शनिवार, 4 मई 2013

आपदा प्रंबधन की क्षमता पर सवाल...


ईरान और पाकिस्तान को हिला जाने वाला भूंकप जिसकी कपकपी से हम सब भी कांप उठे, उसकी धमक अभी थमी ही नहीं थी, आपदा प्रंबधन पर, नियंत्रक एंव महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट से देश एक बार फिर सहमा हुआ हैं। कैग ने आपदा प्रंबधन को लेकर सरकार की तैयारियों की धज्जियाँ उड़ाते हुए दावा किया, कि देश का प्रंबधन तो दूर की कौड़ी हैं, प्रधानमंत्री आवास के लिए किए गए उपाय भी आपात कालीन स्थितियों में पर्याप्त नहीं होने वाले हैं। जबकि देश में प्रंबधन देखने वाली संस्था राष्ट्रीय आपदा प्रंबधन प्राधिकरण (नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथारिटी) के अध्यक्ष स्वंम प्रधानमंत्री होते हैं।

प्राकृतिक आपदाएं इस देश का सच हैं, जो समय समय पर इस देश को झकझोरती हैं और बतलाती हैं कि इस देश में मानव और प्रकृति के बीच के अन्तर्संबंधो में कमी आई हैं। बदलती आर्थिक प्राथमिकताओं नें इस दूरी को गढ्ढें से खाई मे परिवर्तित कर दिया हैं। अत: इससें पनपे नुकसान का भुगतान हम केवल आर्थिक कमजोरी से नही चुका रहें हैं, बल्कि सामाजिक और राजनैतिक रूप से भी भुगत रहें है। जिसकी भयावहता का अनुमान हम बड़ी आसानी से किसी भी आपदा ग्रस्त इलाके पर एक नजर ड़ालनें से समझ सकते हैं।

   आपदाओं की परिभाषा पर ध्यान दें तो हम पाते हैं कि  आपदाए वे होती हैं जो बड़ें पैमाने पर होने वाली एकाएक प्राकृतिक गतिविधियां है, जिसका प्रभाव मानव जाति पर नकारात्मक पड़ता हैं। बाढ, भूकंप, सूखा, चक्रवाती तूफान और वे सभी हादसें जिनसे मानव प्रभावित होता हैं आपदाए कहलाती हैं जिनमें प्रकृति और मानव के कारण उत्पन्न आपदाएं सम्मलित हैं। प्रतिवर्ष भारत अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह सें इन आपदाओं का बड़ा शिकार बनता हैं, जिसमें प्रतिवर्ष बडे पैमाने पर जन और धन की हानि होती हैं।

    आपदाओं का आंकलन करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय डाटाबेस संस्था सेंटर फार द रिसर्च आन इपिडिमियोलाजी आफ डिजास्टर का आकलन  हैं कि भारत 2000 से 2009 के मध्य 24 अरब अमरीकी डालर का नुकसान उठा चुका हैं, जिसमें सबसे ज्यादा नुकसान 17 अरब अमरीकी डालर बाढ की वजह से हैं और 4.5 अरब अमरीकी डालर भूकंप की वजह से 1.5 अरब अमरीकी डालर सूखे की वजह से और बाकी नुकसान अन्य प्रकार की विपदाओं की वजह से उपजा हैं। वर्ड बैंक के आंकलन को सही मानें तो भारत जीडीपी का 2 % और राजस्व का 12 % नुकसान सिर्फ और सिर्फ इन आपदाओं की वजह से उठाता हैं। देश के विभिन्न आकडों पर नजर डालें तो स्थिति स्पष्ट हो जाती हैं कि देश में हर प्रकार से आपदा के सामने सिर्फ और सिर्फ झुकाते चला आ रहा हैं।

1993 से 2012 तक भारत में विभिन्न आपदाओं की स्थिति और उनसे होने वाले नुकसान का विवरण
Disaster
कुल घटनाओं की संख्या
मृत
संख्या
कुल प्रभावित जनसंख्या
कुल हानि
(000 US$)
सूखा
5
20
351175000
204112
भूकंप (सुनामी सहित)
9
47679
8373265
4434750
महामारी ( जीवाणु, परजीवी + वायरल)
36
3103
334617
-
 तापमान (ठंड, गर्मी और चरम शीतकालीन)
24
8856
-
-
बाढ़ ( फ्लैश,  / तटीय बाढ़, स्थानीय
136
25592
517412587
27834379
हिमस्खलन/ लैंड स्लाइड)
25
1811
1333804
54500
तूफान
45
17535
34660320
548116
Source: (EM- DAT: the OFDA/ CRED international Disaster Database-Université Catholique de Louvain, Brussels (Belgium))
स्त्रौत: (अन्तर्राष्ट्रीय डाटाबेस संस्था सेंटर फार द रिसर्च आन इपिडिमियोलाजी आफ डिजास्टर)

यह केवल 20 सालों के आकड़े हैं, जबकि इतिहास और अधिक पुराना और भयानक रहा हैं। ये आकड़े भला ही बहुत बड़े और आम जन की समझ से परे हो, पर इन आपदाओं की वजह से होनें वाले नुकसान की एक छोटी सी समझ सभी के मन में बडी आसानी से उभर सकती है कि, इन आपदाओं में बहुत कुछ बर्बाद हो जाता हैं। कोसी की बाढ, भुज का भूकप, विदर्भ का सूखा आदि तो कुछ एक बडें उदाहरण हैं और तमाम ऐसी प्राकृतिक स्थितियां जिन्हें हर साल बदलते मौसम के साथ देश के विभिन्न भागों में झेलना पड़ता हैं। ये स्थितियां भारत को आपदा प्रधान देश बना देती हैं और कुल समस्याएं मिलकर देश के लिए लगातार एक बडे नुकसान का कारण बनती हैं और इन सबके सामने असहाय जनता सिर्फ और सिर्फ मूकदर्शक बनी रहती हैं।

