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बुधवार, 11 जून 2014

आज हमने दिल को समझाया..कि हमने क्या खोया और क्या पाया

1982 में बनी फिल्म "साथ साथ" की कहानी के सभी चरित्र, घटनाएं, आज तमाम कैंपसों में अपने सपने की जीने की कोशिश कर रहे अविनाशो की कहानी है। जो खुद को जीना चाहते हैं। अपने सपनो को, अपनी उम्मीदों को, अपने लिए, अपनी ईमानदारी को रंग देना चाहते हैँ। इसके लिए वो ईमानदार भरी कोशिश भी कर रहे हैं। इस जद्दोजहद में वे अपने आस पास को ईमानदार बनाने के लिए लड़ने के लिए तैयार हैं, और लड़े भी जा रहे हैँ। बहुत से ऐसे भी लोग हैं जो फिल्म के अन्य किरदारों की तरह उसी धारा में बहने के लिए भी तैयार हैं, जिस ओर धारा उन्हें ले जाना चाहती है। इन सब के बीच तमाम हालात हैं जिन्हें फिल्म के किरदार अपने अपने नजरिए से देखना चाहते हैं और बदलना चाहते हैं, हर बार की तरह इन हालातों को बदलने से  कुछ ना कुछ  रोकता हैं और कुछ के लिए बदलाव जैसा सवाल ही नही पनपता। मैं नहीं जानता वो हालात क्या हैं, हर एक के निजी अनुभव अलग अलग हो सकते हैं मेरे भी अपने हैं, आपके के मेरे इतर हो सकते हैं पर ये हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता ।
                        32 साल बाद भी (फिल्म के), आज के हालातों में ऐसा कुछ नहीं बदला, जो उस फिल्म में कहानी का हिस्सा न रहा हो, उसे आप आसानी से जी सकते हैं। जबकि हालात और भी पुराने ही होगें। बाजार तब भी मुनाफे के लिए थे, अखबार तब भी बेईमान थे, और सपने, हां सपने तब भी अपनी दिशाएं बदलते थे। आज भी हालात वैसे ही हैं। सपने हैं, अखबार हैं, बाजार है और तमाम अविनाश भी। गीता (दीप्ति नवल) सरीखे किरदार भी जो अविनाश ( फारूख शेख ) से प्रभावित भी होती हैं और उन्हें जीना भी चाहती हैं, वे उस अविनाश  के साथ ना केवल चलने को तैयार हैं बल्कि उन जगहों पर टोक भी रही हैं, जहाँ से हालातों को आसानी से मजबूरी का आभूषण पहनाया जा सकता है। लेकिन फिर भी बहुत कुछ हैं जो हर बार की तरह यथास्थितिवादी हो जाता है। जिसके चलते कही ना कही हम खुद को उसी तरह अनदेखा किए जाते हैं, जैसा कि अविनाश करता है। हम में से बहुत लोग खुद को जीने को भी तैयार नहीं हैं और जो कुछ लोग तैयार हैं वे कब पाला बदलते हैं वो उन्हें खुद भी नहीं पता। यानी सामान्य रूप से इन स्थितियों में तमाम लड़ाई के बाद कुछ ऐसा नहीं बदला जिन्हें अलग करके यह कहा जा सके कि इन हालातों में ऐसा परिवर्तन हो चला हैं जिसे बदलते वक्त के साथ खुद के लिए जीत कहा जा सके।
       इन हालातो को थोड़ा सा नीचे करके सामाजिक सच की ओर ले जाया जाए तो भी हालातो में ठीक वैसी ही स्थिति हैं जैसे एक वक्त में हुआ करती थी। हालातों में थोड़ा बहुत परिवर्तन तो हैं पर वक्त और लगी उर्जा को मापक बनाए तो पता चलता हैं कि खिसका जरूर हैं पर नाममात्र का। तमाम वो मुद्दे जो इंसानो से जुड़े है, और जिन्हें आज भी मुद्दों के रूप में देखा जा रहा हैं।  उनसे जुडें लोग खुद के इंसान होने का इतंजार कर रहे है।  वे इंतजार कर रहे हैं कि इन मुद्दों से छुुटकारा मिले ताकि वो भी इंसान हो सकें। सच में इंसान की इतनी अधिक पहचान है, इंसान खुद भी यह भूल चुका हैं कि असली रूप क्या है। हैं भी कि नही या वो एक मुद्दें के रूप में आया था और एक मुद्दें के रूप में चला जाएगा। तो ऐसे में जब पुरानी पीढी अपनी नई पीढी से बेहतर होने का दावा करती हैं। तो सोचना लाजमी हैं कि कैसे पुरानी पीढी के दावों को आसानी से स्वीकार कर लिया जाए, जबकि उनके वक्त के हालात ऐसे ही थे जैसा कि हम आज जी रहे हैँ।

