बुधवार, 19 जून 2013

इस आपदा के जिम्मेदार हम खुद हैं ...

मानसून इस देश का वार्षिक पर्व हैं, कृषि प्रधान देश में पड़ने वाली इन बूंदों का महत्व अपने आप में बहुत अधिक हैं। धन, धान्य और उर्जा के परिप्रेक्ष्य में मानसून इस देश के लिए वरदान हैं। इस देश में रहने वाला हर व्यक्ति इस पर्व को अपने अपने तरीके से मनाता हैं। लेकिन हर साल इस पर्व में खलल भी पड़ता हैं और ये खलल पड़ता हैं प्राकृतिक आपदाओं सें।


प्राकृतिक आपदाएं इस देश का सच हैं, जो समय समय पर इस देश को झकझोरती हैं और बतलाती हैं कि इस देश में मानव और प्रकृति के बीच के अन्तर्संबंधो में कमी आई हैं। बदलती आर्थिक प्राथमिकताओं नें इस दूरी को गढ्ढें से खाई मे परिवर्तित कर दिया हैं। अत: इससें पनपे नुकसान का भुगतान हम केवल आर्थिक कमजोरी से नही चुका रहें हैं, बल्कि सामाजिक और राजनैतिक रूप से भी भुगत रहें है। जिसकी भयावहता का अनुमान हम बड़ी आसानी से किसी भी आपदा ग्रस्त इलाके पर एक नजर ड़ालनें से समझ सकते हैं, और आज इसका ताजा उदाहरण उत्तराखंड में आई भीषण बाढ के रूप में देख सकते हैं। हालात पर नजर रखने वालें इस बाढ की विभीषिका को काफी बड़ा आँक रहे हैं और आने वाली स्थितियां बतला रही हैं कि उत्तराखंड में हालात बेकाबू हैं। हालात बेहद गंभीर हैं, कई जगहों से संपर्क पूरी तरह कटा हुआ है और कोई सूचना नहीं मिल रही है, मरने वालों की संख्या पर सिर्फ अनुमान लगाए जा रहे हैं। उत्तराखंड में भयानक बारिश के बाद अर्द्धसैनिक बलों को राहत कार्यों में लगाया गया है, लेकिन भूस्खलन और बाढ नें मिलकर हालातों को निंयत्रण मानव नियंत्रण से बाहर कर  दिया हैं।  
इस तरह की आपदाओं के बाद कई सवाल महत्वपूर्ण हो जाते हैं, जिन पर विचार करना अति महत्वपूर्ण हो जाते हैं। पहला सवाल, कि क्या आपदाओं को रोका नहीं जा सकता ? दूसरा इन आपदाओं को रोकने के उपाय क्या होगें?  अगर रोका नहीं जा सकता तो क्या साल दर साल हमें इतनी ही बड़ी विपदाओं का सामना करना पडेगा ?
सवालों के जवाब इतने भी कठिन नहीं हैं। पहले सवाल पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता हैं कि आज के परिदृश्य और बदलती प्राकृतिक और भारत की भौगोलिक संरचना में यह संभव ही नहीं हैं कि इन प्राकृतिक आपदाओं को रोका जा सकें। बदलती आर्थिक प्रतियोगिता में हमने जिस तरह से प्रकृति के साथ अपने संबधों में परिवर्तन किए हैं उसनें हमें विश्व के सबसे बडें प्राकृतिक आपदा ग्रस्त ईलाकों में लाकर खड़ा कर दिया हैं। प्रति वर्ष भारत जीडीपी का 2 %  और राजस्व का 12 % नुकसान सिर्फ और सिर्फ इन आपदाओं की वजह से उठाता हैं। नीचें दी गई सारणी अपने आप में स्पष्ट कर रही हैं कि प्रतिवर्ष हमें इन आपदाओं की वजह से एक भारी कीमत चुकानी पड़ रही हैं।
1993 से 2012 तक भारत में विभिन्न आपदाओं की स्थिति और उनसे होने वाले नुकसान का विवरण
Disaster
कुल घटनाओं की संख्या
मृत
संख्या
कुल प्रभावित जनसंख्या
कुल हानि
(000 US$)
सूखा
5
20
351175000
204112
भूकंप (सुनामी सहित)
9
47679
8373265
4434750
महामारी ( जीवाणु, परजीवी + वायरल)
36
3103
334617
-
 तापमान (ठंड, गर्मी और चरम शीतकालीन)
24
8856
-
-
बाढ़ ( फ्लैश,  / तटीय बाढ़, स्थानीय
136
25592
517412587
27834379
हिमस्खलन/ लैंड स्लाइड)
25
1811
1333804
54500
तूफान
45
17535
34660320
548116
  
इन 20 साल के आकड़ों के बाद स्पष्ट हो जाता हैं कि बाढ इन सब समस्याओं में से ना केवल एक बडी भूमिका निभाता हैं वरन धन, जन औऱ संख्या में भी सबसे अधिक हो जाता हैं। बाढ की प्रकृति इन आकड़ों को हमेशा गंभीर बनाए रखेगी इसमें भी कोई शक नहीं हैं। जो इस बात का उदाहरण हैं कि भारत में आपदाएं रोकी जा सकती हैं यह एक पूर्णतया हास्यापद विचार हैं।
भारत में आने वाली बाढ की प्रकृति दो प्रकार की होती हैं। पहली होती हैं फ्लैश फ्लड़ ( अचनाक आने वाली बाढ) और दूसरी आवर्ती ( बार बार आने वाली) होती हैं। इन दोनो में केवल अंतर मानव के अनुमान का होता हैं जहाँ फ्लैश फ्लड़ ( अचनाक आने वाली बाढ) का अनुमान लगाना थोड़ा कठिन होता हैं वहीं दूसरी ओर दूसरी आवर्ती ( बार बार आने वाली) बाढ का अनुमान लगाया जा सकता हैं। उत्तराखंड़ में आई बाढ फ्लैश फ्लड़ का ही उदाहरण हैं, और कुछ समय बाद मैदानी इलाकों में फैलने वाली बाढ आवर्ती ( बार बार आने वाली) बाढ का उदाहरण होगी।
अब सबसे बडी समस्या यह हैं कि अगर हम इन्हे रोक नहीं सकते हैं तो क्या इनकी विभिषका के आगे हमें साल दर साल इसी तरह सर झुकाना होगा। निश्चित ही यह सवाल ना केवल महत्वपूर्ण हैं वरन एक चिन्ता का विषय हैं। आज का सच यह हैं कि हमने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के चक्कर में इतना अधिक असंतुलन खड़ा कर दिया हैं कि हमें इन विभिषिकाओं के प्रहार के सामने झुकना ही होगा, लेकिन इसका ये बिल्कुल मतलब नहीं हैं कि हम इनसे अपना बचाव नहीं कर सकते हैं। इन आपदाओं से बचाव के दो ही तरीके हैं एक प्रंबधन के स्तर पर और दूसरा प्राकृतिक रिश्तों को सुधार कर।
प्रंबधन के स्तर पर बात करें तो भारत में आपदाओं से निपटने के लिए एक त्रिस्तरीय व्यवस्था का निर्माण भारत सरकार ने कर रखा हैं भारत में 2002 में आपदा को देश की आंतरिक सुरक्षा का मसला मानते हुए इसे गृहमंत्रालय के अन्तर्गत लाया गया (इससे पहले आपदा प्रंबधन कृषि मंत्रालय के अन्तर्गत देखा जाता था)। आपदा प्रंबधन के इतिहास में भारत में एक कांत्रिक परिवर्तन 2005 में डिजास्टर मैनेजमैंट एक्ट 2005 के तहत भारत सरकार ने अपनी कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया, इस व्यवस्था के अन्तर्गत राष्ट्रीय स्तर, राज्य स्तर, औऱ जिले स्तर पर कार्य योजना बनाई जाती हैं। जिसमें आपदा के आने के बाद, इस पर बचाव, नुकसान की भरपाई, फिर निदान और फिर आपदा पूर्व तैयारी की जाती हैं। जो आज भी जारी हैं।

