रविवार, 24 अगस्त 2014

नीतियों में बदलाव की आवश्यकता


विश्व की दो प्रमुख संस्थाओं आस्ट्रेलिया की व्यूरों ऑफ मीटिरिओलॉजी तथा अमेरिका की क्लामेट प्रिडिक्शन सेंटरने वर्ष 2014 में अल-नीनो के सक्रिय होने का अनुमान जारी किया था। जिससे भारतीय मानसून के अस्त-व्यस्त हो जाने की चिंता जताई गई थी। अगस्त आते आते यह भविष्यवाणी कुछ हद तक सही भी साबित हुई है। भारत में इस बार मानसून काफी कमजोर है।
मानसून इस देश का वार्षिक पर्व हैं, कृषि प्रधान देश में पड़ने वाली इन बूंदों का महत्व अपने आप में बहुत अधिक हैं। धन, धान्य और उर्जा के परिप्रेक्ष्य में मानसून इस देश के लिए वरदान हैं। इस देश में रहने वाला हर व्यक्ति इस पर्व को अपने अपने तरीके से मनाता हैं। लेकिन हर साल इस पर्व में खलल भी पड़ता हैं और ये खलल पड़ता हैं प्राकृतिक आपदाओं सें। वर्षा की अनियमितता ने इस बार कई जगहों पर सूखे के संभावनाओं को बल दिया है। सूखे की संभावनाओं के बीच में भी तमाम तरह की अन्य आपदाए की सूचना काफी जोर पकड़ रही है।  देश के अनेक हिस्सों में प्रकृति ने अपने बर्ताब की कहानी हादसों और घटनाओ के रूप में दर्ज कराना शुरू कर दिया है। तमाम खबरे अखबारो की सुर्खियां बटोर रही हैं, उदा. पुणे जनपद का एक पूरा गांव मलबे में दब जाना, कोसी में बाढ के आने के कारण चेतावनी जारी होना, पहाड़ो का पानी की विशाल धारा के रूप में किसी भी भूआकृति को बदल देना या उत्तराखंड में समय समय पर बादल फटने में होने वाली मौते। तमाम सुर्खियों के बीच यह खबरे अपने लिए एक कोना अपने लिए बना ही ले रही हैं। इसीलिए देश एक बार फिर चिंतित हैं खुद के साथ प्रकति के बर्ताव को लेकर। देश कुछ अजीब हादसो का भी गवाह बन रहा हैं जिसमें एक मोटर साइकिल सवार छोटी सी पुलिया को पार करने में खुद को संतुलित नही कर पाया, और अपनी जीवन की डोर को असंतुलित हो कर तोड बैठा।
इन खबरों पर आपका ध्यान जैसे भी जा रहा हो लेकिन यह खबरे इतनी सामान्य नही हैं जिन्हें इतनी सहजता से अनदेखा कर दिया जाए। यह वह सच है, जो हमें बताता है कि तमाम प्रयास बहुत छोटे हैं, जो इन आपदाओं से निपटने में हम अक्षम हैं, और अभी भी हम इन आपदाओं से निपटने के मूल-भूत स्तर से भी काफी पीछे हैं। हाँलाकि प्रयास हो रहे हैं लेकिन इन प्रयासों से विशेष स्तर तो दूर सामान्य स्तर तक पहुचना भी दुष्कर हो जाएगा। भारतीय आपदा प्रंबधन के पास उत्तराखंड के तुंरत बाद आने वाले उडीसा के तूफान फेनिल से बड़े पैमाने से लोगों को तूफान आने से पूर्व बड़े भू-भाग से निकालने के लिए अपनी पीढ थपथपाने की वजह हो सकती है, लेकिन बड़े पैमाने पर छोटी छोटी जगहों पर हो रहे हादसों को रोकने में उसकी भूमिका और रणनीति लक्ष्य से कोसों दूर है। ये हादसे हमें यह भी बताने से नहीं चूँक रहे हैं कि  इऩ स्थितियों से निपटने के लिए अभी भी हम कही से तैयार नही है।