मेरे लिए आसान हैं यह सब लिख पाना क्यूँ कि मैं इनमें से कई का हिस्सा नहीं रहा हूँ और शायद होऊगां भी नही। आप में से भी तमाम लोग मुझ जैसे ही हालातो से है और इन स्थितियों के हिस्सें नहीं होगे। लेकिन जरा एक पल सोचिए और देखिए कि अगर आप इन हालातों के हिस्से में होते तो। कि किन परिस्थितियों में एक मासूम बच्चा अपने हालातो में अपनी छोटी सी उम्र में इतना समझदार हो जाता हैं जितना कि हम सारी उम्र खर्च करके भी नहीं हो पाते। लिखने और कहने में सच में बड़ा रूमानी हैं फिल्में देख कर उन हालातो पर सोच लेना हमारी खुद के लिए संवेदनशील होने का प्रमाण होती है, लेकिन ईमानदारी से कहता हूँ कि आप की तमाम लड़ाईयां उस बच्चें से बड़ी नहीं हो सकती हैं, और आपकी बौद्धिकता के पैमाने उन्हें नहीं नाप सकते जिन्हें वो बच्चा हर दिन ना केवल नाप रहा है, वरन अपने आप को बनाए हुए है। बिडम्बना ये हैं कि उन हालातों के लिए उसने कुछ किया भी नहीं हां जी जरूर रहा है।

 मैं यहां  कि आदर्शो को जीने की ना तो वकालत करना चाह रहा हूँ और ना ही उन्हें छोड़ देने की सलाह देना चाह रहा हूँ। औऱ ना ही मेरा मानवता और मानवीयता के पक्ष में लेख लिख कर अपने ब्लॉग में लेखों की संख्या को बढाना हैं। मेरा इन सब को लिखने का एक ही मकसद हैं कि क्या हम एक पल के लिए रूक नहीं सकते।  इन सब पर हम एक पल के लिए  सोच नहीं सकते हैं।  जो बीत रहा हैं और जिन पर बीत रहा हैं वो उनके बारे में बस थोड़ी सी ईमानदारी से साेच कर देखिए और अगर लगता हैं कि सच में कुछ तो बदलना चाहिए तो बस वहीं बदल लीजिए जो आप बदल सकते हैं, इसमें दूसरे कि मदद की भी जरूरत नहीं। औऱ हां अगर नहीं लगता कि कुछ बदलने के लिए तो चल पडिए जैसे पहले चले जा रहे थे। लेकिन अगर किसी भी झुरमुट में थोड़ी सी आहट हो तो कृपया पलट कर  देखिएगा जरूर...



 शिशिर कुमार यादव ... 

सोमवार, 29 अगस्त 2011

कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं!