लेकिन उत्तराखंड़ में हुए घटना क्रम को देखें तो स्पष्ट हो जाता हैं कि किसी भी कार्य योजना का कोई भी खाका ना तो पहले खीचा गया हैं औऱ ना ही इन स्थितियों से निपटने के लिए अभी भी कोई स्पष्ट कार्ययोजना वहा के प्रशासन के पास हैं।  सब कुछ ईश्वर के भरोसे हैं औऱ खुद ईश्वर के स्थान यानी धाम भी इस प्रकोप से नहीं बच पा रहे हैं तो आम जन का क्या जिसके परिणाम स्वरूप ऐसी हानि हुई हैं, जिसका आकलन भी इस आपदा के बाद हो सकेगा। उत्तराखंड़ जैसें संवेदनशील ईलाके में इस तरह के  प्रंबधन की खामी हमारें प्रंबधतंत्र का वो रवैया हैं, जिसमें प्रंबधतंत्र साल दर साल वह अपने कर्तव्यों की खाना पूर्ति करता हैं, और सिर्फ आपदा के बाद आपदा राहत राशि बाटने को ही आपदा प्रंबधन का उद्देश्य समझता हैं। आपदा पूर्व तैयारी की तैयारी सिर्फ जिलास्तर पर हुई बैठको में पूरी कर ली जाती हैं। जमीनी काम के नाम पर कुछ नही होता हैं।
 अगर ऐसा ना होता तो 2010 में भी ऐसी ही भीषण बाढ के ने वहाँ के जीवन को अस्त व्यस्त कर दिया था, और फिर 2013 में उत्तराखंड़ एक बार उसी तरह की विभीषिका का उदाहरण बना हुआ हैं। अगर सरकारी तंत्र से जवाब मागें जाए कि क्या 2010 की भीषण बाढ औऱ भूस्खलन से कोई सबक लिए गए हैं जिनका उपयोग इस बाढ से निपटने के लिए किया जा सकें। तो जवाब के नाम पर कुछ नही हैं और जिसके परिणाम स्वरूप आज फिर से उत्तराखंड एक भीषण विभीषिका की चपेट में हैं, जिसकी प्रकृति 2010 जैसी ही हैं। अति का एक उदाहरण ये भी हैं कि इस घटना 2013 की बाढ के के बारे में एक भी अपडेट और आकड़ें उत्तराखंड सरकार की सरकारी वेबसाईट डिजास्टर मिटिगेशन एंड मैनेजमेंट सेंटर पर उपलब्ध नहीं हैं। सिर्फ अमर्जेंसी नंबरो की एक पट्टी के अलावा वहाँ किसी भी प्रकार की सूचना पूर्णतया नरादर हैं, जो उनके आपदा प्रंबधन की पोल खोल रही हैं।



निश्चित ही इस रवैयें में एक क्रांतिक बदलाव की जरूरत हैं, प्रंबधतंत्र अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारी से बच नही सकता हैं। प्रंबध तंत्र भला ही अपने आप को किनारे कर ले पर आपदाओं से होने वाले प्रकोप से आम जनमानस अपने आप को नही बचा सकती हैं। इसीलिए प्रंबधतंत्र की जमीनी स्तर पर फिर से एक कार्ययोजना की आवश्यकता हैं जिसमें स्थानीय सहभागिता को बढावा दिया जाए और स्थान विशेष की सुरक्षा सुनिश्चित करने में पांरपरिक ज्ञान का उपयोग भी किया जा सकें। प्रंबधतंत्र को अपना रिस्पासं सेन्ट्रिक अप्रोच यानी आपदा के घटित होने के बाद की गई कार्यवाही के बजाय आपदा पूर्व तैयारी औऱ आपदा से निपटने के लिए स्थानीय लोगों को तैयार करने में खर्च करनी चाहिए। सरकारें इस तरह तमाशा देखते हुए जनता को आपदाओं के बीच में नहीं छोड़ सकती हैं। इसके साथ ही साथ हमें अपने बदलते प्राकृतिक रिश्तों ओर सोचना भी बहुत जरूरी है, कोई भी प्रंबधतंत्र प्रकृति में बदलावों के फलस्वरूप स्थितियों में पूर्ण नियंत्रण नहीं कर सकता हैं, इतिहास गवाह रहा हैं कि विश्व की तमाम सभ्यताएं इन्ही के किनारे पल्लवित हुई हैं, और उनका विनाश भी इन्ही आपदाओं की वजह से हुआ हैं।
 प्रंबधन को अपनी कार्ययोजना को बनाते समय स्थानीय स्तर पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और लैगिंक स्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन कर और न्यायसंगतता को ध्यान में रख कर कार्ययोजना बनाने की जरूरत हैं, ताकि सभी वर्गों को समान रूप मे अपने बचाव के समान अवसर उपलब्ध रहें। यहीं सही मायनों में स्थानीय सहभागिता करना होगा। निश्चित ही प्रंबधतंत्र को एक व्यापक दृष्टिकोण के साथ प्रंबधयोजना विकसित करनी ही होगी वरना यह तंत्र सिर्फ राहत आपदा बाटने वाली ईकाई भर रह जाएगा और जनता साल दर साल इसी तरह की आपदाओं का शिकार होती रहेगीं।

यह लेख 20 जून 2013 में सहारा के अंक में प्रकाशित है 



शिशिर कुमार यादव.

सोमवार, 17 जून 2013

धार्मिक चेहरें लोकतंत्र के लिए अहितकर होगें...

आज कल एक ही व्यक्ति चर्चां के केन्द्रबिंदु में हैं। राजनैतिक उठापटक अपने शबाब पर है। उनको लेकर हो रही उठापटक आने वाले भारत की राजनीति का दिशा और दशा तय करेगी, इसमें कोई शक नहीं हैं। राजनैतिक गलियारों से लेकर मीडियां के पन्नें सिर्फ एक ही कि चर्चा में रंगें हैं और वह कोई और नहीं, वरन गुजरात के कट्टरहिंदू वादी छवि रखने वाले मुख्यमंत्री नेरन्द्र मोदी हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा की चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष क्या बनाए गया, देश की राजनैतिक में ना रिश्तों मित्रता का भाव बच रहा हैं और ना ही गुरू और लघु का भेद। जिसके फलस्वरूप आड़वानी का रूठना हुआ और जदयू अपना 17 साल पुराना रिश्ता तोड़ने में भी संकोच नहीं कर रहा हैं। इन सब के बाद भी भारतीय जनता पार्टी ना तो मोदी को लेकर कोई समझौतें के मूड में नजर आ रही है और ना ही किसी और विकल्प के बारे में सोच रही हैं। आखिर ऐसा क्या हैं मोदी में जो उन्हें इस पूरे प्रकरण में केन्द्र में रखे हुए हैं ?

