सालों बीत जाने के
बाद भी स्त्री सघर्ष की हर लड़ाई में वह चेहरा याद आ जाता हैं. ना जाने कितनी बार
वहीं सवाल मन में उठता हैं कि “जो इतना चुप रहा करती थी, वो इतना बोलने कैसे
लगीं, और जब शांत हुई, तो चीखों के साथ, जिसकी आवाज किसी के कानों तक ना पहुची”। जी हाँ वह एक
रहस्मयी मौत मार दी गई। बिट्टी ( अवध प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में लड़कियों के
लिए सम्बोधन) जिसे मैं जानता था, उस बिट्टी ने पगली तक का सफर कब तय कर लिया किसी
को खबर नही. हाँ सहयोग सबने किया और सबसे ज्यादा सहयोग उन्होनें किया, जिन्हें वो
अपना ही मानती थी.
दिसम्बर 2009 में दिल्ली
से पत्रकारिता का पहला सेमेस्टर पूरा कर जब घर लौटा तो, पूछा कि कुछ नया ? तो छोटी बहन ने
लगभग चिंतित स्वर में कहा “ अरे जानता है वो बिट्टी हैं ना पागल हो गई है,
बहुत बोलने लगी है, किसी से भी बात करने लगती है, उसके घर वालों का कहना है कि उसे
भूत लग गए हैं. खैर बहन ने खुद ही बात को काटते हुए कहा कि “भूत - वूत कुछ नहीं, 15-16 साल की लड़की
की शादी एक अधेड़ से कर दी तो पागल नहीं होगी तो क्या होगी ? मैंने जब उसके जवाबों में अपने सवालों की उत्सुकता
जोड़ी, तो संकोच भरे शब्दों में उसने कहा “अरे 28 साल का लड़का एक लड़की के साथ जबर्जस्ती ही
करेगा ना और वो थी भी तो थोडी सीधी, लड़की तो थी ही नहीं सिर्फ घर का काम करती थी.
कितना काम करती थी, है ना ?”
अपनी बात को बल देने
के लिए बहन ने मेरी ओर सवाल उछाल दिया था. (हमारे गांवो में घर के काम में पशुओं
की देखभाल प्रमुख हैं जो सबसे बडा काम है). बहन अपनी बात में और जोड़ती हैं कि “अब ससुराल वाले कहते
हैं कि वो काम ही नहीं करती, शायद गर्भ से भी थी पर ठहरा नहीं तो अब वो उतना
एक्टिव नहीं रहती और उसका मन भी नहीं लगता तो उसके ससुराल वाले उसे भूत चढने का बहाना
कर गाँव छोड गए हैं, और गाँव वाले उसे चिढा चिढा कर परेशान करते हैं, ऐसें में वो थोड़ी
सी मेंटल डिस्टर्ब हो गई, तो गाँव वाले उसे पगली कहने लगें. वो ना भी हो तो उसे
पागल कर देगें”. बहन ने लगभग एक सामजिक विज्ञानी की तरह पूरे कारण सहित व्याख्या कर
डाली थी. मैं भी उससें पूर्ण सहमत था पर दोष और दोषी खोज
लेने भर से बिट्टी को देने के लिए हमारे पास कुछ ना था.
खैर गाँव पहुचते ही बहन
की हर बात अक्षरश: सही थी, बिट्टी बहुत बोलती पगली में बदल चुकी थी, चचेरे भाई ने मेरे
सामने प्रमाण देने के लिए उसके पति का नाम ले लिया और वह शुरू हो गई गालियाँ देने.
किसी ने कहा मैं भी हूँ तो आवाज में नरमी के साथ मेरी ओर बढ आई, लगभग पैर छूते हुए
पूछा “भईया
कैइसे हय”? जवाब की
प्रतीक्षा किए बगैर घर में सब का हाल पूछ गई। मैं लगभग संशकित भाव से और थोडा सा असहज
हो कर उसके सवाल को सुनता रहा। शायद मैं भी डर रहा था। बिट्टी हर सवाल चमकती आँखों
से पूछ रही थी जिसमें बार बार एक ही सवाल था कि मेरी हालातों की वजह क्या है
? पर आस पास सवालों
पर उठती हँसी उसके हौसले को तोड़ देते हैं और वो उदास भाव से अपने जवाब को लिए
बिना ही बड़वडाती चली जाती हैं ।
इतनी सक्षिप्त
मुलाकात के एक साल बाद खबरों में सुना की उसने खुद को आग ली. उसकी मौत भी एक रहस्य
थी, वो जल कर मरी थी और 10 से 15 मीटर बाहर बैठे लोगों को उसकी चीखे तक नहीं सुनाई
दी थी. सबको धुआँ उठने तक का इंतजार करना पड़ा था, पर हाँ वो मर जरूर गई थीं. उसके
मरने पर काफी सवाल थे, जो समय के साथ खत्म होते चले गए. गांव के जिम्मेदार लोगों
ने पुलिस केस से बचा कर उसको अंतिम यात्रा पर भेज अपने अपने कर्तव्यों की इतिश्री
कर ली. सब विस्मित थे. शायद सब को सवालो के जवाब पता था पर जवाबदेही के साथ उन सवालो के जवाब कोई नहीं देना चाहता
था. कोई भी उन सवालों की ओर ध्यान नहीं दे रहा था जिन
सवालों को बिट्टी ने हर दिन हर उस इंसान से पूछा, कि मेरी ये हालत क्यों हैं?
वो हर इंसान से यही
कहती तुमने तो मुझें देखा हैं मैं ऐसी तो ना थी, फिर मेरे ऐसे होने की वजह क्या
हैं ?
आज भी वे सवाल जिंदा
हैं, क्योंकि किसी ने उन सवालों के जवाब नहीं दिए थें. ऐसे में कोई ना कोई बिट्टी
आपके अपने गाँव में आप से इस तरह के सवाल पूछते मिल सकती हैं.उस बिट्टी को तो कोई
जवाब नहीं मिला था और शायद अनुत्तरित चेहरों को देख कर वो यहाँ से चली गई. पर उसके
सवालो की चीख आज भी बरकरार है. जिसे हम लगभग अनसुना करते आ रहे हैं. खैर जो उसकी
जिंदा चीखों को ना सुन सके वो इन सवालो की चीखों को क्या सुनेगें। उन सवालो के
जवाब कोई और ना माँग ले इसलिए उन सवालों को पूछने वाले को पगली बना कर अपने समाज
से अप्राकृतिक मौत मरने के लिए मजबूर कर दिया और सवालों को पगली के सवालों में
तब्दील कर दिया. जब भी स्त्री अधिकारों की बात आती हैं तो मैं ऐसे समाज से स्त्री
अधिकारों के लिए मांगू भी तो क्या मांगू जो स्त्रीयों को सिर्फ अप्राकृतिक मौते ही
उपहार में दे सकता हैं (बिट्टी की मौत का जिम्मेदार मैं खुद को भी मानता हूँ
क्योंकि उस समाज का मैं भी हिस्सा था और हूँ भी.
यह लेख जनसत्ता अखबार में 13 जुलाई 2013 में दुनिया मेरे आगे के कालम में छपा हैं ।
यह लेख जनसत्ता अखबार में 13 जुलाई 2013 में दुनिया मेरे आगे के कालम में छपा हैं ।
शिशिर कुमार यादव
बहुत सही कहा आपने...यह मात्र आपके जीवन का एक किस्सा नहीं है ...यह हमारे भारत की इक्कीसवी सदी में महिलाओं के परिस्थिति का आईना है।
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