आम आदमी पार्टी (‘आप’)
ने खाप नाम का जाप क्या किया, देश में तमाम मंचों से खाप पर फिर से चर्चा शुरू हो
गई है। चर्चा का रूप राजनैतिक है। चर्चा का स्वरूप कुछ इस तरह है कि जिस तंत्र को
खुद सुप्रीम कोर्ट ने वैधानिक रूप से नकार दिया है, बल्कि उसे असंवैधानिक भी कहा
है, उसे आम आदमी पार्टी, जो 21 सदी के राजनीति की सबसे बड़ी झंड़ाबरदार है, उसका
समर्थन कैसे कर सकती है। भारतीय समाज की में खाप की पहचान एक स्वंयभू जातिवादी
संगठन की है जो ना केवल अलोकतांत्रिक है और कई मामलों में अमानवीय तक रही है। उसका
समर्थन करने के बाद आप की प्रगतिशीलता पर ना केवल सवाल उठ रहा है वरन उनका राजनीति
में खुद को विकल्प के रूप में पेश करने पर
भी सवाल उठ रहे है। यह चर्चा इतनी तीखी और कठोर हो चली हैं कि आम आदमी पार्टी के
किसी भी प्रतिनिधि को इस विषय पर दी गयी प्रतिक्रिया को सहज रूप स्वीकार नहीं किया
जा रहा है, साथ ही साथ उन्हें भी खाप समर्थक बता कर ही मंचों पर पेश किया जा रहा
है। अर्नव गोस्वामी के कार्यक्रम में प्रों. आनंद कुमार के साथ हुई कुछ तंज बहस बस
उसी का हिस्सा भर थी।
निंसदेह, आम आदमी पार्टी (‘आप’)
खाप के मसले पर बैकफुट पर है, और वो खुद उसी उन्माद का शिकार बन रही है, जो उन्माद
कभी उसके समर्थन में अन्ना आंदोलन में भष्ट्राचार के विषय पर उनके साथ खड़ा था,
जहां हर वो आदमी भष्ट्राचारी हो जाता था, जो अन्ना का विरोध करता था। ठीक उसी तरह
की परिस्थितियां आज है, कि खाप के पक्ष में कुछ शब्द बोल भर देने से ‘आप’ खाप समर्थित पार्टी हो गई है, जिसका खामियाजा कई
मंचो से आलोचना के रूप में झेलना पड़ रहा है।
हम आप खुद खाप का समर्थन नहीं करते और उसका
विरोध करते है, लेकिन क्या विरोध करते हुए खाप रूपी तंत्र पर प्रतिबंध लगा भर देने
से खाप समाप्त हो जाएंगी? क्या खाप कोई तंत्र है या भवन जिसको ध्वस्त कर देने भर से खाप का आंतक उस
समाज से हट जाएगा जहां खाप का आंतक छाया हुआ है? अगर हां तो
हम सब को वहाँ चलना चाहिए जहां ये तंत्र और भवन है, उन्हे ध्वस्त करके समाज को खाप
जैसी सड़ी हुई व्यव्स्था से मुक्ति दिलानी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है, खाप कोई भवन
या तंत्र नहीं जिसको ध्वस्त या सिर्फ प्रंतिबंध और उसकी वैधानिकता पर सवाल उठा
देने या तय कर देने से समाप्त हो जाएगी। खाप एक विचार धारा है, जो हर उस व्यक्ति
में तंत्र के रूप में स्थापित है, जो दूसरे के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन अपने
उन सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर करता आ रहा है जो ना केवल अलोकतांत्रिक है वरन
अमानवीय भी है।
हमे समझने की जरूरत हैं जिन खाप पंचायतों
का चित्रण हमारी आधुनिक मीडिया द्वारा आम जनमानस को दिखलाया है, वो पूर्ण खाप नहीं
है, जहाँ समाज के कुछ बूढें अपने ही समुदाय के पुरूषों के साथ बैठकर दूसरों के
बारे में निर्णय सुनाते है, ये हिस्सा खाप का एक छोटा हिस्सा भर हैं जो हाथी के
दिखाने के दांत सरीखे है। उस खाप का क्या जो हर दिन हमारी आपकी विचारधारा के रूप
में उस ‘छोटे समूह द्वारा’ तय की गए समस्त निर्णयों को वा केवल स्वीकृति देता है, वरन सामाजिक बल की
तरह उन्हें निष्पादित भी करवाता है। ये असली खाप हैं, जो विचारधारा के रूप में
वहां के आम जन मानस में घर किया हुआ है, जिस पर हमारी आधुनिक मीडिया में कोई चर्चा
नहीं होती हैं, इस ओर आधुनिक मीड़िया की समझ काफी कमतर ही रही है। इसीलिए खाप के
विरोध में लड़ी जा रही तमाम लड़ाईयां खाप के विरूद्ध कुछ भी ठोस कर पाने में सक्षम
नहीं रही हैं, और खाप आज भी अपने अलोकतांत्रिक व्यवहार को जी रही हैं, मुज्जफरनगर
दंगों में बलात्कार आरोपियों के समर्थन में उनका बयान उसकी अगली कड़ी भर है।
खाप पर हो रही तमाम बहसो के जितने भी
चित्र खीचे गए है उनमें अधिकतर लड़ाई खाप एक तंत्र के रूप में लड़ी जा रही हैं।
खाप एक विचारधारा की बहस शायद पीछे छूट चुकी है, इसीलिए मीडिया खुद जिसका
अर्नबाइजेशन (इसे अर्नब गोस्वामी सरीखी पत्रकारिता से ही जोडें) हो चुका है वो खाप
