्वाभाविक हैं जिसे सहमति का जामा पहना कर न्यायोचित ठहराया जायेगा। सहमति साबित करवाने के लिए अपराधी या उसके परिवार का किसी भी हद तक जाने की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता हैं। ऐसे में इस तरह का प्रस्ताव एक गंभीर समस्या पैदा कर देगा, जिसकी वजह से दैनिक मजदूरी कर के और घरो में काम करने वाली किशोरियों को बहला फुसला कर उनका शोषण करने की प्रवृत्ति को बढावा मिलेगा। आज भी ऐसे शोषण हर कार्य क्षेत्र में बड़ी मात्रा में होते हैं, उनमें से अधिकतर मामले सामने आते ही नहीं हैं और जो आते हैं उनका इस नियम के आने के बाद इन बचे कुचे अपराधों को सहमति का जामा पहना कर इनसे आसाना से बचा जा सकता हैं।
ये आकड़े उतने ही अपराधों के हैं जिन्हें दर्ज किया गया हैं जबकि वास्तविकता के आकड़े और भयानक हैं। हर दिन किसी ना किसी रूप में किसी 18 साल की कम लडकी जो घरों से लेकर सड़क तक बहला फुसला कर या डर और लालच के चलते यौन शोषण का शिकार होती हैं। ऐसी स्थितियों में सहमति का विषय कितना सहीं प्रासंगिक रह जाता हैं यह एक बडा सवाल हैं। ट्रैफिकिंग रेहैबिलिटेशन विषय पर शोध कर रही आईआईटी खड़कपुर की छात्रा सोनल पाण्डेय का कहना हैं कि अधिकतर ट्रैफिक्ट हो चुकी लड़कियाँ स्टॉकहोम सिन्ड्रोम से पीडित हो जाती हैं, जिसमें वो अपने ही खिलाफ काम करती हैं, जिसके तहत वे उस दलाल को ही बेहतर मानने लगती हैं जो उन्हें इन जगहों पर ला कर बेच देते हैं या फिर उनका शोषण करवाते हैं, और ये दलाल भी इनका यौन शोषण करते हैं। ऐसें में छुड़ाई गई लड़कियाँ घर नहीं जाना चाहती, क्योंकि समाज में लौटने पर इन्हें मानिसक प्रताडना के साथ साथ इस तरह से यौन शोषित होने की संभावन और बढ जाती है। इसी लिए अधिकतर मामलों में एक बार घर से भगाई गई लड़की इन दलालों के लिए सबसे आसान शिकार होती हैं। इस प्रकार जब ये सब पहले से ही इन्हें इतनी प्रताडित होती हैं, तो कि जब पुलिस उन्हे बचाती है तो वो किसी के साथ जाने के बजाय अपने दलालो का ही साथ देती हैं। ऐसे में इस कानून के आने के बाद इस तरह की समस्याओं से निपटने की रूपरेखा क्या होगी यह एक बडा सवाल होगा।
तो क्या ऐसे में कम उम्र में लड़कियों के साथ हो रहे अपराधो का बाजार (वेश्यावृत्ति, अवैध मजदूरी), इस कानून के आने के बाद इसे अपने हित में नहीं भुनाएगां। ऐसें में सहमति पर विषय कितना छोटा हो जाता हैं । सहमति को साबित करने वाले बल किसी से छुपे नहीं है। सहमति और असहमति की लक्ष्मण रेखा क्या होगी और यह लक्ष्मण रेखा तय कैसे होगी ये बडे सवाल हैं। भारत जैसे देश में जहाँ नैतिकता और संस्कृति के मापक महिलाओं की हत्या से नहीं चूकता हैं ऐसे में इस तरह का कानून धर्म और संस्कृति के ठेकेदारों के लिए अपने असंवैधानिक और अलोकतात्रिक नियमों को वैध करने का ठोस आधार देता दिखाई पडेगा। जिससे वो महिला के अधिकारों को और बुरी तरह से नियत्रित करने की कोशिश करेगें। हम इनसे पूरी तरह निपट पाने में कितना सक्षम हैं इस सीमा से भी हम परिचित हैं। भारत जैसे देश में जहाँ महिलाओं को लेकर अपराध और शोषण का एक लम्बा इतिहास हैं वहाँ इस तरह के प्रयोग करते समय एक गहन चिन्तन की जरूरत हैं। स्पष्ट है कि इस हवन में हाथ बहुत सम्हालने की जरूरत हैं वरना हाथ जलना तय है।  महिला अधिकारो को लेकर एक लम्बे सघर्ष के बाद, हमने जो मुकाम हासिल किया हैं, उसे कच्ची उम्र मे सेक्स की छूट का फर्जी प्रचार कर के छीना भी जा सकता हैं। इसलिए विषय की गंभीरता और प्रकृति इस विषय पर गहन अध्ययन की ओर बल दे रहे हैं, जल्दबाजी में उठाया गया कदम महिला अधिकारो के लिए आत्मघाती भी हो सकता हैं।
शिशिर कुमार यादव 