जवाब इतना भी कठिन नहीं हैं कि इसके लिए बगल झाँकना पड़े, इसका जवाब बहुत आसान सा  हैं, उनकी छवि। एक ऐसे कट्टर हिंदूवादी नेता की जो मुसलमानों से सम्मान की टोपी भी नहीं पहन सकते हैं। धार्मिक धुव्रीकरण के आकाश में हिंदूवादी सोच के एकमात्र तारें, जिसने लोकतांत्रिक राजनीति में रहते हुए भी अपनी छवि को कभी भी लिबरल बनाने की कोशिश नहीं की। तो ऐसें में भाजपा उन्हें धीर्मिक रूप में पेश कर के अपने लिए उस मध्यम वर्गीय सवर्ण हिंदू वोट बैंक को को फिर से पाना चाहती हैं, जिसें समय समय पर लिबरल छवि पाने के चक्कर में भाजपा  ने गवां दिया।
चुनाव सर पर हैं ऐसे में राजनैतिक दल मुद्दों के अभाव से जूझ रहें हैं। भष्टाचार, विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य देश के लिए कभी मुद्दे नहीं हो पाते क्योंकि देश की लगभग सारी पार्टियाँ जानती हैं कि इन पर इनके दामन इतने काले हैं कि अगर कोशिश भी कि तो दूसरे के दामन को काला बताने के चक्कर में खुद का भी काला चेहरा सामने आ जाएगा। तो सभी दल ऐसे में अपने लिए ऐसे ऐसे मुद्दे खोज रहे हैं जिससे एक बार फिर से जनता को भ्रमित और फुसलाया जा सकें। जिसकी शुरूआत हो चुकी हैं भाजपा जहाँ मोदी की हिंदूवादी छवि के साथ मीडियां प्रंबधन के साथ उतरना चाहते हैं, वहीं कांग्रेस मनमोहन सिंह के कार्यकाल को मौन कांत्रि का चेहरा देने का प्रयास करने में लगीं हैं, जिसका एक सेमीफाइनल आजकल दिल्ली सरकार के मीडिया प्रचार के स्वरूप में कर रखी हैं। 
भाजपा की एक मात्र उम्मीद बची हैं तो वो हैं नरेन्द्र मोदी जिन्होने अपनी छवि कट्टर हिंदूवादी नेता की बना रखी हैं। भाजपा अच्छें से जानती हैं कि उसकी पार्टी के उदय औऱ विकास का केवल और केवल एक कारण उसका हिंदूवादी चेहरा ही हैं, जिसने भाजपा को राजनैतिक आधार प्रदान किया हैं। ऐसे में भाजपा इस बार अपनी मूल छवि के बहुत हट कर उतरना कहीं से भी बुद्धिमानी भरा नहीं मान रही हैं क्योंकि इससे पहले के अनुभव उसके लिए बहुत सुखद नही रहें है। सो इस बार वो अपनी पुरानी छवि के साथ मैदान में उतरना चाहती हैं। भाजपा में हिंदूवादी नेता की छवि रखने वाले नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ी हैं और अपनी जगह से हटने को तैयार नहीं हैं। आडवानी का त्यागपत्र और जदयू का मोह भी कुछ नही कर सका।
भाजपा यह भी अच्छे से जानती हैं कि अगर वो इस पोजीशन से हटती हैं तो भी मुस्लिम वोट की उम्मीद रखना एक ख्वाब सा हैं। क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टियों की सेध के चलते और पार्टी की पुरानी छवि के चलते मुस्लिम कभी भाजपा के साथ खडा नही होगा। तो ऐसें में चुनाव के लिए उस वोट बैंक का तुष्टीकरण करने की जरूरत ही क्या हैं जिसके साथ होने के प्रायिकता नगण्य है। इसलिए इस बार नरेन्द्र मोदी को आगें कर के वो उस पुराने शहरी, सवर्ण और मध्यम वर्ग औऱ परम्परावादी वोटबैंक को फिर से साधने की कोशिश में लगे हैं, जो उनके हाथ से ना जाने कब खिसक गया। धार्मिक भीरूता औऱ राष्ट्रवादी सोच के चलते इस वर्ग को अपने साथ लाना आसान भी होगा। तो बस भाजपा वहीं कर रही हैं। इसलिए वह मोदी के हिंदूवादी छवि को आगे कर के हिंदूओं के वोट को अपनी ओर रिझाना चाहते हैं।  
धार्मिक छवि और धर्म के आधार पर राजनीति का यह कोई पहला दौर नहीं हैं, स्वत्रंता आंदोलन के दौरान भी राष्ट्रवादी दल उदाहरण मुस्लिम लीग, इसी धार्मिक आधार पर अपनी राजनीति करता रहा था, और स्वत्रता आंदोलन में भागीदार बना रहा। इसका एक प्रतिफल और खामियाजा दूसरे वर्ग और धार्मिक आधार वाली पार्टी अखिल भारतीय हिंदू महा सभा के रूप में सामने आती हैं। इन्ही दोनो की अदूरदर्शिता का परिणाम यह था कि 1947 के आते आते भारत जिस सबसे बड़ी समस्या से ग्रसित हो चुका था वो था संप्रदायों के प्रति घृणा। जिसका ही फायदा उठा कर अंग्रेजो ने भारत को ना केवल टुकड़ो में बाटाँ वरन एक अशान्त और संदिग्ध पडोसी दे दिया।
इससे सीख लेते हुए भारतीय संविधान निर्माताओं ने इस आधार पर होने वाली उस आधार का ना केवल विरोध किया वरन उन पुरानी व्यवस्थाओं को भी हटाया जो किसी ना किसी रूप से धार्मिक आधार पर राजनैतिक अवसर तलाशने और संभावनाओं को जन्म देती थी। जिसके तहत संविधान नें 1909 में दी मुस्लिमों की दी गई पृथक निर्वाचिका जैसी कोई भी व्यवस्था स्वत्रंत भारत के संविधान का हिस्सा नहीं बना। डॉ भीम राव अम्बेडकर जी भी जो दलितों के लिए स्वत्रंता आंदोलन के दौरान पृथक निर्वाचिका की मांग करते रहें वो भी इस वक्त पृथक निर्वाचिका पर चुप ही रहें।
लेकिन बदलते हालत में मोदी को जिस तरह से कट्टर हिंदूवादी नेता के रूप में पेश किया जा रहा हैं, उसमें दूसरे धर्मों के कट्टरवादी विचारधारा के लोगों को अपने लिए जमीन बनाने का एक अवसर नजर आ सकता हैं, औऱ जिस तरह से अल्पसंख्यों का भरोसा इस देश से धीरे धीरे भय में बदल रहा हैं, उसमें अगर उन्हें भी सामाजिक स्वीकार्यता मिल जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। अवसरवादी पार्टियां बिना सोचें समझे इनके तुष्टीकरण करने में लगकर अगर बढावा दें देगें इसमें सहज ही भरोसा किया जा सकता हैं। तो निश्चित ही मोदी का धार्मिक छवि के साथ मैदान में उतारना और चुनाव को धार्मिक आधार देना किसी भी तरह से भारतीय राजनीति के हक में नहीं होगा। जो कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए भी ठीक नहीं होगा।
किसी लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि समाज के विभिन्न तबकों में कितना आत्मविश्वास पैदा कर पाती हैं, विभिन्न वर्गों के भौतिक आवश्यकाताओं के साथ साथ स्वाभिमान के साथ आध्यात्मिक भाव के साथ जीने की छूट हो। पर बदलती राजनैतिक प्रतियोगिता में इसका अभाव दिख रहा हैं और संकट तब और गंभीर हो जाता हैं जब देश की सबसे बड़ी पार्टी इसकी अगुआई करती दिखलाई पड़ती है।

