शनिवार, 23 मार्च 2013

सोलह की उम्र की सहमति के मायने


देश की संसद महिलाओं के साथ बलात्कार पर सशक्त कानून की जरूरत को लेकर एंटी रेप बिल पर बहस करने वाली है। संसद मे जाने से पहले ही इस बिल पर कैबिनेट मंत्रियों की बैठक में इसे अंतिम रूप दे दिया गया हैं। इस बैठक में एक निर्णय के तहत किशोरों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबधों की उम्र को 16 वर्ष निर्धारित करने का प्रस्ताव किया गया हैं यानी अगर कोई 16 साल की लड़की अपनी सहमति के साथ किसी किशोर के साथ यौन संबध बनाती हैं तो उसे बलात्कार नहीं माना जाएगां। इस सहमति के बाद देश भर एक बड़ी बहस यौन संबधों की उम्र को लेकर एक जोरदार बहस छिडी हुई हैं। कि क्या 16 वर्ष के बच्चों को यौन संबध बनाने का यह कानूनी प्रस्ताव भारतीय परिदृश्य में सहीं होगा। पक्ष और विपक्ष दोनो अपनी अपनी बातो से इस प्रस्ताव की आलोचना और समर्थन कर रहे हैं।
पक्ष में दिया गया सबसे बड़ा तर्क यह हैं कि किशोरों का एक दूसरे के प्रति आकर्षण स्वाभाविक और प्राक़तिक हैं, ऐसें में सहमति के साथ बने किसी संबध में लड़के को बलात्कार जैसें गम्भीर आरोप में जेल भेजना न्याय संगत और उसके भविष्य के लिए हितकर नहीं होगा। विरोध में दिया जानें वाला तर्क सहमति को तय करने का मापक और उसके पीछे छुपे अवाछनीय तत्वों से सहमति के भाव का आकलन कैसे किया जा सकता हैं? इस विचार के विरोधी इस नियम को बाल अपराधों और ट्रैफिंकिंग इन्डस्ट्री के वरदान सरीखा आँक रहें हैं। जिसका नुकसान बाल और बचपन बचाओं आंदोलनों को उठाना पडेगा।
दोनो ही तर्को को सिरे से खारिज करना ना ही आसान हैं और ना ही सही भी। पहले तर्क की बात करें तो हाल में गाजियाबाद कोर्ट के मामले को ध्यान में रख कर बात की जाए लड़की के बयान के बाद भी कोर्ट लड़के को अपराधी घोषित करती हैं, क्योंकि न्यायाधीश कानून के तहत उसे निर्दोष नहीं मान सकते थें। हाल में हुए कुछ और निर्णयों में कोर्ट को नियमों के अभाव में सहमति के होते हुए भी किशोर युवक को अपराधी मानने पर मजबूर होना पड़ा। ऐसे में सहमति के साथ बने संबधों में इतनी बडी सजा की नैतिकता पर सवाल उठाया जा रहा हैं। कि आकर्षण प्राकृतिक हैं और ये सहमति का विषय हैं तो ऐसें में इसे अपराध मानना कहाँ तक उचित होगा। ( ध्यान रहें असहमति के साथ किया गया प्रयास बलात्कार की श्रेणीं में ही आएगा)
दूसरी तरफ के तर्क के अनुसार, बहुत सारी लड़कियां भय, लालच और मजबूरी के कारण हर साल बड़ी मात्रा में यौन शोषण का शिकार होती हैं। इनकी संख्या आकड़ो से बहुत अधिक हैं, बहुत सारे मामले खुलकर सामने आते ही नहीं हैं। नेशनल क्राइम रिपोर्ट के आकड़े और चौकाने वाले हैं, इन आकड़ो के हिसाब से 2011 में किशोरो पर दर्ज 30,766  में से 20000 केस जिन्हें भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड) के तहत दर्ज किये गए किशोरो की उम्र 16 से 20 वर्ष की थी। बाकी बचे केस में उम् 7 से 12 ते बीच थी। इसमें भी चौकाने वाली खबर ये थी कि 1231 रेप केस दर्ज हुए थें। बढते अपराधों में 2012 के आकड़े इससे और भी भयावह होगें इसका अनुमान लगाना आसान ही हैं। ऐसें में 16 साल की उम्र में सहमति से बने यौन संबधो को कानूनी तौर पर मान्यता देने के बाद यौन अपराधों में इजाफा होना स्वाभाविक हैं जिसे सहमति का जामा पहना कर न्यायोचित ठहराया जायेगा। सहमति साबित करवाने के लिए अपराधी या उसके परिवार का किसी भी हद तक जाने