बुधवार, 7 अगस्त 2013

प्रशासन और राजनीति में संतुलन जरूरी...


प्रशासनिक कार्यों में राजनैतिक दखल कोई नई बात नहीं है। बहुत हद तक यह दखल लोकतांत्रिक देश में नौकरशाही व्यवस्था की लालफीताशाही व्यवस्था को नियंत्रित करने का कारगर उपाय माना जाता रहा है। राजनैतिक पार्टियां इस नीतिशास्त्र का आधार लेकर नौकरशाही पर निंयत्रण करती रही हैं और सत्ता संतुलन के लिए यह एक आवश्यक कार्रवाइयों में से एक रही है। किसी भी राजव्यवस्था में इन दोनों के बीच संतुलन राज्य के क्रियाकलाप के लिए  महत्वपूर्ण होता है। लेकिन बदलती राजनैतिक परिस्थितियों में राजनैतिक कार्यपालिका और प्रशासनिक कार्यपालिका में अंसुतलन बढ़ता जा रहा है। बदलती परिस्थियों में राजनैतिक कार्यपालिका का रवैया प्रशासनिक अधिकारियों को लेकर गैरजिम्मेदाराना होता जा रहा हैं। राजनैतिक सत्ता में बैठी पार्टियां लगातार उन अधिकारियों को चुन रही हैं जिन्हें वो अपने इशारों में नचा सकें और जो नहीं नाच सकें, उनके लिए कई तरह की कार्रवाइयां कर देती हैं। इसी कड़ी में दुर्गा शक्ति नागपाल का निलंबन एक है। इससे पहले भी बहुत सारे निंलबन होते रहे हैं और उनका आधार उनकी ईमानदारी ही रहा हैं। कई बार इस तरह के निलंबन के पीछे सत्ता दल की राजनैतिक इच्छा के खिलाफ खड़ा होना रहा है।

किसी अधिकारी के लिए निलंबन उसके प्रशासनिक जीवन का सबसे बड़ा धब्बा होता हैं। नियमतः निलम्बन को किसी अधिकारी को समय विशेष के लिए उसके पद और अधिकारों से दूर रखना होता हैं, जब तक उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों की जांच की जा रही हो। कई बार इसे किसी घटना के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को प्राथमिक दंड स्वरूप उनके अधिकारियों को निंलबिंत कर दिया जाता हैं। लेकिन बदलती राजनैतिक परिस्थितियों में इस तरह की कार्यवाहियां राजनैतिक पार्टियां सत्ता में आते ही अपने समर्थकों को खुश करने के लिए उन अफसरों के खिलाफ सबसे बड़े हथियार के रूप में करती हैं, जो उनके विरोधी पार्टियों की सत्ता में बेहतर पदों पर थे और उनके समर्थकों की नजरों में चढ़े रहते थे। 

राजनैतिक सत्ता के गलियारों के बदलते चरित्र के साथ राजनेताओं में ताकत का पुट उन्हें समय विशेष के लिए सबसे ताकतवर महसूस कराता रहता है जिसकी वजह से वो हमेशा ही गवर्नमेंट सर्वेंट को पर्सनल सर्वेंट के रूप में रखना चाहते हैं। इसका एक चेहरा अधिकारियों का नेताओं का पैर छूने और उनकी जी-हुजूरी के रूप में सामने आ रहा हैं। राजनैतिक दबाव और पद की लालसा की सीमा इस हद तक हैं, पर बड़े अधिकारियों को भी इन नेताओं के चरणों में अपने श्रद्धासुमन अर्पित इस लिए अर्पित करने पड़ जाते हैं क्योंकि सत्ता की ताकत उनके खिलाफ कभी भी कुछ भी कर सकती हैं। एक निचले अधिकारी के निजी अनुभवों के आधार पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि “अगर मेरा ही सीनियर अफसर नेता के समक्ष श्रद्धा सुमन चढ़ाता हैं तो उसके बाद हम जैसे छोटे अफसरों के लिए स्थिति विषद पूर्ण हो जाती हैं। उस असमंजस की स्थिति में खुद को अलग करना कितना कठिन हो जाता है और उसके बाद अपनी नैतिकता के साथ उस जगह पर काम कर पाना कितना कठिन होता है इसकी कल्पना करना अपने आप में ही कठिन हैं। नेता भी अपने समर्थकों के सामने खुद को एक ताकतवर नेता के रूप में पेश करते हैं। जिसका खामियाजा पूरी नौकरशाही को उठाना पड़ रहा हैं।“ इस खामियाजे को आसानी से हम हर दिन छप रही खबरों में देख सकते हैं, किसी भी दिन कोई भी छुटभ्इया नेता (जो स्थानीय स्तर पर एक छोटे गुंडे से अधिक नहीं होता) का अधिकारी का कॉलर पकड़ने में देर नहीं लगाता है, और यह कृत्य उस नेता के राजनैतिक करियर की एक उपलब्धि की तरह प्रायोजित की जाती है, और अपने वरिष्ठों की छत्रछाया में वह सुरक्षित भी रहता हैं। जो एक विषदपूर्ण स्थिति हैं।

निश्चित ही यह एक विषदपूर्ण स्थिति है, जिसमें सत्ता का मद और सत्ता के डर में नीति का तत्व लगभग खो गया हैं। दोनों ही तरफ की स्थितियों में काम करना ना केवल कठिन होता जा रहा हैं, वरन उन स्थितियों की वजह से अधिकारियों का मनोबल लगातार टूट रहा हैं। इस तरह की स्थितियों की वजह से कनिष्क अधिकारी अपने खिलाफ हो रही कार्रवाई के खिलाफ अपने वरिष्ठ अधिकारियों को धमकी देने से भी नहीं हिचकते है। इस तरह की स्थितियां निश्चित ही लोकतंत्र के लिए नुकसान देह हैं।

निसंदेह ये नेता जनता द्वारा चुने जाते हैं, और उनकी ताकत जनता हैं लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि अधिकारी भी उसी जनता का हिस्सा हैं, औऱ उनकी बेइज्जती और झुकाकर वे ना केवल अधिकारी को झुका रहे हैं वरन उस जनता को भी अपने सामने झुका रहे हैं जिसने उन्हें चुना हैं। निश्चित ही उच्च अधिकारीयों के असोसिएशन को इस ओर बातचीत करके एक लोकतांत्रिक जगह और अधिकार लेने होंगे वरना इस सेवाओं की साख बरकरार रख पाना कठिन होगा। आईएएस असोसिएशन और पीसीएस असोसिएशन को इस तथ्य को नैतिकता के पैमाने से निकाल कर व्यवहारिकता में हो रहे क्रियाकलाप को देखते हुए राजनैतिक सत्ता के साथ अपने लिए स्वस्थ माहौल को बनाना होगा ही, वरना निचले स्तर के अधिकारी जल्द ही पैर छूने की संस्कृति के भेट चढ़ जाएंगे, और उनके पास किसी भी तरह का स्थान नहीं रहेगा जहां वो अपनी नैतिकता को आधार बना कर नौकरी कर सकें।

