शुक्रवार, 27 जून 2014

आपदाओं से बचाव के बहाने सामाजिक न्याय

उत्तराखंड की विभीषिका से देश एक साल आगे बढ आया है। देश में नए निजाम की नियुक्ति हो चुकी है,और विभिन्न पहलुओं पर विभिन्न तरीको से नई नीतियों का निर्माण भी शुरू हो चुका है। लेकिन देश की एक स्थिति में आज भी कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ हैं वो है आपदा से जुड़ी समस्याए और उन पर हमारी तैयारी। इसमें कोई संदेह नहीं हैं कि ये दोनो ही बाते समय समय पर यह बतलाती रही हैं कि अभी भी हम इन स्थितियों पर ऐसा कुछ भी क्रांतिक नहीं कर पाए हैं जिसे 1 साल बाद हम अपने संतुष्ट होने के लिए पेश कर सकें। हिमाचल प्रदेश में 25 लोगों का बह जाना हमारी मूलभूत तैयारियों के कंगालेपन को दिखा रहा था, और बता रहा था कि हमने सच में अपनी गलतियों से कुछ नहीं सीखा है। उत्तराखंड की बाढ के बाद देश में, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को लेकर एक जोरदार बहस छिड़ी हुई थी। लगभग सभी विचारक एकमत होकर उन सभी मानवीय मूल्यों की आलोचना कर रहे है जिसने प्रकृति के स्वरूप को बदल दिया। निंसदेह बदलती मानवीय प्राथमिकताओं में प्राकृतिक संसाधनों को अतिशय शोषण किया जा रहा हैं जिसका खामियाजा बदलती प्राकृतिक स्थिति और भयावाह आपदाओं के रूप मे करना पड़ना रहा हैं। हर वर्ष प्रकृति का अपना संतुलन बनाने के लिए किया गया बदलाव मानव और मानवीय सभ्यता के लिए घातक होता जा रहा है। इसके कई उदाहरण देश प्रतिवर्ष देखता ही है। सन 2013 की ही मापक वर्ष मान लें, तो उत्तराखंड में आई बाढ के बाद उड़ीसा में उपजे तूफान ने चुनौती जारी रखी। अक्टूबर में फैली देश के कई हिस्सों में बाढ ने बड़े पैमाने पर नुकसान किया। 2014 में ठंड के इतर लारजी प्रोजेक्ट से व्यास में छोड़े गए पानी की घटना में 25 लोगों का लाशों में तब्दील होना, हमारी आपदाग्रस्त स्थिति का खाका खीचने में लगे हुए है।


   उत्तराखंड की बाढ और हिमाचल की लारजी प्रोजेक्ट पर हुई घटनाओं का सामान्य रूप से मूल्याकन करे तो हम पाते हैं कि कई दिन बीत जाने के बाद भी बचाव कार्य पूरा नही हो पाता हैं। सेना के उतरने के बाद  बचाव कार्य में तेजी तो आती हैं लेकिन परिस्थियां विपरीत ही बनी रहती हैं क्यूँकि हमारे पास इन चीजों से निपटने के लिए जिन मूल सरचनाओं पर सबसे पहले काम करना चाहिए था, वो इतनी कमजोर होती हैं कि किसी भी आपदा के बाद आपदा राहत कार्यक्रम से पूर्व इन स्थितियों से निपटना पड़ता है। निसंदेह कई बार यह आपदा की परिस्थितियां पर भी निर्भर करता हैं और बतलाता हैं कि विभीषिका का स्तर मानवीय क्षमताओं से कहीं अधिक है। प्राकृतिक आपदाएं बार बार एक ही पाठ सिखलाती हैं, जिनमें स्पष्ट संदेश होते हैं कि प्रकृति में अत्यधिक परिवर्तन मानव जाति के लिए सिर्फ और सिर्फ अहितकर होगा। लेकिन कई बार तंत्र की इच्छाशक्ति के आगें आपदा की स्थिति विषम हो जाती है।

उत्तराखंड में पहले चरण का बचाव लगभग खत्म हो चुका हैं, और बचे लोगों को लगभग सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया हैं। अब दूसरे चरण की बारी है। दूसरा चरण महत्पूर्ण होगा, जो ना केवल आपदा का सही मूल्याकन करेगा वरन आने वाले वक्त में आपदा प्रंबधन को किन किन भागों में काम करने की जरूरत हैं उस ओर भी निर्देशित करेगा। दूसरे चरण के मूल्यांकन में हमें आपदा के बाद सामान्य जन जीवन लाने के लिए एक व्यापक कार्य योजना की जरूरत होती है वरना आपदा के बाद ये राहत कार्य भी एक आपदा सरीखा सा हो जाता है। इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण कार्य आपदा से प्रभावित लोगों को पुनर्स्थापित करना सबसे महत्वपूर्ण चुनौती होती है। इस चरण में ही उन सब पर ध्यान भी जाएगां जिनको अभी तक लगभग प्रंबधन तंत्र नें वो सुविधाएं उपलब्ध कराने में अक्षम रहा हैं। दूसरा चरण सबसे प्रमुख चुनौतिया लिए हैं, क्योंकि इनको सामान्य जिंदगी में लाना काफी कठिन होगा, इस आपदा में इनके घर और रोजगार का बड़े पैमाने पर धक्का लगा था। आपदा के बाद सबसे महत्वपूर्ण काम आपदा से प्रभावित उन लोगों की पहचान करना होता हैं, जो सच में आपदा ग्रस्त हैं, जो कि एक कठिन चुनौती होती है। इस तरह की आपदा के बाद के बाद लाभ के कारण हर कोई अपने को आपदा ग्रस्त दिखाने की कोशिश करने लगता हैं ऐसे में आपदा में सचमुच प्रभावित जिन्हें प्राथमिक सहायता की जरूरत होती हैं, उनकी पहचान करना सबसे कठिन हो जाता हैं।