ये चुनाव देश के लिए एक लोकतांत्रिक पर्व सरीखा हैं, जिसके तहत हम अपने लिए आने वाले भविष्य की बागडोर किसी ऐसे दल को देगें जो देश की नियति तय करेगी। अत: निश्चित ही हमें धार्मिक छवि के बजाय अपने लिए उन मुद्दों पर जोर लगाने की जरूरत हैं, जो देश का वर्तमान तो बदले ही, वरन एक मजबूत लोकतंत्र की नीव रखने में सक्षम हो। देश की राजनीति का धार्मिकीकरण की कोशिश अगर सफल हो तो इन लम्हों की खता सजा, सदियों को भुगतना होगा। जो किसी भी रूप में लोकतंत्र की सेहत के लिए हितकारी ना होगा। भूतकाल से सीख कर इस तरह की धार्मिक राजनीति से ओतप्रोत किसी भी राजनीति को सिरे से नकारने की जरूरत हैं ताकि सच्चें लोकतंत्र की आत्मा को जीवित रखा जा सकें।

मंगलवार, 11 जून 2013

सच में आईपीएल एक खेल ही तो है.


आईपीएल वाकई एक खेल है। 26 मई या 2 जून की बैठक के बाद ऐसा कुछ नहीं घटा, जिसके बारें में लिखा जाए । एक टीम विजेता बन गई एक नया कार्यकारी अध्यक्ष बन गया पर, पर हारा कोई नहीं। सभी अपने अपने हिस्से का लाभ कमा चुके, और ये खेल की मंडी उठ गई अगले साल फिर सजने के लिए। सच में यह एक ऐसा खेल है, जिसमें सभी लाभ में रहें, खिलाड़ी, कोच, आयोजक, प्रायोजक, और सटोरियें भी, बस दुखी वो हुआ जिसकों ये खेल समझ में ही नहीं आया और दाए बगाहें, वो इस खेल का हिस्सा बनता चला आया। पर दुख जब तक ज्ञात ना हो तब तक काहें का दुख, सो अगले सीजन में दर्शक खुद को एक नये खेल का हिस्सा बनानें के लिए फिर आ धमकेगें। तब तक बहुतेरें खेल होगें  हम आप उसका हिस्सा बनते रहेगें श्रीनिवासन के बाद डालमिया तो इसकी बानगी भर हैं। आप तैयार हैं ना हो या ना हो पर इस खेल से बच नहीं सकते, तो आप तो हिस्सा बनेगें ही, चाहें आप कितनी भी सजगता बरत लें, क्यों आप बाजार जो ठहरे, और आपको लुभाने के लिए कंपनियां सब कुछ लुटा देगीं, सो आप निश्चिंत रहें, आप फिर लुटेगें।


भारतीय आंचलिक व्यगं परंपरा परम्परा में खेल शब्द का अपना एक मतलब है, और अगर इस मतलब को समझनें की कोशिश करें तो, एक ऐसा वाक्या ( घटी घटना) जिसमें हम और आप किसी दूसरे के पूर्वनियोजित चक्रव्यूह का हिस्सा बनते जाते हैं पर हमें उसका पता भी नहीं चलता है, और चक्रव्यूह रचने वाले को लाभ ही लाभ होता है। इसमें होने वाले मुनाफे को कमाने वाली ताकतों को पहचाना काफी कठिन होता है। कुछ ऐसा ही हाल आईपीएल का है, जो उद्योगपतियों और काले धन को सफेद करने वालों का रचा चक्रव्यूह हैं, जिसके हम और आप हिस्से हैं ( क्यों कि हम बाजार के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं)। लाभ सिर्फ और सिर्फ ऐसे लोगों को हो रहा है, जो सामने दिखते नहीं हैं। लाभ कमाने वालों की सूची लम्बी है, पर संक्षेप में कहें तो बंटरबार मची है, सब अपने अपने तरीको से लूट रहें हैं। इस खेल (लूट) की एक इलक इस बार की फिक्सिंग में दिखी, जिसमें नेता, उद्योगपति, खिलाड़ी, फिल्म जगत से लेकर अन्डरवर्ड के लोग खेल खेलते नजर आए हैं, और हम आप सिर्फ मूक दर्शक बनें रहें।

