गुरुवार, 16 जनवरी 2014

दंगो की बर्बरता को सामाजिक पहल से ही रोका जा सकता है।


दंगें बर्बरता की निशानी होते हैं। सभ्य समाज के अवधारणा में दंगें उन काले धब्बों सरीखे हैं, जिन्हे कभी भी साफ नहीं किया जा सकता। कुछ इसी तरह मुजफ्फरनगर में घटित हुआ जिसमें हर दिन मानवता शर्मसार हुई। मुजफ्फरनगर से फैले दंगों के बाद, उत्तर प्रदेश सरकार की खूब आलोचना हुई। सरकार में बैठे प्रमुख बयानबीरो ने भी इसमें काफी मिर्च डाली, और रही सही कसर सैफई उत्सव के नाम पर आए हुए कलाकारों और उन पर खर्च हुए पैसों ने पूरी कर दी। सच में किसी भी सरकार का रवैया अपने ही नागरिको के प्रति निश्चित ही निंदनीय है। देश के तमाम राजनैतिक मंच से इसकी आलोचना जारी है, किंतु क्या सच में इन दंगों के बाद उपजी स्थितियों को सिर्फ और सिर्फ राजनीति के पैमाने और उससे जुडें सरोकार के भीतर सुलझाने की कोशिश सही होगी। निंसदेह इन उपजी स्थितियों में राजनैतिक हल और प्रयास एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता हैं, लेकिन राजनैतिक सीमाओं के इतर इस पूरे घटना क्रम को समाजिक तथ्यों के साथ समाजविज्ञान के खाँचों में देखने की जरूरत है, ताकि इस ओर हो रहे राजनैतिक प्रयासों को सामाजिक स्थिति में बदल कर, जमीन पर प्रभावित और पीडितों को सहायता दी जा सके।

   शामली जिले के काँधला नगर पालिका से मलकपुर के राहत शिविरों तक मिलने वाले हर दंगा पीडितों से बात करने पर एक बात जो उभर कर आई वो, अपने ही बगल वाले के प्रति उपजा अविश्वास। जिसके कारण वो विषम से विषम परिस्थितियों में प्लास्टिक शीट्स में सोने को तैयार है, अपनो को कच्ची कब्रों में दफनाने को तैयार हैं, फिर भी उन ईलाकों में लौटने को तैयार नही, जो ईलाके कभी उनकी पहचान रहे हैं। अपनों को खोने के गम के साथ अपनी जड़ो तक ना लौट पाने की परिस्थितियाँ सच में इन लोगों के जीवन के सबसे कठिन दौर का हिस्सा है।

सरकार राहत बाट कर खुश है और बचे लोगों को किसी राजनैतिक दल से प्रेरिक बता कर अपना पल्ला झाड रही है, वहीं राजनैतिक दल अपने लिए  राजनैतिक अवसर समझ कर अपनी अपनी नैतिकता के साथ खडे है। लेकिन इन सबके इतर टेंटों में रह रहे लोग अपनी जिंदगी के साथ हर रात दो- दो हाथ कर रहे है, पर उन जगहों पर लौटने के लिए तैयार नही है।
 यह अविश्वास यूँ ही नहीं पनपा है। यह अविश्वास इतना गाढा है कि आसानी से मिटाया भी नही जा सकता है। दंगों के इतिहास पर नजर डाले को कुछ एक अवसरो को छोड़ दे तो हम पाते हैं कि दंगे शहरों तक ही सीमित रहे है, गांवो तक इनकी आँच नहीं पहुच पाती थी। इसकी बड़ी वजह गांवों में सामाजिक संबध का मजबूत गठजोड़ होना। जिन्हे सोशल नेटवर्क कहा जाता हैं, इसके कई चरण होते है, पहले चरण में किसी वर्ग के अंतर्गत संबधो के साथ समाज बधा होता है, और दूसरा संबध दो भिन्न वर्ग के अंतर्गत होते है, जिनकी वजह से ग्रामीण समाज एक विशेष प्रकार का सामाजिक सुरक्षा के साथ रहता है। इन्ही गठजोडों मे उसकी आर्थिक, सामाजिक और मनौवैज्ञानिक आवश्यकताए पूरी होती है। इसीलिए दंगे शहरो में फैल जाते थे जहाँ के सामाजिक संबध कमजोर होते थे, किंतु गांवो तक आते आते ये खुद ब खुद दम तोड देते थे। सामाजिक सुरक्षा के जिम्मेदारी किसी एक वर्ग की ना होकर सभी वर्गों की होती है, जिसके कारण इस तरह की स्थितियाँ गाँवों में कम पनपती रही है।
लेकिन मुजफ्फरनगर औऱ शामली में फैला दंगा अपने आप में विशेष है कि जिन जगहो पर ये स्थितियाँ पनपी है, वहा ना इससे पहले कभी इस तरह का सांप्रदायिक दंगे की स्थितियाँ पनपी थी, और आस पास अन्य जिलों में हुए सांप्रदायिक दंगों (उदा. मेरठ) का चरित्र सदैव ही शहरी जनसंख्या  तक सीमित था। लेकिन इस बार पहली बार ना केवल इस इलाके ग्रामीण में दंगे हुए बल्कि इन दंगों ने उन इलाकों को और गांवो को चपेट में लिया जो सामाजिक सौहार्द के प्रमुख केंद्र हुआ करते थे। इसलिए इस ईलाके में उपजे अविश्वास ने ना केवल लोगों का अविश्वास इतना गहरा कर दिया हैं कि हर आयु वर्ग के लोगों में यह अविश्वास आसानी से पढा जा सकता है। यही वो अविश्वास है, जिसकी वजह से राहतराशि प्राप्त करने और तमाम आश्वासनों के बाद भी लोग अभी भी उन कठिन परिस्थितियों के साथ रहने के लिए तैयार है, लेकिन अपने घरों को लौटने को तैयार नही हैं।
 आखिर इस ओर क्या किया जाना चाहिए? जिन्हें उपाय में बदला जा सके। क्या सच में राहत राशि बाँट कर और लोगों को ग्रांम सभा की जमीने दे कर उन्हें बसा देना इन पीडितों के साथ न्याय होगा, अपराधियों पर मुकदमें चला कर उन्हे सजा मिल जाने भर से इस उपजे अविश्वास से कैसे ऩिपटेगे? यह बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल हैं, जिनके अगर जवाब नहीं खोजे गए तो निश्चित ही ऐसी सामाजिक परिस्थितियाँ पैदा होगीं जिनके परिणाम ना केवल दूरगामी होगें वरन आने वाले वक्त में स्थितियाँ और भी कष्टप्रद होगीं।
इसका सीधा और सरल उपाय यही है कि राहत शिविरों में रह रहे लोगों को सम्मान और मर्यादा के साथ उन्हे अपने अपने घरों तक वापस पहुचाया जाय और अपराधियों को अपराधी ही मानकर उन्हें सजा दिलाई जाए।सरकारे ये काम बिना सामाजिक जवाबदेही, दबाव और हिस्सेदारी के नहीं सुनिश्चित कर सकती है। समाज के अन्तर्निहित घेरों में सरकार की उपस्थिति किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं कर सकती जब तक समाज के विभिन्न वर्ग इसमें अपनी जवाबदेही नहीं तय करते। किसी भी समाज में अल्पसंख्यक वहाँ की जिम्मेदारी होते हैं, ऐसे में अल्पसंख्यकों के साथ हुई किसी भी ज्यादती की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी बहुसंख्यक वर्ग की है। जिनसे बचना किसी भी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं हो सकता है। दंगें बर्बर समाज का हिस्सा हैं, और बहुसंख्यकों के शामिल और उदासीन होने की वजह से ही दंगाई समाज के अमन चैन को लूटने में सक्षम होते है। ऐसे में जब एक स्थिति आप के हाथ से निकल गई है, तो सउन स्थितियों को सुधारने से बचने की जद्दोजहद एक बडी आपदा को आहुत करेगी। जिसमें ताकत की ही श्रेष्ठता है, और आप कब कमजोर वर्ग में शामिल हो जाएगे पता भी नही चलेगा।
    अगर ऐसा नहीं होता है और शरणार्थियों को अलग जमीन देकर नए घेटो (किसी विशेष स्थान पर इकठ्ठा होना) बनाने के सोच समाज में उस तरह के तनाव के केंन्द्र बन जाएगें, जो किसी वर्ग के लिए घृणा के केन्द्र होगे। ऐसे केन्द्र समाज में सामाजिक वैमनस्यता को बढावा देगें। इन केन्द्रों में रह रहे लोग भी अपना सब कुछ खो जाने और अपने प्रति हुए अन्याय के कारण अन्य वर्गों और समूहों के प्रति वैमनस्य भाव ही रखेगे। ऐसे में इस विकल्प पर विचार करके सामाजिक जवाबदेही से बचने सरीखा है। इससे गलती को सुधारने के बजाए, उससे लीपापोती करना सरीखा होगा, और इन आक्रोशों का उपयोग समाज को तोडने वाले भी उठा सकते है, जो की लम्बे दौर के लिए सामाजिक सौहार्द के लिए खतरा होगा।
ऩिसंदेह सामाजिक समस्या का राजनैतिक हल होता हैं, लेकिन राजनैतिक हल सामाजिक जवाबदेही से तय की जा सकती हैं। राजनैतिक हल बिना सामाजिक हिस्सेदारी और जवाबदेही के साथ नहीं तय किए जा सकते है। जब मसला दंगे सरीखा हो तो इसमें सामाजिक बर्बरता का तांड़व होता हो, उसमें बदलाव करने के लिए सामाजिक प्रयास ना केवल महत्वपूर्ण हो जाते है बल्कि इस और ईमानदारी से प्रयास की जरूरत है। इस समय चल रही बहसो जो कि सरकार की आलोचना कर रहे है औऱ दोनो पक्षों के पैरोकार है, उन्हे इस ओर ध्यान देने की जरूरत हैं कि वो सामाजिक सौहार्द को बनाने के लिए मंच बनाए ताकि सामाजिक बर्बरता के जो बीज दंगाईयों ने बो दिए है, उन्हे पेड़ बनने से रोका जा सके और लोगो का अपनी जड़ो और जमीनो पर विश्वास कर अपने कुनबों को लौट सके।