गुरुवार, 7 मार्च 2013

स्त्री विरोधी नहीं हो सकते सभ्य समाज


पिछले कई दिनों से देश भर में,समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने रूप पर एक चर्चा और विमर्श का माहौल हैं. अफ़सोस यह कि यह माहौल किसी आत्मचेतना के चलते नहीं बल्कि एक निर्मम बलात्कार और हत्या से उभरे जनाक्रोश के चलते बना है. इस घटना के लगभग दो महीने के बाद भी न समाज शर्मिन्दगी से उबार पाया है न उसी समाज के एक हिस्से के लोग दरिंदगी से और हमारा हासिल वह समाज है जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकती क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वह इस तरह सें जिएं.
पिछले कई दिनों से देश भर में,समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने रूप पर एक चर्चा और विमर्श का माहौल हैं. अफ़सोस यह कि यह माहौल किसी आत्मचेतना के चलते नहीं बल्कि एक निर्मम बलात्कार और हत्या से उभरे जनाक्रोश के चलते बना है. इस घटना के लगभग दो महीने के बाद भी न समाज शर्मिन्दगी से उबार पाया है न उसी समाज के एक हिस्से के लोग दरिंदगी से और हमारा हासिल वह समाज है जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकती क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वह इस तरह सें जिएं.

इस खबर के बाद गलतियों और खामियों के सामाजिक और राजनैतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं, जिनकी अपनी ही प्रकृति और सीमा होगी. लेकिन फिर भी यह हत्या, जो न केवल निर्मम बल्कि बडे सधे तरीके से भी की हैं उस ओर सोचना जरूरी हैं कि क्या सच में हम एक सभ्य समाज में जी रहे हैं? क्या सच में हम ऐसा ही समाज चाहते हैं? इस मौत को क्या कहा जाए? हादसा, अपराध, दुर्घटना या कोई और शब्द. शायद किसी भी शब्द में इतनी ताकत हो जो  इसे पूरी तरह से विश्लेषित कर सकें. वस्तुतः देखें तो इस हादसे के सन्दर्भ में भाषा की सीमा भी साफ दिखती हैं क्योंकि सिर्फ हादसा कहने से ऐसे अपराधों की गंभीरता और वीभत्सता का मौलिक चरित्र ही खत्म हो जाता हैं.

अफ़सोस यह भी है कि ऐसे निर्मम अपराधों के बाद तमाम लोग ऐसे अपराधियों के लिए मौत की सजा माँगने लगते हैं जैसे मृत्युदंड से इस समस्या का समाधान हो जाएगा. पर मृत्युदंड ने दुनिया के किसी भी हिस्से में अपराध रोके हों इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता. एक दूसरे स्तर पर भी देखें तो समझ आता है कि अगर मौत की सजा इन दुष्कृत्यो को रोक सकती तो एक अपराधी को ऐसी सजा मिलने के बाद अपराधी और समाज दोनो ही इसकी पुनरावृत्ति नहीं करते. इन हादसों की पुनरावृत्ति हमें यह बतलाती हैं कि अब भी हम ना तो इनकी गंभीरता समझ पाए हैं और ना ही वीभत्सता. हाँ मौत की सजा देने से यह जरूर होगा कि बलात्कारी सबूत न छोड़ने के प्रयास में पीड़ित की हत्या करने पर उतर आयें.