की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता हैं। ऐसे में इस तरह का प्रस्ताव एक गंभीर समस्या पैदा कर देगा, जिसकी वजह से दैनिक मजदूरी कर के और घरो में काम करने वाली किशोरियों को बहला फुसला कर उनका शोषण करने की प्रवृत्ति को बढावा मिलेगा। आज भी ऐसे शोषण हर कार्य क्षेत्र में बड़ी मात्रा में होते हैं, उनमें से अधिकतर मामले सामने आते ही नहीं हैं और जो आते हैं उनका इस नियम के आने के बाद इन बचे कुचे अपराधों को सहमति का जामा पहना कर इनसे आसाना से बचा जा सकता हैं।
ये आकड़े उतने ही अपराधों के हैं जिन्हें दर्ज किया गया हैं जबकि वास्तविकता के आकड़े और भयानक हैं। हर दिन किसी ना किसी रूप में किसी 18 साल की कम लडकी जो घरों से लेकर सड़क तक बहला फुसला कर या डर और लालच के चलते यौन शोषण का शिकार होती हैं। ऐसी स्थितियों में सहमति का विषय कितना सहीं प्रासंगिक रह जाता हैं यह एक बडा सवाल हैं। ट्रैफिकिंग रेहैबिलिटेशन विषय पर शोध कर रही आईआईटी खड़कपुर की छात्रा सोनल पाण्डेय का कहना हैं कि अधिकतर ट्रैफिक्ट हो चुकी लड़कियाँ स्टॉकहोम सिन्ड्रोम से पीडित हो जाती हैं, जिसमें वो अपने ही खिलाफ काम करती हैं, जिसके तहत वे उस दलाल को ही बेहतर मानने लगती हैं जो उन्हें इन जगहों पर ला कर बेच देते हैं या फिर उनका शोषण करवाते हैं, और ये दलाल भी इनका यौन शोषण करते हैं। ऐसें में छुड़ाई गई लड़कियाँ घर नहीं जाना चाहती, क्योंकि समाज में लौटने पर इन्हें मानिसक प्रताडना के साथ साथ इस तरह से यौन शोषित होने की संभावन और बढ जाती है। इसी लिए अधिकतर मामलों में एक बार घर से भगाई गई लड़की इन दलालों के लिए सबसे आसान शिकार होती हैं। इस प्रकार जब ये सब पहले से ही इन्हें इतनी प्रताडित होती हैं, तो कि जब पुलिस उन्हे बचाती है तो वो किसी के साथ जाने के बजाय अपने दलालो का ही साथ देती हैं। ऐसे में इस कानून के आने के बाद इस तरह की समस्याओं से निपटने की रूपरेखा क्या होगी यह एक बडा सवाल होगा।
तो क्या ऐसे में कम उम्र में लड़कियों के साथ हो रहे अपराधो का बाजार (वेश्यावृत्ति, अवैध मजदूरी), इस कानून के आने के बाद इसे अपने हित में नहीं भुनाएगां। ऐसें में सहमति पर विषय कितना छोटा हो जाता हैं । सहमति को साबित करने वाले बल किसी से छुपे नहीं है। सहमति और असहमति की लक्ष्मण रेखा क्या होगी और यह लक्ष्मण रेखा तय कैसे होगी ये बडे सवाल हैं। भारत जैसे देश में जहाँ नैतिकता और संस्कृति के मापक महिलाओं की हत्या से नहीं चूकता हैं ऐसे में इस तरह का कानून धर्म और संस्कृति के ठेकेदारों के लिए अपने असंवैधानिक और अलोकतात्रिक नियमों को वैध करने का ठोस आधार देता दिखाई पडेगा। जिससे वो महिला के अधिकारों को और बुरी तरह से नियत्रित करने की कोशिश करेगें। हम इनसे पूरी तरह निपट पाने में कितना सक्षम हैं इस सीमा से भी हम परिचित हैं। भारत जैसे देश में जहाँ महिलाओं को लेकर अपराध और शोषण का एक लम्बा इतिहास हैं वहाँ इस तरह के प्रयोग करते समय एक गहन चिन्तन की जरूरत हैं। स्पष्ट है कि इस हवन में हाथ बहुत सम्हालने की जरूरत हैं वरना हाथ जलना तय है।  महिला अधिकारो को लेकर एक लम्बे सघर्ष के बाद, हमने जो मुकाम हासिल किया हैं, उसे कच्ची उम्र मे सेक्स की छूट का फर्जी प्रचार कर के छीना भी जा सकता हैं। इसलिए विषय की गंभीरता और प्रकृति इस विषय पर गहन अध्ययन की ओर बल दे रहे हैं, जल्दबाजी में उठाया गया कदम महिला अधिकारो के लिए आत्मघाती भी हो सकता हैं।
शिशिर कुमार यादव