इस लेख को दैनिक जागरण ने अपने राष्ट्रीय संस्करण में 17 जनवरी 2014 को जगह दी है।

शिशिर कुमार यादव

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

खुद को रिक्लेम करो... ना कि 16 दिसंबर का इंतजार


किसी की मौत उसके नाम के उपयोग करने की अनुमति नहीं देती। हम नहीं जानते हैं कि उसने अपना नाम इसके लिए आगे किया भी था कि नहीं, फिर भी हमने उसके नाम का उपयोग किया। अपनी कमजोरी से लड़ने से लिए एक प्रतीक को उठा कर आगे कर दिया ताकि हमारी चेतना उस स्तर पर बनी रहे। हमें सोचना होगा कि कब तक हम अपने लिए प्रतीकों से अपनी लड़ाईयाँ लड़ते रहेगें। कब तक अपने लिए नेता खोजते रहेगें। हो सकता हैं कि आप  अपने लिए व्यापक संदर्भों में नेता की खोज करने को सही आँक लें.. ( देश, काल, समाज के सन्दर्भ में हम भी इस राय से अलग राय नहीं रखते)। लेकिन उसकों प्रतीक के रूप में आगे कर के खुद के लिए नैतिक और सामाजिक लड़ाईयाँ करते रहेगें । ध्यान रहें इस सारी जंग में हम उस इंसान के साथ बेईमानी कर रहे होते हैं जिसके साथ ये गुजरा होता हैं। लाखों दामनियाँ अपने वजूद का हिसाब मांग रही हैं, ना कि आप के आंदोलन का कि आप उनके जाने के बाद कितनी देर तक सड़क पर रहे या कितने कानून बदलवा लिए। व्यक्तिगत पहचान की ईकाई परिवार में क्या बदला? जवाब उसका दीजिए। सड़क पर ना बदलने का रोना मत रोईएं. कानून आज भी परिवार की सीमा से बाहर हैं। सामाजिक नैतिकता के आधार पर हुए फैसलों पर जिन्होनें वर्ग को ही अपराधी घोषित कर दिया उन पर सामाजिक चेतना कहाँ हैं?  इन दीवार को तोड़ने के लिए क्या किया सवाल खुद का हैं कब तक दूसरे की कॉलर पर हाथ रख कर जवाब माँगते रहेगें?

