शुक्रवार, 27 जून 2014

आपदाओं से बचाव के बहाने सामाजिक न्याय

उत्तराखंड की विभीषिका से देश एक साल आगे बढ आया है। देश में नए निजाम की नियुक्ति हो चुकी है,और विभिन्न पहलुओं पर विभिन्न तरीको से नई नीतियों का निर्माण भी शुरू हो चुका है। लेकिन देश की एक स्थिति में आज भी कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ हैं वो है आपदा से जुड़ी समस्याए और उन पर हमारी तैयारी। इसमें कोई संदेह नहीं हैं कि ये दोनो ही बाते समय समय पर यह बतलाती रही हैं कि अभी भी हम इन स्थितियों पर ऐसा कुछ भी क्रांतिक नहीं कर पाए हैं जिसे 1 साल बाद हम अपने संतुष्ट होने के लिए पेश कर सकें। हिमाचल प्रदेश में 25 लोगों का बह जाना हमारी मूलभूत तैयारियों के कंगालेपन को दिखा रहा था, और बता रहा था कि हमने सच में अपनी गलतियों से कुछ नहीं सीखा है। उत्तराखंड की बाढ के बाद देश में, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को लेकर एक जोरदार बहस छिड़ी हुई थी। लगभग सभी विचारक एकमत होकर उन सभी मानवीय मूल्यों की आलोचना कर रहे है जिसने प्रकृति के स्वरूप को बदल दिया। निंसदेह बदलती मानवीय प्राथमिकताओं में प्राकृतिक संसाधनों को अतिशय शोषण किया जा रहा हैं जिसका खामियाजा बदलती प्राकृतिक स्थिति और भयावाह आपदाओं के रूप मे करना पड़ना रहा हैं। हर वर्ष प्रकृति का अपना संतुलन बनाने के लिए किया गया बदलाव मानव और मानवीय सभ्यता के लिए घातक होता जा रहा है। इसके कई उदाहरण देश प्रतिवर्ष देखता ही है। सन 2013 की ही मापक वर्ष मान लें, तो उत्तराखंड में आई बाढ के बाद उड़ीसा में उपजे तूफान ने चुनौती जारी रखी। अक्टूबर में फैली देश के कई हिस्सों में बाढ ने बड़े पैमाने पर नुकसान किया। 2014 में ठंड के इतर लारजी प्रोजेक्ट से व्यास में छोड़े गए पानी की घटना में 25 लोगों का लाशों में तब्दील होना, हमारी आपदाग्रस्त स्थिति का खाका खीचने में लगे हुए है।


   उत्तराखंड की बाढ और हिमाचल की लारजी प्रोजेक्ट पर हुई घटनाओं का सामान्य रूप से मूल्याकन करे तो हम पाते हैं कि कई दिन बीत जाने के बाद भी बचाव कार्य पूरा नही हो पाता हैं। सेना के उतरने के बाद  बचाव कार्य में तेजी तो आती हैं लेकिन परिस्थियां विपरीत ही बनी रहती हैं क्यूँकि हमारे पास इन चीजों से निपटने के लिए जिन मूल सरचनाओं पर सबसे पहले काम करना चाहिए था, वो इतनी कमजोर होती हैं कि किसी भी आपदा के बाद आपदा राहत कार्यक्रम से पूर्व इन स्थितियों से निपटना पड़ता है। निसंदेह कई बार यह आपदा की परिस्थितियां पर भी निर्भर करता हैं और बतलाता हैं कि विभीषिका का स्तर मानवीय क्षमताओं से कहीं अधिक है। प्राकृतिक आपदाएं बार बार एक ही पाठ सिखलाती हैं, जिनमें स्पष्ट संदेश होते हैं कि प्रकृति में अत्यधिक परिवर्तन मानव जाति के लिए सिर्फ और सिर्फ अहितकर होगा। लेकिन कई बार तंत्र की इच्छाशक्ति के आगें आपदा की स्थिति विषम हो जाती है।