किसी भी तरह का अनियंत्रण असंतुलन की स्थिति पैदा करेगा जो किसी भी स्थिति में स्वस्थ लोकशाही के हित में नहीं होगा। जिन्हें लोकशाही के अनियंत्रित होने का भय हैं उन्हें यह जनाना चाहिए कि लोकशाही को तलवों में रख कर भी आप स्वस्थ लोकतंत्र की परिकल्पना नहीं कर सकते हैं। इस लिए इस तेजी से निलम्बन करने और कॉलर पकड़ने की संस्कृति के खिलाफ अपना विरोध करना ही होना होगा। ताकि एक स्वस्थ लोकतंत्र का निर्माण किया जा सकें।

                                                                                                                                 
                                                                                                                                                                                                  शिशिर कुमार यादव

सोमवार, 22 जुलाई 2013

राजनैतिक मरीचिका साबित ना हो खाद्य सुरक्षा अध्यादेश

देश में खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के जारी होते ही एक बार फिर से गरीब और गरीबी मुख्य धारा की चर्चा का विषय हैं। जो आम दिनों में सामान्यतया चर्चा से लगभग गायब ही रहते हैं। खाद्य सुरक्षा अध्यादेश उन दो तिहाई लोगों के भोजन की गांरटी की चर्चा हैं, जिन्हें सरकारों ने एक लम्बें समय तक अनेदेखा किए रखा और इन्हें आकड़ों की भाषा में उलझाएं रखा। सरकारी आकड़े जहाँ गरीबों को 78 प्रतिशत से लेकर 37.2 प्रतिशत तक आँकते रहें, तो वहीं कुपोषण की दरें विभिन्न सर्वें में 42 प्रतिशत से 45 प्रतिशत के बीच (0-6 साल के बच्चों मॆ) छिटकती रही। इन सब के बीच 11 से 18 वर्ष के किशोर खुद को शारीरिक विकास के पैमानें पर अल्पविकसित ही पाते रहें। बाजार की खाई ने लगातार खाद्यानों और पोषण से एक बड़े वर्ग को दूर ही रखा। ऐसें में अब जब सरकार खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लेकर आई हैं तो संभावनाओं के साथ तमाम आशंकाओं ने भी घेर लिया हैं। जो इस कार्यक्रम के भविष्य की कार्ययोजना पर एक गंभीर चिंता उभारता हैं।
चिंता कई स्तरों पर हैं, सबसे बड़ी चिंता का विषय इस अध्यादेश को संसद के आगामी मानसूम सत्र में मंजूरी दिलानें को लेकर होगी। अभी यह अध्यादेश के रूप में देश पर लागू हुआ हैं, यानी अभी इसे आने वाले मानसून सत्र में इसें संसद की मंजूरी के लिए रखा जाएगां। जिसके हंगामेदार होने के लक्षण अभी से दिखने लगें हैं। राजनैतिक दलों नें इस ओर अपनी अपनी तैयारी शुरू भी कर दी हैं। आगामी चुनावों के राजनैतिक हित को साधने के लिए जिस तरह से सत्ता पक्ष ने आनन फानन में इस को अध्यादेश के रूप में लागू किया हैं उससे निपटने के लिए विपक्ष क्या, साथ खडी पार्टियां सपा, बसपा भी पीछे रहने वाले नही हैं। खाद्य सुरक्षा जैसें मुद्दे पर सरकार की अदूरदर्शिता का प्रभाव इस पूरे प्रक्रिया पर जरूर पड़ेगा, क्योंकि विपक्षी पार्टियां इस अध्यादेश के जरिए राजनैतिक हित को साधने के लिए सत्ता पक्ष को मौका नहीं देंगी। जिससे इस महत्वपूर्ण बिल जिसका इतने लंबे समय से इंतजार किया गया वो एक तुच्छ राजनीति की भेट भी चढ सकता हैं। ऐसी स्थिति में देश की जरूरतों के आवश्यकताओं के अनुसार खाद्य सुरक्षा पर एक गहन चर्चा हो जाए इस ओर भी भरोसा रख पाना कठिन ही होगा।
दूसरी चिंता का विषय इसके वितरण प्रणाली की वर्तमान प्रावधानों के साथ साथ भविष्य में प्रणाली में होने वाले परिवर्तनों के मद्देनजर हैं। हाँलाकि अभी सरकार इसें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से शुरूआत करने वाली हैं, जिसके तहत वह प्रति व्यकित 5 किलों अनाज देने का प्रावधान रखा हैं। जिसमें ग्रामीण ईलाकों से 75 प्रतिशत और शहरी ईलाकों से 50 प्रतिशत जनता को इसके दायरे में लाया जाएगां। जिसमें 1 रू प्रति मोटा अनाज, 2 रू प्रति किलों गेहूँ औऱ 3 रू प्रति किलों चावल दिया जाएगा। साथ ही साथ 6000 रू का मातृत्व लाभ और 6 से 14 साल के बच्चों के लिए पका पकाया भोजन और अत्यन्त गरीबों को अन्त्योदय योजना के तहत 35 किला अनाज कानूनी अधिकार के साथ मिलेगा। इसके लिए सरकार को प्रतिवर्ष 125000 करोड़ धनराशि की आवश्यकता होगी। निश्चित ही यह एक महत्वाकांक्षी योजना होगी।
लेकिन फिर भी इसके संचालन को लेकर चिंता हैं, यह योजना देश में पहली योजना नहीं होगी जिसें जन वितरण प्रणाली के द्वारा संचालित किया जाएगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से कुछ इसी तरह की योजनाएं पहले से भी चलाई जा रही हैं, लेकिन इस योजना में अंतर सिर्फ इतना होगा कि अब तक जहाँ सरकार पहले से चल रही योजनाओं को कल्याणकारी योजना की तरह चला रही थी अब इसें जनता के अधिकार के रूप में सुरक्षित करेगीं। जिसके तहत यह (खाद्य सुरक्षा) आम जनता का कानूनी अधिकार होगा, जिसें न्यायिक हस्तक्षेप द्वारा कार्यान्वित कराया जा सकता है। इस तरह यह खाद्य सुरक्षा में व्यक्ति अपनी हकदारी सुनिश्चित करता हैं। लेकिन सवाल हैं, कि संचालन होगा कैसें। क्या वर्तमान व्यवस्था के कंधों से ही इस महत्वाकांक्षी योजना का संचालन होगा, और अगर ऐसा होता हैं तो क्या यह व्यवहारिक होगा, कि जिस तंत्र के लिए योजना आयोग का खुद का मानना हैं कि लोगों तक 1 रूपया लाभ पहुचाने में सरकार को 3.65 रूपया खर्च करना होता हैं उसी से इस योजना का विस्तार किया जाए।
हाँलाकि सरकार कुछ हद तक इस बार के राष्ट्रपति के सयुक्त सदन के अभिभाषण में संकेत दे दिए थें कि इस योजना को भी अतत: नकद हस्तांतरण माध्यम से ही संचालित की जाएगी। हाँलाकि बढते दबाव के कारण अभी ऐसा नहीं किया हैं लेकिन भविष्य में इस व्यवस्था को जारी रखने की संभावना कम ही नजर आती हैं। तो सरकार विकल्प रूप में नगद हस्तांतरण की प्रक्रिया लागू करेगी। ऐसें में सरकार खाद्य सुऱक्षा में इस प्रयोग में गरीबों की खरीदने की शक्ति को बढा कर खाद्यानों के दाम को बाजार के हाथों में सौप देगी ऐसें में खाद्य सुरक्षा के बजाय यह व्यवस्था बाजार सुरक्षा में परिवर्तित हो जाएगी । मांग को बढता देख बाजार में खाद्यों के दाम में अतिशय वृद्धि होगी ही यह अर्थशास्त्र मूलभूत सिद्धान्त हैं। ऐसें में गरीबों को खाद्यान्नों को महगी दरों पर खाद्यान खरीदना होगा। नगद हस्तांतरण के आते ही केन्द्र सरकार खाद्यानों के मूल्य तय करने वाली सेन्ट्रल इश्यू प्राइस विधि को से बाजार को नियत्रित करने का नैतिक हक भी खो देगी, क्यूकि अभी तक सरकार इसी सेन्ट्रल इश्यू प्राइस प्रणाली के तहत बाजार को नियत्रितं करती रही हैं। ऐसें में यह खाद्य सुरक्षा के अधिकार को कैसे सुरक्षित रखेगी यह निष्कर्ष निकालना कठिन होगा। अभी भविष्य में किस तरह की व्यवस्था जारी की जाएगी यह सुनिश्चित करना कठिन होगा लेकिन इस और उपजने वाले खतरों को ध्यान में रखने की अत्यन्त आवश्यकता है।
इसके अलावा इस योजना में कृषि प्रणाली में सुधार ताकि लघु और सीमांत कृषको को बढावा, कृषि निवेश, कृषि अनुसंधान पर विकास, सिचाईं विकास, उचित प्रंबधन और विपणन सुविधाओं का विकास, भूमि का उचित प्रयोग को बढावा देकर खाद्य सुरक्षा को दीर्घ-कालीन परिदृश्यों में रखने का प्रयास किया जा रहा हैं। जिसके लिए एक कुशल राजनैतिक इच्छाशक्ति और योजना की आवश्यकता हैं। क्योंकि अलग अलग स्तरों पर इन और राज्य और केन्द्र सरकारे काफी पैसा खर्च करती रही हैं।
इन सब के मद्देनजर रखते हुए यह देखना बहुत ही जरूरी हैं कि जन अधिकारों में एक महत्वपूर्ण योजना किसी भी राजनैतिक नीतियों और आर्थिक कमियों की भेट ना चढ जाएं। देश के आर्थिक और सामाजिक स्थिति को देथते हुए इस ओर व्यवस्था के व्यापक प्रयास करने की जरूरत हैं ताकि सही अर्थों में खाद्य सुरक्षा सुरक्षित की जा सकें, और अगर इस व्यवस्था में अगर इस तरह की खामियाँ रह गई तो यह एक राजनैतिक एक और मरीचिका सरीखा होगा, गरीब जनता के लिए सिर्फ आभास होगा खाद्य सुरक्षा नहीं। इसलिए मरीचिका के प्रभाव को ना पनपने देने के लिए एक कुशल कार्यकारी औऱ समेकित योजना पर बल देने की जरूरत हैं।