16 दिसम्बर बीत गया। चर्चा और तैयारियां पूरी थीं, ताकि एक वर्ष पहले 16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली में हुई बलात्कार की घटना के बाद, उपजे विरोध से महिला अधिकारों में हुए परिवर्तन की समीक्षा की जा सके। इस दिन समीक्षा कि जाएगी कि क्या 16 दिसम्बर 2012 के बाद दिल्ली की सड़कों पर जिन लोगों ने महिलाओं के लिए रातों को रिक्लेम करों रिक्लेम करों -2 के नारे लगाए थे, वे इन अधिकारो में से कुछ क्लेम कर भी पाए हैं या नहीं। उम्मीद हैं कि, इस दिन सभी मंच एक सुर में विभिन्न आकड़े पेश हुए जिन्होने इस बहस को जारी रखा कि महिला अधिकारों में कोई भी गुणात्मक परिवर्तन नही हुआ है। आकड़ें उनका सहयोग ही कर रहे थे। लगातार दर्ज और बेदर्ज किए हुए आकड़े यह बताने के लिए पर्याप्त थे कि परिवर्तन कागजी हुआ है, व्यवहार में कुछ नहीं बदला है। एक साल की चेतना के बाद भी महिला अधिकारों में हुए परिवर्तन ना के बराबर हुए हैं। सरकार जस्टिस जे. एस. वर्मा कमेटी की सिफारिशों पर बदले कानूनों को आगे कर अपने दामन को बचाने का प्रयास करती रही, तो वार्ताकार आकड़े पेश कर सरकार के प्रयास को आइना दिखाने का प्रयास रहे।  
दिल्ली सरकार के आकड़ों को अगर सहीं माने और उन पर ध्यान दें, तो पाते हैं कि, जहाँ 2012 में 706 रेप केस दर्ज किए गए वहीं 2013 में अक्टूबर तक इनकी संख्या 1330 यानी लगभग दुगनी हो गई। छेडछाड़ के मामलों मे जहाँ 2012 में 727 मामलें थानों की चौखट तक आए थे वहीं 2013 में अक्टूबर तक 2844 मामले थानों तक पहुची। बढें हुए आँकड़ों को हम आप यह भी कह सकते हैं कि लोग आगे बढ कर इस अपराध के खिलाफ थानों तक पहुचने लगें हैं, इसलिए आँकड़ो की संख्या में परिवर्तन हुआ है। लेकिन इस तर्क से यह खारिज भी नहीं किया जा सकता हैं कि घटनाओं में कोई भी कमी 16 दिसंबर के बाद बढी या सामाजिक चेतना के विकास के कारण हुआ। थाने तक ना पहुचने वाले आकड़ों की काल्पनिक संख्या जोड़ ली जाए तो यह संख्या निसंदेह ही हमें आप को शर्मसार ही करेगी।
इस बात में कोई सदेंह नहीं हैं कि परिवर्तन नाम मात्र का है। परिवर्तन की व्यवहारिकता महिलाओं के प्रति दिनों दिन बढ़ते आकड़ों से साफ जाहिर हो भी जाती हैं। आखिर बदलाव क्यूँ नहीं ? जबकि इच्छा सबकी हैं कि इन्हें बदलने की, फिर भी नतीजा सिफर। ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तरों को खोजने का प्रयास आने वाली 16 दिसम्बर को अखबारों, टीवी से लेकर सोशल मीडिया के मंचों पर खोजा गया। क्या सच में यह सवाल इतना कठिन हैं कि इसके लिए हमें रॉकेट साइंस सरीखे ज्ञान की आवश्यकता हैं।
   इसका सीधा साधा जवाब हैं कि हमनें अभी भी खुद को नहीं बदला हैं और अगर बदल भी लिया हैं तो अपने बगल वाले को टोंकना नहीं सीखा है। इसीलिए 16 दिसम्बर 2012 के कुछ दिनों बाद देश के तमाम हिस्सें में हो रही महिला हिंसा की घटनाओं पर ना ही किसी तरह का प्रतिरोध दर्ज किया और ना ही इस ओर जागें। अखबारों में हर दिन छप रहीं खबरें हमारे लिए इतनी सामान्य हो चली की इनका कोई मतलब ही नही रहा। कुछ अति उत्साही पत्रकारों ने हर छोटी बड़ी घटना को बलात्कार (रेप) की श्रेणी में लाकर इस विषय को इतना सतही कर दिया कि हमारी चेतना को जगानें के लिए अब शायद फिर से किसी हादसे का इंतजार हैं।
हमारी चेतना में बदलाव ना आने की एक कहानी यह भी है कि महिलाओं से जुड़ी हिंसा के मामले में महिला को ही दोषी साबित करने की पुरजोर कोशिश में कोई कमीं नहीं आई हैं। इसीलिए घटना के बाद महिला के पहनावे, समय, उस स्थान विशेष पर होने की वजह और उसके चरित्र के सवाल आज भी प्रमुख हैं ताकि अपराध और अपराधी दोनो ही महत्वहीन हो जाएं। हमारी चेतना को तब भी धक्का नहीं लगता जब देश की न्यायालय लगभग एक समान अपराधों पर अलग अलग व्याख्या कर अलग अलग निर्णय सुनाते हैं। 16 दिसम्बर 2012 के अपराधियों को जहाँ अदालत समाज के प्रति अपराध मान कर फाँसी की सजा सुनाती हैं वहीं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देश के मशहूर तंदूर हत्याकांड में आरोपी सुशील शर्मा की फाँसी की सजा को उम्र कैद में बदलने के निर्णय का आधार यह दिया कि, अभियुक्त के द्वारा किया गया अपराध, व्यक्तिगत रिश्तों में उपजी निराशा और शक था। जिसे सामाजिक अपराध और दुलर्भतम अपराधों में नहीं आँका जा सकता हैं, क्योंकि वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता था, और रिश्तो में उपजे शक के कारण भावावेश में उसने ऐसी घटना को अंजाम दे दिया था। हम फांसी के पक्षधर नही हैं, लेकिन इस मामले में अपराधी के अपराध को सामाजिक और दुर्लभतम अपराध ना मानकर, क्या न्यायालय और समाज महिलाओं के प्रति परिवारों में हो रहे अपराधों को छोटा नहीं आँक रहा हैं। क्या इस तरह निर्णय से हम परिवार और समाज दोनों को ही महिला अधिकारों को अपनी सुविधा अनुसार निर्धारित और उसके प्रति कार्रवाइयों को एक हद तक जायज नहीं ठहरा देते हैं। जिनमें प्रेम, भरोसा, रिश्ता, इज्जत, नैतिकता, संस्कृति प्रमुख शब्द के आवरण में महिलाओं के प्रति अपराधों को नए नए स्वरूपों में गढ़ते हैं और उनके प्रति अपराधों की नई विवेचना करते हैं। प्रेम की जिस नई परिभाषा के साथ सुशील शर्मा के कृत्य को सामाजिक अपराध न आँकना क्या वह हमारी एक भूल नहीं? क्या इस भूल के तले हम पहले से चली आ रही अवधारणा को बल नहीं देते जिसमें हम इसे व्यक्तिगत अपराध मानकर पितृसत्ता की उस अवधारणा को सही ठहरा रहे हैं, जिनमें केवल खाप पनपते है। इस निर्णय से क्या हम उस सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें को ढो और पास पोल नहीं रहे हैं, जिसमें हम आधी दुनिया की भागीदारी निभाने वाली स्त्री के मूलभूत अधिकारों को, जिसमें जीने, चलने, चुननें, पहननें, बोलने के अधिकारों को, सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से सही ठहराने पर तुले हैं। बहुतेरे मामलों में वीभत्सता का तो पता ही नहीं चलता, और जिनमें पता चलता हैं उन्हे सामाजिक अपराध ना मानना कहाँ तक सही होगा। इस निर्णय के बाद किसी भी तरह का कोई भी विरोध किसी भी मंच से ना तो सुनाई पड़ा और ना ही दिखाई पड़ा। अपराधी की सजा को लेकर नहीं लेकिन अपराध की व्याख्या पर हमारी चेतना ना जाने किस वर्गीय हित के हिस्सें बलिदान हो गई। ऐसे बहुत से अवसर हम आप के साथ हर दिन किसी ना केसी चेतना के भेट चढ जाते हैं और हम और मुखर नहीं हो पाते।

निसंदेह ही कानून इस तरह के अपराधों के लिए पूर्ण इलाज नही हैं, मात्र इलाज का एक उपकरण हैं। ऐसे में इन अपराधों से लड़ने के लिए एक बड़ी इच्छा शक्ति और सामाजिक सोच की बदलाव की जरूरत हैं, जिससे हम महिलाओं के अधिकारों को पितृसत्ता के ढाँचों में फंसी नैतिकता की बेड़ियों से निकलकर आजादी की साँस ले सकें। निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं। भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वह व्यवस्था जिसमें उनके प्रति किए गए अपराध जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रहे है.  इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं। उनका विरोध करें और विरोध के लिए खुद के घर को ही प्राथमिक प्रयोगशाला बनाएं, अगर घर बदला तो देश के लिए युगान्तकारी परिवर्तन होगें। खुद के बाद अपने बगल वाले को महिला अपराधों को लेकर मुखर हो, ना कि किसी 16 दिसम्बर का इंतजार करें। जिस दिन आप अपनी चेतना को रिक्लेंम करने के लिए मुठ्ठी भीज कर सड़कों पर गले फाड़ आवाज के साथ रातों को रिक्लेम करों -2 के नारें लगा सकें।
                                               शिशिर कुमार यादव

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

तूफान के अंत में


उत्तराखंण्ड की बाढ (पानी) से हम अभी उबरे भी ना थे, कि ओडिशा और आंध्रप्रदेश में 200 किलों मीटर प्रति घंटा से चलने वाली हवाओं नें चुनौती दी। निंसदेह यह वाक्या भी, ‘प्रकृति और मानव संबधो के बिगड़ते संबधों से उभरी ही एक चुनौती थी। लेकिन जैसा ही हम कह कई लेखों में कह चुके हैं कि वर्तमान स्थितियों में हम आपदा को रोक नहीं सकते हैं, हां उनसे बचाव कर के उसके प्रभाव को कम कर सकते है। तो उडीसा की इन हवाओं की चुनौती को भारतीय आपदा प्रंबधन (डिजास्टर मैनेजमेंट) ने इसी दृष्टिकोण के साथ स्वीकारा। भारत का आपदा प्रंबधन इस ओर तैयार था, चुनौती स्वीकार की गई, और बहुत कम समय में आपदा से पूर्व की तैयारी के साथ प्रंबधन ने ना केवल इस समस्या का सामना किया बल्कि भारतीय आपदा इतिहास में इतना अच्छा बचाव पहले नही किया था। उन्ही के ही प्रयासों का ही फल था कि 3.61 लाख लोगों को समय रहते संकट वाली जगहों से हटा लिया गया था। इतनी बड़ी संख्या में लोगों को सुरक्षित पहुचाना सच में एक बड़ी सफलता मानी जा सकती है, इसके लिए आपदा राहत से जुडें तमाम संगठन बधाई के पात्र हैं, जो इस ओर काम कर रहे हैं। इस आपदा में कुल मरने वाले लोगों की संख्या 14 (अधिकारिक आँकडा) ही रही। जबकि 1999 में आए ऐसे ही साइक्लोन ने उडीसा में भारी तबाही मचाई, उसमें ना केवल 9885 व्यक्तियों (अधिकारिक आँकडे) की मृत्यु हो गई थी वरन लाखों लोगों को अपने आधार यानी अपने घरों, रोजगारों और जमीनों से ही हाथ धोना पड़ा था। 