यह एक कठिन और जटिल प्रक्रिया होती है। जैसा कि हम जानते हैं कि किसी भी आपदा का प्रभाव सभी पर बराबर नही पड़ता हैं। समाज में संवदेनशील जैसें गरीब, पिछड़ेमहिलाओं, बच्चों पर इसका प्रभाव काफी अधिक पड़ता हैं। इसें इस उदाहरण से समझा जा सकता हैं, कि बाढ आपदा के ईलाके में ईटों के मकान को तुलनात्मक रूप से कच्चें मकान की तुलना में नुकसान कम होता हैं, इन अर्थों में कच्चें मकान में रहने वाली जनसंख्या का नुकसान अधिक और वे अधिक संवेदनशील होती हैं। इसी प्रकार दैनिक मजदूर जिसकी आजीविका का संसाधन दैनिक मजदूरी से संचालित होती हैं उनकी स्थिति इन आपदाओं में रोजगार के अवसरों की कमी के कारण पूर्णतया कुछ दिनों तक समाप्त हो जाती हैं, और नुकसान की मात्रा इन सब पर सबसे ज्यादा होती हैं। पुरूषों के तुलना में महिलाओं और बच्चों पर इसका प्रभाव अधिक पड़ता हैं। इस लिए आपदा प्रंबधन को इऩ सब पर अलग से ध्यान देने की जरूरत हैं।
लेकिन आपदा के बाद हुई विभिन्न रिसर्चेज जिनमें राहत कार्य को प्रभावित करने वाले कारकों पर प्रकाश डालने की कोशिश की गई हैं। उनमें तथ्य स्पष्ट रूप से यह उभर कर सामने आया हैं कि आपदा प्रंबधन की नैतिकता के आदर्श, हकीकत के मैदान पर आते ही, उन सभी सामाजिक कारणों से दूषित हो जाते हैं, जो सामान्य दिनों में स्थानीय लोगों के जीवन का हिस्सा होते हैं। जिनमें स्थानीय राजनीति, प्रभुत्व जाति का प्रभाव, आर्थिक रूप से सम्पन्नता का प्रभाव, लिंग के आधार पर प्राथमिकताओं का चयन ( जेंडर बॉयसनेस) आसानी से देखा जा सकता हैं। उदाहरण के लिए राहत नुकसान का आकलन करने वाला स्थानीय अधिकारी प्रभुत्व जाति के सम्बन्धों के कारण अधिकारी इन लोगों के नुकसान का आकलन सबसे पहले करता हैं और इनके लिए राहत राशि को को आपदा के के पहले 1 या 2 महिनें में जारी कर देता हैं, लेकिन निम्न सामाजिक और आर्थिक जातियों जो सबसे अधिक ज्यादा संवेदनशील होते हैं, उनके आकलन में तमाम प्रकार की बाधाएं, होती हैं, जिनकी वजह से आपदा के सामान्यतया 3 से 4 माह से पहले किसी भी बड़ी सरकारी मदद की ( ढहे मकान का मुआवजा, पशुओं की मृत्यु का मुआवजा) उम्मीद करना बेईमानी होता हैं। ऐसे में ये कमजोर तबका इन धनवानों से औने पौने दामों में ऋण लेते हैं, और चार माह बाद मिली मुआवजे की कीमत इन ऋणों के व्याज उतारने तक ही खत्म हो जाती हैं। ऐसें में जिनको आपदा ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुचाया हैं, आपदा राहत भी उनकी स्थिति में किसी भी प्रकार से सहायक नहीं हो पाती हैं। वो सतत चलने वाली समस्या में फस जाते हैं जिससे निकलनें का कोई ओर छोर आसानी से नहीं मिलता हैं। ऐसे में एक बात स्पष्ट रूप से निकल कर बाहर आती हैं कि आखिर आपदा में स्थानीय प्रतिनिधित्व या सहभागिता किसकी, उनकी जो पहले से ही सक्षम हैं, या उनकी जो इन आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। लेकिन मौजूदा तंत्र तो सिर्फ कुछ सक्षम लोगो के नुकसान की भरपाई के लिए बना मालूम पड़ता हैं। जो सर्वमान्य रूप से स्थानीय सहभागिता का अच्छा उदाहरण नही हैं।
इसी लिए स्थानीय सहभागिता को बढावा देने औऱ इस पर कार्ययोजना वाले “जिला आपदा निंयत्रण समिति” को इस ओऱ ध्यान रख कर कार्ययोजना बनाने की जरूरत हैं ताकि सही मायनों में स्थानीय सहभागिता हो सके और सभी वर्गो को प्रतिनिधित्व मिल सकें। जिससें प्राकृतिक आपदा जिसका प्रभाव सामाजिक हैं, उस ओर हम अपनी योजना को संचालित कर सकें।
इसलिए स्थानीय स्तर पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और लैगिंक स्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन कर कार्ययोजना को बराबरी के आधार के बजाय न्यायसंगतता को ध्यान में रख कर बनाने की जरूरत हैं, ताकि सभी वर्गों को समान रूप मे अपने बचाव के समान अवसर उपलब्ध रहें, यहीं सही मायनों में स्थानीय सहभागिता के विचार को पूर्ण करेगा, वरना यह विचार सिर्फ कुछ लोगों के लाभ के लिए बना एक तंत्र रह जाएगा, जिसमें कमजोर औऱ पिछड़ो के लिए कोई जगह नही होगी। इस तरह की व्यवस्था में अगर बदलाव नहीं हुआ तो आपदा के बाद यह एक और आपदा होगी जिसमें गरीब, पिछडें, महिलाए, और कमजोर वर्ग अपनी बलि लगातार चढाते रहेंगें।


शिशिर कुमार यादव.

इस लेख को डेली न्यूज एक्टविस्ट ने अपने अखबार में 28 जून 2014 को जगह दी है।

साथ ही साथ इस लेख को इंडिया वाटर पोर्टल ने अपने ब्लाग पर भी साझा किया है।
http://hindi.indiawaterportal.org/node/47503



शनिवार, 14 जून 2014

गलतियों से ना सीखने की जिद

एक साल पहले ठीक इसी वक्त हम उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा में मानवीय सहयोग की समीक्षा कर रहे थे। बड़े पैमाने पर हुई उस आपदा के बाद आपदा प्रंबधन को कोस रहे थे, उस समीक्षा में पाया गया कि देश में आपदा प्रंबधन का तंत्र ना केवल कमजोर हैं वरन वो तमाम स्तरों पर पूर्णतया खोखले है। लेकिन विभीषिका की उस स्थिति को देख कर बचाव में मानवीय सीमा को एक हद तक स्वीकार कर लिया गया था और उससे सबक लेकर इस तंत्र को मजबूत करने पर बल देने की बात। लेकिन मानवीय भूमिका में बदलाव लाने पर सहमति बनी थी ताकि किसी भी प्रकार के हादसे से बचा जा सके। ठीक एक साल बाद हिमाचल प्रदेश में लारजी प्रोजेक्ट से छोड़े गए व्यास नदी के पानी में बह कर 25 जानों की कीमत पर एक बार फिर चर्चा कर रहे हैं और कोसने के लिए एक बार फिर आपदा प्रंबधन तंत्र ही है। इस बार ऐसा कुछ नहीं था जिसे टाला नहीं जा सकता था। इस विफलता की कीमत 25 लाशे हैं जिन्हें अभी अपने सपनों की उड़ान उडना था, लेकिन तंत्र की लापरवाही ने उन्हें उडने से पहले ही दफना दिया। जिनमें से 16 लोगों को आज भी खोजा जा रहा हैं ताकि उनके अवशेषों को लेकर परिजन उन्हें अंतिम यात्रा के लिए विदा कर सके।


