गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

उसका नाम कुसुम है


उसका नाम कुसुम है। जीवन नें उसके साथ मजाक किया उसे कभी पैरों पर खड़ा ही नहीं होने दिया। कारण वहीं पुराना घिसा पिटा, पहला उसका लड़की होना, दूसरा 10-11 बच्चों में जिनमें से 8-9 होना, जागरूकता की कमीं, और चौथा गरीबी का स्वर्ण मुकुट होना। इस मुकुट के आगे बाकी कारण तो बेईमानी हो ही जाते है, पर आगे लिखने से पहले कहना चाहुँगां कि गरीबी प्रमुख कारणों में से एक जरूर थी, पर पहली नहीं। कारण जो भी रहा हो पर उसके नाम को उसकी मार्कशीट ने जाना बाकी सबने लंगड़ी के रूप में पहचाना, और नाम दिया लगंड़ी बिट्टीबिट्टी अवध प्रदेश में बिटियाँ को कहा जाता है। लगड़ी बिट्टी चली पर ड़डे के सहारे।
  खैर जीवन से सघर्ष उसकी नियति थी। उसके साथ उसने समय बिताया, इस उम्मीद के साथ कि भविष्य शायद उसे कुछ सपने देखने की ताकत और इजाजत दे दें। वक्त बीतता गया और उसका नाम अभी भी लगंड़ी बिट्टी था। पर उसे भरोसा था कि शायद कुछ अच्छा हो जाएं। उम्र के पड़ाव बीतते गएं, इस दौड़ में कुछ भी न बदला ना ही उसका नाम और न ही उसकी नियति। उम्र के पड़ाव के साथ उसे उस घर को छोड़ना ही था क्योंकि वो एक लड़की थी। अच्छी गरीब लड़की की तो शादी नहीं होती ये तो गरीब लंगड़ी बिट्टी थी। उसकी शादी इतनी आसानी से कैसे हो जाती। मां-बाप ने सभी जगह घोड़े दौड़ाएं और शादी तय की, लड़का देखने दिखाने में सुंदर और सब तरह से सही। सबको शक हुआ कि अरे जिस लगंड़ी बिट्टी को महक तक नसीब न थी उसके हिस्सें में गुलशन की महक कहाँ से आ गई। शक सहीं था गुलशन की महक नहीं खाली पड़े वीरान ऊसर उसके हिस्से में आ गया। जिससें उसकी शादी की गई, उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं रहती। अब लगड़ी बिट्टी का नाम और पहचान बदल चुकी है, उसमें उसकी सामाजिक पहचान जुड़ चुकी है, और वो है, एक पागल की पत्नी जो लंगड़ी है।


कुसुम की बिटियाँ जो 4 ड़िग्री के तापमान पर इन कपड़ों में थी
 एक स्त्री होने के नाते उसको और भी भूमिका का निर्वाहन करना था... जीवन ने उसके नाम में एक और नाम जोड़ा, माँ.... 2 लड़कों की माँ और एक बेटी की, सभी सहीं है ना वो पागल है और ना ही वो लगड़े। पर कुसुम उर्फ लगड़ी बिट्टी परेशान है कि जिस ठंड़ में सबके तन पर कपड़ों के लबादे है उसके बच्चे हाफ फ्राक और हाफ पैंट पर है। लड़के के पास फुल स्वेटर और सर पर टोपी है लड़की के हिस्से में हाफ फ्राक के साथ हाफ स्वेटर । खैर कुसुम आज भी वक्त के पैमानों से दूर खड़ी है क्योंकि न तो उसे वक्त समझ में आ रहा है और न ही उसके पैमाने।

सोमवार, 29 अगस्त 2011

कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं!