 निसंदेह यह कुशल प्रंबधन की एक बड़ी जीत हैं, लेकिन इस जीत को इतना बड़ा करके आकने की जरूरत नहीं है कि आत्ममुग्धता की स्थिति पनप जाए। क्योंकि यह आपदा प्रंबधन की तैयारी का यह केवल पहला चरण हैं, और अगर आगे के चरणों को भी इसी जिजीविषा से के साथ पूरे नहीं किए गए तो इस चरण की सफलता भी अधूरी रह जाएगी। जैसा कि हम जानते हैं कि 2005 में डिजास्टर मैनेजमैंट एक्ट 2005 के तहत भारत सरकार ने अपने आपदा कार्यक्रम और कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया। जिसमें आपदा के आने के बाद, इस पर बचाव, नुकसान की भरपाई, फिर निदान और फिर आपदा पूर्व तैयारी की जाती हैं। जो आज भी जारी हैं। प्रंबध तंत्र इसी कार्य योजना पर कार्य करता है।
 उड़ीसा और आध्रंप्रदेश में आए तूफान से अभी तक बचाव हुआ है, बाकि दो चरणों की पूर्ति करना बाकी है, और ये चरण किसी भी आपदा के लिए ना केवल महत्वपूर्ण होते हैं वरन इनके अभाव के बिना वो लोग सबसे प्रभावित होते हैं, वो इन चरणो के अपने – अपने जीवन में विकास की अवधारणा से कई दशक पीछे चले जाते हैं। इसलिए आपदा के बचाव के बाद के चरणों के पूरे हुए बिना यह जीत अधूरी रह जाती है।
चक्रीय कार्ययोजना के लागू हो जाने के बाद के ही आकडें उठा कर देखें, तो हम पाते हैं कि हर साल आपदा से होनें वाले नुकसान में इजाफा ही हुआ है और हम एक ही प्रकार की समस्याओं से जूझते नजर आते हैं। ऐसें मे यह तय कर पाना एक कठिन काम हैं कि क्या वाकई यह तंत्र इन समस्याओं से निपटने में सक्षम हुए भी हैं कि नही? हाल में देश में कैग की रिपोर्ट ने भारत के आपदा प्रंबधन पर ना केवल सवाल उठाया था बल्कि उन्हें देश की आपदाओं से लड़ने के लिए पूर्ण रूप से अक्षम माना था । उत्तराखंण्ड में आई आपदा के बाद तो यह स्पष्ट रूप से सबके सामने आ गया था कि भौगोलिक रूप से इतनी विविधता वाले देश में एक भी समर्थ तंत्र नहीं हैं जो आपदा और आपदा के होने के बाद लड़ सकें। इस तरह कैग ने आपदाओं को लेकर देश की तैयारी पर श्वेत पत्र जारी कर दिया था, और जिसने सरकारी दावों को आइना दिखलाया था। हाँलाकि कैग की रिपोर्ट एक बड़ा सच थी, लेकिन इस बार उड़ीसा में हुए प्रयास उस तैयारी का हिस्सा हैं जिसे आपदा प्रंबधन लम्बें समय से कर रहा था। लेकिन अभी भी काम पूरा नही हुआ हैं। चक्रीय क्रम के दो प्रमुख चरण निदान (मिटीगेशन) औऱ फिर आने वाली आपदा के लिए तैयारी ( प्रिवेंशन) के चरण बाकी हैं।
मिटीगेशन और प्रिवेंशन के चरण तभी पूरे हो सकते हैं, जब आपदा के समय हुए नुकसान का आकलन और जल्द से जल्द करके अस्थाई रूप से सेल्टरों में रह रहे लोगों को अपनी पुरानी जिंदगीं में वापस भेजा जा सके। हर आपदा में बहुत से लोग अपने पुराने रोजगार और आजीविका से हाथ धो बैठते हैं। आपदा के बाद आजीविका महत्वपूर्ण विषय होता है, जिस पर बिना ध्यान दिए बिना प्रंबधन सिर्फ पुनर्निमाण करती रहती है। ऐसें ही 2004 में आई सुनामी के बाद देश विदेश आए पैसे ने पुनर्निमाण का काम तो बड़े पैमाने पर किया पर बाद में खत्म हो चुके रोजगारों को पुनर्जीवित नहीं किया गया, और जिन रोजगरों को उपलब्ध कराया गया उनका जीवन बहुत अधिक लम्बा नहीं था। इस तरह से उस ओर किए गए प्रयास व्यर्थ साबित हुए और आपदा प्रंबधन के चरण बचाव के बाद आगे नहीं बढ पाए। इस तरह आपदा मे उठाए गए कदम उनके लिए अधूरें ही साबित हुए जिनके लिए इनकी सबसे अधिक जरूरत थी।
आपदा के आने के बाद बचाव की ओर तो सभी का ध्यान होता हैं, मीडिया भी भावपूर्ण चित्रों से इस समस्या के चित्रांकन करती हैं, लेकिन जब असल समस्या से लड़ने की बारी आती हैं, लगभग सभी लोगों का ध्यान आपदा और उस और चल रहे बचाव कार्यों से हट चुका होता हैं। सरकारे भी उसे अपनी विफलता का प्रतीक मानकर उनसे जुडी खबरों को बाहर नहीं आने देती है, और मीडियां के लिए वो खबरे बासी हो चुकी होती हैं, ऐसे आपदा के बाद के चरण जिनपर सबसे अधिक ध्यान देने की जरूरत होती है, वो बिना किसी समीक्षा के कब समाप्त हो जाते हैं किसी को पता भी नहीं चलता है। इस ओऱ फिर से ध्यान तब जाता हैं जब अगली आपदा आ चुकी होती हैं।
तंत्र के पास योजना और पैसा दोनों ही हैं लेकिन फिर भी हम हर मोर्चों पर असफल हो रहे हैं, इसका सीधा और सरल मतलब है, कि योजनाओं को संचालित करनें वाले और योजनाओं को लेनें वालें दोनों लोगो के बीच बडें स्तर पर खामियाँ हैं। ऐसें में सिर्फ तंत्र की ओर उंगली उठा कर हम दूसरें पक्ष की लापरवाही को अनदेखा भी नहीं कर सकते हैं, और ये भी किसी से छुपा नहीं हैं कि इस लापरवाहीं को बढावा देने वालें कौन हैं। ऐसें में जब प्राकृतिक आपदा के परिणाम और प्रभाव सामाजिक हो चले हो तो सिर्फ प्राकृतिक आपदा मान कर हम कब तक अपनी कार्य योजना को संचालित करते रहेंगें।
ऐसें में हमें इन आपदाओं के उपरान्त होने वाले प्रभावों से लड़नें के लिए सामाजिक रूपरेखा तैयार कर फिर लड़नें पर बल देनें की जरूरत हैं ना कि सिर्फ प्राकृतिक कारणों से निपटनें पर अपनी सारी ऊर्जा खत्म करनें की। समय की मांग यह है कि हम अपनी योजनाओ का निर्धारण बराबरी के आधार पर करने की बजाय जरूरत के आधार पर करें। ताकि हम सच में प्रभावित होनें वालों को बचा सकें और आपदाओं के प्रभाव को कम कर सकें। वरना साल दर साल हम इन आपदाओं के सामनें मूक दर्शक बनें रहेंगें और ये आपदाएं हमारा मजाक उड़ाती रहेगीं।
ऐसे जब एक बार ओडिशा औऱ आंध्रप्रदेश में आए साइक्लोन में आपदा प्रंबधन ने पहले चरण को सावधानी से पूरा कर लिया हैं तो बाकी बचे चरणों पर भी सावधानी के साथ चलने की जरूरत हैं। वरना हर आपदा की तरह इस आपदा राहत/ बचाव का कार्य भी अधूरा ही रह जाएगां। और पहली बार राष्ट्रीय आपदा प्रंबधन अपने आप को बेहतर साबित करने का मौका भी खो देगा।

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

व्यक्तिगत अपराध और सामाजिक अपराध का अंतर...