परिजनों के जाते ही इस हादसे का इतिहास हो जाना तय है। चल रही जाँच किसी परिणाम तक पहुचेगी, इसमें संशय ही है क्याँ इसे सामान्य एक हादसा मान लिया जाए और आगे बढ जाया जाए ? या इस ओऱ कुछ बदलने पर जोर दिया जाए। आखिर यह हादसा हुआ क्या? गलती किसकी थी उन बच्चों की जो नदी के कम पानी की यादों को अपने साथ ले जाने वाले थे या उस प्रंबधन तंत्र की जिसने उनकी यादों को सदा के लिए वही दफन कर दिया। कारण इतने भी कठिन नहीं हैं, हादसों के कारणो के कुछ पन्ने पलटे और वजह को कुरेदना शुरू करे तो आसानी से समझ में आ जाएगा कि कितनी गैरजवाबदेही से तमाम नियम कानून ताक पर रख दिए गए। इसके साथ ही साथ ऊर्जा उत्पादन के नाम पर प्रकृति को बाधने की तेजी में, उभरने वाले खतरों से निपटने के लिए किसी भी प्रकार के तंत्र के पूर्ण अभाव को दर्शाता है। अगर इस हादसे की कहानी की ओर देखें तो जिस कारण को प्रमुखता से बताया जा रहा है और उस पर अगर भरोसा किया लिया जाए तो इसके पीछे उत्तरी ग्रिड को बचाने के लिए लारजी प्रोजेक्ट से बिजली उत्पादन में गिरावट को माना जा रहा है। इस प्रोजेक्ट से उत्पादन को 138 मेगा वाट से गिराकर 32 मेगावाट पर लाने का आदेश स्टेट लोड डिस्पेच सेंटर (एसएलडीसी) द्वारा दिया जाता है ताकि उत्तरी ग्रिड पर अतिरिक्त बिजली के दबाव के चलते ग्रिड के फेल होने को रोका जा सके। जिसके चलते अतिरिक्त जल को बाहर करना पड़ा। जिसके चलते व्यास नदी के जलस्तर तेजी से बढा और जिंदगियाँ बह गई।
 एक स्तर से देखा जाए तो कारण में इतनी बड़ी समस्या नहीं दिखाई पड़ती है, लेकिन अगर थोड़ी सी पडताल की जाए तो स्थितियाँ चिंतित करने वाली हैं। हिमाचल प्रदेश राज्य से 27000 मेगा वाट विजली उत्पादन के लिए प्रतिबद्ध हैं जिसके चलते राज्य में तेजी से बांधों का विकास हुआ, जिनमें तमाम छोटे बांध तेजी से उभरे। सतलुज, व्यास, चिनाव, रावी, यमुना नदी पर तमाम बिजली प्रोजेक्ट बनाए गए। सरकारी और स्वंतत्र रूप से बिजली उत्पादन करने वाली तमाम संस्थाए बिजली उत्पादन में लगी हुई है। इसमें से अधिक रन आफ द रिवरतकनीक पर ( भागडा को छोड़कर) आधारित हैं, जिसमें थोड़ी देर के लिए नदीं के जल को रोका जाता है और फिर पानी के प्रवाह को जारी रखा जाता है। लारजी प्रोजेक्ट भी इन्ही रन आफ द रिवरतकनीक पर आधारित हैं। अत: यह बात आसानी से समझा जा सकता है, कि यहाँ पानी समय समय पर छोड़ा जाता है और उस दिन छोडा गया पानी उसी सामान्य क्रिया का एक हिस्सा भर था।
लेकिन ऐसी स्थिति में जहाँ जल स्तर पर लगभग पूर्णतया अनिश्चितता हैं वहां किसी तरह का सूचना तंत्र का विकसित ना होना आश्चर्यचकित करने वाला है। इस ओर आपदा प्रंबधन की उदासीनता को कैसे लिया जाए जबकि इस तरह से तेजी से जलस्तर के बढने की घटना आम बात मान कर बैठा हुआ है। शायद जलस्तर के तेजी से बढने को इतना सामान्य मान लिया गया है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री इसे सामान्य घटना मान रहे थे और किसी तरह के सूचना तंत्र के अभाव पर गंभीर नहीं दिख रहे थे। जबकि विशेषज्ञ सामान्य रूप से इस तरह के तंत्र में जहाँ रन आफ द रिवरतकनीक पर आधारित परियोजना हैं वहां इस तरह की स्थितियों को सामान्य मानते हैं लेकिन इसके लिए प्रभावी सूचना तंत्र की वकालत करते हैं ताकि किसी भी प्रकार के हादसो से बचा जा सके। विशेषज्ञ इस तरह के सूचना तंत्र के जाल को कम से कम बांध से 5 किमी तक फैले होने की सिफारिश करते हैँ। लेकिन विचार करने योग्य तथ्य यह हैं कि 27000 मेगावाट के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध हिमाचल इस तरह के तंत्र को विकसित नहीं कर पा रहा हैं, और इस तरह के हादसों को एक सामान्य घटना की तरह आँक कर वह समस्या की गंभीरता को कम करके आँक रहा है। इसमें राज्य आपदा प्रंबधन की उदासीनता भी शामिल हैं जो एक प्रभावी सूचना तंत्र विकसित करने में पूर्णतया विफल रहा हैं जहाँ जल एक संसाधन और समस्या दोनो की वजह है।
दूसरी सबसे बड़ी समस्या इस पूरे घटना क्रम में सरकारी तंत्र की जवाबदेही पर हैं जो इस तरह के बिजली उत्पादन पर ना केवल नजर रखता हैं बल्कि आवश्यक कदम  उठाता है। हिमाचल प्रदेश में स्टेट लोड डिस्पेच सेंटर (एसएलडीसी) द्वारा दिया जाता है। लेकिन इस पूरे हादसे में इसकी कार्यप्रणाली पर भी एक व्यापक सवाल उठता नजर आ रहा है। विचारणीय तथ्य हैं कि अगर उत्तरी ग्रिड को अतिरिक्त दबाव से बचाने के लिए उत्पादन घटाने की स्थिति आ ही गई थी तो केवल सरकारी यूनिटो की बिजली उत्पादन करने को ही क्यूँ कहा गया। लारजी के अलावा पार्वती-3, गिरी के उत्पादनो का घटाना पड़ा था। लेकिन इसके इतर स्वतंत्र उत्पादको ने अपनी क्षमता से अधिक उत्पादन किया था। जिसमें 1000 मेगावाट के जेपी कंपनी के कडछूम वांगतू प्रोजेक्ट ने 1187 मेगावाट, एनजेवीएन के नाथापा झाकडी प्रोजेक्ट ने 1500 मेगावाट की जगह 1602 मेगावाट, एवरेस्ट पावर कंपनी के मलाणा-2 प्रोजेक्ट ने 100 मेगावाट की जगह 105 मेगा वाट, लैंकों कंपनी के 70 मेगावाट के बुद्धिल प्रोजेक्ट ने 69 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया। ऐसे में संदेह उभर कर आता हैं जिस उत्तरी ग्रिड को बचाने के लिए संस्थानों को बिजली उत्पादन में गिरावट करने का आदेश दिया गया वहीं स्वंत्रत उत्पादक अपनी क्षमता से उत्पादन कैसे कर रहे थे ? स्थानीय मीडिया खबरो और विशेषज्ञों की राय पर भरोसा किया जाए तो यह उन्हें लाभ पहुचाने के लिए किए जाने वाला प्रयास लगता है, क्यूँकि अगर सरकारी बिजली उत्पादन कम रहेगा तो पैसा बनाने का अवसर किसके पास उपलब्ध होगा इसे आसानी से समझा जा सकता है। हाँलाकि यह जाँच का विषय हैं, लेकिन दोनो ही स्थितियां निश्चित ही प्रंबधन तंत्र की कमी को उजागर करता है, अगर सच में उत्तरी ग्रिड पर खतरा था तो इन्हें उत्पादन कम करने को क्यूँ नहीं किया गया?  अगर ये तमाम प्रोजेक्ट भी अपने उत्पादन को कम करते तो लारजी प्रोजेक्ट को अपने उत्पादन में भारी गिरावट (अपने उत्पादन का) नहीं करना पड़ता और उसे इतनी बड़ी मात्रा में पानी भी नहीं छोड़ना पड़ता और शायद इतनी बड़ी विभीषका कारण भी नहीं बनाता। अगर दूसरी स्थिति पर विचार करे जिसमें किसी को अनुचित लाभ पहुचाने का प्रयास किया जा रहा हैं तो यह एक पूरे तंत्र की विश्वसनीयता पर सवाल है। जहाँ एक ओर देश उर्जा समस्या से जूझ रहा है वहां इस तरह की मिलीभगत निश्चित ही देश की उर्जा उपलब्धता पर सवाल उठाएगा ही। निश्चित ही इस ओर एक व्यापक रणनीति बनाने की जरूरत हैं ताकि विभिन्न संस्थानों के बीच ना केवल सामजस्य बनाया जा सके, और पर्यावरणीय पारिस्थितिकीय के साथ साथ पर्यटन के विभिन्न रूपों को बचाया जा सके।
एक स्थिति में जो घटना इतनी छोटे कारण से परिलक्षित होती हैं दरअसल उसकी और भी तहे हैं जिन्हें उधेड़ कर कार्यवाही करना बेहद जरूरी है। राज्य आपदा प्रंबधन तंत्र की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि वो इस तरह के हरेक प्रोजेक्ट के सुरक्षा और सूचना तंत्र की बारीकी से जाँच करे ताकि उस तंत्र को विकसित किया जा सके, जिसमें सुरक्षित पर्यावरण के साथ इस तरह के हादसों को टाला जा सके। इसके साथ एक ऐसे तंत्र का भी विकास करना चाहिए जो पर्यटन और विभिन्न विकास परियोजना के बीच एक सामजस्य स्थापित किया जा सके। इसके साथ  सरकारों को बिजली उत्पादन के पीछे की तमाम राजनीति से जुडे पहलू को एक बार फिर से जाँचने की जरूरत है ताकि उर्जा उपलब्धता के साथ साथ उत्पादन के तहों में भ्रष्टाचार के बीजो को पनपने से रोका जा सके।

शिशिर कुमार यादव
इस लेख को दैनिक जागरण ने अपने राष्ट्रीय संस्करण में 15 जून 2014 को जगह दी है।