           

आज आकाशवाणी के लिए JNU  से निकलना चाहाँ तो ऑटो नहीं मिला.... काफी देर का इन्तजार, बार बार गोदावरी बस स्टैंण्ड के नाम पढनें के अलावा कोई विकल्प भी नहीं दे रहा था ...खैंर इन्तजार को भी चैंन कहाँ जल्द ही खत्म हुआ ऑटो तय हुआ ..मीटर के डिजीटल अंको ने तय करती दूरी का खाका खीचना शुरू कर दिया.... बरसात की गर्मी और वो ऑटों ... दिल्ली को ऑटो के पर्दे से देखना चाहा तो दिल्ली मुझें ठहरे शहर में भागते हुए लोगों कि अन्धी दौड़ का शहर नजर आया (ये मेरा भ्रम भी हो सकता है क्यों कि फिल्मों मे दिल्ली का अपना बखान है).आपकी राय भी दिल्ली के बारे में मुझसे इतर हो सकती है.


ऑटों से बाहर की दिल्ली 



बस यूँ ही सफर चलता रहा तभी ऑटो वाले ने मुझ से 5 मिनट का समय माँगा ताकि वो अपनी गाड़ी के लिए ईधन ले सके..मेरे पास भी उसकी इस माँग को स्वीकार न करने की कोई वजह नजर नहीं आई..क्योंकि अगर न मानता तो शायद ऑटो बढता ही नहीं ..खैर ऑटो की लम्बी लाईन और उसी लाइन में हमारा भी ऑटो.. खाली वक्त और जिंदगी से रोज मिलते रहने वाले सख्स से बात करने की उत्कंठा ने मुझे एक सवाल दागने पर मजबूर किया दिल्ली के ही हो आप या बाहर के ? “.. आटों वाले ने मेरी ओर देखा और बड़ी अजीब से मुस्कुराते हुए जवाब दिया ...है तो बाहर के पर 20 साल से यहीं है मन में ही उसकी हँसी का राज जानना चाहा तो जवाब मिला शायद मुझ जैसा हर आदमी अपना समय काटने के लिए यह सवाल पूछता होगा ....खैर इस सोच से बाहर निकलते है ही दूसरा सवाल दागा कहाँ से हो ?जवाब आया कानपुर ”… कानों को अच्छा लगा सुनकर ... मैनें भी धड़ाध़ड़ कानपुर और उससे जुड़े जिले उन्नाव के कुछ परिचित नाम बताए तो उसे अच्छा लगा और उसे मेरी बातो में अपनापन सा महसूस हुआ..तब ऑटो वाले ने मुझसे पूछा कि आप कौन सी पढाई करते हो ..तो मेरा जवाब उसके शब्द कोष से ऊपर निकल गया ..जवाब मिला भइया हम पढे नहीं है इस लिए समझ नहीं सकते कि आप क्या करते हो पर इतना बड़े स्कूल में हैं तो अच्छा ही करते होगें.. उसके जवाब में अपनी तारीफ सुन कर गुरूर यूं ही चढ गया ... अगला सवाल ऑटो वाले का था  भइया 12वी के बाद बच्चे को क्या पढाएँ ..हम भी उसे अपना मान कर सभी विकल्पों पर एक छोटा सा व्याख्यान दे बैढें ... उसने लम्बी सांस ली और बोला कि  लड़का तेज बहुत है पर अच्छे स्कूल में पढीं नहीं पाता ....पैसा भी हैय पर हम पढे़ ही नहीं है इस लिए एडमिशनवई नहीं लेते है .... अभी 8 वी में है पर... इस पर के बाद वो चुप और  उसकी इस चुप्पी पर  मेरी भी ताकत न थी कि मैं कोई और सवाल कर सकूँ... पर उसकी इस चुप्पी ने मेरे मुँह पर वह सवालों का वो गठ्ठर छोड़ गया जिसके जवाब मैं शायद खोज भी ना सकूँ ... तेज रफ्तार में आटो रायसीना मार्ग को पार करते हुए आकाशवाणी पर मुझे छोड़ आटो वाला फिर जिंदगी से लड़ने निकल पड़ा... मैं कुछ कह भी न सका... फिर एक भइया कि लाइन याद आ गई कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं! “… यहीं सोच मैं आकाशवाणी की ओर बढ चला ....

       
                                 आकाशवाणी से संसद