ऐसा नहीं हैं कि भारत के पास इन आपदाओं से निपटनें का कोई तंत्र नहीं हैं, पर समस्याओं से निपटते हुए उनकी क्षमता और कार्ययोजना पर बडी ही आसानी से सवाल उठाएं जा सकते हैं। भारत में आपदाओं से निपटने के लिए त्रिस्तरीय केन्द्र, राज्य और जिला स्तर पर आपदा प्रबंधन विभाग हैं जो इन आपदाओं पर ना केवल नजर रखते हैं, साथ ही साथ सभी स्तर पर इनसे निपटने के लिए कार्ययोजना का निर्माण भी करते है, लेकिन ऐसा क्या है कि जिसकी वजह से हम साल दर साल इस नुकसान का शिकार बनते जा रहे हैं।

भारत में आपदा के लिए पृथक ध्यान 1990 में कृषि मंत्रालय के अन्तर्गत डिजास्टर मैनेजमेंट सेल के साथ स्थापित किया गया। लेकिन लातूर का भूकंप (1993), मालपा का भूस्खलन (1994), उडिसा के सुपर साइक्लोन (1999), भुज के भूकंप (2001) के बाद देश में पृथक व्यवस्था को महसूस करते हुए जी. सी पंत की अध्यक्षता में हाई पावर कमेटी की रिपोर्ट में एक व्यवस्थित और व्यापक निर्देशों को जारी किया गया। 2002 में आपदा को देश की आंतरिक सुरक्षा का मसला मानते हुए इसे गृहमंत्रालय के अन्तर्गत लाया गया। आपदा प्रंबधन के इतिहास में भारत में एक कांत्रिक परिवर्तन 2005 में डिजास्टर मैनेजमैंट एक्ट 2005 के तहत भारत सरकार ने अपनी कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया। जिसमें आपदा के आने के बाद, इस पर बचाव, नुकसान की भरपाई, फिर निदान और फिर आपदा पूर्व तैयारी की जाती हैं। जो आज भी जारी हैं।

 लेकिन इस कार्ययोजना के लागू हो जाने के बाद के ही आकडें उठा कर देखें, तो हम पाते हैं कि हर साल आपदा से होनें वाले नुकसान में इजाफा ही हुआ है और हम एक ही प्रकार की समस्याओं से जूझते नजर आते हैं। ऐसें मे यह तय कर पाना एक कठिन काम हैं कि क्या वाकई यह तंत्र इन समस्याओं से निपटने में सक्षम हुए हैं ? और इसकी कार्य क्षमता पर मौजूदा कैग का प्रश्नचिन्ह आपदओं को लेकर देश की तैयारी पर श्वेत पत्र जारी कर दिया हैं और सरकारी दावों को आइना दिखलाया हैं।

कहानी वहीं हैं जिसमें तत्रं का रोना रो कर, हम बडी आसानी से अपनी समस्याओ को बडा आंक देते हैं। ऐसें में, हम कहीं न कहीं इन समस्याओं से न निपट पाने की विफलता के लिए बहाना ढूढनें की कोशिश करते हैं, ताकि हम अपना बचाव कर सकें। लेकिन इससें हम अपनी जवाबदेही से तो बच सकते हैं पर समस्याओं से बिल्कुल नहीं। इस साल को ही देखें तो पाएगें कि, असम की बाढ, और अब मानसून के धोखे के बाद सूखे का संकट देश के लिए चुनौती बना हुआ हैं। हमारे तंत्र की कमजोरी से भी ये संकट हम पर कोई भी रहम करनें के मूड में नही हैं।  इसलिए जवाबदेही से बच कर हम अपना दामन भला ही छुपा ले लेकिन संकटों से सामना हमें करना ही पडेगा।

 तो आखिर हम करें क्या? जिससें हम इन आपदाओं से लड़ सके। इसकें दो ही तरीके हैं, पहला या तो हम इन आपदाओं को रोकें और या फिर इनसे प्रभावित होनें वालें लोगों को इतना मजबूत कर दें कि उन पर इन आपदाओं का प्रभाव कम से कम दिखलाई पडें। पहला वाला उपाय लगभग नामुमकिन सा हैं लेकिन अगर हम प्रकृति से अच्छें संबध बना ले तो कुछ कमी लायी जा सकती हैं। इसके लिए एक लम्बें समय की दरकार हैं, तो ऐसें में तब तक हम इन आपदाओं के सामनें खुद को बलि के बकरें के रूप में तो पेश करते  रहेगें। हमें हमेशा ही अपने दूसरें विकल्प की ओर सोचना होगा, जिसमें लोगो को मजबूत किया जाए।

     तंत्र के पास योजना और पैसा दोनों ही हैं लेकिन फिर भी हम हर मोर्चों पर असफल हो रहें है, इसका सीधा और सरल मतलब हैं कि योजनाओं को संचालित करनें वाले और योजनाओं को लेनें वालें दोनों लोगो के बीच बडें स्तर पर खामियाँ हैं। ऐसें में सिर्फ तंत्र की ओर उंगली उठा कर हम दूसरें पक्ष की लापरवाही को अनदेखा भी नहीं कर सकते हैं, और ये भी किसी से छुपा नहीं हैं कि इस लापरवाहीं को बढावा देने वालें कौन हैं। ऐसें में जब प्राकृतिक आपदा के परिणाम और प्रभाव सामाजिक हो चले हो तो सिर्फ प्राकृतिक आपदा मान कर हम कब तक अपनी कार्य योजना को संचालित करते रहेंगें।