 तंत्र के पास योजना और पैसा दोनों ही हैं लेकिन फिर भी हम हर मोर्चों पर असफल हो रहे हैंइसका सीधा और सरल मतलब है, कि योजनाओं को संचालित करनें वाले और योजनाओं को लेनें वालें दोनों लोगो के बीच बडें स्तर पर खामियाँ हैं। जिन राज्यों में इस समय आपदा और आपदा से जुड़ी गंभीर चुनौतिया उभर कर आई हैं, अगर उन राज्यों की डिजास्टर प्रोफाइल पर हम सरसरी नजर डाले तो हम पाते हैं कि इन राज्यों में आपदा सतत यानी हर एक निश्चित समय पर आती ही आती है, और इनमें मुख्य कारण मानसूनी बारिश से नदियों में आने वाला जल है। जो इऩ क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर तबाही फैलाता है। लेकिन इन स्थितियों के बावजूद हर साल लगभग एक ही तरह की समस्या उपजना बड़े सवाल पैदा है।
इस समस्या को समझना इतना कठिन नही है। इसका सीधा-साधा जवाब राजनैतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति का अभाव है। इसीलिए कोई भी कार्ययोजना का निर्माण और उसका क्रियान्वयन, तब तक नहीं किया जाता जब तक कोई बड़ा हादसा हमें जगा ना दें। हिमाचल प्रदेश में हाल में ही लॉरजी डैम प्रोजेक्ट के हादसे ने ही नदी घाटियों पर पानी छोड़ने से पूर्व सुरक्षा उपायों की कलई खोल दी थी। यह सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक और प्रशासनिक उदासीनता का उदाहरण थी। ठीक इसी तरह अन्य राज्य भी अपने आपदा प्रंबधन की समीक्षा तब तक तकने को तैयार नजर नहीं आ रहे है, और वे भी किसी हादसे का इंतजार कर रहे है। हाँलाकि जिन राज्यों ने अपने पुराने अनुभवों से सीखा उन्होंने अपने प्रंबधन की एक क्रांतिक मिशाल पेश की। उडीसा एक ज्वलन्त उदाहरण है। जिसने 1999 के तटीय तूफानों के बाद इतना कुछ बदला कि 2013 के तटीय तूफान से एक बड़े पैमाने पर लोगों को सुरक्षित बाहर निकाल लिया।
 लेकिन इसके इतर इस वर्ष भी प्रंबधन अन्य चुनौतियों से निपटने में खुद को अक्षम पा रहा है। ऐसे में प्रंबधन को इस समस्या के निदान की रणनीति में क्रांतिक परिवर्तन करने की आवश्यकता है। पहले चरण की आवश्यकता में सबसे पहले आपदा की प्रकृति के आधार पर अपनी रणनीति बनानी होगी। सभी रणनीति आपदा की पुरानी अवधारणा जिसमें आपदा एकाएक उभरने वाली समस्या मानी जाती हैं उससे बाहर निकलना होगा। क्योंकि जितने भी प्रयास उस ओऱ किए जाते हैं वे एकाएक उभरने वाली समस्या के निदान तक ही सीमित रह जाते है। इसीलिए हर साल आने वाली समस्या को वो नए सिरे से देख नहीं पाते और हर साल आने वाली आपदा से जूझने लाले लोग अगले साल फिर उऩ्ही समस्याओं के साथ खड़े होते हैं, जिन्हें उन्होने पिछली साल झेला था। इसलिए प्रंबधन को आपदा की परिभाषा पर ध्यान देते हुए यह सुनिश्चित करने की महत्वपूर्ण आवश्यकता है, कि वह आपदा की प्रकृति के अनुसार कुछ कारगर रणनीतियों को बनाए, ताकि प्रंबधन स्थायी हो सके।
साथ ही साथ राज्य स्तर पर हो रही तैयारियों को लेकर राष्ट्रीय जवाबदेही सुनिश्चित की जाए, क्योंकि भला ही आपदा प्रंबधन राज्य का विषय हो, परन्तु उपजी समस्या राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुचाती है, ऐसे में राज्य स्तर की जवाबदेही एक बड़े पैमाने पर तय करने की जरूरत है। कुछ राज्यों से सीखा भी जा सकता है, उडीसा उनमें से एक है। ऐसे में जब प्राकृतिक आपदाएं इस देश का सच हैंऔर समय समय पर वह देश को झकझोरती हैं और बतलाती हैं कि इस देश में मानव और प्रकृति के बीच के अन्तर्संबंधो में कमी आई हैं। तो ऐसे में आपदा और उनसे जुडी समस्याओं से निपटने के लिए नए सिरे से विचारने की जरूरत है।
शिशिर कुमार यादव
इस लेख को डेली न्यूज एक्टविस्ट ने अपने अखबार में 25 अगस्त 2014 को जगह दी है।