शिशिर कुमार यादव.

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

बिट्टी जिसे जिंदा भूत निगल गए

सालों बीत जाने के बाद भी स्त्री सघर्ष की हर लड़ाई में वह चेहरा याद आ जाता हैं. ना जाने कितनी बार वहीं सवाल मन में उठता हैं कि जो इतना चुप रहा करती थी, वो इतना बोलने कैसे लगीं, और जब शांत हुई, तो चीखों के साथ, जिसकी आवाज किसी के कानों तक ना पहुची। जी हाँ वह एक रहस्मयी मौत मार दी गई। बिट्टी ( अवध प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में लड़कियों के लिए सम्बोधन) जिसे मैं जानता था, उस बिट्टी ने पगली तक का सफर कब तय कर लिया किसी को खबर नही. हाँ सहयोग सबने किया और सबसे ज्यादा सहयोग उन्होनें किया, जिन्हें वो अपना ही मानती थी.

दिसम्बर 2009 में दिल्ली से पत्रकारिता का पहला सेमेस्टर पूरा कर जब घर लौटा तो, पूछा कि कुछ नया ? तो छोटी बहन ने लगभग चिंतित स्वर में कहा अरे जानता है वो बिट्टी हैं ना पागल हो गई है, बहुत बोलने लगी है, किसी से भी बात करने लगती है, उसके घर वालों का कहना है कि उसे भूत लग गए हैं. खैर बहन ने खुद ही बात को काटते हुए कहा कि भूत - वूत कुछ नहीं, 15-16 साल की लड़की की शादी एक अधेड़ से कर दी तो पागल नहीं होगी तो क्या होगी ? मैंने  जब उसके जवाबों में अपने सवालों की उत्सुकता जोड़ी, तो संकोच भरे शब्दों में उसने कहा अरे  28 साल का लड़का एक लड़की के साथ जबर्जस्ती ही करेगा ना और वो थी भी तो थोडी सीधी, लड़की तो थी ही नहीं सिर्फ घर का काम करती थी. कितना काम करती थी, है ना ?”
अपनी बात को बल देने के लिए बहन ने मेरी ओर सवाल उछाल दिया था. (हमारे गांवो में घर के काम में पशुओं की देखभाल प्रमुख हैं जो सबसे बडा काम है). बहन अपनी बात में और जोड़ती हैं कि अब ससुराल वाले कहते हैं कि वो काम ही नहीं करती, शायद गर्भ से भी थी पर ठहरा नहीं तो अब वो उतना एक्टिव नहीं रहती और उसका मन भी नहीं लगता तो उसके ससुराल वाले उसे भूत चढने का बहाना कर गाँव छोड गए हैं, और गाँव वाले उसे चिढा चिढा कर परेशान करते हैं, ऐसें में वो थोड़ी सी मेंटल डिस्टर्ब हो गई, तो गाँव वाले उसे पगली कहने लगें. वो ना भी हो तो उसे पागल कर देगें. बहन ने लगभग एक सामजिक विज्ञानी की तरह पूरे कारण सहित व्याख्या कर डाली थी. मैं भी उससें पूर्ण सहमत था पर दोष और दोषी खोज लेने भर से बिट्टी को देने के लिए हमारे पास कुछ ना था.
खैर गाँव पहुचते ही बहन की हर बात अक्षरश: सही थी, बिट्टी बहुत बोलती पगली में बदल चुकी थी, चचेरे भाई ने मेरे सामने प्रमाण देने के लिए उसके पति का नाम ले लिया और वह शुरू हो गई गालियाँ देने. किसी ने कहा मैं भी हूँ तो आवाज में नरमी के साथ मेरी ओर बढ आई, लगभग पैर छूते हुए पूछा भईया कैइसे हय”? जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर घर में सब का हाल पूछ गई। मैं लगभग संशकित भाव से और थोडा सा असहज हो कर उसके सवाल को सुनता रहा। शायद मैं भी डर रहा था। बिट्टी हर सवाल चमकती आँखों से पूछ रही थी जिसमें बार बार एक ही सवाल था कि मेरी हालातों की वजह क्या है ? पर आस पास सवालों पर उठती हँसी उसके हौसले को तोड़ देते हैं और वो उदास भाव से अपने जवाब को लिए बिना ही बड़वडाती चली जाती हैं । 