एक बर्बर तंत्र को ध्वस्त करने पर ही जोर देता आ रहा है। इसके इतर की बहस से वो
काफी दूर हो चुका है और अपनी अदूरदर्शिता के चलते जब भी कोई इस कोई उस ओर सवाल
खड़ा करके चर्चा और संवाद स्थापित करने की कोशिश करता है, तो बजाए विचारधारा पर
बहस करने के, वो इसे सामाजिक पिछड़ापन, नारी सशक्तिकरण और व्यक्तिगत अधिकारो के
हनन के प्रमुख केंद्र के रूप में स्थापित करके सारी की सारी बहस खाप एक तंत्र तक
सीमित कर देता है, जहाँ खाप एक विचारधारा हमेशा ही हाशिएं का सवाल बना रह जाता है,
और सारी की सारी लड़ाई खाप एक तंत्र तक ही सीमित रह जाती है।
आम आदमी पार्टी के विचार के बाद भी कुछ
इसी तरह की बहस जारी हैं, जहाँ खाप तंत्र को सुप्रीमकोर्ट के निर्णय पर आधार पर
खारिज करने की तेजी जरूर है, लेकिन विचारधारा पर बहस का माहौल बना कर चर्चा
स्थापित करने की कोई कोशिश नही दिख रही है। समस्त राजनैतिक, सामाजिक और मीड़िया
मंचों से ‘विचारधारा’ की बहस लगभग गायब है। हमे यहाँ समझने की जरूरत हैं कि खाप कोई प्रथा नही
है, जिस पर प्रतिबंध लगाकर रोका जा सकता है, और ना ही कोई तंत्र है जिसे ध्वस्त
करके समाप्त किया जा सकता है, खाप एक विचारधारा है, जिसे किसी भौतिक तंत्र की
जरूरत नही। वह बिना तंत्र के भी एक व्यक्ति के भीतर तंत्र के रूप में जिदा रह सकती
है। इसीलिए खाप को एक सामाजिक समस्या की तरह देखा जाना चाहिए। जिसके हल वैधानिक,
राजनैतिक के साथ साथ सामाजिक होगे। अकेले वैधानिक या राजनैतिक हल खाप के लिए अपर्याप्त
होगें।
यह सच है कि किसी भी समस्या को हल करने में
राजनैतिक और वैधानिक पक्ष महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, लेकिन वो उस समस्या के
लिए पूर्ण हो जरूरी नहीं। इसीलिए जब मसले सामाजिक समस्या के हो तो उनके हल भी
सामाजिक खांचों में खोजने की जरूरत पर बल देने की जरूरत होती है। वरना उस और किए
गए सारे राजनैतिक और सामाजिक प्रयास सफेद हाथी सरीखे होते है। देहज प्रथा, कन्या
भ्रूण हत्या, महिलाओं की सुरक्षा पर बने कानून इनके गवाह हैं, इन पर बने तमाम
कानूनों के बाद इन समस्याओं में सुधार नाम मात्र का हुआ है। ऐसे में हमें खाप
पंचायत से इस लड़ाई को कानूनी, राजनैतिक के साथ साथ सामाजिक पृष्ठभूमि में खीचने
की जरूरत है। जहां से इस लड़ाई को उस हर युवा तक लेकर जातने की जरूरत है जो खुद की
सामाजिकता और सामाजिक जवाबदेही इस विचारधारा को बनाए रखने में रखता है। उसे इस
विचार धारा के खिलाफ करने के तक लड़ना होगा। और यह सिर्फ छोटे छोटे विरोधों से ही
स्थापित हो सकता है। इन विरोधो के लिए हमें किसी बड़े राजनैतिक मंच की जरूरत भी
नही होगी। इसकी शुरूआत छोटे छोटे घरो से करनी होगी, और ये विरोध लगातार होने
चाहिए। इस तरह के छोटे छोटे विरोधो से इन अलोकतांत्रिक संगठनो को बड़ी गहरी चोट
पहुचती है। उदा. के लिए सर पर दुपट्टा ना रखना आधुनिकता का परिचायक है, जिसने समाज
में काफी कुछ बदला।
इन परिस्थितियों में युवाओ का
विरोध जिसमें बदलाव की क्षमता है उनकी जिम्मेदारी और बढ जाती हैं क्यों कि जो बीत
गया वो बीत चुका हैं पर हमें जिस समाज में रहना हैं उसका निर्माँण खुद करना होगा
ताकि समाज जिन अपराधों को देखे -अनदेखे में लगातार बढावा देता आ रहा हैं उस बढावें
को एक करारा धक्का लग सकें। मजूबत लोगों ने कमजोरो के अधिकारों को सहर्ष नहीं दिया
है बडी लडाईयां लडनी पडी हैं। इतिहास साक्षी है हर लड़ाई का। कई चेहरे है इन
लडाईयों के। जब भी उनका अधिकार खिसके हैं, तो
मजबूत वर्ग द्वारा अपराध ही कियें गए है। ऐसे में दमनकारी विचारधारा को पहचान कर
उसका लोकतांत्रिक विरोध करने का वक्त हैं। इसलिए इस जब आम आदमी पार्टी ने एक बार
फिर से खाप के मुद्दे को चर्चा में ला दिया हैं, तो विमर्श विचारधारा पर केंद्रित
कर लड़ाई को आगे ले जाने की जरूरत पर बल देने की जरूरत है ना कि तंत्र को वैधानिक
नियमों के तहत तंत्र को प्रंतिबधित करने की आधी अधूरी मांग कर के खुद की जीत मनाने
का।
शिशिर कुमार यादव
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