ऐसें में हमें इन आपदाओं के उपरान्त होने वाले प्रभावों से लड़नें के लिए सामाजिक रूपरेखा तैयार कर फिर लड़नें पर बल देनें की जरूरत हैं ना कि सिर्फ प्राकृतिक कारणों से निपटनें पर अपनी सारी ऊर्जा खत्म करनें की। समय की मांग यह है कि हम अपनी योजनाओ का निर्धारण बराबरी के आधार पर करने की बजाय जरूरत के आधार पर करें। ताकि हम सच में प्रभावित होनें वालों को बचा सकें और आपदाओं के प्रभाव को कम कर सकें। वरना साल दर साल हम इन आपदाओं के सामनें मूक दर्शक बनें रहेंगें और ये आपदाएं हमारा मजाक उड़ाती रहेगीं।
                                   
(यह लेख राष्ट्रीय सहारा में 27 अप्रैल 2013 को प्रकाशित हुआ हैं)
                                               शिशिर कुमार यादव.
लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ( जेएनयू) में
 आपदा विषय में शोधार्थी हैं।

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

स्त्री आधिकारों में ही सभ्य समाज की आत्मा बसती है




पिछले कई दिनों से देश भर में, समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने रूप पर एक चर्चा और विमर्श का माहौल था। अफ़सोस, यह माहौल किसी आत्मचेतना के चलते नहीं बल्कि एक निर्मम बलात्कार और हत्या से उभरे जनाक्रोश के चलते बना था. इस घटना के लगभग चार महीने के बाद भी न समाज शर्मिन्दगी से उबार पाया है न उसी समाज के एक हिस्से के लोग दरिंदगी से और हमारा हासिल वह समाज है जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकती क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वह इस तरह सें जिएं ।16 दिसम्बर 2012 की घटना के बाद आज एक और वीभत्स बलात्कार की घटना ने हमारा ध्यान अपनी ओर खीचा हैं। हैरानी ये भी हैं कि बलात्कार से जुडे तमाम घटनाएं इस बीच हुई, पर हम फिर तब जागे, जब एक 5 साल की बच्ची इस दरिंदगी की शिकार हो गई। इस दरिंदगी की हद के बारे मे सोच लेने भर से रूह काँप उठती हैं, जिनमें तमाम वो दिवा स्वप्न बह जाते हैं जिसमें हम खुद को श्रेष्ठ सामाजिक प्राणी होने का दावा करते आ रहें हैं।


सामान्यतया महिलाओं से जुड़ी हिंसा के मामले में महिला को ही दोषी साबित करने की पुरजोर कोशिश की जाती हैं और समाज उसमें महती भूमिका निभाता हैं। इसीलिए घटना के बाद महिला के पहनावे, समय, उस स्थान विशेष पर होने की वजह और उसके चरित्र के सवाल प्रमुख हो जाते हैं। लेकिन इस मामले को किस नजर से देखा जाए। एक 5 साल की बच्ची के साथ हुए अपराध उन तमाम आरोपों और वजहों को खोखला साबित कर देते हैं, जिन्हे महिलाओं के प्रति अपराधों की बड़ी वजह माना जाता हैं। 2011 में भारतीय गृह मंत्रालय द्वारा की नेशनल क्राइम क बलात्कारों के पर जारी आंकड़ों की उठा कर देखा जाए तो, चित्र बड़ी आसानी से साफ हो जाता हैं कि किसी भी आयु वर्ग की लड़कियां और महिलाए कभी भी सुरक्षित नहीं थी.. यौन कुठाओं के आगे उम्र की भी सीमा नहीं आती हैं 2011 में जारी आकड़ों पर सरसरी नजर डालने से ही पता चल जाता हैं कि 2011 में कुल देश भर में 23939 मामलें दर्ज किए गयें, जिनमें कुल 24003 लोगो पीडि़त थे,(आकड़े इससे और भयानक होगें अगर हर केस के बाद पुलिस केस आसानी से दर्ज कर लें औऱ हर पीडिता अपना केस दर्ज करा लें) जिनमें 0- 10 साल के बीच 790 पीड़ित 10 से 14 साल के बीच 1568, 14 से 18 साल के बीच 4346, 18 से 30 साल के बीच 12986 ,30 से 50 साल के बीच 3573  और 50 से ऊपर की महिलाओं, 139 पीड़ित हुई। ऐसें में 0- से 18 और 50 से ऊपर की महिलाओं को एक साथ जोड़ दें तो कुल 6843 पीडित होगें. जो कुल पीडितो का लगभग 29 प्रतिशत होगा। जो ये दिखलाता हैं कि यौन कुंठा से भरा समाज कितनी घटिया सोच रखता हैं जिसके लिए उम्र के मायने कितने छोटे हैं।  मुझे पूरा भरोसा हैं कि इनमें घरों की बंद दीवारों में घटने वाली यौन हिंसा के मामले जोड दिए जाए और उऩकी भी रिपोर्टिग ठीक ढंग से हो जाए तो सामाजिक संस्कृति का लबादा ओढें हमारा समाज नंगा हो जाएगा।                                ।
इस मामले के बाद एक बार फिर वहीं पुराने सवाल सबसे महत्वपूर्ण हो जाते हैं, कि क्या हम इसी तरह आगे भी रहने वाले हैं, और बदलाव होगा तो कैसे होगां। क्या कठोर कानून इन सारे सवालों का जवाब होगा। जस्टिस जे एस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट के आने तक और उसके लागू हो जाने के बाद भी महिलाओं के प्रति ना तो अपराधों की प्रति बदली हैं औऱ ना उनकी संख्या में कोई कमी आई हैं। हर दिन के अखबार बलात्कार की घटनाओं से रंगे हुए हैं। इससे एक बात तो तय हो जाती हैं  हम हम ऐसे सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें में जी रहे हैं, जिसमे  आधी दुनिया की भागीदार स्त्री के मूलभूत अधिकारों को  हम सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से कुचलता जाता रहा है.  हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जिसमे महिलाओं के प्रति इस बर्बरता को जिंदा रखनें के लिए चरणबद्ध तरीको से जाल बुने जाते हैं और उनके खिलाफ होने वाले अपराधों की फेहरिश्त उनके परिवारों से ही शुरू होती है. भ्रूण हत्या, परिवार के अन्दर यौन हिंसा, दहेज़, दहेज़ हत्या, ध्यान से देखें तो यह सब स्त्रियों के विरुद्ध उनके द्वारा किये जाने वाले अपराध हैं जो अन्यथा उनके बचाव के लिए जिम्मेदार हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि हम जिस देश में रह रहें हैं उसमें इन अपराधों को सामाजिक और राजनैतिक मान्यता की अदृश्य शक्ति मिली हुई हैं. हम और आप इन्हे पहचानते और जानते भी हैं औऱ कई बार इनके हिस्से भी होते हैं पर बदलते नहीं हैं. हमें इनसे दिक्कत सिर्फ तब होती है जब यह हमारे अपनों के साथ हों. हाँ, ऐसे अपराधों के बाद आने वाली प्रतिक्रियायों पर नजर डालने से इन अपराधों को मौन स्वीकृति दिलाने वाले चेहरे भी साफ़ नजर आने लगते हैं. दिल्ली के इस मामले के बाद समाज और सार्वजनिक मंचो से बयान उसकी बानगी हैं। और इसी लिए यह पूछना जरूरी बनता है कि ऑनरकिलिंग को भावनात्मक और सामाजिकता से जुड़ा मुद्दा माननें वाले औऱ चुपचाप भ्रूण हत्या को बढावा देने वाले समाज से, इस हत्या पर ईमानदारी भरी प्रतिक्रिया औऱ बदलाव की उम्मीद करना कहां तक समझदारी भरा कदम होगा।
निसंदेह ही कानून इन तरह के अपराधों के लिए पूर्ण इलाज नही हैं, इन इलाज का एक उपकरण हैं। ऐसे में इन अपराधों से लड़ने के लिए एक बड़ी इच्छा शक्ति और सामाजिक सोच की बदलाव की जरूरत हैं, जिससे हम महिलाओं के अधिकारों को पितृसत्ता के ढाँचों में फसी नैतिकता की बेड़ियों से निकलकर आजादी की साँस ले सकें। निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं. भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी  महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वह व्यवस्था जिसमें उनके प्रति किए गए अपरा
ध जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रहे है. इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं.। उनका विरोध करें और विरोध के लिए खुद के घर को ही प्राथमिक प्रयोगशाला बनाएं, अगर घर बदला तो देश के लिए युगान्तर कारी परिवर्तन महसूस होगें।
(य़ह लेख राष्ट्रीय सहारा में 23 अप्रैल 2013 को प्रकाशित हुआ हैं)

