मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

स्त्री आधिकारों में ही सभ्य समाज की आत्मा बसती है




पिछले कई दिनों से देश भर में, समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने रूप पर एक चर्चा और विमर्श का माहौल था। अफ़सोस, यह माहौल किसी आत्मचेतना के चलते नहीं बल्कि एक निर्मम बलात्कार और हत्या से उभरे जनाक्रोश के चलते बना था. इस घटना के लगभग चार महीने के बाद भी न समाज शर्मिन्दगी से उबार पाया है न उसी समाज के एक हिस्से के लोग दरिंदगी से और हमारा हासिल वह समाज है जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकती क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वह इस तरह सें जिएं ।16 दिसम्बर 2012 की घटना के बाद आज एक और वीभत्स बलात्कार की घटना ने हमारा ध्यान अपनी ओर खीचा हैं। हैरानी ये भी हैं कि बलात्कार से जुडे तमाम घटनाएं इस बीच हुई, पर हम फिर तब जागे, जब एक 5 साल की बच्ची इस दरिंदगी की शिकार हो गई। इस दरिंदगी की हद के बारे मे सोच लेने भर से रूह काँप उठती हैं, जिनमें तमाम वो दिवा स्वप्न बह जाते हैं जिसमें हम खुद को श्रेष्ठ सामाजिक प्राणी होने का दावा करते आ रहें हैं।