बुधवार, 11 जून 2014

आज हमने दिल को समझाया..कि हमने क्या खोया और क्या पाया

1982 में बनी फिल्म "साथ साथ" की कहानी के सभी चरित्र, घटनाएं, आज तमाम कैंपसों में अपने सपने की जीने की कोशिश कर रहे अविनाशो की कहानी है। जो खुद को जीना चाहते हैं। अपने सपनो को, अपनी उम्मीदों को, अपने लिए, अपनी ईमानदारी को रंग देना चाहते हैँ। इसके लिए वो ईमानदार भरी कोशिश भी कर रहे हैं। इस जद्दोजहद में वे अपने आस पास को ईमानदार बनाने के लिए लड़ने के लिए तैयार हैं, और लड़े भी जा रहे हैँ। बहुत से ऐसे भी लोग हैं जो फिल्म के अन्य किरदारों की तरह उसी धारा में बहने के लिए भी तैयार हैं, जिस ओर धारा उन्हें ले जाना चाहती है। इन सब के बीच तमाम हालात हैं जिन्हें फिल्म के किरदार अपने अपने नजरिए से देखना चाहते हैं और बदलना चाहते हैं, हर बार की तरह इन हालातों को बदलने से  कुछ ना कुछ  रोकता हैं और कुछ के लिए बदलाव जैसा सवाल ही नही पनपता। मैं नहीं जानता वो हालात क्या हैं, हर एक के निजी अनुभव अलग अलग हो सकते हैं मेरे भी अपने हैं, आपके के मेरे इतर हो सकते हैं पर ये हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता ।
                        32 साल बाद भी (फिल्म के), आज के हालातों में ऐसा कुछ नहीं बदला, जो उस फिल्म में कहानी का हिस्सा न रहा हो, उसे आप आसानी से जी सकते हैं। जबकि हालात और भी पुराने ही होगें। बाजार तब भी मुनाफे के लिए थे, अखबार तब भी बेईमान थे, और सपने, हां सपने तब भी अपनी दिशाएं बदलते थे। आज भी हालात वैसे ही हैं। सपने हैं, अखबार हैं, बाजार है और तमाम अविनाश भी। गीता (दीप्ति नवल) सरीखे किरदार भी जो अविनाश ( फारूख शेख ) से प्रभावित भी होती हैं और उन्हें जीना भी चाहती हैं, वे उस अविनाश  के साथ ना केवल चलने को तैयार हैं बल्कि उन जगहों पर टोक भी रही हैं, जहाँ से हालातों को आसानी से मजबूरी का आभूषण पहनाया जा सकता है। लेकिन फिर भी बहुत कुछ हैं जो हर बार की तरह यथास्थितिवादी हो जाता है। जिसके चलते कही ना कही हम खुद को उसी तरह अनदेखा किए जाते हैं, जैसा कि अविनाश करता है। हम में से बहुत लोग खुद को जीने को भी तैयार नहीं हैं और जो कुछ लोग तैयार हैं वे कब पाला बदलते हैं वो उन्हें खुद भी नहीं पता। यानी सामान्य रूप से इन स्थितियों में तमाम लड़ाई के बाद कुछ ऐसा नहीं बदला जिन्हें अलग करके यह कहा जा सके कि इन हालातों में ऐसा परिवर्तन हो चला हैं जिसे बदलते वक्त के साथ खुद के लिए जीत कहा जा सके।
       इन हालातो को थोड़ा सा नीचे करके सामाजिक सच की ओर ले जाया जाए तो भी हालातो में ठीक वैसी ही स्थिति हैं जैसे एक वक्त में हुआ करती थी। हालातों में थोड़ा बहुत परिवर्तन तो हैं पर वक्त और लगी उर्जा को मापक बनाए तो पता चलता हैं कि खिसका जरूर हैं पर नाममात्र का। तमाम वो मुद्दे जो इंसानो से जुड़े है, और जिन्हें आज भी मुद्दों के रूप में देखा जा रहा हैं।  उनसे जुडें लोग खुद के इंसान होने का इतंजार कर रहे है।  वे इंतजार कर रहे हैं कि इन मुद्दों से छुुटकारा मिले ताकि वो भी इंसान हो सकें। सच में इंसान की इतनी अधिक पहचान है, इंसान खुद भी यह भूल चुका हैं कि असली रूप क्या है। हैं भी कि नही या वो एक मुद्दें के रूप में आया था और एक मुद्दें के रूप में चला जाएगा। तो ऐसे में जब पुरानी पीढी अपनी नई पीढी से बेहतर होने का दावा करती हैं। तो सोचना लाजमी हैं कि कैसे पुरानी पीढी के दावों को आसानी से स्वीकार कर लिया जाए, जबकि उनके वक्त के हालात ऐसे ही थे जैसा कि हम आज जी रहे हैँ।

मेरे लिए आसान हैं यह सब लिख पाना क्यूँ कि मैं इनमें से कई का हिस्सा नहीं रहा हूँ और शायद होऊगां भी नही। आप में से भी तमाम लोग मुझ जैसे ही हालातो से है और इन स्थितियों के हिस्सें नहीं होगे। लेकिन जरा एक पल सोचिए और देखिए कि अगर आप इन हालातों के हिस्से में होते तो। कि किन परिस्थितियों में एक मासूम बच्चा अपने हालातो में अपनी छोटी सी उम्र में इतना समझदार हो जाता हैं जितना कि हम सारी उम्र खर्च करके भी नहीं हो पाते। लिखने और कहने में सच में बड़ा रूमानी हैं फिल्में देख कर उन हालातो पर सोच लेना हमारी खुद के लिए संवेदनशील होने का प्रमाण होती है, लेकिन ईमानदारी से कहता हूँ कि आप की तमाम लड़ाईयां उस बच्चें से बड़ी नहीं हो सकती हैं, और आपकी बौद्धिकता के पैमाने उन्हें नहीं नाप सकते जिन्हें वो बच्चा हर दिन ना केवल नाप रहा है, वरन अपने आप को बनाए हुए है। बिडम्बना ये हैं कि उन हालातों के लिए उसने कुछ किया भी नहीं हां जी जरूर रहा है।

 मैं यहां  कि आदर्शो को जीने की ना तो वकालत करना चाह रहा हूँ और ना ही उन्हें छोड़ देने की सलाह देना चाह रहा हूँ। औऱ ना ही मेरा मानवता और मानवीयता के पक्ष में लेख लिख कर अपने ब्लॉग में लेखों की संख्या को बढाना हैं। मेरा इन सब को लिखने का एक ही मकसद हैं कि क्या हम एक पल के लिए रूक नहीं सकते।  इन सब पर हम एक पल के लिए  सोच नहीं सकते हैं।  जो बीत रहा हैं और जिन पर बीत रहा हैं वो उनके बारे में बस थोड़ी सी ईमानदारी से साेच कर देखिए और अगर लगता हैं कि सच में कुछ तो बदलना चाहिए तो बस वहीं बदल लीजिए जो आप बदल सकते हैं, इसमें दूसरे कि मदद की भी जरूरत नहीं। औऱ हां अगर नहीं लगता कि कुछ बदलने के लिए तो चल पडिए जैसे पहले चले जा रहे थे। लेकिन अगर किसी भी झुरमुट में थोड़ी सी आहट हो तो कृपया पलट कर  देखिएगा जरूर...



 शिशिर कुमार यादव ... 

सोमवार, 9 जून 2014

बदायूं और दिल्ली की लड़की का फर्क ...