जो भी हो पर इस हादसे ने हमें एक बार खुद की ओर सोचने के लिए झकझोरा हैं कि हम कैसे सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें में जी रहे हैं? हम एक ऐसे समाज रह रहे हैं जिसमे  आधी दुनिया की भागीदार स्त्री के मूलभूत अधिकारों को  हम सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से कुचलता जाता रहा है.  हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जिसमे महिलाओं के प्रति इस बर्बरता को जिंदा रखनें के लिए चरणबद्ध तरीको से जाल बुने जाते हैं और उनके खिलाफ होने वाले अपराधों की फेहरिश्त उनके परिवारों से ही शुरू हो जाती है. भ्रूण हत्या, परिवार के अन्दर यौन हिंसा, दहेज़, दहेज़ हत्या, ध्यान से देखें तो यह सब स्त्रियों के विरुद्ध उनके द्वारा किये जाने वाले अपराध हैं जो अन्यथा उनके बचाव के लिए जिम्मेदार हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि हम जिस देश में रह रहें हैं उसमें इन अपराधों को सामाजिक और राजनैतिक मान्यता की अदृश्य शक्ति मिली हुई हैं. हम और आप इन्हे पहचानते और जानते भी हैं औऱ कई बार इनके हिस्से भी होते हैं पर बदलते नहीं हैं. हमें इनसे दिक्कत सिर्फ तब होती है जब यह हमारे अपनों के साथ हों. हाँ, ऐसे अपराधों के बाद आने वाली प्रतिक्रियायों पर नजर डालने से इन अपराधों को मौन स्वीकृति दिलाने वाले चेहरे भी साफ़ नजर आने लगते हैं. दिल्ली के इस मामले के बाद समाज और सार्वजनिक मंचो से बयान उसकी बानगी हैं। और इसी लिए यह पूछना जरूरी बनता है कि ऑनरकिलिंग को भावनात्मक और सामाजिकता से जुड़ा मुद्दा माननें वाले औऱ चुपचाप भ्रूण हत्या को बढावा देने वाले समाज से, इस हत्या पर ईमानदारी भरी प्रतिक्रिया औऱ बदलाव की उम्मीद करना कहां तक समझदारी भरा कदम होगा.

अफ़सोस यह भी है कि समाज संस्कृति के उद्घोषक जो इस देश को " कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी से" विविधता भरी संस्कृति का वर्णन कर अपना सीना चौड़ा करते हैं  वे भी यह भूल जाते हैं कि महिलाओं को लेकर लगभग पूरा देश एक ही तरह का व्यवहार करता है. क्या उत्तर क्या दक्षिण, क्या राजस्थान क्या बंगाल, क्या शिक्षित क्या अशिक्षित, महिलाओं के प्रति अपराध और उनके अधिकारों के प्रति रवैया लगभग एक सरीखा और एक समान हैं. देश का कोई कोना दंभ से इसका दावा नही कर सकता हैं कि वह इन स्थितियों और परिस्थितियों से खुद को इतर रखे हुए हैं.  स्पष्ट हैं कि महिलाओं के प्रति नजरिये को लेकर आजतक हमारा समाज जहां था वहीं हैं और अगर कुछ बदलाव के चिन्ह दिखाई भी पडे हैं तो उन्हे कुचलनें के लिए समाज ने अपराधियों को हमेशा बढ़ावा दिया हैं. जिससे उनकी नैतिकता और सभ्यता की खोखली पाठशाला का पाठ महिलाएं आसानी से समझ लें. आज भी समाज, नारी देह और उसकी स्वतंत्रता को अपने पैमानो से देखता हैं और आगे भी उसे नियंत्रित करने का प्रयास जारी हैं. इन कोशिशों में अपराधी और अपराध को मौन सहमति देकर आगे भी नियंत्रित करना चाहता हैं. इसीलिए सामाजिक व्यवस्था का कोई भी परिवर्तन, आज भी अलोकतांत्रिक तरीके से ही कुचला जाता हैं. राजनैतिक और सामाजिक संस्थाए इनको न केवल बढ़ावा देती हैं वरन कई बार अगुवाई भी करती नजर आती हैं.

निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं. भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी  महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वह व्यवस्था जिसमें उनके प्रति किए गए अपराध जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रहे है. इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं. आज भी हम ऐसे ही समाज को पाल पोस रहे हैं जो महिलाओं के अधिकारों के प्रति पूर्णतया असंवेदनशील हैं. इस कदर की असंवेदनशीलता और अपराध को बढावा देना किसी भी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं होता हैं. ऐसे में हमारा दावा कितना खोखला हैं कि हम एक सभ्य समाज में हैं और हमारे द्वारा एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा रहा हैं.

About the Author: Mr. Shishir Kumar Yadav is a research scholar based in Jawaharlal Nehru University, New Delhi. He could be contacted at shishiryadav16@gmail.co
यह लेख Asian Human Right  से भी प्रकाशित हो चुका हैं ... 
लिंक ..http://www.humanrights.asia/opinions/columns/AHRC-ETC-014-2013





शनिवार, 29 दिसंबर 2012

हम अब भी बर्बर और असभ्य हैं...