शिशिर कुमार यादव 

शनिवार, 23 मार्च 2013

सोलह की उम्र की सहमति के मायने


देश की संसद महिलाओं के साथ बलात्कार पर सशक्त कानून की जरूरत को लेकर एंटी रेप बिल पर बहस करने वाली है। संसद मे जाने से पहले ही इस बिल पर कैबिनेट मंत्रियों की बैठक में इसे अंतिम रूप दे दिया गया हैं। इस बैठक में एक निर्णय के तहत किशोरों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबधों की उम्र को 16 वर्ष निर्धारित करने का प्रस्ताव किया गया हैं यानी अगर कोई 16 साल की लड़की अपनी सहमति के साथ किसी किशोर के साथ यौन संबध बनाती हैं तो उसे बलात्कार नहीं माना जाएगां। इस सहमति के बाद देश भर एक बड़ी बहस यौन संबधों की उम्र को लेकर एक जोरदार बहस छिडी हुई हैं। कि क्या 16 वर्ष के बच्चों को यौन संबध बनाने का यह कानूनी प्रस्ताव भारतीय परिदृश्य में सहीं होगा। पक्ष और विपक्ष दोनो अपनी अपनी बातो से इस प्रस्ताव की आलोचना और समर्थन कर रहे हैं।
पक्ष में दिया गया सबसे बड़ा तर्क यह हैं कि किशोरों का एक दूसरे के प्रति आकर्षण स्वाभाविक और प्राक़तिक हैं, ऐसें में सहमति के साथ बने किसी संबध में लड़के को बलात्कार जैसें गम्भीर आरोप में जेल भेजना न्याय संगत और उसके भविष्य के लिए हितकर नहीं होगा। विरोध में दिया जानें वाला तर्क सहमति को तय करने का मापक और उसके पीछे छुपे अवाछनीय तत्वों से सहमति के भाव का आकलन कैसे किया जा सकता हैं? इस विचार के विरोधी इस नियम को बाल अपराधों और ट्रैफिंकिंग इन्डस्ट्री के वरदान सरीखा आँक रहें हैं। जिसका नुकसान बाल और बचपन बचाओं आंदोलनों को उठाना पडेगा।
दोनो ही तर्को को सिरे से खारिज करना ना ही आसान हैं और ना ही सही भी। पहले तर्क की बात करें तो हाल में गाजियाबाद कोर्ट के मामले को ध्यान में रख कर बात की जाए लड़की के बयान के बाद भी कोर्ट लड़के को अपराधी घोषित करती हैं, क्योंकि न्यायाधीश कानून के तहत उसे निर्दोष नहीं मान सकते थें। हाल में हुए कुछ और निर्णयों में कोर्ट को नियमों के अभाव में सहमति के होते हुए भी किशोर युवक को अपराधी मानने पर मजबूर होना पड़ा। ऐसे में सहमति के साथ बने संबधों में इतनी बडी सजा की नैतिकता पर सवाल उठाया जा रहा हैं। कि आकर्षण प्राकृतिक हैं और ये सहमति का विषय हैं तो ऐसें में इसे अपराध मानना कहाँ तक उचित होगा। ( ध्यान रहें असहमति के साथ किया गया प्रयास बलात्कार की श्रेणीं में ही आएगा)
दूसरी तरफ के तर्क के अनुसार, बहुत सारी लड़कियां भय, लालच और मजबूरी के कारण हर साल बड़ी मात्रा में यौन शोषण का शिकार होती हैं। इनकी संख्या आकड़ो से बहुत अधिक हैं, बहुत सारे मामले खुलकर सामने आते ही नहीं हैं। नेशनल क्राइम रिपोर्ट के आकड़े और चौकाने वाले हैं, इन आकड़ो के हिसाब से 2011 में किशोरो पर दर्ज 30,766  में से 20000 केस जिन्हें भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड) के तहत दर्ज किये गए किशोरो की उम्र 16 से 20 वर्ष की थी। बाकी बचे केस में उम् 7 से 12 ते बीच थी। इसमें भी चौकाने वाली खबर ये थी कि 1231 रेप केस दर्ज हुए थें। बढते अपराधों में 2012 के आकड़े इससे और भी भयावह होगें इसका अनुमान लगाना आसान ही हैं। ऐसें में 16 साल की उम्र में सहमति से बने यौन संबधो को कानूनी तौर पर मान्यता देने के बाद यौन अपराधों में इजाफा होना स्वाभाविक हैं जिसे सहमति का जामा पहना कर न्यायोचित ठहराया जायेगा। सहमति साबित करवाने के लिए अपराधी या उसके परिवार का किसी भी हद तक जाने