           

आज आकाशवाणी के लिए JNU  से निकलना चाहाँ तो ऑटो नहीं मिला.... काफी देर का इन्तजार, बार बार गोदावरी बस स्टैंण्ड के नाम पढनें के अलावा कोई विकल्प भी नहीं दे रहा था ...खैंर इन्तजार को भी चैंन कहाँ जल्द ही खत्म हुआ ऑटो तय हुआ ..मीटर के डिजीटल अंको ने तय करती दूरी का खाका खीचना शुरू कर दिया.... बरसात की गर्मी और वो ऑटों ... दिल्ली को ऑटो के पर्दे से देखना चाहा तो दिल्ली मुझें ठहरे शहर में भागते हुए लोगों कि अन्धी दौड़ का शहर नजर आया (ये मेरा भ्रम भी हो सकता है क्यों कि फिल्मों मे दिल्ली का अपना बखान है).आपकी राय भी दिल्ली के बारे में मुझसे इतर हो सकती है.


ऑटों से बाहर की दिल्ली 



बस यूँ ही सफर चलता रहा तभी ऑटो वाले ने मुझ से 5 मिनट का समय माँगा ताकि वो अपनी गाड़ी के लिए ईधन ले सके..मेरे पास भी उसकी इस माँग को स्वीकार न करने की कोई वजह नजर नहीं आई..क्योंकि अगर न मानता तो शायद ऑटो बढता ही नहीं ..खैर ऑटो की लम्बी लाईन और उसी लाइन में हमारा भी ऑटो.. खाली वक्त और जिंदगी से रोज मिलते रहने वाले सख्स से बात करने की उत्कंठा ने मुझे एक सवाल दागने पर मजबूर किया दिल्ली के ही हो आप या बाहर के ? “.. आटों वाले ने मेरी ओर देखा और बड़ी अजीब से मुस्कुराते हुए जवाब दिया ...है तो बाहर के पर 20 साल से यहीं है मन में ही उसकी हँसी का राज जानना चाहा तो जवाब मिला शायद मुझ जैसा हर आदमी अपना समय काटने के लिए यह सवाल पूछता होगा ....खैर इस सोच से बाहर निकलते है ही दूसरा सवाल दागा कहाँ से हो ?जवाब आया कानपुर ”… कानों को अच्छा लगा सुनकर ... मैनें भी धड़ाध़ड़ कानपुर और उससे जुड़े जिले उन्नाव के कुछ परिचित नाम बताए तो उसे अच्छा लगा और उसे मेरी बातो में अपनापन सा महसूस हुआ..तब ऑटो वाले ने मुझसे पूछा कि आप कौन सी पढाई करते हो ..तो मेरा जवाब उसके शब्द कोष से ऊपर निकल गया ..जवाब मिला भइया हम पढे नहीं है इस लिए समझ नहीं सकते कि आप क्या करते हो पर इतना बड़े स्कूल में हैं तो अच्छा ही करते होगें.. उसके जवाब में अपनी तारीफ सुन कर गुरूर यूं ही चढ गया ... अगला सवाल ऑटो वाले का था  भइया 12वी के बाद बच्चे को क्या पढाएँ ..हम भी उसे अपना मान कर सभी विकल्पों पर एक छोटा सा व्याख्यान दे बैढें ... उसने लम्बी सांस ली और बोला कि  लड़का तेज बहुत है पर अच्छे स्कूल में पढीं नहीं पाता ....पैसा भी हैय पर हम पढे़ ही नहीं है इस लिए एडमिशनवई नहीं लेते है .... अभी 8 वी में है पर... इस पर के बाद वो चुप और  उसकी इस चुप्पी पर  मेरी भी ताकत न थी कि मैं कोई और सवाल कर सकूँ... पर उसकी इस चुप्पी ने मेरे मुँह पर वह सवालों का वो गठ्ठर छोड़ गया जिसके जवाब मैं शायद खोज भी ना सकूँ ... तेज रफ्तार में आटो रायसीना मार्ग को पार करते हुए आकाशवाणी पर मुझे छोड़ आटो वाला फिर जिंदगी से लड़ने निकल पड़ा... मैं कुछ कह भी न सका... फिर एक भइया कि लाइन याद आ गई कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं! “… यहीं सोच मैं आकाशवाणी की ओर बढ चला ....

       
                                 आकाशवाणी से संसद