इतनी सक्षिप्त मुलाकात के एक साल बाद खबरों में सुना की उसने खुद को आग ली. उसकी मौत भी एक रहस्य थी, वो जल कर मरी थी और 10 से 15 मीटर बाहर बैठे लोगों को उसकी चीखे तक नहीं सुनाई दी थी. सबको धुआँ उठने तक का इंतजार करना पड़ा था, पर हाँ वो मर जरूर गई थीं. उसके मरने पर काफी सवाल थे, जो समय के साथ खत्म होते चले गए. गांव के जिम्मेदार लोगों ने पुलिस केस से बचा कर उसको अंतिम यात्रा पर भेज अपने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली. सब विस्मित थे. शायद सब को सवालो के जवाब पता था पर जवाबदेही  के साथ उन सवालो के जवाब कोई नहीं देना चाहता था. कोई भी उन सवालों की ओर ध्यान नहीं दे रहा था जिन सवालों को बिट्टी ने हर दिन हर उस इंसान से पूछा, कि मेरी ये हालत क्यों हैं? वो हर इंसान से यही कहती तुमने तो मुझें देखा हैं मैं ऐसी तो ना थी, फिर मेरे ऐसे होने की वजह क्या हैं ?
आज भी वे सवाल जिंदा हैं, क्योंकि किसी ने उन सवालों के जवाब नहीं दिए थें. ऐसे में कोई ना कोई बिट्टी आपके अपने गाँव में आप से इस तरह के सवाल पूछते मिल सकती हैं.उस बिट्टी को तो कोई जवाब नहीं मिला था और शायद अनुत्तरित चेहरों को देख कर वो यहाँ से चली गई. पर उसके सवालो की चीख आज भी बरकरार है. जिसे हम लगभग अनसुना करते आ रहे हैं. खैर जो उसकी जिंदा चीखों को ना सुन सके वो इन सवालो की चीखों को क्या सुनेगें। उन सवालो के जवाब कोई और ना माँग ले इसलिए उन सवालों को पूछने वाले को पगली बना कर अपने समाज से अप्राकृतिक मौत मरने के लिए मजबूर कर दिया और सवालों को पगली के सवालों में तब्दील कर दिया. जब भी स्त्री अधिकारों की बात आती हैं तो मैं ऐसे समाज से स्त्री अधिकारों के लिए मांगू भी तो क्या मांगू जो स्त्रीयों को सिर्फ अप्राकृतिक मौते ही उपहार में दे सकता हैं (बिट्टी की मौत का जिम्मेदार मैं खुद को भी मानता हूँ क्योंकि उस समाज का मैं भी हिस्सा था और हूँ भी.

यह लेख जनसत्ता अखबार में 13 जुलाई 2013 में दुनिया मेरे आगे के कालम में छपा हैं । 


शिशिर कुमार यादव 

शनिवार, 6 जुलाई 2013

आपदाओं से बचाव के बहाने सामाजिक न्याय

उत्तराखंड की बाढ के बाद देश में, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को लेकर एक जोरदार बहस छिड़ी हुई हैं। लगभग सभी विचारक एकमत होकर उन सभी मानवीय मूल्यों की आलोचना कर रहे है जिसने प्रकृति के स्वरूप को बदल दिया हैं। निंसदेह बदलती मानवीय प्राथमिकताओं में प्राकृतिक संसाधनों को अतिशय शोषण किया जा रहा हैं जिसका खामियाजा बदलती प्राकृतिक स्थिति और भयावाह आपदाओं के रूप मे करना पड़ना रहा हैं। महाराष्ट्र के सूखे के बाद उत्तराखंड़ की बाढ तो बस कुछ उदाहरण स्वरूप हैं।  

   उत्तराखंड की बाढ के कई दिन बीत जाने के बाद भी बचाव कार्य पूरा नही हो पाया हैं। सेना के उतरने के बाद  बचाव कार्य में तेजी तो आई हैं लेकिन परिस्थियां अभी भी विपरीत हैं। निसंदेह ये परिस्थितियां आपदा की गंभीरता को दर्शाता हैं, और बतलाता हैं कि विभीषिका का स्तर मानवीय क्षमताओं से कहीं अधिक है। प्राकृतिक आपदाएं बार बार एक ही पाठ सिखलाती हैं, जिनमें स्पष्ट संदेश होते हैं कि प्रकृति में अत्यधिक परिवर्तन मानव जाति के लिए सिर्फ और सिर्फ अहितकर होगा। उम्मीद हैं जल्द ही लोगों को सुरक्षित निकाल लिया जाएगां और उसके बाद आपदा के कारण हुई हानि का पूरा पूरा मूल्याकंन हो सकेगा, और हम इस आपदा से कुछ समझ विकसित कर सकेगें ताकि आने वाली आपदा के लिए खुद को तैयार कर सकेगें।
पहले चरण का बचाव लगभग किनारे हैं, और बचे लोगों को लगभग सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया हैं। अब दूसरे चरण की बारी है। दूसरे चरण का बचाव एक महत्पूर्ण होगा, जो ना केवल आपदा का सही मूल्याकन करेगा वरन आने वाले वक्त में आपदा प्रंबधन को किन किन भागों में काम करने की जरूरत हैं उस ओर भी निर्देशित करेगा। दूसरे चरण के मूल्यांकन में हमें आपदा के बाद सामान्य जन जीवन लाने के लिए एक व्यापक कार्य योजना की जरूरत होगी वरना आपदा के बाद ये राहत कार्य भी एक आपदा सरीखा सा होगा। इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण कार्य आपदा से प्रभावित लोगों को पुनर्स्थापित करना सबसे महत्वपूर्ण चुनौती होगी। इस चरण में ही शायद उन सब पर ध्यान भी जाएगां जिनको अभी तक लगभग प्रंबधन तंत्र नें वो सुविधाएं उपलब्ध कराने में अक्षम रहा हैं, वे उत्तराखंड के निवासी हैं। मीडिया के कैमरें और पन्नों में भी ये पूरी तरह गायब थें। लेकिन दूसरे चरण में  यही सबसे प्रमुख चुनौतिया होगें, क्योंकि इनको सामान्य जिंदगी में लाना काफी कठिन होगा, क्योंकि इस आपदा में इनके घर और रोजगार का बड़े पैमाने पर धक्का लगा हैं।
आपदा के बाद सबसे महत्वपूर्ण काम आपदा से प्रभावित उन लोगों की पहचान करना होगा जो सच में आपदा ग्रस्त हैं, जो कि एक कठिन चुनौती होगी। इस तरह की आपदा के बाद के बाद लाभ के कारण हर कोई अपने को आपदा ग्रस्त दिखाने की कोशिश करने लगता हैं ऐसे में आपदा में सचमुच प्रभावित जिन्हें प्राथमिक सहायता की जरूरत होती हैं, उनकी पहचान करना सबसे कठिन हो जाता हैं।