उत्तर प्रदेश के बदायूं में दो लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार और फिर उनकी हत्या के  बाद मैं इस बार मुठ्ठी भीचे सड़को पर नहीं था, और ना ही रातो को रिक्लेम करो या हम क्या चाहते आजादी सरीखे नारे  लगा रहा था। मेरे अलावा भी बहुत सारे लोग इस बार सड़को पर नहीं थे, जो 16 दिस्मबर 2012 के बाद कई दिनों तक सड़को पर किसी की परवाह किए बिना सड़क पर तंत्र को जड़ से झकझोरने पर आमादा थे, और बिना कोर्ट के निर्णय के आए, एक ऐसा माहौल बना दिया गया कि फाँसी के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। यह स्पष्ट नहीं हो रहा इस बार हम लोग सड़क पर क्यूँ नहीं थे? आखिर अंतर क्या था इस घटना और 16 दिसम्बर की घटना में? यहाँ एक नहीं दो जिंदगियों को लाशों में तब्दील कर दिया गया। बर्बरता की सीमा कही से कमतर नहीं थी, बलात्कार के बाद जिंदा पेड़ पर टांग दिया गया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट इसकी गवाह है, कि बलात्कार के बाद उन्हें मारा गया, वो भी नृशंस तरीके से, फिर भी हम सड़को पर ना थे।

इन सबके बाद आखिर ऐसी क्या कमी रह गई जो हमारी संवेदना को उद्वेलित न कर सका और हमें सड़को पर ना ला सका। क्या ये बलात्कारी और हत्यारे उस स्तर के नहीं थे जो 16 दिसंबर 2012 के थे। तो क्या मौसम खिलाफ था, दिसम्बर में तो हाड कपा देने वाली ठंडक थी फिर भी हम सड़को पर थे। तो क्या पुलिस की भूमिका स्पष्ट नहीं थी? इस घटना में तो पूर्णतया मिलीभगत थी 16 दिसम्बर 2012 में पुलिस की गैरजवाबदेही थी फिर भी हमने कमिश्नर के कॉलर को पकड़ लिया था। इस बार जिस निजाम के खिलाफ जाना था वो बहुत ताकतवर था, ऐसा भी नहीं 16 दिंसम्बर 2012 में तो राज्य और केन्द्र दोनों के खिलाफ एक साथ खिलाफ खडें थे, उत्तर प्रदेश की सरकार उनके सामने कमजोर ही है। तो मीडिया के कैमरे नही थे? ऐसा भी नहीं हैं, राजनेताओ के भ्रमण कार्यक्रम के साथ साथ उत्तर प्रदेश की सरकार के खिलाफ काफी कुछ चला है। तो फिर, क्या 16 दिंसम्बर 2012 के बाद कड़े कानून आ गए इसलिए हम निश्चिंत हो गए थे? ऐसा भी नहीं कानून के बाद बलात्कार की घटनाओं के आँकडे उठा कर देखिए, बलात्कार की घटना में कही कोई कमी नहीं आई है । तो आखिर वजह क्या है?  

लड़कियों कमजोर वर्ग से थी इसलिए वो हमारे सरोकारो को ना झकझोर पाई।  उनका ग्रामीण होना, हमारी बौद्धिक और सिविल सोसाइटी के समर्थन पाने लायक नहीं था, हां यही वो वजहें हैं जिनकी वजह से हम सड़को पर नहीं उतरे। 16 दिसम्बर 2012 के वक्त भी यह सवाल उठा था कि आखिर अब तक चुप क्यूँ थे, जबकि बलात्कार हर रोज देश के किसी ना किसी हिस्से में हकीकत का हिस्सा है, और उनकी बर्बरता भी किसी भी मायने में किसी घटना से अलग नही थी। उस वक्त भी हमारे पास जवाब ना था लेकिन मामला हमारे वर्गीय हिस्से से जुड़ा हुआ था और उस वक्त इस बात से संतोष कर लिया गया कि कोई नहीं, पहले नहीं तो अब ही सही नारी सम्मान और अधिकार के प्रति शायद समाज में इस तरह के विरोध के बाद चेतना का प्रचार प्रसार हो जाए और लम्बे दौर से जिसे यूँ ही सह लिए जाने वाले अपराधा के खिलाफ नाकेबंदी कर दी जाए। उस वक्त भी कानून और अपराध पर कठोर दंड को सीमित भूमिका में ही आँका गया था। सामाजिक चेतना और सामाजिक विरोध की संस्कृति को सिंचित करने पर ही बल दिया गया था। लेकिन 16 दिसम्बर 2012 के बाद काफी कुछ बदला पर विरोध करने की वर्गीय चेतना में कोई खास परिवर्तन नहीं आया, जिसकी वजह से हर दिन कोई ना कोई इस जघन्य अपराध का शिकार बनता रहा और हम चुपचाप अपने सघर्ष को पूर्ण मानकर अपनी अपनी सामाजिक सरोकारिता से पल्ला झाड आराम फरमा रहे थे। आँकडे गवाह हैं और जंतर मंतर में बैठी भागाणा के दलित महिलाएं हमारी वर्गाय चेतना में शून्य हो चुकी सामाजिकता और सरोकारिता पर तमाचा है।

 महिलाओं के अधिकारों की एक छोटी लड़ाई लड़ कर हम कानून के नियमों में परिवर्तन तो करा ले गए, अपराधियों को दंड भी दिला दे जाएगें, लेकिन उस संस्कृति को यू ही फलने फूलने के लिए छोड़ दिया जिसकी छाव में इस तरह के अपराधों की पौध को ना केवल सीचा जाता हैं वरन उन्हें संरक्षित भी किया जाता है। सबसे बड़ा सवाल यह हैं कि समाज इस तरह के अपराधों को किन खाँचों में देखने का प्रयास करता है? समाज का एक वर्ग जहां विरोध कर के परिवर्तन करने की मांग करता हैं वहीं दूसरी और देश के हर कोने में बलात्कार, भ्रूण हत्या और महिलाओं के प्रति अपराध जारी रखता हैं, और इन परिस्थितियों में हम अपनी लडाई को पूरा मानकर चुप बैठे है। तो क्या ये  सघर्ष को बीच में छोड़ देना सरीखा नहीं हैं। ऐसे में यह सवाल अपने आप में महत्वपूर्ण हो जाता हैं कि एक कठोर कानून कहाँ तक महिलाओं और उनके अधिकारों को सुरक्षित कर सकेगा। जबकि समाज महिलाओं के प्रति अपनी सामंती और पित्रृसतात्मक सोच से बाहर निकलने के लिए तैयार ही नहीं हैं। जिस समाज में महिलाओं से जुडे अपराधों में महिलाओं को अपराधी बनाने की प्रवृत्ति प्रमुख हैं, उस समाज में इस तरह की चुप्पी, और महिला की पृष्ठभूमि और वर्ग को देखकर कर अपनी आवाज उठाना केवल आत्ममोही प्रयास होगा

किसी समाज में निम्न जाति के लड़की के साथ बलात्कार जैसे अपराध को अंजाम देने के बाद उसका सार्वजनिक रूप से मार कर पेड से लटका कर प्रदर्शन करना उसी बर्बर मानसिकता का प्रमाण हैं जो पुरूषों का महिलाओं के प्रति असहिष्णुता, संप्रभु जाति का अपने से निम्न जाति के प्रति सांमती प्रवृत्ति का द्योतक है। अगर इस तरह की संस्कृति का विरोध नहीं किया गया तो हम सामाजिक गैरजिम्मेदारी औऱ राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव को अनदेखा कर रहे है। जो इनका मूल हैं। जो आज भी नारी अधिकारों के रास्ते तय कर रहें हैं वो नारी देह को आजाद करने के लिए तैयार ही नहीं हैं। हम किस ओर लड़ रहे हैं यह एक महत्वपूर्ण सवाल हैं। हम लगातार असली जड़ को लगातार अनदेखा किए जा रहे हैं जिनसे हमें सच में लडना हैं। हम कब तक अपराधियों से अपराध के लिए लड़ते रहेगे ? इस लडाई से राजनैतिक जिम्मेदारी को एक हद तक जवाबदेह बना लेगें लेकिन सामाजिक जवाबदेही के इस तरह की किसी भी राजनैतिक जवाबदेही का कोई औचित्य नहीं होगा। सामाजिक जवाबदेही के बिना हमारी लडाई अधूरी ही रह जाएगी और राजनैतिक जवाबदेही को भी बच निकलने का पूरा मौका मिल जाएगा जैसा कि खाँप पंचायतो के मामले में हआ था। ऐसें में लडाई राजनैतिक दबाब के साथ साथ सामाजिक जवाब देही की ओर मोड़ने की भी जरूरत हैं, जहाँ पितृसत्तात्मक समाज के अलोकतांत्रिक नियमों के तलें महिलाएं एक लम्बे दौर से अपने लोकतात्रिक हको का बलिदान करती आ रही हैं।