सुबह 3 बजकर 38 मिनट का समय और लैपटाप पर चल रही खबर पर नजर क्या पडी दिल बैठ गया। पिछले कई दिनों से देश भर में, समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने चहरे  पर  एक चर्चा और माहौल हैं। जिसे हम और आप महिला अधिकारों और महिला अस्मिता का प्रतीक मान कर लड़ रहे थे वो अब नहीं रहीं। यानी दिल्ली में हुए बलात्कार के बाद 23 वर्षीय छात्रा की सिंगापुर में मौत हो गई। मेरे शब्द और लेखन शक्ति उस नायिका के प्रति क्या प्रदर्शित करें यह मेरे लिए कठिन बन पड़ा। सच कहूँ  तो मैं उसकी मौत के बाद शर्मिदा हूँ कि मैं उस समाज का हिस्सा हूँ, जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकी क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वो इस तरह सें जिए।

इस खबर के बाद दोष और सामाजिक सामाजिक औऱ राजनैतिक निहतार्थ निकाले जाएगें, जिसकी अपनी अपनी प्रकृति और सीमा होगीं। लेकिन फिर भी इस हत्या, जिसे हम और आप ने बडे सधे तरीके से की हैं उस और सोचना जरूरी हैं कि क्या सच में हम एक सभ्य समाज में हैं? क्या सच में हम ऐसा ही समाज चाहते हैं? इस मौत को क्या कहा जाएहादसा, अपराध, दुर्घटना या कोई और शब्द। शायद किसी भी शब्द में इतनी ताकत हो जो  इसे पूरी तरह विश्लेषित कर सकें । सच में आज लगा कि भाषा मूक है, जिसमें बधते ही इस तरह के हादसे (हादसे लिखने के लिए माफी क्योंकि यह हादसों की परिभाषा से बहुत गंभीर विषय हैं) अपनी गंभीरता और विभत्सता का मौलिक मूल खत्म हो जाता हैं। सच में, जैसे ही हम इस तरह के हादसों को भाषा या शब्द में बाधते हैं तो हम इस हादसे को कम आँक बैठते हैं। इस तरह के हादसों की गंभीरता और विभत्सता शायद ही मानव मस्तिष्क आंक पाएं। अगर आँक पाता तो इस तरह के अपराध तो कत्तई न करता। कुछ लोग मौत को इसका अंतिम छोर मानते हैं और अपराधी को मौत की सजा देकर इसकी विभत्सता की सजा को पूरा करना चाहते हैं। मौत जिसे आज भी रहस्य माना जाता हैं वो भी इस तरह के हादसों के लिए पड़ाव हैं ना कि पूर्ण। यह बात इस बात से और भी सिद्ध होती हैं कि अगर मौत इस तरह के हादसों के लिए पूर्ण होती तो मौत के बाद अपराधी और समाज दोनो ही इसकी पुनरावृत्ति नहीं करते। इन हादसों की पुनरावृत्ति हमें यह बतलाती हैं कि अब भी हम इन हादसों की ना तो गंभीरता समझ पाए हैं और ना ही विभत्सता। कई बार पीडित खुद भी मौत का शिकार हो जाते हैं जैसा कि इस मामले मे हुआ हैं, जहाँ पीडिता जिंदगी से अपनी जंग हार गई । 
जो भी हो पर इस हादसे ने हमें एक बार खुद की ओर सोचने के लिए झकझोरा हैं कि हम किस सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें को ढो और पास पोल रहे हैं। जिसमें हम आधी दुनिया की भागीदारी निभाने वाली स्त्री के मूल भूत अधिकारों को, जिसमें जीने, चलने, चुननें, पहननें, बोलने के अधिकारों को हम सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से चलाते आ रहे हैं और हम खुद को सभ्य होने का दावा करने की होड़ मे लगें हैं। हम आज भी प्रतोकों की भाषा से अपने आप को सभ्य घोषित करने पर तुले हैं लेकिन सच ये हैं कि आज भी हम बर्बर और असभ्य हैं।
समाज ने महिलाओं के प्रति इस बर्बरता को जिंदा रखनें के लिए चरणबद्ध तरीको से जाल  बनाए हैं। जिसमें परिवार फिर समाज और फिर अपराध की श्रृखला हैं। इन्ही जालो में नारी कहीं ना कही फसी रहती हैं और अगर किसी एक से बच भी जाए तो दूसरे में उसे उलझ जाएं। इस प्रकार के जालों से बच कर निकलने के दौरान फसने की बड़ीं कीमत चुकानी पड़ती हैं। जिसकी कल्पना करना सच में हम जैसे असभ्य और बर्बर लोगों के लिए इतनी आसान भी नहीं हैं। जिस पर गुजरती हैं वो इस हालात में पहुच जाता हैं कि वो इसका सहीं आकलन नहीं कर सकता हैं। सामान्यतया या तो वे जिंदगी की जंग हार जाते हैं और अगर बच जाते हैं तो हम और आप उनका बहिष्कार इन्हीं चरण बद्ध जालो के अन्तर्गत कर देते हैं।
   