किसी भी आपदा का प्रभाव सभी पर बराबर नही पड़ता हैं। समाज में संवदेनशील जैसें गरीब, पिछड़े, महिलाओं, बच्चों पर इसका प्रभाव काफी अधिक पड़ता हैं। इसें इस उदाहरण से समझा जा सकता हैं, कि बाढ आपदा के ईलाके में ईटों के मकान को तुलनात्मक रूप से कच्चें मकान की तुलना में नुकसान कम होता हैं, इन अर्थों में कच्चें मकान में रहने वाली जनसंख्या का नुकसान अधिक और वे अधिक संवेदनशील होती हैं। इसी प्रकार दैनिक मजदूर जिसकी आजीविका का संसाधन दैनिक मजदूरी से संचालित होती हैं उनकी स्थिति इन आपदाओं में रोजगार के अवसरों की कमी के कारण पूर्णतया कुछ दिनों तक समाप्त हो जाती हैं, और नुकसान की मात्रा इन सब पर सबसे ज्यादा होती हैं। पुरूषों के तुलना में महिलाओं और बच्चों पर इसका प्रभाव अधिक पड़ता हैं। इस लिए आपदा प्रंबधन को इऩ सब पर अलग से ध्यान देने की जरूरत हैं।
लेकिन आपदा के बाद हुई विभिन्न रिसर्चेज जिनमें राहत कार्य को प्रभावित करने वाले कारकों पर प्रकाश डालने की कोशिश की गई हैं। उनमें तथ्य स्पष्ट रूप से यह उभर कर सामने आया हैं कि आपदा प्रंबधन की नैतिकता के आदर्श, हकीकत के मैदान पर आते ही, उन सभी सामाजिक कारणों से दूषित हो जाते हैं, जो सामान्य दिनों में स्थानीय लोगों के जीवन का हिस्सा होते हैं। जिनमें स्थानीय राजनीति, प्रभुत्व जाति का प्रभाव, आर्थिक रूप से सम्पन्नता का प्रभाव, लिंग के आधार पर प्राथमिकताओं का चयन ( जेंडर बॉयसनेस) आसानी से देखा जा सकता हैं। उदाहरण के लिए राहत नुकसान का आकलन करने वाला स्थानीय अधिकारी प्रभुत्व जाति के सम्बन्धों के कारण अधिकारी इन लोगों के नुकसान का आकलन सबसे पहले करता हैं और इनके लिए राहत राशि को को आपदा के के पहले 1 या 2 महिनें में जारी कर देता हैं, लेकिन निम्न सामाजिक और आर्थिक जातियों जो सबसे अधिक ज्यादा संवेदनशील होते हैं, उनके आकलन में तमाम प्रकार की बाधाएं, होती हैं, जिनकी वजह से आपदा के सामान्यतया 3 से 4 माह से पहले किसी भी बड़ी सरकारी मदद की ( ढहे मकान का मुआवजा, पशुओं की मृत्यु का मुआवजा) उम्मीद करना बेईमानी होता हैं। ऐसे में ये कमजोर तबका इन धनवानों से औने पौने दामों में ऋण लेते हैं, और चार माह बाद मिली मुआवजे की कीमत इन ऋणों के व्याज उतारने तक ही खत्म हो जाती हैं। ऐसें में जिनको आपदा ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुचाया हैं, आपदा राहत भी उनकी स्थिति में किसी भी प्रकार से सहायक नहीं हो पाती हैं। वो सतत चलने वाली समस्या में फस जाते हैं जिससे निकलनें का कोई ओर छोर आसानी से नहीं मिलता हैं।
ऐसे में एक बात स्पष्ट रूप से निकल कर बाहर आती हैं कि आखिर आपदा में स्थानीय प्रतिनिधित्व या सहभागिता किसकी, उनकी जो पहले से ही सक्षम हैं, या उनकी जो इन आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। लेकिन मौजूदा तंत्र तो सिर्फ कुछ सक्षम लोगो के नुकसान की भरपाई के लिए बना मालूम पड़ता हैं। जो सर्वमान्य रूप से स्थानीय सहभागिता का अच्छा उदाहरण नही हैं।
इसी लिए स्थानीय सहभागिता को बढावा देने औऱ इस पर कार्ययोजना वाले जिला आपदा निंयत्रण समिति को इस ओऱ ध्यान रख कर कार्ययोजना बनाने की जरूरत हैं ताकि सही मायनों में स्थानीय सहभागिता हो सके और सभी वर्गो को प्रतिनिधित्व मिल सकें। जिससें प्राकृतिक आपदा जिसका प्रभाव सामाजिक हैं, उस ओर हम अपनी योजना को संचालित कर सकें।
इसलिए स्थानीय स्तर पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और लैगिंक स्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन कर कार्ययोजना को बराबरी के आधार के बजाय न्यायसंगतता को ध्यान में रख कर बनाने की जरूरत हैं, ताकि सभी वर्गों को समान रूप मे अपने बचाव के समान अवसर उपलब्ध रहें, यहीं सही मायनों में स्थानीय सहभागिता के विचार को पूर्ण करेगा, वरना यह विचार सिर्फ कुछ लोगों के लाभ के लिए बना एक तंत्र रह जाएगा, जिसमें कमजोर औऱ पिछड़ो के लिए कोई जगह नही होगी। इस तरह की व्यवस्था में अगर बदलाव नहीं हुआ तो आपदा के बाद यह एक और आपदा होगी जिसमें गरीब, पिछडें, महिलाए, और कमजोर वर्ग अपनी बलि लगातार चढाते रहेंगें।


शिशिर कुमार यादव.

बुधवार, 19 जून 2013

इस आपदा के जिम्मेदार हम खुद हैं ...

मानसून इस देश का वार्षिक पर्व हैं, कृषि प्रधान देश में पड़ने वाली इन बूंदों का महत्व अपने आप में बहुत अधिक हैं। धन, धान्य और उर्जा के परिप्रेक्ष्य में मानसून इस देश के लिए वरदान हैं। इस देश में रहने वाला हर व्यक्ति इस पर्व को अपने अपने तरीके से मनाता हैं। लेकिन हर साल इस पर्व में खलल भी पड़ता हैं और ये खलल पड़ता हैं प्राकृतिक आपदाओं सें।