इसीलिए महिला अधिकारों के लिए जलाई गई मशाल को अपनी सुविधा के अनुसार कुछ जगहो पर आलोकित करना कही न कही, सामाजिक तानेबाने को सामाजिक जवाबदेहिता से बच निकलने का मौका देने शरीखा होगा। इसीलिए विरोध स्थान, पृष्ठभूमि, वर्ग और जाति के इतर किए जाने की जरूरत है, जहाँ महिला की पहचान किसी दूसरे खाँचों में ना खीची जाए। इस घटना के बाद समाज से किसी बड़ी प्रतिक्रिया का ना आना स्पष्ट करता हैं कि विरोध भी विरोध स्थान, पृष्ठभूमि, वर्ग और जाति में बटा हुआ है, और महिला अधिकारो की लड़ाई लड़ने वाले किसी एक वर्ग या पृष्ठभूमि से आने वालों के लिए ही विरोध की पाठशाला खोलेगें। अगर ऐसा जारी रहेगा तो निश्चिंत रहिए वो वर्ग भी जल्द ही इसकी जद में घिरा दिखेगा जिसके रहनुमा आप बने हुए है। 16 दिसम्बर की घटना उसी का एक प्रमाण थी। जरूरत वर्गीय चेतना के इतर महिलाओ के अधिकारों के लिए ईमानदारी भरे आंदोलन की ताकि आने वाले वक्त में आधी आबादी की आजादी सुनिश्चित की जा सके।

                                                                                                                       शिशिर कुमार यादव

इस लेख को दैनिक जागरण ने अपने राष्ट्रीय संस्करण में 10 जून 2014 को जगह दी है।

सोमवार, 26 मई 2014

आपदा की सुगबुगाहट


16 मई के बाद देश में नए निजाम का चयन हो गया है, यानी देश में राजनैतिक भविष्य के बादल छट चुके हैं। अब देश उन तमाम समस्याओं की ओर फिर से लौटेगा, जिन पर पिछले कुछ महिनों से उसका ध्यान ही नहीं गया है। कृषि प्रधान देश में मानसून एक प्रमुख विषय होगा। भारत में मानसून जून के पहले सप्ताह से लेकर दूसरे सप्ताह तक देश के बडे भू – भाग में फैल जाता है। इसमें देरी देश की बड़ी जनसंख्या के माथे पर बल ला देती है। इस साल कुछ इसी तरह की सुगबुगाह चुनावों के शोर के बीच से आने लगी थी, जो भारतीय मानसून की चिंता का विषय है। चुनावी शोर के बीच छन छन आ रही खबरों ने इस ओर ड़र को बढाया ही था।
यह खबर है अल-नीनो के सक्रिय होने की खबर। विश्व की दो प्रमुख संस्थाए आस्ट्रेलिया की व्यूरों ऑफ मीटिरिओलॉजी तथा अमेरिका की क्लामेट प्रिडिक्शन सेंटर ने वर्ष 2014 में अल-नीनो के सक्रिय होने का अनुमान जारी किया है। इसी आधार पर विश्व की प्रमुख ग्लोबल रेटिंग ऐजेन्सी मूडीज ने भी भारतीय मानसून के लिए चिंता जतायी है। अपने इस साल के आर्थिक आकलन में भारतीय अर्थव्यव्स्था को 4.5 - 5.5 फीसदी के बीच आँक रही हैं। इसी प्रकार की झलक भारत की प्रमुख रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के अनुमान में साफ देखी जा सकती हैं, जिसने अपनी रिपोर्ट में वित्त वर्ष 2014-15 के लिए भारत की आर्थिक विकास दर 6 % से घटा कर 5.2% कर दिया है। अगर यह अनुमान सही निकले तो निश्चित ही भारत 2013 के बाद 2014 में एक बार बड़ी आपदा का सामना करेगा। अल-नीनो के प्रभाव से सन 2002, 2004, 2009 में सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ा था। जिसमें 2009 की स्थिति सबसे अधिक भयावह थी। जिसने देश के कई हिस्सों में अकाल की स्थितियां पैदा कर दी थी और देश की तमाम खाद्य सुरक्षा योजनाओं के सामने संकट खड़ा कर दिया था।