क्रिकेट में लिए इस तरह का खेल कोई नया नहीं है। इतिहास पलट कर देखें तो क्रिकेट हमेशा ही किसी ना किसी खेल के रूप में ही खेला गया है। इस खेल के पीछे आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक और बाद पूजीपतियों के हितों का खेल लम्बें दौर तक खेला जाता रहा हैं, और आज भी अनवरत जारी हैं, बस फार्मेट बदलते रहें। क्रिकेट की शुरूआत इग्लैण्ड़ में हुई, यह खेल ग्रामीण इग्लैण्ड वालों की उपज थी और इसके प्रमाण भी मिलते हैं, विद्वानों का कहना है, क्यूकिं ग्रामीण जिंदगी की रफ्तार धीमी थी इसलिए इस खेल के आविष्कारक वही हैं, इसीलिए शुरूआती दौर में इस खेल को तब तक खेला जाता था जब तक दूसरी टीम के सारे खिलाड़ी आउट ना हो जातें, बाद में टेस्ट क्रिकेट इसी का एक परिष्कृत भाग था। लेकिन जैसें ही औद्योगिक कांत्रि उपजी तो उसने हर जगह लाभ देखा और इससे जुडे नियम गाठें और बना दिया जेंटिलमैन का खेल। जिससे वो अपनी राजनीति और आर्थिक लाभ साध सकें। इसकी एक मिसाल भारतीय स्वत्रतां संग्राम के इतिहास में देखी जा सकती है, कि किस तरह से इस खेल के माध्यम से धार्मिक राजनैति को खेला गया और ताकि औपनिवेशिक मंसूबों ( फूट डालों राज्य करों) को पूरा किया जा सकें।
भारत में हिन्दुस्तानी क्रिकेट यानी हिन्दुस्तानियों द्वारा क्रिकेट को खेलने की शुरूआत का श्रेय पारसियों को जाता है, जिन्होनें 1848 में बंबई में क्रिकेट क्लब की स्थापना की, जिसे ओरिएंटल क्रिकेट क्लब के नाम से जाना गया, तब भी इसके प्रायोजक पारसी समुदाय के धनाढ्य माने जाने वाले उद्योगपति टाटा और वाडिया जैसे पारसी व्यापारी थे। इसी क्लब नें 1889 में गोरो के क्लब बांम्बे जिम खाने को हरा कर एक राजनैतिक जीत हासिल की थी, जिसके तहत बंबई में पार्क की जमीन पर हक भारतियों का हो गया था। इस क्लब के धार्मिक और राजनैतिक निहतार्थ निकले और धर्म आधारित क्लब उपजने लगें, जिनमें हिंदू जिम खाना इस्लाम जिम खाना सामने आने लगें। इन क्लबों को आसानी से मान्यता भी मिलती रही क्यूकिं इससे समाज आसानी से राजनैतिक और धार्मिक धड़ों में बटा रहता था, औऱ अंग्रेज यहीं चाहते थे। इन क्लबों ने देश में नस्लीय और सांप्रदायिक आधारों पर संगठित करने की रियावत डाली। आज भी भारत अपने बहुत सारे मसले क्रिकेट डिप्लोमेसी के जरिए सुलझाता रहता हैं, इस तरह से क्रिकेट और राजनीति के जुड़ाव का तरीका बदला पर प्रकृति अभी भी वहीं हैं, जिसमें इस क्रिकेट के पीछे का खेल कुछ और ही होता हैं। तब भी इस के प्रायोजक और आयोजक धनाढ्य लोग थे और आज भी यह खेल उद्योगपतियों और पूजीपतियों के हाथ की कठपुतली बना हुआ है।
 इसी पूजी के अथाह भंडार को देखते हुए कैरी पैकर ने वनडें क्रिकेट को, जो कि अपने शुरूवाती दौर में ही था, उसमें पूजी की अथाह संभावनाओं को पूरी तरह ना केवल पहचाना वरन 51 खिलाडियों को बागी बनाकर  2 सालों तक वर्ड सीरिज क्रिकेट के नाम से समांतर गैर अधिकृत टैस्ट और एकदिवसीय मैचों का आयोजन करया। इस पूरे सर्कस में रंगीन वर्दी, हेलमेट. क्षेत्ररक्षण के नियम, रात को क्रिकेट खेलने का चलन औऱ प्रसारण के अधिकारों का जन्म हुआ।   खेल के इस रूप नें खेल के अंदर छुपे बाजार के जिन्न को बाहर निकाल दिया, और ये बाजार आज पूरी तरह से इस खेल पर हावी हैं। जिसमें खेल के नाम पर कुछ और ही खेला जा रहा हैं। कुछ ऐसा ही वाक्या आईपीएल के शुरू होने से पहले आईसीएल और बीसीसीआई विवाद के रूप में आया, जिसें बाद में ताकतवर संस्था बीसीसीआई द्वारा आईसीएल को कुचल दिया गया, और खुद की एक बड़ी मंडी सजा कर आईपीएल के रूप में आया।
जिसमें सब कुछ बिकने वाला था। खिलाड़ी से लेकर सब कुछ। और बिका भी सब कुछ। कुछ तहों की पर्ते उधड़ गई तो उनके चिथड़े सामने हैं, लेकिन अभी भी बहुत बड़ा खेल पर्दें के पीछे से ही खेला जा रहा हैं, जिसे ये पूजीपति औऱ उद्योगपति कभी सामने नहीं लाने देगें। इसमें राजनैतिक और उद्योगपतियों की मिली भगत से इस खेल को पूरी तरह से कटपुतली का खेल बना दिया हैं, जहाँ खिलाड़ी सिर्फ और सिर्फ अपने मालिक की गुलामी करता है। खेल भावना, सीनियर- जूनियर का सम्मान, खेल की तकनीकि, नियम सब पैसों के आगें बौने बने हुए हैं। गौतम गंभीर और विराट का किस्सा हो या हरभजन और श्रीसंत का नाटक सब इसी का एक हिस्सा भर हैं।
इस पूरे क्रम में आईपीएल के 6 सीजन बीत चुके हैं, हर सीजन एक नया विवाद लेकर आता हैं, और हम उसे तमाशे का हिस्सा मान कर आसानी से पचा ले जाते हैं, पर वह क्रिकेट के खेल का हिस्सा नही वरन एक ऐसे खेल का हिस्सा होता हैं, जिसें हम टीवी के पर्दे और अपनी आँखों से देख भी नहीं सकते हैं। इन मायनो में अगर आईपीएल को एक खेल ( पारंपरिक आंचलिक भाषा में) कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिसमें राजनीति, धार्मिकता और उद्योग जुड़ा ही रहेगा।

शिशिर कुमार यादव


ईमेल – shishiryadav16@gmail.com

शुक्रवार, 17 मई 2013

तकाजा है पाकिस्तान के साथ खड़ा होना

हम तकदीर बदल सकते हैं पड़ोसी नहीं



कल जब पाकिस्तान की आम जनता वोट के रूप में अपनी लोकतांत्रिक ताकत का प्रयोग कर अपने लिए एक लोकतांत्रिक सरकार को चुनेगी, तो वो पाकिस्तान के इतिहास में एक सुखद पन्ना होगा। पाकिस्तान के 66 सालों के इतिहास में यह पहली बार होगा, जब एक सत्ता का हस्तानान्तरण एक जन प्रतिनिधियों की चुनी सरकार दूसरी जनता द्वारा चुनी गई सरकार को करेगी। यह सुखद पन्ना केवल पाकिस्तान के लिए ही एक महत्वपूर्ण दिन नहीं होगा वरन् द्क्षिण एशियाई देशों की अस्थिरता की राजनीति में एक महत्वपूर्ण मुकाम होगा। यह मौका भारत के लिए भी अपने सबसे निकट पडोसी के साथ संबधों को सुधारने के लिए एक नये सिरे से अवसर होगा। पडोसी देशों के साथ समस्या भारत को औपनिवेशिक शासन की विरासत के रूप में मिली है। इन सब देशों से रिश्तो के बीच भारत और पाकिस्तान की गाथा, कलह की गाथा हैं। इन दोनों देशों में दुश्मनी नई नहीं है। आजादी के बाद 6 दशक बीत जाने के बाद भी हालातों में परिवर्तन न के बराबर हुआ हैं। आज भी ये दोनों देश कई मोर्चो पर लड़ रहे हैं। भारत और पाकिस्तान तीन बार जंग के मैदान में आमने सामने आ चुके हैं। जीत हार के परे हो कर देखें, तो बडे पैमाने पर जन और धन की हानि दोनो ओर से हुई और दोनों ही देशों के हाथ में कुछ नहीं लगा हैं ।
पाकिस्तान के साथ भारत के संबध हमेशा ही कूटनीतिक तनाव भरे रहे हैं, जिनकी परिणाम युद्ध रहे हैं। इन युद्धों ने दोनों देशों की संस्कृति को घृणा की संस्कृति में बदल कर रख दिया हैं। इतिहास गवाह रहा हैं इन युद्धों के पीछे वहाँ के सैनिक शासन या सैन्य ताकते बड़ी भूमिका रहीं हैं। ऐसें में भारत का वो हिस्सा जिसमें हमारी अपनी विसारत का सौन्दर्य छिपा हैं, उसके खिलाफ खडा हो जाता हैं। ऐसें में हमारा हड़प्पा वाला पाकिस्तान, मोहन जोदड़ो वाला पाकिस्तान, बुल्ले शाह वाला पाकिस्तान, फ्रंटियर गांधी वाला पाकिस्तान, आज आएसआई वाले पाकिस्तान, लश्करे तैयबा और हिजबुल वाला पाकिस्तान के रूप में बदल चुका हैं। ऐसें में एक सिर्फ और सिर्फ लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार से संभावना दिखलाई पड़ती हैं जो दोनों देशों के बीच चली आ रही संस्कृति में सकारात्म बदलाव ला सकती हैं। क्योंकि दोनों देशों का बटवारा जनता की एक राय से नहीं वरन राजनैतिक रूप से किया गया फैसला था, जिसका खामियाजा आज तक दोनों देश उठा रहे हैं। ऐसें में आने वाली लोकतांत्रिक सरकार एक राजनैतिक पहल की संभावनाए जगाती हैं ताकि दोनों देश अपनी इस समस्या को राजनैतिक तरीके से सुलझा सकें। हाँलाकि संभावनाओ को लेकर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगा, पर संदेह में ही संभावनाए हमेशा अपना हिस्सा लिए हुए होती हैं।
दोनो देशों की आम जनता एक दूसरे को लेकर हमेशा अतिसंवेदनशील बनी रहती हैं, ऐसे में छोटी सी छोटी घटना का प्रतिफल दोनों देशों के साथ हो रही किसी भी तरीके बढ रहीं नजदीकियाँ और भी बड़ी दूरियों में तब्दील हो जाती हैं और दोनो देशों के हरेक मंच से जनमानस की देश भक्ति से लबरेज आवाज उठने लगी हैं जो कि तुरंत हमला कर के सबक सिखाने के पक्ष में होती हैं । लेकिन ये देशभक्ति से उभरी आवाजो की हुंकार के नीचे वो आवाजे हमेशा दम तोड़ देती हैं, जो इन दोनों के बीच विवाद के कारण सबसे ज्यादा नुकसान उठाती हैं। शहीद सैनिकों से लेकर आम जनता जिनके टैक्स का एक बड़ा हिस्सा सैन्यब़जट के रूप में उड़ा दिया जाता हैं, उनकी आवाजों के आगे ये राष्ट्रभक्ति की आवाजो के आगे दम तोड़ देती है। ऐसे में वो मुद्दे जिन पर दोनों देशों को मिलकर कई मोर्चों पर लड़ने की जरूरत हैं, पर सैनिक मोर्चों से बात कभी आगे बढ़ ही नहीं पाते हैं, और सामाजिक सांस्क़ृतिक विरासत के भागीदार ये दोनों देश एक दूसरे के खिलाफ खडें हो जाते हैं।
  
