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बुधवार, 14 अगस्त 2013

गीला मोजा और मेरा स्वत्रंता दिवस ....और मेरा दुख..

14 अगस्त की वो सुबह याद हैं... जब स्कूल में सामान्य रूप से स्कूल ड्रेस ना पहनने की छूट होती थी, ताकि 15 अगस्त के लिए साफ सुथरे और प्रेस कपड़ों के साथ आ जाए। 14 अगस्त को पूरा स्कूल सतरंगी रंगों से सज जाता था। ये वो दिन होता था जब हम सब अपने सबसे अच्छें कपड़े पहन कर स्कूल जाया करते थे। ये वो दिन भी होता था जब हम अपने घरों की समृद्धि का प्रदर्शन किया करते थे। वैसें बच्चों की ये समृद्धि हमारी कापी किताबों में चढें कवर और उस पर चिपके चिटों से लेकर टिफिन बॉक्स की ऊचाई और उसमें रखें हुए खाने से हर दिन परिलक्षित होती थी पर 14 अगस्त की वो सुबह कुछ अपने आप में खास होती थी। इस दिन का जो अंतर और झेप बालमन महसूस करता था वो शायद आज भी लेखनी शायद ही उकेर पाएं।  

 इन सब के बीच कुछ बच्चें उस सतरंगी भीड से अलग इस दिन भी स्कूल ड्रेस में आते थे। उनमें से मैं भी एक था। मेरे ड्रेस में जाने की वजह बड़ी सामान्य हुआ करती थी। उन वजहों में से प्रमुख वजह ये थी कि एक तो उस वक्त कपड़े उतने ही होते थे जितने हमारी जरूरते पूरी हो जाए। जो 2 जोड़ी नया कपड़ा भी होता था, जो सिर्फ विशेष आयोजनों जैसें शादी व्याह और जन्मदिन की पार्टियों के अवसर पर पहनाया जाता था। ताकि माते (माता जी) की व्यवस्था में कोई कमी ना रह जाए। हमारी माते उन कपड़ो को सबसे सुरक्षित जगहों पर अपने अधिकार क्षेत्र में रखती थी, और आश्वासन देती थी कि कत्उ आयअ जाइ बरें रखा बा कतउ जाय तो इ पहिन के जायअ (यानी ये कपडें कही बाहर आने जाने के लिए हैं.. कही बाहर जाना तो इन्हें पर पहनना ), और 14 अगस्त की वो सुबह माते के हिसाब से इन अवसरों में से तो ना ही था।  
   तो पुराने और घर में पहनने वाले कपड़ों को पहन कर हम उस प्रतियोगिता में खुद को सबसे पीछे कैसे रखते तो इन सब से बचने के लिए अपनी स्कूल ड्रेस को ही पहन कर 14 अगस्त को पहुचते थे। उस दिन उन सतरंगी कपड़ों में खुद के लिए वो सफेद शर्ट और नीली पैंट को पहन कर हम खुद को अपेक्षित ही और अपने पिता जी को दुनिया में सबसे गरीब ही मानते थे। हॉलाकि हमारे पिता जी कि आर्थिक स्थिति इतनी भी खराब नहीं थी (ये बात अब समझ में आती हैं पर हमारी नजरो में उस वक्त तो वो सबसे गरीब थे) पर, गरीबी से निम्न मध्यम स्तरीय परिवार की ओर बढ रहे परिवार की सबसे बड़ी पूजी बचत के चलते इस तरह के स्वनियंत्रण वाले फैसले हम सब पर स्वत: ही लगे हुए थे, और चीजे आवश्यकता से अधिक नही हुआ करती थी।
इस दिन स्कूल में पहुचने पर जब मित्रों द्वारा हमसे पूछा जाता था कि अरें आज भी स्कूल ड्रेस में आए हो ? तो हम इसका जवाब स्व-आयातित झूठ हुआ करता था, कि हमारे पास 2 ड्रेस हैं और हमारा चपरासी हमारी दूसरी ड्रेस धोकर प्रेस करवा कर रखेगा। ये सच था कि हमारे घर में चपरासी हुआ करते थें। पिता जी सरकारी सेवा के उस पद पर थे जहाँ चपरासी घर में काम करने के लिए मिलते थे, और ये बात हमारें स्कूलों में सर्वविदित हुआ करती थी। तो इस तथ्य के नीचें हम अपना ये झूठ आसानी से छुपा ले जाते थे, और लोग हम पर शक भी नहीं करते थे। पर स्थिति इसके उलट हुआ करती थी कि हम जो पहन कर आए थे उसे ही लौटने के बाद अपने चपरासियों से धुलवा कर रात में सुखा कर दिन में 4 बजे उठ कर प्रेस कर के (क्यों कि 4 बजे सुबह बिजली आती थी 8 बजे चली जाती थी छोटे कस्बों में) खुद का भाषण या गीत रटने लगते, और खुद को एक खतरनाक वक्ता बनाने में लगे रहते थे।

कपडे तो सूख जाते थे पर बरसात की वजह से मोजा साला धोखा दे जाता था और वो गीला रहता था। ऊनी होने के नाते हम उस पर प्रेस का भी वार नहीं कर सकते थे। ऐसें में ड्रेस कोड़ के चक्कर में हम गीले मोजे को ही जूते में डालकर 2 लड्डुओं और भाषण देने के जोश और डर के साथ स्कूल पहुच जाते थे।   
   
इन सब सीमाओं की वजहों से मैं इस आजादी के इस दिन से बहुत चिढता था। क्योंकि ये दिन मुझें सबसे अलग कर के उनकी भीड़ में खड़ा कर देता था जो कमजोर या गरीब होते थे। हाँलाकि उस वक्त उनसे ना कोई सहानभूति होती थी और ना ही मैं उनके बारे में संवेदनशील था, क्योंकि मैं अपने गीले मोजे से ही बाहर नहीं निकल पाता था। और उनके बारे में  तो सोच ही नही पाता था जो स्कूल जा ही नही पाते या स्कूल भेजने भर की क्षमता जिनके परिवारों के पास ना थी।
आज बहुत कुछ बदल चुका हैं और हमारी स्थितियां भी। पर आज भी मुझें उम्मीद हैं, कोई ना कोई गीले मोजे के साथ अपने को सहज बनाते हुए स्कूल में भाषण पढने जाने वाला होगा। 66 साल की आजादी के बाद तमाम लोग इन मूलभूत अधिकारों से ना केवल वंचित हैं बल्कि लगभग वो इस दौड़ से गायब ही हैं। उन सब के बारे में सोच कर जब आज 14 अगस्त को यह लिख रहा हूँ तो अपने पिताजी को धन्यावाद देता हूँ कि उन्होनें अपनी पहाड़ सरीखी जिम्मेदारियों में हमे उस दौड़ में कभी पिछड़ने नहीं दिया, जहाँ पिछड़ने का मतलब सबकुछ हार जाना होता। उस वक्त गीले मोजे के साथ स्वत्रंता दिवस मनाता था आज गीली आँखों उन सब के लिए मनाता हूँ जो इस दौड़ में अपने सपनो के साथ बुहुत कुछ खो देने वाले हैं.. 

इस असमानता भरें स्वत्रंतता दिवस की 67 वी वर्षगाठ आप को मुबारक हो ...मुझें तो है ही


शिशिर कुमार यादव ...