हम जिस देश में रह रहें हैं उसमें इस अपराध की प्रवृत्ति और चरण को सामाजिक और राजनैतिक मान्यता की अदृश्य शक्ति मिली हुई हैं। हम और आप इन्हे पहचानते और जानते भी हैं औऱ कई बार हिस्से भी होते हैं पर बदलते नहीं हैं। इनकी गर्जना तब और सुनाई पड़ने लगती हैं जब इस तरह के हादसें हम आप के करीब से गुजरते हैं। इस दौरान इनकी प्रतिक्रिया पर नजर डालने भर मात्र से इन ताकतो और चेहरों को आसानी से पहचाना जा सकता हैं। दिल्ली के इस मामले के बाद समाज और सार्वजनिक मंचो से बयान उसकी बानगी हैं। ऑनरकिलिगं को भावनात्मक और सामाजिकता से जुड़ा मुद्दा माननें वाले औऱ चुपचाप भ्रूण हत्या को बढावा देने वाले समाज से, इस हत्या पर ईमानदारी भरी प्रतिक्रिया औऱ बदलाव की उम्मीद करना कहां तक समझदारी भरा कदम होगा, यह प्रश्न आप जैसे विद्वानों की बौद्दिक जुगाली के लिए छोड़ता हूँ। इस मामले में भी सामाजिक और राजनैतिक बयानवीरों ने इसी कड़ी को जिंदा रखा था जिसमें पीड़ित स्वत अपने प्रति हुए अपराध के लिए दोषी थी।

समाज संस्कृति के उद्घोषक जो इस देश को कोस कोस पर बदले पानीचार कोस पर बानी से विविधता भरी संस्कृति का वर्णन कर अपना सीना चौडा करते हैं। वो कभी ये नहीं बताते हैं कि महिलाओं को लेकर यह देश पूरी तरह से एक तरह की राय रखता हैं। क्या उत्तर क्या दक्षिण, क्या राजस्थान या बंगाल, क्या शिक्षित क्या अशिक्षित, महिलाओं के प्रति अपराध और उनके अधिकारों के प्रति हमारा रवैया लगभग एक सरीखा औऱ एक समान हैं। देश का कोई कोना दंभ और दावा नही भर सकता हैं कि वो इन स्थितियों और परिस्थितियों से अपने को इतर रखे हुए हैं। स्पष्ट हैं कि महिलाओं के प्रति नजरिये को लेकर आजतक हमारा समाज जहां था वहीं हैं और अगर कुछ भी बदलाव के पद चिन्ह दिखलाई भी पडे हैं तो उन्हे कुचलनें के लिए समाज ने अपराधियों को हमेशा बढ़ावा दिया हैं। जिससे उनकी नैतिकता और सभ्यता की खोखली पाठशाला का पाठ महिलाएं आसानी से समझ लें। आज भी समाज, नारी देह और उसकी स्वतत्रता को अपने पैमानो पर देखता हैं और आगे भी उसे नियत्रित करने का प्रयास जारी हैं, इन कोशिशों में अपराधी को और अपराध को मौन सहमति देकर आगे भी नियत्रिंत करना चाहता हैं। इसीलिए सामाजिक व्यवस्था का कोई भी परिवर्तन, आज भी अलोकतात्रिक तरीके से ही कुचला जाता हैं। राजनैतिक और सामाजिक संस्थाए इनको न केवल बढ़ावा देती हैं वरन कई बार अगुवाई करती नजर आती हैं।

निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं। भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी  महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वो व्यवस्था जिसमें उनके प्रति अपराधो जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रही है। इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं। आज भी हम ऐसे ही समाज को पाल पोस रहे हैं जो महिलाओं के अधिकारों के प्रति पूर्णतया असंवेदनशील हैं।इस कदर की असंवेदनशीलता और अपराध को बढावा देना किसी भी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं होता हैं। ऐसे में हमारा दावा कितना खोखला हैं कि हम एक सभ्य समाज में हैं और हमारे द्वारा एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा रहा हैं।