की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता हैं। ऐसे में इस तरह का प्रस्ताव एक गंभीर समस्या पैदा कर देगा, जिसकी वजह से दैनिक मजदूरी कर के और घरो में काम करने वाली किशोरियों को बहला फुसला कर उनका शोषण करने की प्रवृत्ति को बढावा मिलेगा। आज भी ऐसे शोषण हर कार्य क्षेत्र में बड़ी मात्रा में होते हैं, उनमें से अधिकतर मामले सामने आते ही नहीं हैं और जो आते हैं उनका इस नियम के आने के बाद इन बचे कुचे अपराधों को सहमति का जामा पहना कर इनसे आसाना से बचा जा सकता हैं।
ये आकड़े उतने ही अपराधों के हैं जिन्हें दर्ज किया गया हैं जबकि वास्तविकता के आकड़े और भयानक हैं। हर दिन किसी ना किसी रूप में किसी 18 साल की कम लडकी जो घरों से लेकर सड़क तक बहला फुसला कर या डर और लालच के चलते यौन शोषण का शिकार होती हैं। ऐसी स्थितियों में सहमति का विषय कितना सहीं प्रासंगिक रह जाता हैं यह एक बडा सवाल हैं। ट्रैफिकिंग रेहैबिलिटेशन विषय पर शोध कर रही आईआईटी खड़कपुर की छात्रा सोनल पाण्डेय का कहना हैं कि अधिकतर ट्रैफिक्ट हो चुकी लड़कियाँ स्टॉकहोम सिन्ड्रोम से पीडित हो जाती हैं, जिसमें वो अपने ही खिलाफ काम करती हैं, जिसके तहत वे उस दलाल को ही बेहतर मानने लगती हैं जो उन्हें इन जगहों पर ला कर बेच देते हैं या फिर उनका शोषण करवाते हैं, और ये दलाल भी इनका यौन शोषण करते हैं। ऐसें में छुड़ाई गई लड़कियाँ घर नहीं जाना चाहती, क्योंकि समाज में लौटने पर इन्हें मानिसक प्रताडना के साथ साथ इस तरह से यौन शोषित होने की संभावन और बढ जाती है। इसी लिए अधिकतर मामलों में एक बार घर से भगाई गई लड़की इन दलालों के लिए सबसे आसान शिकार होती हैं। इस प्रकार जब ये सब पहले से ही इन्हें इतनी प्रताडित होती हैं, तो कि जब पुलिस उन्हे बचाती है तो वो किसी के साथ जाने के बजाय अपने दलालो का ही साथ देती हैं। ऐसे में इस कानून के आने के बाद इस तरह की समस्याओं से निपटने की रूपरेखा क्या होगी यह एक बडा सवाल होगा।
तो क्या ऐसे में कम उम्र में लड़कियों के साथ हो रहे अपराधो का बाजार (वेश्यावृत्ति, अवैध मजदूरी), इस कानून के आने के बाद इसे अपने हित में नहीं भुनाएगां। ऐसें में सहमति पर विषय कितना छोटा हो जाता हैं । सहमति को साबित करने वाले बल किसी से छुपे नहीं है। सहमति और असहमति की लक्ष्मण रेखा क्या होगी और यह लक्ष्मण रेखा तय कैसे होगी ये बडे सवाल हैं। भारत जैसे देश में जहाँ नैतिकता और संस्कृति के मापक महिलाओं की हत्या से नहीं चूकता हैं ऐसे में इस तरह का कानून धर्म और संस्कृति के ठेकेदारों के लिए अपने असंवैधानिक और अलोकतात्रिक नियमों को वैध करने का ठोस आधार देता दिखाई पडेगा। जिससे वो महिला के अधिकारों को और बुरी तरह से नियत्रित करने की कोशिश करेगें। हम इनसे पूरी तरह निपट पाने में कितना सक्षम हैं इस सीमा से भी हम परिचित हैं। भारत जैसे देश में जहाँ महिलाओं को लेकर अपराध और शोषण का एक लम्बा इतिहास हैं वहाँ इस तरह के प्रयोग करते समय एक गहन चिन्तन की जरूरत हैं। स्पष्ट है कि इस हवन में हाथ बहुत सम्हालने की जरूरत हैं वरना हाथ जलना तय है।  महिला अधिकारो को लेकर एक लम्बे सघर्ष के बाद, हमने जो मुकाम हासिल किया हैं, उसे कच्ची उम्र मे सेक्स की छूट का फर्जी प्रचार कर के छीना भी जा सकता हैं। इसलिए विषय की गंभीरता और प्रकृति इस विषय पर गहन अध्ययन की ओर बल दे रहे हैं, जल्दबाजी में उठाया गया कदम महिला अधिकारो के लिए आत्मघाती भी हो सकता हैं।
शिशिर कुमार यादव 