उत्तराखंड में पहले चरण का बचाव लगभग खत्म हो चुका हैं, और बचे लोगों को लगभग सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया हैं। अब दूसरे चरण की बारी है। दूसरा चरण महत्पूर्ण होगा, जो ना केवल आपदा का सही मूल्याकन करेगा वरन आने वाले वक्त में आपदा प्रंबधन को किन किन भागों में काम करने की जरूरत हैं उस ओर भी निर्देशित करेगा। दूसरे चरण के मूल्यांकन में हमें आपदा के बाद सामान्य जन जीवन लाने के लिए एक व्यापक कार्य योजना की जरूरत होती है वरना आपदा के बाद ये राहत कार्य भी एक आपदा सरीखा सा हो जाता है। इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण कार्य आपदा से प्रभावित लोगों को पुनर्स्थापित करना सबसे महत्वपूर्ण चुनौती होती है। इस चरण में ही उन सब पर ध्यान भी जाएगां जिनको अभी तक लगभग प्रंबधन तंत्र नें वो सुविधाएं उपलब्ध कराने में अक्षम रहा हैं। दूसरा चरण सबसे प्रमुख चुनौतिया लिए हैं, क्योंकि इनको सामान्य जिंदगी में लाना काफी कठिन होगा, इस आपदा में इनके घर और रोजगार का बड़े पैमाने पर धक्का लगा था। आपदा के बाद सबसे महत्वपूर्ण काम आपदा से प्रभावित उन लोगों की पहचान करना होता हैं, जो सच में आपदा ग्रस्त हैं, जो कि एक कठिन चुनौती होती है। इस तरह की आपदा के बाद के बाद लाभ के कारण हर कोई अपने को आपदा ग्रस्त दिखाने की कोशिश करने लगता हैं ऐसे में आपदा में सचमुच प्रभावित जिन्हें प्राथमिक सहायता की जरूरत होती हैं, उनकी पहचान करना सबसे कठिन हो जाता हैं।