शिशिर कुमार यादव

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

विरोध की प्रयोगशाला राजपथ नहीं आपका अपना घर होना चाहिए

बीते हफ्ते दिल्ली में हुए 23 वर्षीय छात्रा के बलात्कार के बाद दिल्ली में बलात्कार के विरोध में एकाएक जनता सड़क पर उतरी। जिसमें युवाओं की बड़ी भागीदारी दिखी। सड़क पर उतरी जनता ने इस अमाननवीय कृत्य का पुरजोर विरोध किया गया। जिसने सरकार की चूल्हें हिला कर रख दी। इस विरोध ने राज्य सरकार क्या केन्द्र सरकार के प्रमुख जिम्मेदार ओहदे पर बैठे लोगों को अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही के लिए मजबूर किया। इस विरोध के बाद महिलाओं की सुरक्षा और उनके सार्वजनिक जगहों पर अधिकार को लेकर सभी मंचो पर एक चर्चा का माहौल बना। इस माहौल को ना तो गुजरात के मोदी का जादू ही धूमिल कर सका और ना ही क्रिकेट के भगवान सचिन तेदुलकर का एकदिवसीय क्रिकेट से सन्यास। इस विरोध ने इस महत्वपूर्ण चर्चा को जिंदा रखा जो आमतौर पर इतनी बडी खबरों के बाद स्वत: ही दम तोड़ देती है।               

ऐसा नहीं हैं कि बलात्कार इस देश में पहली बार हुआ था या सरकार का विरोध पहली बार हो रहा हैं। लेकिन फिर भी यह जनाक्रोश अपने आप में काफी अलग था। जिसने दिखाया कि ने अगर इस देश के हालात में कुछ बदलाव आ सकता हैं वो सिर्फ और सिर्फ युवाओं के विरोध से बदल सकता हैं, क्योंकि छात्रों और युवाओं का एक मात्र विरोध बचा हैं जो लोकतांत्रिक देश में एक परिवर्तनकारी शक्ति रखता हैं और पवित्र हैं। यह विरोध हालातों में और महत्वपूर्ण हो जाता हैं जब राजनीति और महत्वपूर्ण विरोध की आवाजों में धर्म, जाति, क्षेत्र और वर्ग का असर साफ झलकता हैं। ऐसें मे युवाओं का यह ईमानदारी भरा विरोध सच में अपने आप में क्रांतिकारी होता जाता हैं। इन स्थितियों में युवाओं की जिम्मेदारी और भी बढ जाती हैं कि वो किसी भी विषय को सहीं से समझें ही नहीं वरन अपनी आवाज सामाजिक न्याय और कमजोरो के लिए उठाते रहें।

विरोध के बाद से कुछ परिवर्तन होना तय तो हैं, लेकिन ये लड़ाई यहीं खत्म नहीं हो जाती हैं। अभी भी महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई बडी लम्बी हैं क्योंकि इस विरोध सें हम कानून के नियमों में परिवर्तन तो करा ले जाएगें, अपराधियों को दंड भी दिला दे जाएगें, लेकिन उस संस्कृति का क्या करेंगें जिसने इस तरह के अपराधों की पौध को खुद ही सीचा और बड़ा कर रखा हैं। सबसे बड़ा सवाल यह हैं कि समाज इस तरह के अपराधों से पीड़ित छात्रा को कहाँ तक जीने देगी ? समाज का एक वर्ग जहां विरोध कर के परिवर्तन करने की मांग कर रहा हैं वहीं दूसरी और देश के हर कोने में बलात्कार, भ्रूण हत्या और महिलाओं के प्रति अपराध जारी हैं। इस घटना के अगले ही दिन बिहार और तमिलनाडु में हुए बलात्कार के बाद हत्या की घटनाए इस पर मोहर लगाती हैं। ऐसे में यह सवाल अपने आप में एक कठोर कानून कहाँ तक महिलाओं और उनके अधिकारों को सुरक्षित कर सकेगा। जबकि समाज महिलाओं के प्रति अपनी सामंती और पित्रृसतात्मक सोच से बाहर निकलने के लिए तैयार ही नहीं हैं। जिस समाज में महिलाओं से जुडे अपराधों में महिलाओं को अपराधी बनाने की प्रवृत्ति प्रमुख हैं, उस समाज में सिर्फ इंडिया गेट का विरोध कहाँ तक कारगर होगा। मेरी चिंता तब और बढ जाती हैं जब महिला को ही उनके साथ हुए अपराध के लिए दोषी ठहरा दिया जाता हैं। महिला के साथ हुई घटना के बाद, जगह घटना की जगह, वक्त उनका पहनावा और उसका उस वक्त उस जगह होने का कारण प्रमुख हो जाता हैं। तो ऐसे में यह विरोध सिर्फ अपराधी और कठोर कानून के अलावा क्या महिलाओं को एक समाज में लोकतांत्रिक जगह दिलाने में सक्षम हो पाएगा ? इस पर मुझें शक हैं। मेरा शक उस वक्त और बढ जाता हैं जब समाज में महिलाओं का घरों में रह कर विरोध करने का भी अधिकार सुरक्षित नहीं दिखाई पड़ता हैं। तो ऐसें में उनका सड़क पर वक्त बेवक्त चलनें के अधिकार और सार्वजनिक जगहों पर समान भागेदारी की कल्पना करना दिन मे दिवास्वप्न देखने सरीखा नहीं होगा ?