   खेल का छोटा सा मैदान दोनों देशों में जंग के मैदान सरीखे लगने लगता हैं, जिसे जीतना दोनों देशों की प्रतिष्ठा का सवाल बना रहता हैं, और इस प्रतिष्ठा को हवा देने का काम अतिउत्साही बाजारू संस्कृति सें पीड़ित मीडिया और इन दोनों देशों की अवसरवादी राजनीति पार्टियां करती हैं जिन्हें सिर्फ जनता को बरगलाना ही आता हैं। हाल में ही भारत में आयोंजित क्रिकेट सीरीज में भारतीय टीम की लगातार दो हारों के बाद तीसरे खेल से पहले छपी खबरों में अब जीतना ही होगांसरीखें खबरों से आसानी से परिलक्षित हो जाता हैं। जो दोनों देशों में गहरे अविश्वास को दिखलाता हैं। जो कि दोनो देशों के हित में नही हैं। दोनों देशों की राजनैतिक पार्टियों ने एक दूसरे के खिलाफ दुश्मनीं को अपने अपने देशों में राजनैतिक हित और अपनी आंतरिक सुरक्षा पर असफल होने के बचाव के रूप में करती आ रही हैं, और दोनों देशों के बीच एक घृणा की संस्कृति विकसित कर दी हैं जिसका ओर छोर नहीं दिखलाई पड़ता हैं।

इन विषम स्थितियों पाकिस्तान में जनता के प्रति जवाबदेह सरकार होने से एक उम्मीद जगती हैं जिसमें दोनों देशों के बीच एक राजनैतिक मंच से दोनों देशों के बीच मुद्दों को बातचीत के जरिए सलझानें की कोशिश को फिर से पंख लगेगें। दोनो सरकारे अपने अपने देश की जनता के प्रति जवाबदेही तय करते समय उन तमाम मूलभूत मुद्दों पर एक दूसरे की मदद की लेगी जो दोनों देशों की मूलभूत समस्या हैं। दोनों देश गरीबी, भुखमरी, अशिक्षां, स्वास्थ्य और आंतकवाद, आंतरिक सुरक्षा के मोर्चों पर लड रहें हैं, जिनकी प्रकृति लगभग एक समान हैं। इनसे निपटने के लिए दोनों देश अगर मिल कर काम करे तो राजनैतिक और सांस्कृतिक रूप से एक मजबूत सहयोगी बन कर उभरेगें। ऐसें में अगर लोकतांत्रिक सरकारें युद्ध से ध्यान हटाती हैं तो युद्ध पर दोनों देशों का लगने वाली एक बड़ी धनराशि मूलभूत समस्या पर लग सकती हैं, जिनको हमेशा सैन्य बजट के आगे कम धनराशि मुहैया कराई जाती रही हैं।
 आकडों के हिसाब से भी देखें तो भारत नें 2012-13 के आम बजट में रक्षा बजट को करीब 17 फीसदी बढ़ाकर 1,93,407 करोड़ रुपए कर दिया गया जो साल 2011-12 में यह 1,64,415 करोड़ रुपए था। भारत अपनी रक्षा जरूरतों के लिए आवश्यक सामग्री के 70 फीसद का आयात करता है और अमेरिका, फ्रास. रूस और ब्रिटेन भारत को हथियार निर्यात करने वालें बडें देश हैं। ऐसें में भारत विश्व बाजार में हथियारों की खरीज फरोख्त में बडा खरीददार हैं । पाकिस्तान में भी हालात ऐसे ही हैं। इस तरह भारत औऱ पाक अमेरिका के हथियारों के परीक्षण की प्रयोंगशाला बने हुए हैं। देश में आम जनता के टैक्स से जमा पैसे में से एक बडा हिस्सा विकास की जगह हथियार खरीदनें में चला जाता हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, पेय सुविधाएं जो मूलभूत सुविधाएं हैं, और जिनसें इन दोनो देशों की जनता महरुम हैं, उनके लिए बजट में रक्षा बजट की तुलना में लगभग आधा खर्च किया जाता हैं। 2012-13 मानव संसाधन मंत्रालय ने उच्चशिक्षा तथा स्कूल शिक्षा के लिए कुल 75,000 करोड रूपए मांगे थे, लेकिन सरकार नें आवंटित बजट में 5199 करोड रूपए की कमी करने का फैसला किया और बजट में केवल 61,407 करोड रूपये की स्वीकृति प्रदान की। वहीं स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए भी सिर्फ 34488 करोड़ का ब़जट तय किया गया। पेयजल और स्वच्छता के लिए केवस 14,000 करोड का बजट ही स्वीकृत किया। ऐसें में अकेला रक्षा ब़जट ही इन तीनों से अधिक हैं। ऐसें में जिन दशों में आधी से अधिक आबादी के बाद स्वास्थ्य, शिक्षा, जल औऱ स्वच्छता सम्बन्धित मूलभूत सुविधआओं का अभाव हैं, उसें एक और युद्ध की ओर ढकेल देना कहाँ कि समझदारी हैं।