अल-नीनो दक्षिण अमेरिका में पेरू, इक्वाडोर के आसपास प्रंशात महासागर के समुद्री तापमान के बढ़ जाने के कारण उपजने वाली प्राकृतिक स्थिति है। जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव मानसून पर पड़ता है। तापमान वृद्धि से मध्य और पूर्वी प्रशांत महासागर में हवा के दबाव में कमी आने लगती है। इसके प्रभाव से विषुवत रेखा के ईर्द- गिर्द चलने वाली ट्रेड विंड कमजोर पड़ने लगती है। यही हवाएं मानसूनी हवाएं है, जिनसे वर्षा होती है। इनके कमजोर होने से मानसून धीमा पड़ जाता है। जिसके चलते भारत मे मानसून अस्त-व्यस्त हो जाता है। असंयमित मानसून सूखे की स्थिति को पैदा करता हैं, जिससे देश की कृषि विकास पर व्यापक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिसका सीधा प्रभाव भारतीय आर्थिक विकास पर पड़ता है। सिचाई, पेयजल उपलब्धता, भूमिगत जलस्तर में कमी, बाधों में जल की कमी जिससे उर्जा उत्पादन में कमी, कीमतो में अत्यधिक वृद्धि, खाद्यान्न उत्पादन में कमी जो देश की खाद्य सुरक्षा पर ही सवाल खड़ा करने वाला होगा।
अब सवाल ये उठता हैं कि अगर विश्व की तमाम अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं अल- नीनो के संबध में बयान जारी कर रही हैं, तो इस ओर भारत की संस्थाएं क्या कर रही हैं। इन चेतावनी के बावजूद भारतीय संस्थाएं अभी भी किसी तरह का आँकलन कर, किसी निर्णय पर पहुच पाने में असमर्थ हैं। मौसम संबधी भविष्यवाणियां करने वाली भारत का प्रमुख संस्था भारतीय मौसम विभाग इन अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की भविष्यवाणी को संदेह की नजर से देख रहा है। विभाग का मानना है कि यह सारी भविष्यवाणियां एक साजिश की तरह से की जा रही हैं, क्योंकि इससे भारत का कमोडिटीज और स्टॉक मार्केट पस्त होगा, जिसका फायदा आस्ट्रेलिया और अमेरिका को होगा। इस डर से लोग जमाखोरी करने लगेंगे, जो बाजार में कृतिम तंगी ला देगा। भारतीय मौसम विभाग इस विषय में अपनी भविष्यवाणी अगले माह जारी करेगा। हाँलाकि भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणियों की सटीकता पर हमेशा ही सवाल उठता रहा है।
भारतीय पहलू जो भी हो पर भारतीय संस्थाए अभी भी किसी विशेष निर्णय पर नहीं पहुच पाई हैं। इनमें से अगर कोई भी स्थिति भारत में उपजती हैं तो स्थिति भयावह ही होगी।। अगर अल-नीनो की स्थितियां उपजती हैं तो देश इस साल कमजोर मानसून की चपेट में आ जाएगा, और देश को सूखें जैसी गंभीर आपदा से रूबरू होना पडेगा, और अगर ऐसा होता हैं तो आपदा प्रंबधन के साथ साथ खाद्य सुरक्षा के सामने एक बड़ी चुनौती होगी, और पुराने अनुभव दोनों संस्थाओं की क्षमता पर एक बड़ा सवाल उठाते हैं। दूसरी स्थिति में अगर ये भविष्यवाणियां किसी प्रयोजन के तहत फैलायी जा रही हैं तो भी इन अफवाहों का असर निश्चित ही भारतीय बाजार और खाद्य सुरक्षा पर पडेगा। जमाखोरी बढेगी। वस्तुओं की कीमत में उछाल आएगा, और आपूर्ति के अभाव में रोजमर्रा की चीजे गरीबो के लिए ख्बाब में बदलते देर नहीं लगेगी। समय समय पर प्याज और दाल संकट इसके प्रमाण है। जमाखोरी की समस्या भारत का ऐसा कोढ़ है जिसको तमाम उपायों के बाद भी निपटा नहीं जा सका है, इनके पीछे कारणों की एक लम्बी लिस्ट है। अत: निश्चित ही इन दोनो स्थितियां भारत की जनता के लिए आपदा ही हैं।
इन आपदाओं का सीधा प्रभाव देश की उस जनता पर सबसे ज्यादा पड़ेगा जिसके निर्धारण में देश के तमाम अर्थशास्त्रियों और विद्वानों के पैमाने छोटे पड़ते रहे हैं, लेकिन वह हमेशा ही बड़ी संख्या में इस देश में रहती है, यानी गरीब। मानसून की विफलता देश के बड़े भू-भाग को प्रभावित करेगा, जिसके व्यास में देश के हर कोने का गरीब आ जाता है, जबकि अन्य आपदाओं में आपदा का प्रभाव भौगौलिक विशेष और वहां की जनता पर परिलक्षित होता है। ऐसे में दोनो स्थितियों से निपटने के लिए ईमानदारी भरे प्रयासों की जरूरत होगी, वरना परिणाम भयावह ही होगें।
इन सदिग्ध परिस्थितियों में ऐसा क्या किया जाए, कि इन दोनो स्थितियों का प्रभाव कम किया जा सके। अगर सही से आंकलन करें तो दोनो ही स्थितियां खाद्य सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। अगर किसी तरह खाद्य उपलब्धता को सुनिश्चित किया जा सके, तो इस आने वाली आपदा के प्रभाव को कम किया जा सकता है। समुचित प्रंबधन, वितरण और उपलब्धता सुनिश्चित कर सके तो इन दोनो ही स्थितियों (सूखा और जमाखोरी) से आसानी से निपटा जा सकता है, और इनके प्रभावों को न्यूनतम किया जा सकता है। इसके लिए सबसे पहले इस वर्ष हुए उत्पादन का समुचित भंडारण और उसके सुरक्षित रख रखाव किये जाने की जरूरत है ताकि इसका उपयोग विषम परिस्थितियों में किया जा सके।
भारत में इस ओर भी तंत्र में काफी कमजोरियां है। देश के प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा भारत की भंडारण और रखरखाव की समस्या को इन आपदाओं का सहयोगी मानते हैं और कहते हैं कि हम समुचित भंडारण क्षमता उपलब्ध करा पाने में विफल रहे हैं, जिसकी वजह से उत्पादन होने के बावजूद हम कुछ भी सार्थक नहीं कर पाते है। यह सच हैं कि कृषि उत्पादनों में भारत ने आशातीत वृद्धि की है लेकिन आज ही भंडारण और उसके रखरखाव में हम पूर्णतया विफल रहे हैं। उदाहरण के लिए पहली अप्रैल तक पंजाब में 143 लाख टन अनाज भंडारण की क्षमता थी लेकिन समस्या यह है कि इसमें से 121 लाख टन के लिए जगह पहले वाली फसलों से ही भरी हुई है। इस वर्ष अकेले पंजाब से तकरीबन 140 लाख टन गेहूं की खरीदारी की उम्मीद है। इसमें से 70 फीसद हिस्सा खुले में रखा जाएगा। प्लेटफार्म के किनारे तिरपाल से ढककर बोरियों में भी अनाज रखा जा रहा है। इससे कुल 114 लाख टन अनाज के लिए अतिरिक्त जगह उपलब्ध हुई है, लेकिन इसमें से 40 लाख टन जगह पहले से भरी हुई है। हम जानते हैं कि खुले में पड़ा खाद्यान्न न केवल खराब होता जाता है, बल्कि यह मानव स्वास्थ्य और यहां तक कि पशुओं के उपभोग के लिहाज से भी खाने योग्य नहीं होता।
ऐसे मे जिस उपाय को प्राथमिक सीढी के रूप में उपयोग किए जा सकता है, वे खुद ब खुद टूटी हुई बैशाखी के सहारे चल रहा हैं। भारत इस ओर अपने पुराने अनुभवों से पाठ तो पढता हैं लेकिन उससे बचने के प्रयासों की ओर अपनी सुस्ती नहीं छोड़ पा रहा है। ये प्रशासनिक धीमापन भी इस तरह की आपदाओं का सहयोग ही करते है। ऐसे में प्रतिस्पर्धी विश्व में अपनी स्थिति को मजबूत बनाए रखने के लिए भारत को मजबूत प्रंबध तंत्र को विकसित करने की जरूरत हैं ताकि आपदा के प्राथमिक प्रभावों को जो अन्य चरणों की अगुवाई भी करता है, उनसे बचा जा सके।
हाँलाकि दोनो ही स्थितियां भविष्य के गर्त में हैं लेकिन इनकी सुगबुगाहट से यह तो स्पष्ट हैं कि अगर यह उपजती हैं तो 2013 के बाद भारत एक और बड़ी आपदा का साक्षी होगा, जिसमें हमारे प्रंबध तंत्र की कमी की भी अपनी हिस्सेदारी होगी। उम्मीद करते हैं कि नई सरकार के निजाम इस सुगबुगाहट को गंभीरता लेगें, और विभिन्न स्तरों पर ईमानदारी भरे प्रयास करेगें।
                                                                                                                       शिशिर कुमार यादव

शुक्रवार, 9 मई 2014

चुनावी मौसम में आपदा के संकेत..

मई का महिना आशाओं का महिना होता हैं। कृषि प्रधान देश में इस महिने में किसान अपनी फसल से हुए नुकसान और फायदें का आकलन करते हुए भविष्य के लिए योजनाएं बनाते हैं। जो उनकी आशाओं का हिस्सा होता है। हाँलाकि हर बार आर्थिक क्षेत्र के साथ साथ राजनैतिक सरगर्मियां भी मई की गर्मी में तप रही हैं। भारतीय किसान भला ही राजनैतिक सरगर्मियां में थोड़ी देर के लिए रमा हो और कृषि से जुड़े मसलों पर ध्यान कम दे रहा हो लेकिन चुनाव खत्म होते ही वो एक बार से उस ओर ही चिंता करेगा, जिस पर उसकी खेती निर्भर करती है, यानी आने वाला मानसून।
भारतीय मानसून की अनिश्चितता हमेशा ही किसानों का भविष्य से खेलती हैं, लेकिन इस बार चुनावी शोर के बीच छन छन आ रही खबरों से इस ओर ड़र बढता जा रहा है। ये खबरे हैं अल-नीनो के सक्रिय होने की खबर। विश्व की दो प्रमुख संस्थाए आस्ट्रेलिया की व्यूरों ऑफ मीटिरिओलॉजी तथा अमेरिका की क्लामेट प्रिडिक्शन सेंटर ने वर्ष 2014 में अल-नीनो के सक्रिय होने का अनुमान जारी किया है। जो भारतीय मानसून के लिए चिंता का विषय है। अल- नीनो प्रभाव के चलते भारत मे मानसून अस्त-व्यस्त हो जाता है। असंयमित मानसून सूखे की स्थिति को पैदा करता हैं, जिससे देश की कृषि विकास पर व्यापक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिसका सीधा प्रभाव भारतीय आर्थिक विकास पर पड़ता है। इसकी एक झलक भारत की प्रमुख रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के अनुमान में साफ देखी जा सकती हैं, जिसने अपनी रिपोर्ट में वित्त वर्ष 2014-15 के लिए भारत की आर्थिक विकास दर 6 % से घटा कर 5.2% रह आंकी है। अगर यह अनुमान सही निकले तो निश्चित ही भारत 2013 के बाद 2014 में एक बार बड़ी आपदा का सामना करेगा। इस तरह का प्रभाव सन 2002, 2004, 2009 में सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ा था। जिसमें 2009 की स्थिति सबसे अधिक भयावह थी। जिसने देश के कई हिस्सों में अकाल की स्थितियां पैदा कर दी थी और देश की तमाम खाद्य सुरक्षा योजनाओं के सामने संकट खड़ा कर दिया था।