हम समाज के उस नजरिए का क्या करेगें जो अस्पताल में लड रही पीडित के लिए मर जाने को बेहतर विकल्प मान ररहें हैं। क्योंकि अगर वो बच जाती हैं तो उसका जीवन नर्क हो जाएगा औऱ इस नर्क के पीछें का तर्क डॉक्टरों का बयान जिसमें उसके इन्फेक्सन और मातृत्व सुख ना प्राप्त कर पाने का हवाला हैं। जिसमें उसके वैवाहिक जीवन और मातृत्व सुख की कल्पना और कठिनाईयों को केन्द्र में रखा जा रहा हैं। ऐसे में उस पीडित की लडाई कितनी कठिन और कितने मोर्चों पर होगी इसका आकलन करना आसान न होगा। ऐसे हालातों मे क्या उस पीडित की अपनी मौत से लडी और जीती हुई लडाई काफी छोटी न हो जाएगी, जब उसे हर कदम पर अपनें ही समाज में अपने ईर्द गिर्द के लोगों को खिलाफ लडना होगा ।

ये वो सवाल हैं जिनके बारे में हमें सिर्फ चर्चा करनी हैं पर उस पीडित को लडना होगा। वैवाहिक जीवन और मातृत्व के सुख की चिन्ता हमें हमारे उस समाज का असली चेहरा दिखलाता हैं जिसमें जहाँ स्त्री की उपयोगिता विवाह तक सीमित हैं और जहाँ वो बच्चें पैदा करने की मशीन भर हैं। तो ऐसें में जब यह पीडित अपनी मौत से जीत कर बाहर आएगीं तो क्या समाज उसके सामनें कई विषद लडाईयां लड़ने के लिए मैदान तैयार नहीं कर देगा जिसमें समाज पीडित को अयोग्य घोषित कर देगा, क्यों कि वो विवाह और मातृत्व सुख प्राप्त करने लायक नहीं रह जाएगीं। इस लडाई में पीडित को अपनी उपयोगिता साबित करनें के लिए उसे अपनी सारी जिंदगी लडना होगा ? वो हाथ में थाली लेकर अपने आप को समाज रूपी बाजार में खुद को प्रस्तुत तो कर ना सकेगी और किसी समाज दूसरे रूप में उसें स्वीकार भी नहीं करेगा। मातृत्व सुख ना पा पाने की स्थिति में क्या समाजिक संस्थाएं उसका स्वत: तिरस्कार ना कर देगीं ? ऐसें में इंडिया गेट से लेकर राजपथ तक विरोध का असर कहां तक प्रतिफलित होगा यह एक बडा सवाल हैं ? 

तो ऐसें में क्या हम इस विरोध से सिर्फ और सिर्फ अपराधी को सजा और अपराध के लिए कानून के लिए नहीं लड रहें हैं। क्या अपराधी को मौत की सजा और कानून के बाद हमारें कर्तव्यों की इतिश्री हो जाएगीं ? क्या हम इस विरोध में सामाजिक गैरजिम्मेदारी औऱ राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव को अनदेखा नहीं कर रहे है। जो इनका मूल हैं। सच में कानून लैण्डमार्क तय कर सकता हैं पर पूरा रास्ता नहीं। जो रास्ते तय कर रहें हैं वो नारी देह को आजाद करने के लिए तैयार ही नहीं हैं। तो क्या हमारी लडाई की दिशा अधूरी नहीं हैं। हम किस ओर लड़ रहे हैं यह एक महत्वपूर्ण सवाल हैं। हम लगातार असली जड़ को लगातार अनदेखा किए जा रहे हैं जिनसे हमें सच में लडना हैं। हम कब तक अपराधियों से अपराध के लिए लड़ते रहेगे ? क्या इस विरोध के बाद अपराधी फिर से हम और आप के चहरें से उभर नही आएगें ? इस लडाई से राजनैतिक जिम्मेदारी को एक हद तक जवाबदेह बना लेगें लेकिन सामाजिक जवाबदेही का क्या जो राजनैतिक जवाब देही को भी पूरी तरह प्रभावित करता हैं। सामाजिक जवाबदेही के बिना हमारी लडाई अधूरी ही रह जाएगी और राजनैतिक जवाबदेही को भी बच निकलने का पूरा मौका मिल जाएगा जैसा कि खाँप पंचायतो के मामले में हआ था। 