गुरुवार, 7 मार्च 2013

स्त्री विरोधी नहीं हो सकते सभ्य समाज


पिछले कई दिनों से देश भर में,समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने रूप पर एक चर्चा और विमर्श का माहौल हैं. अफ़सोस यह कि यह माहौल किसी आत्मचेतना के चलते नहीं बल्कि एक निर्मम बलात्कार और हत्या से उभरे जनाक्रोश के चलते बना है. इस घटना के लगभग दो महीने के बाद भी न समाज शर्मिन्दगी से उबार पाया है न उसी समाज के एक हिस्से के लोग दरिंदगी से और हमारा हासिल वह समाज है जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकती क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वह इस तरह सें जिएं.
पिछले कई दिनों से देश भर में,समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने रूप पर एक चर्चा और विमर्श का माहौल हैं. अफ़सोस यह कि यह माहौल किसी आत्मचेतना के चलते नहीं बल्कि एक निर्मम बलात्कार और हत्या से उभरे जनाक्रोश के चलते बना है. इस घटना के लगभग दो महीने के बाद भी न समाज शर्मिन्दगी से उबार पाया है न उसी समाज के एक हिस्से के लोग दरिंदगी से और हमारा हासिल वह समाज है जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकती क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वह इस तरह सें जिएं.

इस खबर के बाद गलतियों और खामियों के सामाजिक और राजनैतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं, जिनकी अपनी ही प्रकृति और सीमा होगी. लेकिन फिर भी यह हत्या, जो न केवल निर्मम बल्कि बडे सधे तरीके से भी की हैं उस ओर सोचना जरूरी हैं कि क्या सच में हम एक सभ्य समाज में जी रहे हैं? क्या सच में हम ऐसा ही समाज चाहते हैं? इस मौत को क्या कहा जाए? हादसा, अपराध, दुर्घटना या कोई और शब्द. शायद किसी भी शब्द में इतनी ताकत हो जो  इसे पूरी तरह से विश्लेषित कर सकें. वस्तुतः देखें तो इस हादसे के सन्दर्भ में भाषा की सीमा भी साफ दिखती हैं क्योंकि सिर्फ हादसा कहने से ऐसे अपराधों की गंभीरता और वीभत्सता का मौलिक चरित्र ही खत्म हो जाता हैं.

अफ़सोस यह भी है कि ऐसे निर्मम अपराधों के बाद तमाम लोग ऐसे अपराधियों के लिए मौत की सजा माँगने लगते हैं जैसे मृत्युदंड से इस समस्या का समाधान हो जाएगा. पर मृत्युदंड ने दुनिया के किसी भी हिस्से में अपराध रोके हों इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता. एक दूसरे स्तर पर भी देखें तो समझ आता है कि अगर मौत की सजा इन दुष्कृत्यो को रोक सकती तो एक अपराधी को ऐसी सजा मिलने के बाद अपराधी और समाज दोनो ही इसकी पुनरावृत्ति नहीं करते. इन हादसों की पुनरावृत्ति हमें यह बतलाती हैं कि अब भी हम ना तो इनकी गंभीरता समझ पाए हैं और ना ही वीभत्सता. हाँ मौत की सजा देने से यह जरूर होगा कि बलात्कारी सबूत न छोड़ने के प्रयास में पीड़ित की हत्या करने पर उतर आयें.

जो भी हो पर इस हादसे ने हमें एक बार खुद की ओर सोचने के लिए झकझोरा हैं कि हम कैसे सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें में जी रहे हैं? हम एक ऐसे समाज रह रहे हैं जिसमे  आधी दुनिया की भागीदार स्त्री के मूलभूत अधिकारों को  हम सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से कुचलता जाता रहा है.  हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जिसमे महिलाओं के प्रति इस बर्बरता को जिंदा रखनें के लिए चरणबद्ध तरीको से जाल बुने जाते हैं और उनके खिलाफ होने वाले अपराधों की फेहरिश्त उनके परिवारों से ही शुरू हो जाती है. भ्रूण हत्या, परिवार के अन्दर यौन हिंसा, दहेज़, दहेज़ हत्या, ध्यान से देखें तो यह सब स्त्रियों के विरुद्ध उनके द्वारा किये जाने वाले अपराध हैं जो अन्यथा उनके बचाव के लिए जिम्मेदार हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि हम जिस देश में रह रहें हैं उसमें इन अपराधों को सामाजिक और राजनैतिक मान्यता की अदृश्य शक्ति मिली हुई हैं. हम और आप इन्हे पहचानते और जानते भी हैं औऱ कई बार इनके हिस्से भी होते हैं पर बदलते नहीं हैं. हमें इनसे दिक्कत सिर्फ तब होती है जब यह हमारे अपनों के साथ हों. हाँ, ऐसे अपराधों के बाद आने वाली प्रतिक्रियायों पर नजर डालने से इन अपराधों को मौन स्वीकृति दिलाने वाले चेहरे भी साफ़ नजर आने लगते हैं. दिल्ली के इस मामले के बाद समाज और सार्वजनिक मंचो से बयान उसकी बानगी हैं। और इसी लिए यह पूछना जरूरी बनता है कि ऑनरकिलिंग को भावनात्मक और सामाजिकता से जुड़ा मुद्दा माननें वाले औऱ चुपचाप भ्रूण हत्या को बढावा देने वाले समाज से, इस हत्या पर ईमानदारी भरी प्रतिक्रिया औऱ बदलाव की उम्मीद करना कहां तक समझदारी भरा कदम होगा.