महिला अधिकार और सामाजिक अपराधों पर सजा के निर्धारण में अपराध की प्रकृति एक बार फिर चर्चा का विषय है। हर बार की तरह इस बार भी वजह सकारात्मक नहीं, वरन नकारात्मक ही हैं। वजह हैं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देश के मशहूर तंदूर हत्याकांड में आरोपी सुशील शर्मा की फाँसी की सजा को उम्र कैद में बदलने के पीछें दी गई वजहें। महिला अधिकारों की चर्चा का इतिहास देखें तो हम पाते हैं कि देश में महिला अधिकारों से जुडी यह चर्चा तब जोर पकडती है, जब समाज में महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों का कोई वीभत्स स्वरूप हमारें सामने उदाहरण के रूप में आ जाता हैं। उदाहरण के लिए 16 दिसम्बर 2012 की घटना जिसने ना केवल देश की राजधानी को हिलाया वरन पूरे देश को महिलाओं के विषय में चर्चा करने पर मजबूर कर दिया। जबिक देश में इस घटना से पूर्व भी तमाम बलात्कार महिलाओं के साथ होते रहे थे, और इस घटना के बाद भी हो रहे है, पर हम हर बार की तरह फिर से किसी वीभत्स घटना का इंतजार कर रहे हैं ताकि इस ओर एक बार फिर से चर्चा कर सकें।

सुशील शर्मा केस पर सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के उस आदेश को बदल दिया जिसके तहत अपराधी को फाँसी की सजा दी गई थी। इस निर्णय का आधार यह हैं कि अदालत ने, अभियुक्त के द्वारा किए गए अपराध को, व्यक्तिगत रिश्तों में उपजी निराशा और शक को कारण माना, और कहा कि इस अपराध को सामाजिक अपराध और दुलर्भतम अपराधों में नहीं आँका जा सकता हैं। क्योंकि वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता था, और रिश्तो में उपजे शक के कारण भावावेश में उसने ऐसी घटना को अंजाम दे दिया था।


इस निर्णय के बाद तमाम बुद्धजीवियों, सामाजिक विज्ञानीयों और गणमान्य लोगों ने विभिन्न मंचों से अपनी अपनी राय रखी। इस निर्णय की आलोचना और पक्ष में मत भी दिए, पर यहाँ हमारा उद्देश्य अदालत के निर्णय की समीक्षा या आलोचना करना नही हैं और ना ही खुला सामाजिक ट्रायल करना है। हम यहाँ आप सब का ध्यान महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों की प्रकृति कारण और विवेचना की ओर खीचने की जरूरत पर बल देना चाहते हैं जिन सवालों पर इस निर्णय का सीधा सीधा प्रभाव पडेगा और उस ओर लड़ी जा रही तमाम लड़ाईयों को धक्का पहुचेगां।
महिलाओं के साथ बदलती घटनाओं में वीभत्सता के बदलते स्वरूप का स्पष्ट ईशारा है कि हम जिस सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें को ढो और पास पोल रहे हैं, उसमें हम आधी दुनिया की भागीदारी निभाने वाली स्त्री के मूल भूत अधिकारों को, जिसमें जीने, चलने, चुननें, पहननें, बोलने के अधिकारों को, सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से चलाते आ रहे हैं। हम आज भी प्रतीकों की भाषा से अपने आप को सभ्य घोषित करने पर तुले हैं लेकिन सच ये हैं कि आज भी हम बर्बर और असभ्य हैं। जिनमें प्रेम, भरोसा, रिश्ता, इज्जत, नैतिकता, संस्कृति प्रमुख शब्द के आवरण में महिलाओं के प्रति अपराधों को नए नए स्वरूपों में गढते हैं और उनके प्रति अपराधों की नई विवेचना करते हैं। प्रेम की जिस नई परिभाषा के साथ सुशील शर्मा के कृत्य को सामाजिक अपराध नहीं आँका जा रहा हैं वह हमारी एक भूल नहीं, वरन पहले से चली आ रही अवधारणा को दुहराना भर है। हम इसे व्यक्तिगत अपराध मानकर पितृसत्ता की उस अवधारणा को सही ठहरा रहे हैं, जिनमें ना केवल खाप पनपते हैं बल्कि फलते- फूलते हैं।

समाज इन्ही शब्दों के सप्तदर्शी घोड़ो पर सवार होकर महिला अधिकारों को ना केवल नियंत्रित करता हैं वरन दंडित करता हैं। सुशील शर्मा का केस तो अदालत की चौखट पर चढा भी, पर  ना जाने कितने ऐसे केस जिन्हें सामाजिकता औऱ नैतिकता की चिता पर हमेशा के लिए सुला दिया गया, और समाज ने उन खबरों को इस तरह पचाया जैसा कि वो उनकी सामाजिक जिम्मेदारी थी। ऐसे तमाम वाक्यें हमारी और आप की जिंदगी के करीब से गुजरे हैं, पर हम आप उसे मौन की चादर में लपेट कर चुपचाप इस तरह के अपराधों को अपनी स्वीकृति देते रहे हैं।
समाज ने इस बर्बरता को जिंदा रखनें के लिए चरणबद्ध तरीको से जाल बनाए हैं। जिसमें परिवार फिर समाज और फिर अपराध की श्रृखला है। इन्ही जालो में नारी कहीं ना कही फँसी रहती है, और अगर किसी एक से बच भी जाए तो दूसरे में उसे उलझ जाएं। इस प्रकार के जालों से बच कर निकलने के दौरान फसने की बड़ीं कीमत चुकानी पड़ती है। जिसकी कल्पना करना सच में हम जैसे असभ्य और बर्बर लोगों के लिए इतनी आसान भी नहीं है। जिस पर गुजरती है वो इस हालात में पहुच जाता है कि वो इसका सहीं आकलन नहीं कर सकता है। सामान्यतया या तो वे जिंदगी की जंग हार जाते हैं और अगर बच जाते हैं तो हम और आप उनका बहिष्कार इन्हीं चरण बद्ध जालो के अन्तर्गत कर देते हैं।
  
हम जिस देश में रह रहें हैं उसमें इस अपराध की प्रवृत्ति और चरण को सामाजिक और राजनैतिक मान्यता की अदृश्य शक्ति मिली हुई है। हम और आप इन्हे पहचानते और जानते भी हैं औऱ कई बार हिस्से भी होते हैं पर बदलते नहीं हैं। इनकी गर्जना तब और सुनाई पड़ने लगती हैं जब इस तरह के हादसें हम आप के करीब से गुजरते हैं। इस दौरान इनकी प्रतिक्रिया पर नजर डालने भर मात्र से इन ताकतो और चेहरों को आसानी से पहचाना जा सकता है। दिल्ली के इस मामले के बाद समाज और सार्वजनिक मंचो से बयान उसकी बानगी भर थे। ऑनरकिलिगं को भावनात्मक और सामाजिकता से जुड़ा मुद्दा माननें वाले औऱ चुपचाप भ्रूण हत्या को बढावा देने वाले समाज से, इस हत्या पर ईमानदारी भरी प्रतिक्रिया औऱ बदलाव की उम्मीद करना कहां तक समझदारी भरा कदम होता, तो यह प्रश्न आप जैसे विद्वानों की बौद्दिक जुगाली के लिए छोड़ता हूँ।

मैं यहाँ सुशील शर्मा को फाँसी की सजा को बरकरार रखने की वकालत नहीं करता, बल्कि फाँसी दिए जाने की राजनीति के कारण किसी भी प्रकार की फाँसी दिए जाने का विरोधी हूँ लेकिन अदालत द्वारा सुशील शर्मा के केस को सामाजिक ढाचों से इतर रख कर उसकी व्याख्या व्यक्तिगत अवधारणा के आधार पर करने के खिलाफ हूँ। सुशील शर्मा द्वारा उठाय़ा गया कदम उसी सामाजीकरण और पित्तृसत्ता की संरचना में अपराध की हिस्सा था उससे इतर कुछ नहीं। निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं। भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी  महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वो व्यवस्था जिसमें उनके प्रति अपराधो जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रही है। उन्हें व्यक्तिगत मान लेना उचित नहीं होगा। इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं। आज भी हम ऐसे ही समाज को पाल पोस रहे हैं जो महिलाओं के अधिकारों के प्रति पूर्णतया असंवेदनशील है। इस कदर की असंवेदनशीलता और अपराध को बढावा देना किसी भी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं होता है।

शिशिर कुमार यादव 

बुधवार, 14 अगस्त 2013

गीला मोजा और मेरा स्वत्रंता दिवस ....और मेरा दुख..