सामान्यतया महिलाओं से जुड़ी हिंसा के मामले में महिला को ही दोषी साबित करने की पुरजोर कोशिश की जाती हैं और समाज उसमें महती भूमिका निभाता हैं। इसीलिए घटना के बाद महिला के पहनावे, समय, उस स्थान विशेष पर होने की वजह और उसके चरित्र के सवाल प्रमुख हो जाते हैं। लेकिन इस मामले को किस नजर से देखा जाए। एक 5 साल की बच्ची के साथ हुए अपराध उन तमाम आरोपों और वजहों को खोखला साबित कर देते हैं, जिन्हे महिलाओं के प्रति अपराधों की बड़ी वजह माना जाता हैं। 2011 में भारतीय गृह मंत्रालय द्वारा की नेशनल क्राइम क बलात्कारों के पर जारी आंकड़ों की उठा कर देखा जाए तो, चित्र बड़ी आसानी से साफ हो जाता हैं कि किसी भी आयु वर्ग की लड़कियां और महिलाए कभी भी सुरक्षित नहीं थी.. यौन कुठाओं के आगे उम्र की भी सीमा नहीं आती हैं 2011 में जारी आकड़ों पर सरसरी नजर डालने से ही पता चल जाता हैं कि 2011 में कुल देश भर में 23939 मामलें दर्ज किए गयें, जिनमें कुल 24003 लोगो पीडि़त थे,(आकड़े इससे और भयानक होगें अगर हर केस के बाद पुलिस केस आसानी से दर्ज कर लें औऱ हर पीडिता अपना केस दर्ज करा लें) जिनमें 0- 10 साल के बीच 790 पीड़ित 10 से 14 साल के बीच 1568, 14 से 18 साल के बीच 4346, 18 से 30 साल के बीच 12986 ,30 से 50 साल के बीच 3573  और 50 से ऊपर की महिलाओं, 139 पीड़ित हुई। ऐसें में 0- से 18 और 50 से ऊपर की महिलाओं को एक साथ जोड़ दें तो कुल 6843 पीडित होगें. जो कुल पीडितो का लगभग 29 प्रतिशत होगा। जो ये दिखलाता हैं कि यौन कुंठा से भरा समाज कितनी घटिया सोच रखता हैं जिसके लिए उम्र के मायने कितने छोटे हैं।  मुझे पूरा भरोसा हैं कि इनमें घरों की बंद दीवारों में घटने वाली यौन हिंसा के मामले जोड दिए जाए और उऩकी भी रिपोर्टिग ठीक ढंग से हो जाए तो सामाजिक संस्कृति का लबादा ओढें हमारा समाज नंगा हो जाएगा।                                ।
इस मामले के बाद एक बार फिर वहीं पुराने सवाल सबसे महत्वपूर्ण हो जाते हैं, कि क्या हम इसी तरह आगे भी रहने वाले हैं, और बदलाव होगा तो कैसे होगां। क्या कठोर कानून इन सारे सवालों का जवाब होगा। जस्टिस जे एस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट के आने तक और उसके लागू हो जाने के बाद भी महिलाओं के प्रति ना तो अपराधों की प्रति बदली हैं औऱ ना उनकी संख्या में कोई कमी आई हैं। हर दिन के अखबार बलात्कार की घटनाओं से रंगे हुए हैं। इससे एक बात तो तय हो जाती हैं  हम हम ऐसे सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें में जी रहे हैं, जिसमे  आधी दुनिया की भागीदार स्त्री के मूलभूत अधिकारों को  हम सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से कुचलता जाता रहा है.  हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जिसमे महिलाओं के प्रति इस बर्बरता को जिंदा रखनें के लिए चरणबद्ध तरीको से जाल बुने जाते हैं और उनके खिलाफ होने वाले अपराधों की फेहरिश्त उनके परिवारों से ही शुरू होती है. भ्रूण हत्या, परिवार के अन्दर यौन हिंसा, दहेज़, दहेज़ हत्या, ध्यान से देखें तो यह सब स्त्रियों के विरुद्ध उनके द्वारा किये जाने वाले अपराध हैं जो अन्यथा उनके बचाव के लिए जिम्मेदार हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि हम जिस देश में रह रहें हैं उसमें इन अपराधों को सामाजिक और राजनैतिक मान्यता की अदृश्य शक्ति मिली हुई हैं. हम और आप इन्हे पहचानते और जानते भी हैं औऱ कई बार इनके हिस्से भी होते हैं पर बदलते नहीं हैं. हमें इनसे दिक्कत सिर्फ तब होती है जब यह हमारे अपनों के साथ हों. हाँ, ऐसे अपराधों के बाद आने वाली प्रतिक्रियायों पर नजर डालने से इन अपराधों को मौन स्वीकृति दिलाने वाले चेहरे भी साफ़ नजर आने लगते हैं. दिल्ली के इस मामले के बाद समाज और सार्वजनिक मंचो से बयान उसकी बानगी हैं। और इसी लिए यह पूछना जरूरी बनता है कि ऑनरकिलिंग को भावनात्मक और सामाजिकता से जुड़ा मुद्दा माननें वाले औऱ चुपचाप भ्रूण हत्या को बढावा देने वाले समाज से, इस हत्या पर ईमानदारी भरी प्रतिक्रिया औऱ बदलाव की उम्मीद करना कहां तक समझदारी भरा कदम होगा।
निसंदेह ही कानून इन तरह के अपराधों के लिए पूर्ण इलाज नही हैं, इन इलाज का एक उपकरण हैं। ऐसे में इन अपराधों से लड़ने के लिए एक बड़ी इच्छा शक्ति और सामाजिक सोच की बदलाव की जरूरत हैं, जिससे हम महिलाओं के अधिकारों को पितृसत्ता के ढाँचों में फसी नैतिकता की बेड़ियों से निकलकर आजादी की साँस ले सकें। निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं. भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी  महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वह व्यवस्था जिसमें उनके प्रति किए गए अपरा
ध जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रहे है. इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं.। उनका विरोध करें और विरोध के लिए खुद के घर को ही प्राथमिक प्रयोगशाला बनाएं, अगर घर बदला तो देश के लिए युगान्तर कारी परिवर्तन महसूस होगें।
(य़ह लेख राष्ट्रीय सहारा में 23 अप्रैल 2013 को प्रकाशित हुआ हैं)

शिशिर कुमार यादव