दोनों देशों में एक लोकतांत्रिक सरकारे इस बजट पर काफी हद तक नियंत्रण कर सकती हैं। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम चाहें विश्वपटल में कितना भी विकसित हो जाए लेकिन एक असुरक्षित पडोसी देश, हमारे अपने देश की सुरक्षा के लिए हमेशा बडा खतरा बना रहेंगा। हम कुछ भी कर लें पर अपना पडोसी नहीं बदल सकते हैं। ऐसें में युद्ध की रणभूमि में बार बार निपटने की सोच सिवाय आत्मघाती हमलें के अलावा कुछ औऱ न होगा। भारत और पाकिस्तान की आर्थिक, सास्कृतिक, सामाजिक लगभग एक सी रही हैं, ऐसें अगर दोनों देश अपनी अपनी युद्ध नीति की कूटनीति के इतर आर्थिक, सास्कृतिक, सामाजिक परस्पर संबधों की ओर देखें तो यह दोनो ही देशों के लिए बेहतर होगा। युद्ध हमें सिर्फ और सिर्फ कड़वी यादों के साथ रहने पर मजबूर करता हैं। हाँलाकि विभिन्न विद्वान दोनो देशों के मध्य मधुर संबधों को दूर की कौडी मानते हैं पर उन्हें कभी नहीं भूलना चाहिए कि यूरोपीय देश जब हजार सालों की शत्रुता भुला कर और दो बड़े विश्व युद्ध लड़कर, शान्ति से रह सकते हैं तो हम अपने ही पुराने हिस्सें के साथ शांति से क्यों नहीं रह सकतें। जिसमें दोनो देशों की भलाई हैं।
भारत को बड़े भाई होने के नाते पाकिस्तान में आने वाली अगली सरकार के साथ एक कूटनीतिक और एक सुदृण विदेशनीति के साथ आगे बढने की जरूरत पर बल देना चाहिए ताकि वो दक्षिण एशियां में एक बड़े और भरोसेमंद देशों के रुप में उभर सकें। जो इन दोनो देशों की आतंरिक और बाहरी सुरक्षा दोनों के लिए अत्यन्त ही महत्पूर्ण हैं। यहाँ हमें एक बात ध्यान में रखनी होगीं कि तकदीर बदल सकते हैं पर पड़ोसी नहीं, तो पड़ोसियों से मधुर संबधों में ही सार्थक औऱ सुदृण विकास छुपा हैं। तो आज आज पाकिस्तान के साथ खड़े होने की जरूरत है,  
जिए पाकिस्तान।जिए हिन्दुस्तान। जिए अमन।जिए जम्हूरियत।


('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 18 मई 2013 को प्रकाशित लेख है) 


                                                                                                                            शिशिर कुमार यादव 

शनिवार, 11 मई 2013

मैं, सरकार और गुडें


यादव होने के नाते एक बन्धु ने कहा कि आपकी सरकार में तो खुली गुड्डागर्दी जारी हैं। बस हम लोग इसी चीज से मुलायम और सपा के आने से डर रहे थें, कि खुले आम गुन्डागर्दी का माहौल बन जाएगा इसी का ड़र था, लीजिए जो ड़र था अब सच हो गया हैं। मैं उनसे और उनकी बात से पूरी तरह अक्षरश: सहमत हूँ। विरोध का विकल्प था भी नहीं। पर इन बातो को सोचते सोचते मेरे मन में सिर्फ एक ही सवाल कौध रहा था, कि क्या सच में इस व्यवस्था विकल्प खोजा सकता हैं और अगर है तो क्या?  विकल्प बनाएगा कौन? किससे उम्मीद की जा सकती हैं। ये ऐसे सवाल हैं जिनका जबाव हम आप आसानी से नहीं खोज सकते हैं क्योंकि इन सब सवालों का केवल एक ही जवाब हैं आपकी अपनी नैतिकता जो की ना जाने हम औऱ आप कब की जला कर ताप चुके हैं। तो ऐसी स्थितियों के लिए बचाव लाए भी तो लाए कहाँ सें। आज कोई ज़िया उल हक़ मारा गया हैं कल कोई और मारा जाएगां , पर मारा जरूर जाएगा।
आप सोच रहे होगें कि मैं अति निराशावादी हूँ पर मेरे होने की बडी वजह हैं, जिनके जवाब हम आप दे भी नही सकते। जब विरोध और बदलाव का जब भी मौका आता हैं तो हम और आप जाति वादी से लेकर ना जाने कौन कौन वादी हो जाते हैं, और बदलाव करने से झिझकते हैं। जिस तालाब औऱ जिस भइया की बात हम आप कर रहे हैं वो किसी क्षेत्र में किसी धर्म और जाति के मसीहा होते हैं और जब भी इन्हे बदलने की बारी आती हैं तो हम आप अपने अपने क्षेत्र के मसीहा के रूप में जिंदा रख कर इन्हे जितवाते हैं। बस चेहरे बदल जाते हैं हम कुछ उखाड़ नही पाते हैं। कभी राज ठाकरें, औवेसी, तोगडिया, मोदी, तो कभी मुखिया के रूप में सामने आते हैं, जिनका आप कुछ नही कर सकते और ना ही आपका बना बनाया तंत्र। क्योंकि इस तंत्र के मुखियाँ तो हम आप ने इन्ही को चुन रखा हैं तो ऐसे में ये अपने ही खिलाफ कार्यवाही करवा ले ऐसा कैसे हो सकता हैं, मेरी समझ से बाहर हैं। और जब हम इन्हे बाहर कर सकते हैं तो हम इन्हें ही मसीहा मान कर चुन आते हैं क्योंकि सत्ता और ताकत इन्ही के पास हैं और हम भी इन्ही में अपना हित देख कर खुद को ताकतवर बनाने के लिए इन्ही का चुनान करते रहते हैं। अगर ऐसा ना होता तो सत्ता के केन्द्र में इतने अपराधी कहा से आ गएं हैं। किसी की इतनी हैसियत नही हैं कि वो लोकप्रिय वोट के आधार पर अपने आप को जितवा सके। तो ऐसें में मेरा खुद का मानना हैं कि स्वहित के आगे कोई और हित जिंदा ही कहा रहा हैं। इतिहास की पंरपरा को आज की राजनैतिक पार्टिया अच्छे से भुनाती आ रही हैं. औऱ आज आप और हम सिर्फ अपने गुडें वाली पार्टी का इंतजार कर रहे होते हैं ताकि अपने अपने स्वहित पूरे हो सके. भाजपा .आए तो गुंडें..बसपा आए तो गुडें..सपा आई तो गुडडे तो हम औऱ आप बस अपनी अपनी गुडों वाली पार्टी का इंतजार करते हैं और ये पार्टिया हमारे पंसदीदा गुडें को ढूढ कर हमारे क्षेत्र से चुनाव का टिकट देती हैं ताकि आप अपनी गुडों वाली सरकार को आसीनी से चुन सकें। और हम चुनते भी हैं ना चुनते तो आते कहाँ से हर पार्टी में ।
उत्तर प्रदेश में बड़े आला अफसर हैं (नाम नही ले रहा हूँ )...लेकिन वो कहते कहते कह गए कि जिस जिले में ये घटना हुई हैं, वहाँ जो उत्तर प्रदेश से जुड़े हैं वो जानते हैं कि कैसे हालत कैसे रहे हैं या वहाँ का इतिहास कैसा हैं ..खैर हिचकते हुए ही सही उन्होनें ये माना कि राजनीति का अपराधीकरण इस हद तक हुआ हैं कि अपराधी ही नेता हैं.। जिनका कुछ नही किया जा सकता हैं। तो ऐसें में आप उम्मीद किससे कर सकते हैं। समस्या केवल सिर्फ इस सरकार से नही, बल्कि, यह तो सत्ता का चरित्र ही बनता चला जा रहा हैं और देश की राजनीति इसी तरह चल रही है। बाहुबली, बलात्कारी, भ्रष्ट-दबंग नेता कमोबेश सभी सरकार में होते हैं
रवीश की रिपोर्ट में कानपुर से लेकर लखनऊ के थानेदारो में यादवों की संख्या पर प्रकाश डाला गया और बताया गया कि ये आकडें हैं... पर रवीश को कौन बताएं...कि माया सरकार में यादव होना ही गुनाह था  अगर थोडी तहकीकात करें तो पाएगें कि जितने यादव आज दिखते हैं, वो माया सरकार में या तो बंगाल की खाडी में थें या रवीश ही खोज सकते हैं.. और इस सरकार में भी किसी एक जाति के लोग हासिएँ पर हैं, और अगली सरकार में ये लोग जो अभी आकडे बने हुए हैं वो हासिएँ पर होगें।. खैर तो साहब हित के आगे आपका अपनी गुडों वाली सरकार हैं बस और कुछ नहीं...