अफ़सोस यह भी है कि समाज संस्कृति के उद्घोषक जो इस देश को " कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी से" विविधता भरी संस्कृति का वर्णन कर अपना सीना चौड़ा करते हैं  वे भी यह भूल जाते हैं कि महिलाओं को लेकर लगभग पूरा देश एक ही तरह का व्यवहार करता है. क्या उत्तर क्या दक्षिण, क्या राजस्थान क्या बंगाल, क्या शिक्षित क्या अशिक्षित, महिलाओं के प्रति अपराध और उनके अधिकारों के प्रति रवैया लगभग एक सरीखा और एक समान हैं. देश का कोई कोना दंभ से इसका दावा नही कर सकता हैं कि वह इन स्थितियों और परिस्थितियों से खुद को इतर रखे हुए हैं.  स्पष्ट हैं कि महिलाओं के प्रति नजरिये को लेकर आजतक हमारा समाज जहां था वहीं हैं और अगर कुछ बदलाव के चिन्ह दिखाई भी पडे हैं तो उन्हे कुचलनें के लिए समाज ने अपराधियों को हमेशा बढ़ावा दिया हैं. जिससे उनकी नैतिकता और सभ्यता की खोखली पाठशाला का पाठ महिलाएं आसानी से समझ लें. आज भी समाज, नारी देह और उसकी स्वतंत्रता को अपने पैमानो से देखता हैं और आगे भी उसे नियंत्रित करने का प्रयास जारी हैं. इन कोशिशों में अपराधी और अपराध को मौन सहमति देकर आगे भी नियंत्रित करना चाहता हैं. इसीलिए सामाजिक व्यवस्था का कोई भी परिवर्तन, आज भी अलोकतांत्रिक तरीके से ही कुचला जाता हैं. राजनैतिक और सामाजिक संस्थाए इनको न केवल बढ़ावा देती हैं वरन कई बार अगुवाई भी करती नजर आती हैं.

निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं. भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी  महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वह व्यवस्था जिसमें उनके प्रति किए गए अपराध जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रहे है. इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं. आज भी हम ऐसे ही समाज को पाल पोस रहे हैं जो महिलाओं के अधिकारों के प्रति पूर्णतया असंवेदनशील हैं. इस कदर की असंवेदनशीलता और अपराध को बढावा देना किसी भी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं होता हैं. ऐसे में हमारा दावा कितना खोखला हैं कि हम एक सभ्य समाज में हैं और हमारे द्वारा एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा रहा हैं.

About the Author: Mr. Shishir Kumar Yadav is a research scholar based in Jawaharlal Nehru University, New Delhi. He could be contacted at shishiryadav16@gmail.co
यह लेख Asian Human Right  से भी प्रकाशित हो चुका हैं ... 
लिंक ..http://www.humanrights.asia/opinions/columns/AHRC-ETC-014-2013





रविवार, 3 मार्च 2013

प्राकृतिक आपदाओं से बचाव सामाजिक न्याय में हैं ।

आपदा एक सामाजिक समस्या हैं ...


प्राकृतिक आपदाएं इस देश का सच हैं, जो समय समय पर इस देश को झकझोरती हैं और बतलाती हैं कि इस देश में मानव और प्रकृति के बीच के अन्तर्संबंधो में कमी आई हैं। बदलती आर्थिक प्राथमिकताओं नें इस दूरी को गढ्ढें से खाई मे परिवर्तित कर दिया हैं। अत: इससें पनपे नुकसान का भुगतान हम केवल आर्थिक कमजोरी से नही चुका रहें हैं, बल्कि सामाजिक और राजनैतिक रूप से भी भुगत रहें है। जिसकी भयावहता का अनुमान हम बड़ी आसानी से किसी भी आपदा ग्रस्त इलाके पर एक नजर ड़ालनें से समझ सकते हैं।

   आपदाओं की परिभाषा पर ध्यान दें तो हम पाते हैं कि आपदाए वे होती हैं जो बड़ें पैमाने पर होने वाली एकाएक प्राकृतिक गतिविधियां है, जिसका प्रभाव मानव जाति पर नकारात्मक पड़ता हैं। बाढ, भूकंप, सूखा, चक्रवाती तूफान और वे सभी हादसें जिनसे मानव प्रभावित होता हैं आपदाए कहलाती हैं जिनमें प्रकृति और मानव के कारण उत्पन्न आपदाएं सम्मलित हैं। प्रतिवर्ष भारत अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह सें इन आपदाओं का बड़ा शिकार बनता हैं, जिसमें प्रतिवर्ष बडे पैमाने पर जन और धन की हानि होती हैं। आपदाओं का आंकलन करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय डाटाबेस संस्था सेंटर फार द रिसर्च आन इपिडिमियोलाजी आफ डिजास्टर का आकलन  हैं कि भारत 2000 से 2009 के मध्य 24 अरब अमरीकी डालर का नुकसान उठा चुका हैं, जिसमें सबसे ज्यादा नुकसान 17 अरब अमरीकी डालर बाढ की वजह से हैं और 4.5 अरब अमरीकी डालर भूकंप की वजह से 1.5 अरब अमरीकी डालर सूखे की वजह से और बाकी नुकसान अन्य प्रकार की विपदाओं की वजह से उपजा हैं। वर्ड बैंक के आंकलन को सही मानें तो भारत जीडीपी का 2 % और राजस्व का 12 % नुकसान सिर्फ और सिर्फ इन आपदाओं की वजह से उठाता हैं।