14 अगस्त की वो सुबह याद हैं... जब स्कूल में सामान्य रूप से स्कूल ड्रेस ना पहनने की छूट होती थी, ताकि 15 अगस्त के लिए साफ सुथरे और प्रेस कपड़ों के साथ आ जाए। 14 अगस्त को पूरा स्कूल सतरंगी रंगों से सज जाता था। ये वो दिन होता था जब हम सब अपने सबसे अच्छें कपड़े पहन कर स्कूल जाया करते थे। ये वो दिन भी होता था जब हम अपने घरों की समृद्धि का प्रदर्शन किया करते थे। वैसें बच्चों की ये समृद्धि हमारी कापी किताबों में चढें कवर और उस पर चिपके चिटों से लेकर टिफिन बॉक्स की ऊचाई और उसमें रखें हुए खाने से हर दिन परिलक्षित होती थी पर 14 अगस्त की वो सुबह कुछ अपने आप में खास होती थी। इस दिन का जो अंतर और झेप बालमन महसूस करता था वो शायद आज भी लेखनी शायद ही उकेर पाएं।  

 इन सब के बीच कुछ बच्चें उस सतरंगी भीड से अलग इस दिन भी स्कूल ड्रेस में आते थे। उनमें से मैं भी एक था। मेरे ड्रेस में जाने की वजह बड़ी सामान्य हुआ करती थी। उन वजहों में से प्रमुख वजह ये थी कि एक तो उस वक्त कपड़े उतने ही होते थे जितने हमारी जरूरते पूरी हो जाए। जो 2 जोड़ी नया कपड़ा भी होता था, जो सिर्फ विशेष आयोजनों जैसें शादी व्याह और जन्मदिन की पार्टियों के अवसर पर पहनाया जाता था। ताकि माते (माता जी) की व्यवस्था में कोई कमी ना रह जाए। हमारी माते उन कपड़ो को सबसे सुरक्षित जगहों पर अपने अधिकार क्षेत्र में रखती थी, और आश्वासन देती थी कि कत्उ आयअ जाइ बरें रखा बा कतउ जाय तो इ पहिन के जायअ (यानी ये कपडें कही बाहर आने जाने के लिए हैं.. कही बाहर जाना तो इन्हें पर पहनना ), और 14 अगस्त की वो सुबह माते के हिसाब से इन अवसरों में से तो ना ही था।  
   तो पुराने और घर में पहनने वाले कपड़ों को पहन कर हम उस प्रतियोगिता में खुद को सबसे पीछे कैसे रखते तो इन सब से बचने के लिए अपनी स्कूल ड्रेस को ही पहन कर 14 अगस्त को पहुचते थे। उस दिन उन सतरंगी कपड़ों में खुद के लिए वो सफेद शर्ट और नीली पैंट को पहन कर हम खुद को अपेक्षित ही और अपने पिता जी को दुनिया में सबसे गरीब ही मानते थे। हॉलाकि हमारे पिता जी कि आर्थिक स्थिति इतनी भी खराब नहीं थी (ये बात अब समझ में आती हैं पर हमारी नजरो में उस वक्त तो वो सबसे गरीब थे) पर, गरीबी से निम्न मध्यम स्तरीय परिवार की ओर बढ रहे परिवार की सबसे बड़ी पूजी बचत के चलते इस तरह के स्वनियंत्रण वाले फैसले हम सब पर स्वत: ही लगे हुए थे, और चीजे आवश्यकता से अधिक नही हुआ करती थी।
इस दिन स्कूल में पहुचने पर जब मित्रों द्वारा हमसे पूछा जाता था कि अरें आज भी स्कूल ड्रेस में आए हो ? तो हम इसका जवाब स्व-आयातित झूठ हुआ करता था, कि हमारे पास 2 ड्रेस हैं और हमारा चपरासी हमारी दूसरी ड्रेस धोकर प्रेस करवा कर रखेगा। ये सच था कि हमारे घर में चपरासी हुआ करते थें। पिता जी सरकारी सेवा के उस पद पर थे जहाँ चपरासी घर में काम करने के लिए मिलते थे, और ये बात हमारें स्कूलों में सर्वविदित हुआ करती थी। तो इस तथ्य के नीचें हम अपना ये झूठ आसानी से छुपा ले जाते थे, और लोग हम पर शक भी नहीं करते थे। पर स्थिति इसके उलट हुआ करती थी कि हम जो पहन कर आए थे उसे ही लौटने के बाद अपने चपरासियों से धुलवा कर रात में सुखा कर दिन में 4 बजे उठ कर प्रेस कर के (क्यों कि 4 बजे सुबह बिजली आती थी 8 बजे चली जाती थी छोटे कस्बों में) खुद का भाषण या गीत रटने लगते, और खुद को एक खतरनाक वक्ता बनाने में लगे रहते थे।

कपडे तो सूख जाते थे पर बरसात की वजह से मोजा साला धोखा दे जाता था और वो गीला रहता था। ऊनी होने के नाते हम उस पर प्रेस का भी वार नहीं कर सकते थे। ऐसें में ड्रेस कोड़ के चक्कर में हम गीले मोजे को ही जूते में डालकर 2 लड्डुओं और भाषण देने के जोश और डर के साथ स्कूल पहुच जाते थे।   
   
इन सब सीमाओं की वजहों से मैं इस आजादी के इस दिन से बहुत चिढता था। क्योंकि ये दिन मुझें सबसे अलग कर के उनकी भीड़ में खड़ा कर देता था जो कमजोर या गरीब होते थे। हाँलाकि उस वक्त उनसे ना कोई सहानभूति होती थी और ना ही मैं उनके बारे में संवेदनशील था, क्योंकि मैं अपने गीले मोजे से ही बाहर नहीं निकल पाता था। और उनके बारे में  तो सोच ही नही पाता था जो स्कूल जा ही नही पाते या स्कूल भेजने भर की क्षमता जिनके परिवारों के पास ना थी।
आज बहुत कुछ बदल चुका हैं और हमारी स्थितियां भी। पर आज भी मुझें उम्मीद हैं, कोई ना कोई गीले मोजे के साथ अपने को सहज बनाते हुए स्कूल में भाषण पढने जाने वाला होगा। 66 साल की आजादी के बाद तमाम लोग इन मूलभूत अधिकारों से ना केवल वंचित हैं बल्कि लगभग वो इस दौड़ से गायब ही हैं। उन सब के बारे में सोच कर जब आज 14 अगस्त को यह लिख रहा हूँ तो अपने पिताजी को धन्यावाद देता हूँ कि उन्होनें अपनी पहाड़ सरीखी जिम्मेदारियों में हमे उस दौड़ में कभी पिछड़ने नहीं दिया, जहाँ पिछड़ने का मतलब सबकुछ हार जाना होता। उस वक्त गीले मोजे के साथ स्वत्रंता दिवस मनाता था आज गीली आँखों उन सब के लिए मनाता हूँ जो इस दौड़ में अपने सपनो के साथ बुहुत कुछ खो देने वाले हैं.. 

इस असमानता भरें स्वत्रंतता दिवस की 67 वी वर्षगाठ आप को मुबारक हो ...मुझें तो है ही


शिशिर कुमार यादव ...


बुधवार, 7 अगस्त 2013

प्रशासन और राजनीति में संतुलन जरूरी...