शिशिर कुमार यादव
shishirdis@gmail.com

प्राण का फाल्के पुरस्कार गुमनाम कलाकारो के नाम ...

प्राण जिन्होनें अपने अभिनय से ना जाने कितनी फिल्मों में प्राण डाले

महानता की अपनी एक कीमत होती है कोई भी इस कीमत को चुकाएं बिना महान नहीं हो सकता है। भरोसेमंद, दीवार, रीढ होना और न जाने क्या क्या, इसी महानता के पर्यायवाची है। हर एक शब्द की अपनी राजनीति है और उसका एक उद्देश्य होता है। पर इन सभी शब्दों में भरोसेमंद होने का अपना ही एक अलग मजा और एक अलग दृष्टिकोण है, हम उन्हें भरोसेमंद कह देते है जिन्हें हम वो जगह नहीं दे पाते जिनके वों हकदार होते हैं, लेकिन करें क्या ? हम उन्हें छोड़ भी नहीं सकते, क्योंकि उन जैसा दूसरा कोई है भी नहीं। जीवन के रिश्तों में यह हकीकत है। आप इसे तभी महसूस कर सकते है जब आप किसी इंसान के लिए बेहतर और उसें सुरक्षित रखनें की कोशिश करते है, और वो भी उससे बिना कुछ मागें। हो सकता है मेरी कुछ पक्तियां बहुतो के करीब से गुजर गयी हों, पर मेरा यह उद्देश्य भी है... जिस बात का उल्लेख मैं यहां करने जा रहा हूँ उसके लिए यह पक्तियां अक्षरश: सहीं है, मैं हिंदी सिनेमा के सबसे चर्चित विलेन रहे प्राण की बात कह रहा हूँ। जिन्हें दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया. प्राण सरीखें अभिनेता हिंदी फिल्म जगत के वो किरदार रहें जिनकी आलोचना में ही तारीफ छुपी होती है और तारीफ में ना जाने क्या क्या। 
आज प्राण को दादा साहेब फाल्के अवार्ड मिलने पर लगा कि सच में अवार्ड की इज्जत बढ गई की प्राण जैसे किरदारों के लिए ये अवार्ड बना। बचपन से लेकर 18- 19 की उम्र तक प्राण के किरदारों से घृणा होती थी। फिल्मों की समझ हो ना हो हम फिल्म के हीरो के साथ हो लेते थें। फिल्मी पर्दा हो या  अखबार का पेज पंसद सिर्फ हीरो ही आता थां। फिल्म में क्या कहीं अन्य जगहों पर भी प्राण जैसें किरदारों को देखते ही मन अपने आप नींबू जैसा खट्टा हो जाता थां। फिल्मों की बढती समझ ने समझ में आया कि मेरी वो घृणा दरअसल प्राण के किये गए काम की सराहना होती थी यहीं तो प्राण चाहते थें, कि फिल्मों की समझ हो या ना हो पर वो अपने किरदार को हर समझने और ना समझने वाले को समझा देते थें।
सच में प्राण एक अभिनेता रहें और हैं, जिन्होने अपने अभिनय से समाज के वो किरदार जिए, जिन्हें जीना सच में अपने आप में एक कठिन चुनौती था। हिन्दी फिल्म जगत की नायक प्रधान समाज में खुद को खलनायक बना कर अपनी पहचान और दर्शकों के बीच स्वीकार्यता बना पाना किसी भी अभिनेता के लिए हमेशा  चुनौती रहा हैं, और इसी चुनौती में दर्शकों द्वारा खुद के अभिनय के लिए सराहना पाना उन सबसे और अधिक दुष्कर काम था लेकिन प्राण उन चुंनीदा लोगों में से एक हैं जिन्होनें ना केवल इन किरदारो को पर्दे पर जिया बल्कि उस किरदार के रूप में पूरा न्याय किया, जिनकी वजह से हमें पर्दे से अपने लिए नायक चुननें में सुविधा रहीं।
 1969 में भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के की सौंवीं जयंती के अवसर पर शुरू किया गया यह भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा पुरस्कार है, जो आजीवन योगदान के लिए केंद्र सरकार की ओर से दिया जाता है। भारत सरकार द्वारा यह पुरस्कार भारतीय सिनेमा के संवर्धन और विकास में उल्लेखनीय योगदान करने के लिए दिया जाता है। 1969 से शुरू हुए इस पुरस्कार को अब तक प्राण समेत 44 लोगों को दिया गया हैं। जिनमें अभिनेत्रीयों, अभिनेता, पार्श्व गायक, पार्श्व गायिका, निर्देशक, छायाकार, फ़िल्म निर्माता और फ़िल्म पटकथा लेखकों को मिल चुका हैं लेकिन प्राण अभिनेता वर्ग का प्रतिनिधित्व करेगें, जिनके अभिनय की चर्चा सिनेमा हॉल के बाहर बहुत कम ही होती हैं। फिल्म की सफलता और असफलता की श्रेय से वंचित ये वो किरदार होते हैं जो नीव के पत्थर तो बन सकते हैं पर भवन के कंगूरें पर सज जाएं ये लगभग नामूमकिन हैं। ऐसें में उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हुए एक कलाकार होने के नाते प्राण का ये मुकाम दादा साहब फाल्के पुरस्कार पाने वाले अन्य कलाकारों से अलग हैं और विशिष्ट भी। प्राण को दादा साहब फाल्के पुरस्कार सिनेमा जगत के उन हर कलाकार को एक सम्मान सरीखा  और प्रेरणा सरीखा हैं, जिन्हें सिनेमा की रंगीन दुनिया में अभिनेता रूपी सितारों के आगे चमकने ही नहीं दिया।
आज इस वक्त में जब प्राण के समकालीन सभी अभिनेता धीरें धीरें क्षितिज के तारे बनते जा रहें हैं ऐसें में प्राण अभिनय की एक जीता जागता रास्ता हैं जिसका कोई भी अनुसरण कर के कोई भी अपनी मंजिल आसानी से पा सकते हैं। खास कर वो लोग जो रंगीन सपनो के साथ इस शहर में आते हैं और इसकी चकाचौध में कही पूरी तरह खो जाते हैं। ऐसें में प्राण सरीखे कलाकार उन सभी के लिए प्रेरणा स्त्रौत हैं, जो अपने व्यक्तित्व से ईमानदारी और निष्ठा अपने काम करने को तवोज्जों देते हैं। हम सब को जंजीर फिल्म का यारी हैं ईमान मेरी, यार मेरी जिंदगींशब्द तो याद होगें आज प्राण के लिए इऩ्हीं शब्दों को के साथ कहा जा सकता है कि अभिनय हैं ईमान तेरा अभिनय तेरी जिंदगीं
शिशिर कुमार यादव