ये आकड़े भला ही बहुत बडे हो और आम जन की समझ से परे हो, पर इन आपदाओं की वजह से होनें वाले नुकसान की एक छोटी सी समझ सभी के मन में बडी आसानी से उभर सकती है। इन आपदाओं में बहुत कुछ बर्बाद हो जाता हैं। कोसी की बाढ, भुज का भूकप, विदर्भ का सूखा आदि तो कुछ एक बडें उदाहरण हैं लेकिन हर साल आनें वाली समस्याएं मिलकर देश के लिए लगातार एक बडे नुकसान का कारण बनती हैं और इन सबके सामने असहाय जनता सिर्फ और सिर्फ मूकदर्शक बनी रहती हैं।

ऐसा नहीं हैं कि भारत के पास इन आपदाओं से निपटनें का कोई तंत्र नहीं हैं, पर समस्याओं से निपटते हुए उनकी क्षमता और कार्ययोजना पर बडी ही आसानी से सवाल उठाएं जा सकते हैं। भारत में आपदाओं से निपटने के लिए त्रिस्तरीय केन्द्र, राज्य और जिला स्तर पर आपदा प्रबंधन विभाग हैं जो इन आपदाओं पर ना केवल नजर रखते हैं, साथ ही साथ सभी स्तर पर इनसे निपटने के लिए कार्ययोजना का निर्माण भी करते है, लेकिन ऐसा क्या है कि जिसकी वजह से हम साल दर साल इस नुकसान का शिकार बनते जा रहे हैं।

भारत सरकार नें 2005 में डिजास्टर मैनेजमैंट एक्ट 2005 के तहत अपनी कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया जिसमें आपदा के आने के बाद, इसपर बचाव, नुकसान की भरपाई, फिर निदान और फिर आपदा पूर्व तैयारी की जाती हैं। लेकिन इस कार्ययोजना के लागू हो जाने के बाद के ही आकडें उठा कर देखें, तो हम पाते हैं कि हर साल आपदा से होनें वाले नुकसान में इजाफा ही हुआ है और हम एक ही प्रकार की समस्याओं से जूझते नजर आते हैं। ऐसें मे यह तय कर पाना एक कठिन काम हैं कि क्या वाकई यह तंत्र इन समस्याओं से निपटने में सक्षम हुए हैं ?

कहानी वहीं हैं जिसमें तत्रं का रोना रो कर, हम बडी आसानी से अपनी समस्याओ को बड़ा आंक देते हैं। ऐसें में, हम कहीं न कहीं इन समस्याओं से न निपट पाने की विफलता के लिए बहाना ढूढनें की कोशिश करते हैं, ताकि हम अपना बचाव कर सकें। लेकिन इससें हम अपनी जवाबदेही से तो बच सकते हैं पर समस्याओं से बिल्कुल नहीं। इस साल को ही देखें तो पाएगें कि, असम की बाढ, और अब मानसून के धोखे के बाद सूखे का संकट देश के लिए चुनौती बना हुआ हैं। हमारे तंत्र की कमजोरी से भी ये संकट हम पर कोई भी रहम करनें के मूड में नही हैं।  इसलिए जवाबदेही से बच कर हम अपना दामन भला ही छुपा ले लेकिन संकटों से सामना हमें करना ही पडेगा।

 तो आखिर हम करें क्या जिससें हम इन आपदाओं से लड़ सके। इसकें दो ही तरीके हैं, पहला या तो हम इन आपदाओं को रोकें और या फिर इनसे प्रभावित होनें वालें लोगों को इतना मजबूत कर दें कि उन पर इन आपदाओं का प्रभाव कम से कम दिखलाई पडें। पहला वाला उपाय लगभग नामुमकिन सा हैं लेकिन अगर हम प्रकृति से अच्छें संबध बना ले तो कुछ कमी लायी जा सकती हैं। इसके लिए एक लम्बें समय की दरकार हैं तो ऐसें में तब तक हम इन आपदाओं के सामनें खुद को बलि के बकरें के रूप में तो पेश करते नहीं रहेगें। हमें हमेशा ही अपने दूसरें विकल्प की ओर सोचना होगा, जिसमें लोगो को मजबूत किया जाए। जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं कि तंत्र के पास योजना और पैसा दोनों ही हैं लेकिन फिर भी हम हर मोर्चों पर असफल हो रहें है, इसका सीधा और सरल मतलब हैं कि योजनाओं को संचालित करनें वाले और योजनाओं को लेनें वालें दोनों लोगो के बीच बडें स्तर पर खामियाँ हैं। ऐसें में सिर्फ तंत्र की ओर उंगली उठा कर हम दूसरें पक्ष की लापरवाही को अनदेखा भी नहीं कर सकते हैं, और ये भी किसी से छुपा नहीं हैं कि इस लापरवाहीं को बढावा देने वालें कौन हैं।ऐसें में जब प्राकृतिक आपदा के परिणाम और प्रभाव सामाजिक हो चले हो तो सिर्फ प्राकृतिक आपदा मान कर हम कब तक अपनी कार्य योजना को संचालित करते रहेंगें।

ऐसें में हमें इन आपदाओं के उपरान्त होने वाले प्रभावों से लड़नें के लिए सामाजिक रूपरेखा तैयार कर फिर लड़नें पर बल देनें की जरूरत हैं ना कि सिर्फ प्राकृतिक कारणों से निपटनें पर अपनी सारी ऊर्जा खत्म करनें की। समय की मांग यह है कि हम अपनी योजनाओ का निर्धारण बराबरी के आधार पर करने की बजाय जरूरत के आधार पर करें। ताकि हम सच में प्रभावित होनें वालों को बचा सकें और आपदाओं के प्रभाव को कम कर सकें। वरना साल दर साल हम इन आपदाओं के सामनें मूक दर्शक बनें रहेंगें और ये आपदाएं हमारा मजाक उड़ाती रहेगीं।
                                                          


                                               शिशिर कुमार यादव.