प्रशासनिक कार्यों में राजनैतिक दखल कोई नई बात नहीं है। बहुत हद तक यह दखल लोकतांत्रिक देश में नौकरशाही व्यवस्था की लालफीताशाही व्यवस्था को नियंत्रित करने का कारगर उपाय माना जाता रहा है। राजनैतिक पार्टियां इस नीतिशास्त्र का आधार लेकर नौकरशाही पर निंयत्रण करती रही हैं और सत्ता संतुलन के लिए यह एक आवश्यक कार्रवाइयों में से एक रही है। किसी भी राजव्यवस्था में इन दोनों के बीच संतुलन राज्य के क्रियाकलाप के लिए  महत्वपूर्ण होता है। लेकिन बदलती राजनैतिक परिस्थितियों में राजनैतिक कार्यपालिका और प्रशासनिक कार्यपालिका में अंसुतलन बढ़ता जा रहा है। बदलती परिस्थियों में राजनैतिक कार्यपालिका का रवैया प्रशासनिक अधिकारियों को लेकर गैरजिम्मेदाराना होता जा रहा हैं। राजनैतिक सत्ता में बैठी पार्टियां लगातार उन अधिकारियों को चुन रही हैं जिन्हें वो अपने इशारों में नचा सकें और जो नहीं नाच सकें, उनके लिए कई तरह की कार्रवाइयां कर देती हैं। इसी कड़ी में दुर्गा शक्ति नागपाल का निलंबन एक है। इससे पहले भी बहुत सारे निंलबन होते रहे हैं और उनका आधार उनकी ईमानदारी ही रहा हैं। कई बार इस तरह के निलंबन के पीछे सत्ता दल की राजनैतिक इच्छा के खिलाफ खड़ा होना रहा है।

किसी अधिकारी के लिए निलंबन उसके प्रशासनिक जीवन का सबसे बड़ा धब्बा होता हैं। नियमतः निलम्बन को किसी अधिकारी को समय विशेष के लिए उसके पद और अधिकारों से दूर रखना होता हैं, जब तक उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों की जांच की जा रही हो। कई बार इसे किसी घटना के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को प्राथमिक दंड स्वरूप उनके अधिकारियों को निंलबिंत कर दिया जाता हैं। लेकिन बदलती राजनैतिक परिस्थितियों में इस तरह की कार्यवाहियां राजनैतिक पार्टियां सत्ता में आते ही अपने समर्थकों को खुश करने के लिए उन अफसरों के खिलाफ सबसे बड़े हथियार के रूप में करती हैं, जो उनके विरोधी पार्टियों की सत्ता में बेहतर पदों पर थे और उनके समर्थकों की नजरों में चढ़े रहते थे। 

राजनैतिक सत्ता के गलियारों के बदलते चरित्र के साथ राजनेताओं में ताकत का पुट उन्हें समय विशेष के लिए सबसे ताकतवर महसूस कराता रहता है जिसकी वजह से वो हमेशा ही गवर्नमेंट सर्वेंट को पर्सनल सर्वेंट के रूप में रखना चाहते हैं। इसका एक चेहरा अधिकारियों का नेताओं का पैर छूने और उनकी जी-हुजूरी के रूप में सामने आ रहा हैं। राजनैतिक दबाव और पद की लालसा की सीमा इस हद तक हैं, पर बड़े अधिकारियों को भी इन नेताओं के चरणों में अपने श्रद्धासुमन अर्पित इस लिए अर्पित करने पड़ जाते हैं क्योंकि सत्ता की ताकत उनके खिलाफ कभी भी कुछ भी कर सकती हैं। एक निचले अधिकारी के निजी अनुभवों के आधार पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि “अगर मेरा ही सीनियर अफसर नेता के समक्ष श्रद्धा सुमन चढ़ाता हैं तो उसके बाद हम जैसे छोटे अफसरों के लिए स्थिति विषद पूर्ण हो जाती हैं। उस असमंजस की स्थिति में खुद को अलग करना कितना कठिन हो जाता है और उसके बाद अपनी नैतिकता के साथ उस जगह पर काम कर पाना कितना कठिन होता है इसकी कल्पना करना अपने आप में ही कठिन हैं। नेता भी अपने समर्थकों के सामने खुद को एक ताकतवर नेता के रूप में पेश करते हैं। जिसका खामियाजा पूरी नौकरशाही को उठाना पड़ रहा हैं।“ इस खामियाजे को आसानी से हम हर दिन छप रही खबरों में देख सकते हैं, किसी भी दिन कोई भी छुटभ्इया नेता (जो स्थानीय स्तर पर एक छोटे गुंडे से अधिक नहीं होता) का अधिकारी का कॉलर पकड़ने में देर नहीं लगाता है, और यह कृत्य उस नेता के राजनैतिक करियर की एक उपलब्धि की तरह प्रायोजित की जाती है, और अपने वरिष्ठों की छत्रछाया में वह सुरक्षित भी रहता हैं। जो एक विषदपूर्ण स्थिति हैं।

निश्चित ही यह एक विषदपूर्ण स्थिति है, जिसमें सत्ता का मद और सत्ता के डर में नीति का तत्व लगभग खो गया हैं। दोनों ही तरफ की स्थितियों में काम करना ना केवल कठिन होता जा रहा हैं, वरन उन स्थितियों की वजह से अधिकारियों का मनोबल लगातार टूट रहा हैं। इस तरह की स्थितियों की वजह से कनिष्क अधिकारी अपने खिलाफ हो रही कार्रवाई के खिलाफ अपने वरिष्ठ अधिकारियों को धमकी देने से भी नहीं हिचकते है। इस तरह की स्थितियां निश्चित ही लोकतंत्र के लिए नुकसान देह हैं।

निसंदेह ये नेता जनता द्वारा चुने जाते हैं, और उनकी ताकत जनता हैं लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि अधिकारी भी उसी जनता का हिस्सा हैं, औऱ उनकी बेइज्जती और झुकाकर वे ना केवल अधिकारी को झुका रहे हैं वरन उस जनता को भी अपने सामने झुका रहे हैं जिसने उन्हें चुना हैं। निश्चित ही उच्च अधिकारीयों के असोसिएशन को इस ओर बातचीत करके एक लोकतांत्रिक जगह और अधिकार लेने होंगे वरना इस सेवाओं की साख बरकरार रख पाना कठिन होगा। आईएएस असोसिएशन और पीसीएस असोसिएशन को इस तथ्य को नैतिकता के पैमाने से निकाल कर व्यवहारिकता में हो रहे क्रियाकलाप को देखते हुए राजनैतिक सत्ता के साथ अपने लिए स्वस्थ माहौल को बनाना होगा ही, वरना निचले स्तर के अधिकारी जल्द ही पैर छूने की संस्कृति के भेट चढ़ जाएंगे, और उनके पास किसी भी तरह का स्थान नहीं रहेगा जहां वो अपनी नैतिकता को आधार बना कर नौकरी कर सकें।

किसी भी तरह का अनियंत्रण असंतुलन की स्थिति पैदा करेगा जो किसी भी स्थिति में स्वस्थ लोकशाही के हित में नहीं होगा। जिन्हें लोकशाही के अनियंत्रित होने का भय हैं उन्हें यह जनाना चाहिए कि लोकशाही को तलवों में रख कर भी आप स्वस्थ लोकतंत्र की परिकल्पना नहीं कर सकते हैं। इस लिए इस तेजी से निलम्बन करने और कॉलर पकड़ने की संस्कृति के खिलाफ अपना विरोध करना ही होना होगा। ताकि एक स्वस्थ लोकतंत्र का निर्माण किया जा सकें।