                        

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

विरोध की दिशा बदलिए,

उत्तर प्रदेश के मोहनलालगंज में एक और महिला की लाश महान सांस्कृतिक विरासत पर औधे मुह पड़ी है। लाश अपने साथ हुई बर्बरता का अमिट गान बहते हुए खून के साथ सुना रही थी। जिसमें सामाजिकता समेत संस्कृति के पैमाने स्वत: छोटे होते जा रहे थे। उसके निर्वस्त्र शरीर ने भी अपने आराध्य से किसी ना किसी रूप में आ कर खुद को बचाने की गुहार की होगी, लेकिन शायद इंसानी बर्बरता को देखकर ईश्वर की हिम्मत भी ना हुई कि वो उसकी मदद करने आगे आ सकेँ। इसीलिए एक लाश सभ्य समाज के प्राथमिक मंदिर, प्राथमिक विद्मालय के प्रांगण में पड़ी हुई थी। लाश खुद ही गवाही दे रही थी अपने प्रति अपराध का, लेकिन हम अभी भी खोज रहे थे अपराधी को, ताकि उसके लिए फाँसी या उससे अधिक कुछ जो हो सकता था मांग कर अपने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर इस विषय से अपनी अपनी नैतिकता का पल्ला झाड़ लें।


यह पहली बार नहीं हुआ था, जब कुछ इसी तरह की स्थितियों का हम सामना कर रहे हैं। इससे ना जाने पहले कितनी बार कुछ इसी तरह के हादसों का जो समाज स्त्री के प्रति करता हैं, हम उन अपराधों के गवाह बने हैं। लेकिन हम सहज हैं। थोडी देर के लिए असहज हो सकते हैं लेकिन फिर सहज हो जाते हैं।  इसका एक प्रमाण हर हादसे के बाद उपजे सवाल हैं, जो उस महिला की पवित्रता से लेकर उसके घटना स्थल तक पहुचने तक के जवाबों में पवित्रता खोजना चाहते हैँ, ताकि कुछ तो मिल सके चर्चा के विश्लेषण के लिए जिसे उदाहरण या तथ्य बना कर लोगों के लिए सबब बना सकें। इन उदाहरणों का उपयोग करके हम महिलाओं को सार्वजिनक स्थानों पर तयशुदा समय के बाद स्थान छोड़ने का अघोषित नियम बनाना चाहते हैं।
निसंदेह यह सामान्य अपराध नहीं है, फिर भी हम इनके प्रति काफी सहज हैं, आखिर हम इन अपराधों को इतनी सहजता से कैसे ले सकते हैं? इतनी सहजता की मानवीय मूल्यों की अर्थी भी सहज रूप से निकाले जा रहे है कि हमें खुद भी पता नहीं चल रहा हैं कि हम किस ओर खडें हैं। अपराध के बाद कुछ पुलिस कर्मियों को इसलिए संस्पेंड कर दिया क्यूँ कि उन्होने निर्वस्त्र पड़ी लाश पर कपड़ा तब तक नहीं डाला जब तक उसका उन्होंने प्राथमिक निरीक्षण नहीं कर लिया, और घटनास्थल पर कागजी कार्यवाही के लिए फोटोग्राफ्स नहीं उतार लिए। निसंदेह यह एक संवेदनहीन रवैया था, जिसके लिए उन्हें तुंरत बर्खास्त कर दिया गया। लेकिन इन सब के बीच एक सवाल जो अनदेखा किया जा रहा हैं कि क्या सबसे पहले पुलिस घटनास्थल पर पहुची थी? नहीं ना! वहां काफी भीड़ थी, आखिर उनमें से किसी की संवेदनशीलता क्यूँ जगी, आखिर वहां खडें लोगों में से किसी ने कपड़े का एक टुकड़ा उस शरीर पर क्यूँ नहीं डाला। आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी थी, कि उस भीड़ में से किसी एक के हाथ भी उस निर्वस्त्र शरीर पर कपडा नहीं डाल सका। पुलिस वालों को कम से कम अपनी संवेदनहीनता का दंड कुछ हद तक मिल गया लेकिन आप का क्या किया जाए? आप को क्या कहा जाए? अगर हम इसे अपराध और अपराधी के प्रति सहजता नहीं कहेगें तो क्या कहेगें।