अल-नीनो दक्षिण अमेरिका में पेरू, इक्वाडोर के आसपास प्रंशात महासागर के समुद्री तापमान के बढ़ जाने के कारण उपजने वाली प्राकृतिक स्थिति है। जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव मानसून पर पड़ता है। तापमान वृद्धि से मध्य और पूर्वी प्रशांत महासागर में हवा के दबाव में कमी आने लगती है। इसके प्रभाव से विषुवत रेखा के ईर्द- गिर्द चलने वाली ट्रेड विंड कमजोर पड़ने लगती है। यही हवाएं मानसूनी हवाएं है, जिनसे वर्षा होती है। इनके कमजोर होने से मानसून धीमा पड़ जाता है। जिसका प्रभाव भारत जैसे देशों में कृषि से शुरू होकर अर्थव्यवस्था के हरेक हिस्से को प्रभावित करता हैं जिसका सरोकार आम जनता से है। सिचाई, पेयजल उपलब्धता, भूमिगत जलस्तर में कमी, बाधों में जल की कमी जिससे उर्जा उत्पादन में कमी, कीमतो में अत्यधिक वृद्धि, खाद्यान्न उत्पादन में कमी जो देश की खाद्य सुरक्षा पर ही सवाल खड़ा करने वाला होगा।
हाँलाकि भारतीय मौसम विभाग इन अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की अल- नीनो संबधी भविष्यवाणी को संदेह की नजर से देख रहा है। विभाग का कहना है कि यह सारी भविष्यवाणियां एक साजिश की तरह से की जा रही हैं, क्योंकि इससे भारत का कमोडिटीज और स्टॉक मार्केट पस्त होगा, जिसका फायदा आस्ट्रेलिया और अमेरिका को होगा। क्योंकि इस डर से लोग जमाखोरी करने लगेंगे, जो बाजार में कृतिम तंगी ला देगा। भारतीय मौसम विभाग इस विषय में अपनी भविष्यवाणी अगले माह जारी करेगा। हाँलाकि भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणियों की सटीकता पर हमेशा ही सवाल उठता रहता है।
अगर इन सभी पहलुओ पर एक नजर डालें तो दोनो ही स्थितियां ही होगीं। अगर अल-नीनो की स्थितियां उपजती हैं तो देश इस साल कमजोर मानसून की चपेट में आ जाएगा, और देश को सूखें जैसी गंभीर आपदा से रूबरू होना पडेगा, और अगर ऐसा होता हैं तो आपदा प्रंबधन के साथ साथ खाद्य सुरक्षा के सामने एक बड़ी चुनौती होगी। हाँलाकि पुराने अनुभव भारत की दोनों ही क्षमता पर एक बड़ा सवाल उठाते हैं। दूसरी स्थिति में अगर ये भविष्यवाणियां किसी प्रयोजन के तहत फैलायी जा रही हैं तो भी इन अफवाहों का असर निश्चित ही भारतीय बाजार और खाद्य सुरक्षा पर पडेगा। जमाखोरी की समस्या भारत का ऐसा कोढ़ है जिसको तमाम उपायों के बाद भी निपटा नहीं जा सका है। यानी दोनो ही स्थितियां भारत की जनता के लिए आपदा ही हैं।
इन आपदाओं का सीधा प्रभाव देश की उस जनता पर सबसे ज्यादा पड़ेगा जिसके निर्धारण में देश के तमाम अर्थशास्त्रियों और विद्वानों के पैमाने छोटे पड़ते रहे हैं, लेकिन वह हमेशा ही बड़ी संख्या में इस देश में रहती है, यानी गरीब। मानसून की विफलता देश के बड़े भू-भाग को प्रभावित करेगा, जिसके व्यास में देश के हर कोने का गरीब आ जाता है, जबकि अन्य आपदाओं में आपदा का प्रभाव भौगौलिक विशेष और वहां की जनता पर परिलक्षित होता है। ऐसे में दोनो स्थितियों से निपटने के लिए ईमानदारी भरे प्रयासों की जरूरत होगी, वरना परिणाम भयावह ही होगें।
इस स्थिति में निपटने के लिए सबसे प्रमुख और कारगर उपाय होगा खाद्यान्न उपलब्धता। अगर खाद्यान्न उपलब्धता को कायम किया जा सके, और साथ ही साथ इसका समुचित प्रंबधन, वितरण और उपलब्धता सुनिश्चित कर सके तो इन दोनो ही स्थितियों (सूखा और जमाखोरी) से आसानी से निपटा जा सकता है, और इनके प्रभावों को न्यूनतम किया जा सकता है। यह तभी सुनिश्चित किया जा सकता हैं जब देश की सरकारी मशीनरी इस ओर ईमानदारी से काम करें। इसके लिए सबसे पहले इस वर्ष हुए उत्पादन का समुचित भंडारण और उसके सुरक्षित रख रखाव किये जाने की जरूरत है ताकि इसका उपयोग विषम परिस्थितियों में किया जा सके।
हाँलाकि इस ओर भारत का तंत्र काफी कमजोर है। देश के प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा भारत की भंडारण और रखरखाव की समस्या को इन आपदाओं का सहयोगी मानते हैं और कहते हैं कि हम समुचित भंडारण क्षमता उपलब्ध करा पाने में विफल रहे हैं, जिसकी वजह से उत्पादन होने के बावजूद हम कुछ भी सार्थक नहीं कर पाते है। यह सच हैं कि कृषि उत्पादनों में भारत ने आशातीत वृद्धि की है लेकिन आज ही भंडारण और उसके रखरखाव में हम पूर्णतया विफल रहे हैं। उदाहरण के लिए पहली अप्रैल तक पंजाब में 143 लाख टन अनाज भंडारण की क्षमता थी लेकिन समस्या यह है कि इसमें से 121 लाख टन के लिए जगह पहले वाली फसलों से ही भरी हुई है। इस वर्ष अकेले पंजाब से तकरीबन 140 लाख टन गेहूं की खरीदारी की उम्मीद है। इसमें से 70 फीसद हिस्सा खुले में रखा जाएगा। प्लेटफार्म के किनारे तिरपाल से ढककर बोरियों में भी अनाज रखा जा रहा है। इससे कुल 114 लाख टन अनाज के लिए अतिरिक्त जगह उपलब्ध हुई है, लेकिन इसमें से 40 लाख टन जगह पहले से भरी हुई है। हम जानते हैं कि खुले में पड़ा खाद्यान्न न केवल खराब होता जाता है, बल्कि यह मानव स्वास्थ्य और यहां तक कि पशुओं के उपभोग के लिहाज से भी खाने योग्य नहीं होता।
ऐसे मे जिस उपाय को प्राथमिक सीढी के रूप में उपयोग किए जा सकता है, वे खुद ब खुद टूटी हुई बैशाखी के सहारे चल रहा हैं। अल- नीनो क कारण प्राकृतिक हो सकता हैं लेकिन उसका बचाव केवल और केवल पूर्व की गई तैयारियों के साथ ही किया जा सकता है, जिसमें खाद्य उपलब्धता एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। भारत इस ओर अपने पुराने अनुभवों से पाठ तो पढता हैं लेकिन उससे बचने के प्रयासों की ओर अपनी सुस्ती नहीं छोड़ पा रहा है। ये प्रशासनिक धीमापन भी इस तरह की आपदाओं का सहयोग ही करते है। ऐसे में प्रतिस्पर्धी विश्व में अपनी स्थिति को मजबूत बनाए रखने के लिए भारत को मजबूत प्रंबध तंत्र को विकसित करने की जरूरत हैं ताकि आपदा के प्राथमिक प्रभावों को जो अन्य चरणों की अगुवाई भी करता है, उनसे बचा जा सके।
हाँलाकि दोनो ही स्थितियां भविष्य के गर्त में हैं लेकिन इनकी सुगबुगाहट से यह तो स्पष्ट हैं कि अगर यह उपजती हैं तो 2013 के बाद भारत एक और बड़ी आपदा का साक्षी होगा, जिसमें हमारे प्रंबध तंत्र की कमी की भी अपनी हिस्सेदारी होगी। उम्मीद करते हैं कि 16 मई के बाद नई सरकार के निजाम इस स्थितियों को गंभीरता से लेगें और इस और ईमानदारी भरे प्रयास करेगें।

                                                                                                                       शिशिर कुमार यादव

इस लेख को दैनिक जागरण ने अपने राष्ट्रीय संस्करण में 10 मई 2014 को जगह दी है।