ऐसें में लडाई सिर्फ कानूनी परिवर्तन के लिए राजनैतिक दबाब के साथ साथ सामाजिक जवाब देही की ओर मोड़ने की भी जरूरत हैं। जहाँ पितृसत्तात्मक समाज के अलोकतांत्रिक नियमों के तलें महिलाएं एक लम्बे दौर से अपने लोकतात्रिक हको का बलिदान करती आ रही हैं। और अगर महिलाओं ने कहीं विरोध उठाने के लिए पहल की वहाँ इस पितृसत्ता द्वारा अपनी दमनकारी निर्णयों और तरीको से इस लोकतांत्रिक विरोध का दमन किया जाता रहा हैं। खुद महिलाओं का भी सामाजीकरण इस तरह किया जाता रहा हैं जहाँ महिलाएं भी महिलाओं के अधिकारो की दुश्मन बनी रही हैं। देहज हत्या, भ्रूण हत्या और अन्तर्जातीय विवाह इनके ज्वलन्त उदाहरण हैं।


इन परिस्थितियों में युवाओ का विरोध जिसमें बदलाव की क्षमता है उनकी जिम्मेदारी और बढ जाती हैं क्यों कि जो बीत गया वो बीत चुका हैं पर हमें जिस समाज में रहना हैं उसका निर्माँण खुद करना होगा ताकि समाज जिन अपराधों को देखे -अनदेखे में लगातार बढावा देता आ रहा हैं उस बढावें को एक करारा धक्का लग सकें। मजूबत लोगों ने कमजोरो के अधिकारों को सहर्ष नहीं दिया हैं। बडी लडाईयां लडनी पडी है। इतिहास साक्षी हैं हर लड़ाई का। कई चेहरे हैं इन लडाईयों के। जब भी उनका अधिकार खिसके हैं, तो मजबूत वर्ग द्वारा अपराध ही कियें गए है। ऐसे में दमनकारी नीतियों का एक लोकतांत्रिक विरोध करने का वक्त हैं। इसके लिए सबसे पहलें हमें अपने घर में आवाज उठाने की जरूरत हैं, वहाँ के नियमो को ना सिर्फ तोडना हैं वरन फिर से लिखने की जरूरत हैं। कई मोर्चो पर काम करने के की जरूरत होगी जिसमें महिलाओं का आर्थिक हिस्सेदारी से लेकर निर्णय की स्वतन्त्रता तक रास्ता तय करना होगा। पितृसत्ता की प्राथमिक और महत्वपूर्ण पाठशाला में महिलाओं के लिए विषय बदलने होगें,स्त्री अधिकारों का सबसे बडें दमनकारी केन्द्र बने हुए हैं। इन्ही से समाज भी बनता हैं । वहाँ आवाज उठी तो भरोसा रखिएं एक युगान्तरकारी परिवर्तन देखने को मिलेगा इसके बाद.इडिया गेट का चेहरा देखनें औऱ लाठी खाने की जरूरत नहीं पडेगी अगर हम और आप ऐसा नहीं कर सके तो ये विरोध और कई दिनो तक की लड़ाई अधूरी और अपनें लक्ष्य को पाएं बिना खत्म हो जाएगी और हम फिर एक और दिल्ली में बलात्कार का इन्तजार कर रहें होगे ताकि फिर से एक बार फिर इंडिया गेट पर पहुच सकें। दिल्ली में इस लिए क्योंकि देश के बाकी हिस्सों में हो रहें लगातार बलात्कार पर हमारा और मीडिया का ध्यान इतनी आसानी से नहीं जाता हैं। समाजिक जवाबदेही की लडाई लम्बी जरूर हैं पर अगर सच में हम अपने समाज को बदलना चाहते हैं तो इसके लिए हमें इसके लिए ना सिर्फ अभी से लड़ना होगा बल्कि एक सामाजिक चेतना के साथ कई मोर्चों पर लडना होगा, तब कहीं हम कुछ बदल सकेगें वरना कैडिल लाइट विरोध और राजपथ का विरोध सिर्फ जो सिर्फ दिखावा रह जाएगा। 



शिशिर कुमार यादव 


य़ह लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में  28 दिसम्बर के  अंक में   "घर बने विरोध की प्रयोगशाला" के नाम से प्रकाशित हुआ