प्राकृतिक आपदाएं इस देश का सच हैं, जो समय समय पर इस देश को झकझोरती हैं और बतलाती हैं कि इस देश में मानव और प्रकृति के बीच के अन्तर्संबंधो में कमी आई हैं। बदलती आर्थिक प्राथमिकताओं नें इस दूरी को गढ्ढें से खाई मे परिवर्तित कर दिया हैं। अत: इससें पनपे नुकसान का भुगतान हम केवल आर्थिक कमजोरी से नही चुका रहें हैं, बल्कि सामाजिक और राजनैतिक रूप से भी भुगत रहें है। जिसकी भयावहता का अनुमान हम बड़ी आसानी से किसी भी आपदा ग्रस्त इलाके पर एक नजर ड़ालनें से समझ सकते हैं, और आज इसका ताजा उदाहरण उत्तराखंड में आई भीषण बाढ के रूप में देख सकते हैं। हालात पर नजर रखने वालें इस बाढ की विभीषिका को काफी बड़ा आँक रहे हैं और आने वाली स्थितियां बतला रही हैं कि उत्तराखंड में हालात बेकाबू हैं। हालात बेहद गंभीर हैं, कई जगहों से संपर्क पूरी तरह कटा हुआ है और कोई सूचना नहीं मिल रही है, मरने वालों की संख्या पर सिर्फ अनुमान लगाए जा रहे हैं। उत्तराखंड में भयानक बारिश के बाद अर्द्धसैनिक बलों को राहत कार्यों में लगाया गया है, लेकिन भूस्खलन और बाढ नें मिलकर हालातों को निंयत्रण मानव नियंत्रण से बाहर कर  दिया हैं।  
इस तरह की आपदाओं के बाद कई सवाल महत्वपूर्ण हो जाते हैं, जिन पर विचार करना अति महत्वपूर्ण हो जाते हैं। पहला सवाल, कि क्या आपदाओं को रोका नहीं जा सकता ? दूसरा इन आपदाओं को रोकने के उपाय क्या होगें?  अगर रोका नहीं जा सकता तो क्या साल दर साल हमें इतनी ही बड़ी विपदाओं का सामना करना पडेगा ?
सवालों के जवाब इतने भी कठिन नहीं हैं। पहले सवाल पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता हैं कि आज के परिदृश्य और बदलती प्राकृतिक और भारत की भौगोलिक संरचना में यह संभव ही नहीं हैं कि इन प्राकृतिक आपदाओं को रोका जा सकें। बदलती आर्थिक प्रतियोगिता में हमने जिस तरह से प्रकृति के साथ अपने संबधों में परिवर्तन किए हैं उसनें हमें विश्व के सबसे बडें प्राकृतिक आपदा ग्रस्त ईलाकों में लाकर खड़ा कर दिया हैं। प्रति वर्ष भारत जीडीपी का 2 %  और राजस्व का 12 % नुकसान सिर्फ और सिर्फ इन आपदाओं की वजह से उठाता हैं। नीचें दी गई सारणी अपने आप में स्पष्ट कर रही हैं कि प्रतिवर्ष हमें इन आपदाओं की वजह से एक भारी कीमत चुकानी पड़ रही हैं।
1993 से 2012 तक भारत में विभिन्न आपदाओं की स्थिति और उनसे होने वाले नुकसान का विवरण
Disaster
कुल घटनाओं की संख्या
मृत
संख्या
कुल प्रभावित जनसंख्या
कुल हानि
(000 US$)
सूखा
5
20
351175000
204112
भूकंप (सुनामी सहित)
9
47679
8373265
4434750
महामारी ( जीवाणु, परजीवी + वायरल)
36
3103
334617
-
 तापमान (ठंड, गर्मी और चरम शीतकालीन)
24
8856
-
-
बाढ़ ( फ्लैश,  / तटीय बाढ़, स्थानीय
136
25592
517412587
27834379
हिमस्खलन/ लैंड स्लाइड)
25
1811
1333804
54500
तूफान
45
17535
34660320
548116
  
इन 20 साल के आकड़ों के बाद स्पष्ट हो जाता हैं कि बाढ इन सब समस्याओं में से ना केवल एक बडी भूमिका निभाता हैं वरन धन, जन औऱ संख्या में भी सबसे अधिक हो जाता हैं। बाढ की प्रकृति इन आकड़ों को हमेशा गंभीर बनाए रखेगी इसमें भी कोई शक नहीं हैं। जो इस बात का उदाहरण हैं कि भारत में आपदाएं रोकी जा सकती हैं यह एक पूर्णतया हास्यापद विचार हैं।
भारत में आने वाली बाढ की प्रकृति दो प्रकार की होती हैं। पहली होती हैं फ्लैश फ्लड़ ( अचनाक आने वाली बाढ) और दूसरी आवर्ती ( बार बार आने वाली) होती हैं। इन दोनो में केवल अंतर मानव के अनुमान का होता हैं जहाँ फ्लैश फ्लड़ ( अचनाक आने वाली बाढ) का अनुमान लगाना थोड़ा कठिन होता हैं वहीं दूसरी ओर दूसरी आवर्ती ( बार बार आने वाली) बाढ का अनुमान लगाया जा सकता हैं। उत्तराखंड़ में आई बाढ फ्लैश फ्लड़ का ही उदाहरण हैं, और कुछ समय बाद मैदानी इलाकों में फैलने वाली बाढ आवर्ती ( बार बार आने वाली) बाढ का उदाहरण होगी।
अब सबसे बडी समस्या यह हैं कि अगर हम इन्हे रोक नहीं सकते हैं तो क्या इनकी विभिषका के आगे हमें साल दर साल इसी तरह सर झुकाना होगा। निश्चित ही यह सवाल ना केवल महत्वपूर्ण हैं वरन एक चिन्ता का विषय हैं। आज का सच यह हैं कि हमने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के चक्कर में इतना अधिक असंतुलन खड़ा कर दिया हैं कि हमें इन विभिषिकाओं के प्रहार के सामने झुकना ही होगा, लेकिन इसका ये बिल्कुल मतलब नहीं हैं कि हम इनसे अपना बचाव नहीं कर सकते हैं। इन आपदाओं से बचाव के दो ही तरीके हैं एक प्रंबधन के स्तर पर और दूसरा प्राकृतिक रिश्तों को सुधार कर।
प्रंबधन के स्तर पर बात करें तो भारत में आपदाओं से निपटने के लिए एक त्रिस्तरीय व्यवस्था का निर्माण भारत सरकार ने कर रखा हैं भारत में 2002 में आपदा को देश की आंतरिक सुरक्षा का मसला मानते हुए इसे गृहमंत्रालय के अन्तर्गत लाया गया (इससे पहले आपदा प्रंबधन कृषि मंत्रालय के अन्तर्गत देखा जाता था)। आपदा प्रंबधन के इतिहास में भारत में एक कांत्रिक परिवर्तन 2005 में डिजास्टर मैनेजमैंट एक्ट 2005 के तहत भारत सरकार ने अपनी कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया, इस व्यवस्था के अन्तर्गत राष्ट्रीय स्तर, राज्य स्तर, औऱ जिले स्तर पर कार्य योजना बनाई जाती हैं। जिसमें आपदा के आने के बाद, इस पर बचाव, नुकसान की भरपाई, फिर निदान और फिर आपदा पूर्व तैयारी की जाती हैं। जो आज भी जारी हैं।