यह एक कठिन और जटिल प्रक्रिया होती है। जैसा कि हम जानते हैं कि किसी भी आपदा का प्रभाव सभी पर बराबर नही पड़ता हैं। समाज में संवदेनशील जैसें गरीब, पिछड़ेमहिलाओं, बच्चों पर इसका प्रभाव काफी अधिक पड़ता हैं। इसें इस उदाहरण से समझा जा सकता हैं, कि बाढ आपदा के ईलाके में ईटों के मकान को तुलनात्मक रूप से कच्चें मकान की तुलना में नुकसान कम होता हैं, इन अर्थों में कच्चें मकान में रहने वाली जनसंख्या का नुकसान अधिक और वे अधिक संवेदनशील होती हैं। इसी प्रकार दैनिक मजदूर जिसकी आजीविका का संसाधन दैनिक मजदूरी से संचालित होती हैं उनकी स्थिति इन आपदाओं में रोजगार के अवसरों की कमी के कारण पूर्णतया कुछ दिनों तक समाप्त हो जाती हैं, और नुकसान की मात्रा इन सब पर सबसे ज्यादा होती हैं। पुरूषों के तुलना में महिलाओं और बच्चों पर इसका प्रभाव अधिक पड़ता हैं। इस लिए आपदा प्रंबधन को इऩ सब पर अलग से ध्यान देने की जरूरत हैं।
लेकिन आपदा के बाद हुई विभिन्न रिसर्चेज जिनमें राहत कार्य को प्रभावित करने वाले कारकों पर प्रकाश डालने की कोशिश की गई हैं। उनमें तथ्य स्पष्ट रूप से यह उभर कर सामने आया हैं कि आपदा प्रंबधन की नैतिकता के आदर्श, हकीकत के मैदान पर आते ही, उन सभी सामाजिक कारणों से दूषित हो जाते हैं, जो सामान्य दिनों में स्थानीय लोगों के जीवन का हिस्सा होते हैं। जिनमें स्थानीय राजनीति, प्रभुत्व जाति का प्रभाव, आर्थिक रूप से सम्पन्नता का प्रभाव, लिंग के आधार पर प्राथमिकताओं का चयन ( जेंडर बॉयसनेस) आसानी से देखा जा सकता हैं। उदाहरण के लिए राहत नुकसान का आकलन करने वाला स्थानीय अधिकारी प्रभुत्व जाति के सम्बन्धों के कारण अधिकारी इन लोगों के नुकसान का आकलन सबसे पहले करता हैं और इनके लिए राहत राशि को को आपदा के के पहले 1 या 2 महिनें में जारी कर देता हैं, लेकिन निम्न सामाजिक और आर्थिक जातियों जो सबसे अधिक ज्यादा संवेदनशील होते हैं, उनके आकलन में तमाम प्रकार की बाधाएं, होती हैं, जिनकी वजह से आपदा के सामान्यतया 3 से 4 माह से पहले किसी भी बड़ी सरकारी मदद की ( ढहे मकान का मुआवजा, पशुओं की मृत्यु का मुआवजा) उम्मीद करना बेईमानी होता हैं। ऐसे में ये कमजोर तबका इन धनवानों से औने पौने दामों में ऋण लेते हैं, और चार माह बाद मिली मुआवजे की कीमत इन ऋणों के व्याज उतारने तक ही खत्म हो जाती हैं। ऐसें में जिनको आपदा ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुचाया हैं, आपदा राहत भी उनकी स्थिति में किसी भी प्रकार से सहायक नहीं हो पाती हैं। वो सतत चलने वाली समस्या में फस जाते हैं जिससे निकलनें का कोई ओर छोर आसानी से नहीं मिलता हैं। ऐसे में एक बात स्पष्ट रूप से निकल कर बाहर आती हैं कि आखिर आपदा में स्थानीय प्रतिनिधित्व या सहभागिता किसकी, उनकी जो पहले से ही सक्षम हैं, या उनकी जो इन आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। लेकिन मौजूदा तंत्र तो सिर्फ कुछ सक्षम लोगो के नुकसान की भरपाई के लिए बना मालूम पड़ता हैं। जो सर्वमान्य रूप से स्थानीय सहभागिता का अच्छा उदाहरण नही हैं।
इसी लिए स्थानीय सहभागिता को बढावा देने औऱ इस पर कार्ययोजना वाले “जिला आपदा निंयत्रण समिति” को इस ओऱ ध्यान रख कर कार्ययोजना बनाने की जरूरत हैं ताकि सही मायनों में स्थानीय सहभागिता हो सके और सभी वर्गो को प्रतिनिधित्व मिल सकें। जिससें प्राकृतिक आपदा जिसका प्रभाव सामाजिक हैं, उस ओर हम अपनी योजना को संचालित कर सकें।
इसलिए स्थानीय स्तर पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और लैगिंक स्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन कर कार्ययोजना को बराबरी के आधार के बजाय न्यायसंगतता को ध्यान में रख कर बनाने की जरूरत हैं, ताकि सभी वर्गों को समान रूप मे अपने बचाव के समान अवसर उपलब्ध रहें, यहीं सही मायनों में स्थानीय सहभागिता के विचार को पूर्ण करेगा, वरना यह विचार सिर्फ कुछ लोगों के लाभ के लिए बना एक तंत्र रह जाएगा, जिसमें कमजोर औऱ पिछड़ो के लिए कोई जगह नही होगी। इस तरह की व्यवस्था में अगर बदलाव नहीं हुआ तो आपदा के बाद यह एक और आपदा होगी जिसमें गरीब, पिछडें, महिलाए, और कमजोर वर्ग अपनी बलि लगातार चढाते रहेंगें।


शिशिर कुमार यादव.

इस लेख को डेली न्यूज एक्टविस्ट ने अपने अखबार में 28 जून 2014 को जगह दी है।

साथ ही साथ इस लेख को इंडिया वाटर पोर्टल ने अपने ब्लाग पर भी साझा किया है।
http://hindi.indiawaterportal.org/node/47503



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