निर्वस्त्र और मृत शरीर आपके कपड़े का मोहताज नहीं था, और ना ही वह उसकी मांग कर रहा था। लेकिन कम से कम अपनी संस्कृति की निर्वस्त्र लाश पर तो दो गज कपड़ा डाल ही सकते थे। लेकिन नहीं हम नहीं कर पाए, क्यूँकि बहुत कुछ हो जाता। जो कपड़ा मिलता वो पुलिस साक्ष्य के रूप में रखती, सवाल करती और परेशान करती इसलिए हम आप ने बड़ी ईमानदारी से अपने हाथों को बाधें रखा और इंतजार किया पुलिस के आने का, आखिर समाज के सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस की है आपकी थोडे ही ना। तो पुलिस आई, अब पुलिस मंगल से तो आई नहीं थी, वो भी हम और आप के बीच से ही आई थी, इसलिए उसने भी वही किया जो हम और आप थोडी देर पहले तक कर रहे थे यानी निरीक्षण। उसे भी कपड़ा डालने की आवश्यकता तब तक नहीं हुई जब तक वह घटना के लिए प्रारंभिक साक्ष्य नहीं जुटा लिए।
निर्वस्त्र शरीर पर कपड़े ढकने की बात को पर जोर देकर यहां सांस्कृतिक या नैतिकता की बहस नहीं कराना चाहता। लेकिन इस बहस में एक ही सवाल रखना चाहते हैं कि क्या सच में हम सच में सामजिक प्राणी होने का दावा कर सकते हैं? इस घटनाओं के बाद नेताओं के बयान के बाद उनकी आलोचना का रस तो हम लेते रहते हैं लेकिन अपनी आलोचना कब करेगें। इन अपराधों के प्रति जिस तरह की सहजता (थोडी असहजता के साथ) हमें हैं, उसको लेकर हम कब असहज होगें। कब हम अपने खिलाफ खडे होगे, और सहज हो चली प्रवृत्ति को बदलेगें। सामाजिक अपराधों में हमारा सहज प्रवृत्ति का ही नतीजा हैं कि आँकडों के पैमाने भी काफी ऊचें हैं, वरना आकडों को भी इन अपराधों को दर्ज करने में काफी परेशानी होगी।
मोहनलालगंज दिल्ली नहीं है, जहाँ अश्लीलता और खुलेपन का आरोप लगा कर छोटे शहर अपनी संस्कृति को इंडिया से इतर कर भारत में होने का दावा कर लेते है। मोहनलालगंज उसी भारत का हिस्सा हैं जहाँ संस्कृति के पैरोकार औऱ पैमाने दोनो ही हर दिन बदलती संस्कति को नापते रहते है। ऐसे में इस तरह के हादसे केवल हमारी और आपकी महिला के प्रति अपराधों की सहजता नहीं हैं तो क्या है। बस इसी पर चोट करने की जरूरत पर बल देना चाहता हूँ कि कुछ तो बदल जाए इन सबके बाद भी। ताकि आने वाली पीढी ऐसे सवालों पर सहज तो ना बनी रहे। होसके तो विरोध करिए, लेकिन इस बार सरकार का नहीं, किसी नेता के संवेदनहीन बयान का नही, किसी प्रशासन की अकर्मणयता का नहीं। हो सके तो उतरिए अपने खिलाफ, करिए खुद के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व, जिसमें सहज हो चली संस्कृति को असहज बना दिया जाए। कि इस तरह के हादसों को हम और आप सहजता से पचा ना ले जाए। यह दौर अपना विरोध करने का है, वरना ना जाने कितने प्रांगण ऐसी ऐसी बर्बर हादसों के गवाह बनते रहेगे। खुद की संस्कृति को बदलने के लिए करिए अगुवाई। नहीं कर सकते तो कृपया किसी नेता के आँकड़ो पर उगली मत उठाईएं।वो सही हैं। कि उनका प्रदेश महिलाओं के हिंसा के मामले में देश में 4 स्थान पर है। हो जाइए खुश और सहज कि आप पहले पर नहीं हैं। 

शिशिर कुमार यादव
इस लेख को डेली न्यूज एक्टविस्ट ने अपने अखबार में 2 अगस्त 2014 को जगह दी है।