लेकिन उत्तराखंड़ में हुए घटना क्रम को देखें तो स्पष्ट हो जाता हैं कि किसी भी कार्य योजना का कोई भी खाका ना तो पहले खीचा गया हैं औऱ ना ही इन स्थितियों से निपटने के लिए अभी भी कोई स्पष्ट कार्ययोजना वहा के प्रशासन के पास हैं।  सब कुछ ईश्वर के भरोसे हैं औऱ खुद ईश्वर के स्थान यानी धाम भी इस प्रकोप से नहीं बच पा रहे हैं तो आम जन का क्या जिसके परिणाम स्वरूप ऐसी हानि हुई हैं, जिसका आकलन भी इस आपदा के बाद हो सकेगा। उत्तराखंड़ जैसें संवेदनशील ईलाके में इस तरह के  प्रंबधन की खामी हमारें प्रंबधतंत्र का वो रवैया हैं, जिसमें प्रंबधतंत्र साल दर साल वह अपने कर्तव्यों की खाना पूर्ति करता हैं, और सिर्फ आपदा के बाद आपदा राहत राशि बाटने को ही आपदा प्रंबधन का उद्देश्य समझता हैं। आपदा पूर्व तैयारी की तैयारी सिर्फ जिलास्तर पर हुई बैठको में पूरी कर ली जाती हैं। जमीनी काम के नाम पर कुछ नही होता हैं।
 अगर ऐसा ना होता तो 2010 में भी ऐसी ही भीषण बाढ के ने वहाँ के जीवन को अस्त व्यस्त कर दिया था, और फिर 2013 में उत्तराखंड़ एक बार उसी तरह की विभीषिका का उदाहरण बना हुआ हैं। अगर सरकारी तंत्र से जवाब मागें जाए कि क्या 2010 की भीषण बाढ औऱ भूस्खलन से कोई सबक लिए गए हैं जिनका उपयोग इस बाढ से निपटने के लिए किया जा सकें। तो जवाब के नाम पर कुछ नही हैं और जिसके परिणाम स्वरूप आज फिर से उत्तराखंड एक भीषण विभीषिका की चपेट में हैं, जिसकी प्रकृति 2010 जैसी ही हैं। अति का एक उदाहरण ये भी हैं कि इस घटना 2013 की बाढ के के बारे में एक भी अपडेट और आकड़ें उत्तराखंड सरकार की सरकारी वेबसाईट डिजास्टर मिटिगेशन एंड मैनेजमेंट सेंटर पर उपलब्ध नहीं हैं। सिर्फ अमर्जेंसी नंबरो की एक पट्टी के अलावा वहाँ किसी भी प्रकार की सूचना पूर्णतया नरादर हैं, जो उनके आपदा प्रंबधन की पोल खोल रही हैं।



निश्चित ही इस रवैयें में एक क्रांतिक बदलाव की जरूरत हैं, प्रंबधतंत्र अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारी से बच नही सकता हैं। प्रंबध तंत्र भला ही अपने आप को किनारे कर ले पर आपदाओं से होने वाले प्रकोप से आम जनमानस अपने आप को नही बचा सकती हैं। इसीलिए प्रंबधतंत्र की जमीनी स्तर पर फिर से एक कार्ययोजना की आवश्यकता हैं जिसमें स्थानीय सहभागिता को बढावा दिया जाए और स्थान विशेष की सुरक्षा सुनिश्चित करने में पांरपरिक ज्ञान का उपयोग भी किया जा सकें। प्रंबधतंत्र को अपना रिस्पासं सेन्ट्रिक अप्रोच यानी आपदा के घटित होने के बाद की गई कार्यवाही के बजाय आपदा पूर्व तैयारी औऱ आपदा से निपटने के लिए स्थानीय लोगों को तैयार करने में खर्च करनी चाहिए। सरकारें इस तरह तमाशा देखते हुए जनता को आपदाओं के बीच में नहीं छोड़ सकती हैं। इसके साथ ही साथ हमें अपने बदलते प्राकृतिक रिश्तों ओर सोचना भी बहुत जरूरी है, कोई भी प्रंबधतंत्र प्रकृति में बदलावों के फलस्वरूप स्थितियों में पूर्ण नियंत्रण नहीं कर सकता हैं, इतिहास गवाह रहा हैं कि विश्व की तमाम सभ्यताएं इन्ही के किनारे पल्लवित हुई हैं, और उनका विनाश भी इन्ही आपदाओं की वजह से हुआ हैं।
 प्रंबधन को अपनी कार्ययोजना को बनाते समय स्थानीय स्तर पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और लैगिंक स्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन कर और न्यायसंगतता को ध्यान में रख कर कार्ययोजना बनाने की जरूरत हैं, ताकि सभी वर्गों को समान रूप मे अपने बचाव के समान अवसर उपलब्ध रहें। यहीं सही मायनों में स्थानीय सहभागिता करना होगा। निश्चित ही प्रंबधतंत्र को एक व्यापक दृष्टिकोण के साथ प्रंबधयोजना विकसित करनी ही होगी वरना यह तंत्र सिर्फ राहत आपदा बाटने वाली ईकाई भर रह जाएगा और जनता साल दर साल इसी तरह की आपदाओं का शिकार होती रहेगीं।

यह लेख 20 जून 2013 में सहारा के अंक में प्रकाशित है 



शिशिर कुमार यादव.

सोमवार, 17 जून 2013

धार्मिक चेहरें लोकतंत्र के लिए अहितकर होगें...

आज कल एक ही व्यक्ति चर्चां के केन्द्रबिंदु में हैं। राजनैतिक उठापटक अपने शबाब पर है। उनको लेकर हो रही उठापटक आने वाले भारत की राजनीति का दिशा और दशा तय करेगी, इसमें कोई शक नहीं हैं। राजनैतिक गलियारों से लेकर मीडियां के पन्नें सिर्फ एक ही कि चर्चा में रंगें हैं और वह कोई और नहीं, वरन गुजरात के कट्टरहिंदू वादी छवि रखने वाले मुख्यमंत्री नेरन्द्र मोदी हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा की चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष क्या बनाए गया, देश की राजनैतिक में ना रिश्तों मित्रता का भाव बच रहा हैं और ना ही गुरू और लघु का भेद। जिसके फलस्वरूप आड़वानी का रूठना हुआ और जदयू अपना 17 साल पुराना रिश्ता तोड़ने में भी संकोच नहीं कर रहा हैं। इन सब के बाद भी भारतीय जनता पार्टी ना तो मोदी को लेकर कोई समझौतें के मूड में नजर आ रही है और ना ही किसी और विकल्प के बारे में सोच रही हैं। आखिर ऐसा क्या हैं मोदी में जो उन्हें इस पूरे प्रकरण में केन्द्र में रखे हुए हैं ?