                                                                                                                                 
                                                                                                                                                                                                  शिशिर कुमार यादव

सोमवार, 22 जुलाई 2013

राजनैतिक मरीचिका साबित ना हो खाद्य सुरक्षा अध्यादेश

देश में खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के जारी होते ही एक बार फिर से गरीब और गरीबी मुख्य धारा की चर्चा का विषय हैं। जो आम दिनों में सामान्यतया चर्चा से लगभग गायब ही रहते हैं। खाद्य सुरक्षा अध्यादेश उन दो तिहाई लोगों के भोजन की गांरटी की चर्चा हैं, जिन्हें सरकारों ने एक लम्बें समय तक अनेदेखा किए रखा और इन्हें आकड़ों की भाषा में उलझाएं रखा। सरकारी आकड़े जहाँ गरीबों को 78 प्रतिशत से लेकर 37.2 प्रतिशत तक आँकते रहें, तो वहीं कुपोषण की दरें विभिन्न सर्वें में 42 प्रतिशत से 45 प्रतिशत के बीच (0-6 साल के बच्चों मॆ) छिटकती रही। इन सब के बीच 11 से 18 वर्ष के किशोर खुद को शारीरिक विकास के पैमानें पर अल्पविकसित ही पाते रहें। बाजार की खाई ने लगातार खाद्यानों और पोषण से एक बड़े वर्ग को दूर ही रखा। ऐसें में अब जब सरकार खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लेकर आई हैं तो संभावनाओं के साथ तमाम आशंकाओं ने भी घेर लिया हैं। जो इस कार्यक्रम के भविष्य की कार्ययोजना पर एक गंभीर चिंता उभारता हैं।
चिंता कई स्तरों पर हैं, सबसे बड़ी चिंता का विषय इस अध्यादेश को संसद के आगामी मानसूम सत्र में मंजूरी दिलानें को लेकर होगी। अभी यह अध्यादेश के रूप में देश पर लागू हुआ हैं, यानी अभी इसे आने वाले मानसून सत्र में इसें संसद की मंजूरी के लिए रखा जाएगां। जिसके हंगामेदार होने के लक्षण अभी से दिखने लगें हैं। राजनैतिक दलों नें इस ओर अपनी अपनी तैयारी शुरू भी कर दी हैं। आगामी चुनावों के राजनैतिक हित को साधने के लिए जिस तरह से सत्ता पक्ष ने आनन फानन में इस को अध्यादेश के रूप में लागू किया हैं उससे निपटने के लिए विपक्ष क्या, साथ खडी पार्टियां सपा, बसपा भी पीछे रहने वाले नही हैं। खाद्य सुरक्षा जैसें मुद्दे पर सरकार की अदूरदर्शिता का प्रभाव इस पूरे प्रक्रिया पर जरूर पड़ेगा, क्योंकि विपक्षी पार्टियां इस अध्यादेश के जरिए राजनैतिक हित को साधने के लिए सत्ता पक्ष को मौका नहीं देंगी। जिससे इस महत्वपूर्ण बिल जिसका इतने लंबे समय से इंतजार किया गया वो एक तुच्छ राजनीति की भेट भी चढ सकता हैं। ऐसी स्थिति में देश की जरूरतों के आवश्यकताओं के अनुसार खाद्य सुरक्षा पर एक गहन चर्चा हो जाए इस ओर भी भरोसा रख पाना कठिन ही होगा।
दूसरी चिंता का विषय इसके वितरण प्रणाली की वर्तमान प्रावधानों के साथ साथ भविष्य में प्रणाली में होने वाले परिवर्तनों के मद्देनजर हैं। हाँलाकि अभी सरकार इसें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से शुरूआत करने वाली हैं, जिसके तहत वह प्रति व्यकित 5 किलों अनाज देने का प्रावधान रखा हैं। जिसमें ग्रामीण ईलाकों से 75 प्रतिशत और शहरी ईलाकों से 50 प्रतिशत जनता को इसके दायरे में लाया जाएगां। जिसमें 1 रू प्रति मोटा अनाज, 2 रू प्रति किलों गेहूँ औऱ 3 रू प्रति किलों चावल दिया जाएगा। साथ ही साथ 6000 रू का मातृत्व लाभ और 6 से 14 साल के बच्चों के लिए पका पकाया भोजन और अत्यन्त गरीबों को अन्त्योदय योजना के तहत 35 किला अनाज कानूनी अधिकार के साथ मिलेगा। इसके लिए सरकार को प्रतिवर्ष 125000 करोड़ धनराशि की आवश्यकता होगी। निश्चित ही यह एक महत्वाकांक्षी योजना होगी।
लेकिन फिर भी इसके संचालन को लेकर चिंता हैं, यह योजना देश में पहली योजना नहीं होगी जिसें जन वितरण प्रणाली के द्वारा संचालित किया जाएगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से कुछ इसी तरह की योजनाएं पहले से भी चलाई जा रही हैं, लेकिन इस योजना में अंतर सिर्फ इतना होगा कि अब तक जहाँ सरकार पहले से चल रही योजनाओं को कल्याणकारी योजना की तरह चला रही थी अब इसें जनता के अधिकार के रूप में सुरक्षित करेगीं। जिसके तहत यह (खाद्य सुरक्षा) आम जनता का कानूनी अधिकार होगा, जिसें न्यायिक हस्तक्षेप द्वारा कार्यान्वित कराया जा सकता है। इस तरह यह खाद्य सुरक्षा में व्यक्ति अपनी हकदारी सुनिश्चित करता हैं। लेकिन सवाल हैं, कि संचालन होगा कैसें। क्या वर्तमान व्यवस्था के कंधों से ही इस महत्वाकांक्षी योजना का संचालन होगा, और अगर ऐसा होता हैं तो क्या यह व्यवहारिक होगा, कि जिस तंत्र के लिए योजना आयोग का खुद का मानना हैं कि लोगों तक 1 रूपया लाभ पहुचाने में सरकार को 3.65 रूपया खर्च करना होता हैं उसी से इस योजना का विस्तार किया जाए।
हाँलाकि सरकार कुछ हद तक इस बार के राष्ट्रपति के सयुक्त सदन के अभिभाषण में संकेत दे दिए थें कि इस योजना को भी अतत: नकद हस्तांतरण माध्यम से ही संचालित की जाएगी। हाँलाकि बढते दबाव के कारण अभी ऐसा नहीं किया हैं लेकिन भविष्य में इस व्यवस्था को जारी रखने की संभावना कम ही नजर आती हैं। तो सरकार विकल्प रूप में नगद हस्तांतरण की प्रक्रिया लागू करेगी। ऐसें में सरकार खाद्य सुऱक्षा में इस प्रयोग में गरीबों की खरीदने की शक्ति को बढा कर खाद्यानों के दाम को बाजार के हाथों में सौप देगी ऐसें में खाद्य सुरक्षा के बजाय यह व्यवस्था बाजार सुरक्षा में परिवर्तित हो जाएगी । मांग को बढता देख बाजार में खाद्यों के दाम में अतिशय वृद्धि होगी ही यह अर्थशास्त्र मूलभूत सिद्धान्त हैं। ऐसें में गरीबों को खाद्यान्नों को महगी दरों पर खाद्यान खरीदना होगा। नगद हस्तांतरण के आते ही केन्द्र सरकार खाद्यानों के मूल्य तय करने वाली सेन्ट्रल इश्यू प्राइस विधि को से बाजार को नियत्रित करने का नैतिक हक भी खो देगी, क्यूकि अभी तक सरकार इसी सेन्ट्रल इश्यू प्राइस प्रणाली के तहत बाजार को नियत्रितं करती रही हैं। ऐसें में यह खाद्य सुरक्षा के अधिकार को कैसे सुरक्षित रखेगी यह निष्कर्ष निकालना कठिन होगा। अभी भविष्य में किस तरह की व्यवस्था जारी की जाएगी यह सुनिश्चित करना कठिन होगा लेकिन इस और उपजने वाले खतरों को ध्यान में रखने की अत्यन्त आवश्यकता है।
इसके अलावा इस योजना में कृषि प्रणाली में सुधार ताकि लघु और सीमांत कृषको को बढावा, कृषि निवेश, कृषि अनुसंधान पर विकास, सिचाईं विकास, उचित प्रंबधन और विपणन सुविधाओं का विकास, भूमि का उचित प्रयोग को बढावा देकर खाद्य सुरक्षा को दीर्घ-कालीन परिदृश्यों में रखने का प्रयास किया जा रहा हैं। जिसके लिए एक कुशल राजनैतिक इच्छाशक्ति और योजना की आवश्यकता हैं। क्योंकि अलग अलग स्तरों पर इन और राज्य और केन्द्र सरकारे काफी पैसा खर्च करती रही हैं।
इन सब के मद्देनजर रखते हुए यह देखना बहुत ही जरूरी हैं कि जन अधिकारों में एक महत्वपूर्ण योजना किसी भी राजनैतिक नीतियों और आर्थिक कमियों की भेट ना चढ जाएं। देश के आर्थिक और सामाजिक स्थिति को देथते हुए इस ओर व्यवस्था के व्यापक प्रयास करने की जरूरत हैं ताकि सही अर्थों में खाद्य सुरक्षा सुरक्षित की जा सकें, और अगर इस व्यवस्था में अगर इस तरह की खामियाँ रह गई तो यह एक राजनैतिक एक और मरीचिका सरीखा होगा, गरीब जनता के लिए सिर्फ आभास होगा खाद्य सुरक्षा नहीं। इसलिए मरीचिका के प्रभाव को ना पनपने देने के लिए एक कुशल कार्यकारी औऱ समेकित योजना पर बल देने की जरूरत हैं।


शिशिर कुमार यादव.