जवाब इतना भी कठिन नहीं हैं कि इसके लिए बगल झाँकना पड़े, इसका जवाब बहुत आसान सा  हैं, उनकी छवि। एक ऐसे कट्टर हिंदूवादी नेता की जो मुसलमानों से सम्मान की टोपी भी नहीं पहन सकते हैं। धार्मिक धुव्रीकरण के आकाश में हिंदूवादी सोच के एकमात्र तारें, जिसने लोकतांत्रिक राजनीति में रहते हुए भी अपनी छवि को कभी भी लिबरल बनाने की कोशिश नहीं की। तो ऐसें में भाजपा उन्हें धीर्मिक रूप में पेश कर के अपने लिए उस मध्यम वर्गीय सवर्ण हिंदू वोट बैंक को को फिर से पाना चाहती हैं, जिसें समय समय पर लिबरल छवि पाने के चक्कर में भाजपा  ने गवां दिया।
चुनाव सर पर हैं ऐसे में राजनैतिक दल मुद्दों के अभाव से जूझ रहें हैं। भष्टाचार, विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य देश के लिए कभी मुद्दे नहीं हो पाते क्योंकि देश की लगभग सारी पार्टियाँ जानती हैं कि इन पर इनके दामन इतने काले हैं कि अगर कोशिश भी कि तो दूसरे के दामन को काला बताने के चक्कर में खुद का भी काला चेहरा सामने आ जाएगा। तो सभी दल ऐसे में अपने लिए ऐसे ऐसे मुद्दे खोज रहे हैं जिससे एक बार फिर से जनता को भ्रमित और फुसलाया जा सकें। जिसकी शुरूआत हो चुकी हैं भाजपा जहाँ मोदी की हिंदूवादी छवि के साथ मीडियां प्रंबधन के साथ उतरना चाहते हैं, वहीं कांग्रेस मनमोहन सिंह के कार्यकाल को मौन कांत्रि का चेहरा देने का प्रयास करने में लगीं हैं, जिसका एक सेमीफाइनल आजकल दिल्ली सरकार के मीडिया प्रचार के स्वरूप में कर रखी हैं। 
भाजपा की एक मात्र उम्मीद बची हैं तो वो हैं नरेन्द्र मोदी जिन्होने अपनी छवि कट्टर हिंदूवादी नेता की बना रखी हैं। भाजपा अच्छें से जानती हैं कि उसकी पार्टी के उदय औऱ विकास का केवल और केवल एक कारण उसका हिंदूवादी चेहरा ही हैं, जिसने भाजपा को राजनैतिक आधार प्रदान किया हैं। ऐसे में भाजपा इस बार अपनी मूल छवि के बहुत हट कर उतरना कहीं से भी बुद्धिमानी भरा नहीं मान रही हैं क्योंकि इससे पहले के अनुभव उसके लिए बहुत सुखद नही रहें है। सो इस बार वो अपनी पुरानी छवि के साथ मैदान में उतरना चाहती हैं। भाजपा में हिंदूवादी नेता की छवि रखने वाले नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ी हैं और अपनी जगह से हटने को तैयार नहीं हैं। आडवानी का त्यागपत्र और जदयू का मोह भी कुछ नही कर सका।
भाजपा यह भी अच्छे से जानती हैं कि अगर वो इस पोजीशन से हटती हैं तो भी मुस्लिम वोट की उम्मीद रखना एक ख्वाब सा हैं। क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टियों की सेध के चलते और पार्टी की पुरानी छवि के चलते मुस्लिम कभी भाजपा के साथ खडा नही होगा। तो ऐसें में चुनाव के लिए उस वोट बैंक का तुष्टीकरण करने की जरूरत ही क्या हैं जिसके साथ होने के प्रायिकता नगण्य है। इसलिए इस बार नरेन्द्र मोदी को आगें कर के वो उस पुराने शहरी, सवर्ण और मध्यम वर्ग औऱ परम्परावादी वोटबैंक को फिर से साधने की कोशिश में लगे हैं, जो उनके हाथ से ना जाने कब खिसक गया। धार्मिक भीरूता औऱ राष्ट्रवादी सोच के चलते इस वर्ग को अपने साथ लाना आसान भी होगा। तो बस भाजपा वहीं कर रही हैं। इसलिए वह मोदी के हिंदूवादी छवि को आगे कर के हिंदूओं के वोट को अपनी ओर रिझाना चाहते हैं।  
धार्मिक छवि और धर्म के आधार पर राजनीति का यह कोई पहला दौर नहीं हैं, स्वत्रंता आंदोलन के दौरान भी राष्ट्रवादी दल उदाहरण मुस्लिम लीग, इसी धार्मिक आधार पर अपनी राजनीति करता रहा था, और स्वत्रता आंदोलन में भागीदार बना रहा। इसका एक प्रतिफल और खामियाजा दूसरे वर्ग और धार्मिक आधार वाली पार्टी अखिल भारतीय हिंदू महा सभा के रूप में सामने आती हैं। इन्ही दोनो की अदूरदर्शिता का परिणाम यह था कि 1947 के आते आते भारत जिस सबसे बड़ी समस्या से ग्रसित हो चुका था वो था संप्रदायों के प्रति घृणा। जिसका ही फायदा उठा कर अंग्रेजो ने भारत को ना केवल टुकड़ो में बाटाँ वरन एक अशान्त और संदिग्ध पडोसी दे दिया।
इससे सीख लेते हुए भारतीय संविधान निर्माताओं ने इस आधार पर होने वाली उस आधार का ना केवल विरोध किया वरन उन पुरानी व्यवस्थाओं को भी हटाया जो किसी ना किसी रूप से धार्मिक आधार पर राजनैतिक अवसर तलाशने और संभावनाओं को जन्म देती थी। जिसके तहत संविधान नें 1909 में दी मुस्लिमों की दी गई पृथक निर्वाचिका जैसी कोई भी व्यवस्था स्वत्रंत भारत के संविधान का हिस्सा नहीं बना। डॉ भीम राव अम्बेडकर जी भी जो दलितों के लिए स्वत्रंता आंदोलन के दौरान पृथक निर्वाचिका की मांग करते रहें वो भी इस वक्त पृथक निर्वाचिका पर चुप ही रहें।
लेकिन बदलते हालत में मोदी को जिस तरह से कट्टर हिंदूवादी नेता के रूप में पेश किया जा रहा हैं, उसमें दूसरे धर्मों के कट्टरवादी विचारधारा के लोगों को अपने लिए जमीन बनाने का एक अवसर नजर आ सकता हैं, औऱ जिस तरह से अल्पसंख्यों का भरोसा इस देश से धीरे धीरे भय में बदल रहा हैं, उसमें अगर उन्हें भी सामाजिक स्वीकार्यता मिल जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। अवसरवादी पार्टियां बिना सोचें समझे इनके तुष्टीकरण करने में लगकर अगर बढावा दें देगें इसमें सहज ही भरोसा किया जा सकता हैं। तो निश्चित ही मोदी का धार्मिक छवि के साथ मैदान में उतारना और चुनाव को धार्मिक आधार देना किसी भी तरह से भारतीय राजनीति के हक में नहीं होगा। जो कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए भी ठीक नहीं होगा।
किसी लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि समाज के विभिन्न तबकों में कितना आत्मविश्वास पैदा कर पाती हैं, विभिन्न वर्गों के भौतिक आवश्यकाताओं के साथ साथ स्वाभिमान के साथ आध्यात्मिक भाव के साथ जीने की छूट हो। पर बदलती राजनैतिक प्रतियोगिता में इसका अभाव दिख रहा हैं और संकट तब और गंभीर हो जाता हैं जब देश की सबसे बड़ी पार्टी इसकी अगुआई करती दिखलाई पड़ती है।

ये चुनाव देश के लिए एक लोकतांत्रिक पर्व सरीखा हैं, जिसके तहत हम अपने लिए आने वाले भविष्य की बागडोर किसी ऐसे दल को देगें जो देश की नियति तय करेगी। अत: निश्चित ही हमें धार्मिक छवि के बजाय अपने लिए उन मुद्दों पर जोर लगाने की जरूरत हैं, जो देश का वर्तमान तो बदले ही, वरन एक मजबूत लोकतंत्र की नीव रखने में सक्षम हो। देश की राजनीति का धार्मिकीकरण की कोशिश अगर सफल हो तो इन लम्हों की खता सजा, सदियों को भुगतना होगा। जो किसी भी रूप में लोकतंत्र की सेहत के लिए हितकारी ना होगा। भूतकाल से सीख कर इस तरह की धार्मिक राजनीति से ओतप्रोत किसी भी राजनीति को सिरे से नकारने की जरूरत हैं ताकि सच्चें लोकतंत्र की आत्मा को जीवित रखा जा सकें।