ईरान और पाकिस्तान को हिला
जाने वाला भूंकप जिसकी कपकपी से हम सब भी कांप उठे, उसकी धमक अभी थमी ही नहीं थी,
आपदा प्रंबधन पर, नियंत्रक एंव महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट से देश एक बार
फिर सहमा हुआ हैं। कैग ने आपदा प्रंबधन को लेकर सरकार की तैयारियों की धज्जियाँ
उड़ाते हुए दावा किया, कि देश का प्रंबधन तो दूर की कौड़ी हैं, प्रधानमंत्री आवास
के लिए किए गए उपाय भी आपात कालीन स्थितियों में पर्याप्त नहीं होने वाले हैं।
जबकि देश में प्रंबधन देखने वाली संस्था राष्ट्रीय आपदा प्रंबधन प्राधिकरण (नेशनल
डिजास्टर मैनेजमेंट अथारिटी) के अध्यक्ष स्वंम प्रधानमंत्री होते हैं।
प्राकृतिक आपदाएं इस देश का
सच हैं, जो समय समय पर इस देश को झकझोरती हैं और बतलाती हैं कि इस देश में
मानव और प्रकृति के बीच के अन्तर्संबंधो में कमी आई हैं। बदलती आर्थिक
प्राथमिकताओं नें इस दूरी को गढ्ढें से खाई मे परिवर्तित कर दिया हैं। अत: इससें
पनपे नुकसान का भुगतान हम केवल आर्थिक कमजोरी से नही चुका रहें हैं, बल्कि सामाजिक और राजनैतिक रूप से भी भुगत रहें है। जिसकी भयावहता का
अनुमान हम बड़ी आसानी से किसी भी आपदा ग्रस्त इलाके पर एक नजर ड़ालनें से समझ सकते
हैं।
आपदाओं की परिभाषा पर ध्यान
दें तो हम पाते हैं कि “ आपदाए वे
होती हैं जो बड़ें पैमाने पर होने वाली एकाएक प्राकृतिक गतिविधियां है, जिसका प्रभाव मानव जाति पर नकारात्मक पड़ता हैं। बाढ, भूकंप, सूखा, चक्रवाती तूफान और वे सभी हादसें जिनसे मानव प्रभावित होता हैं आपदाए
कहलाती हैं जिनमें प्रकृति और मानव के कारण उत्पन्न आपदाएं सम्मलित हैं। प्रतिवर्ष
भारत अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह सें इन आपदाओं का बड़ा शिकार बनता हैं, जिसमें प्रतिवर्ष बडे पैमाने पर जन और धन की हानि होती हैं।
आपदाओं का आंकलन करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय
डाटाबेस संस्था “सेंटर फार द रिसर्च आन इपिडिमियोलाजी आफ डिजास्टर का आकलन हैं कि भारत 2000 से 2009
के मध्य 24 अरब अमरीकी डालर का नुकसान उठा चुका हैं, जिसमें
सबसे ज्यादा नुकसान 17 अरब अमरीकी डालर बाढ की वजह से हैं और 4.5 अरब अमरीकी डालर
भूकंप की वजह से 1.5 अरब अमरीकी डालर सूखे की वजह से और बाकी नुकसान अन्य प्रकार
की विपदाओं की वजह से उपजा हैं। वर्ड बैंक के आंकलन को सही मानें तो भारत जीडीपी
का 2 % और राजस्व का 12 % नुकसान
सिर्फ और सिर्फ इन आपदाओं की वजह से उठाता हैं। देश के विभिन्न आकडों पर नजर डालें
तो स्थिति स्पष्ट हो जाती हैं कि देश में हर प्रकार से आपदा के सामने सिर्फ और
सिर्फ झुकाते चला आ रहा हैं।
1993 से 2012 तक भारत में विभिन्न आपदाओं की स्थिति और उनसे होने वाले नुकसान
का विवरण
Disaster
|
कुल घटनाओं
की संख्या
|
मृत
संख्या
|
कुल प्रभावित
जनसंख्या
|
कुल हानि
(000 US$)
|
सूखा
|
5
|
20
|
351175000
|
204112
|
भूकंप
(सुनामी सहित)
|
9
|
47679
|
8373265
|
4434750
|
महामारी
( जीवाणु, परजीवी + वायरल)
|
36
|
3103
|
334617
|
-
|
तापमान (ठंड, गर्मी
और चरम शीतकालीन)
|
24
|
8856
|
-
|
-
|
बाढ़
( फ्लैश, / तटीय बाढ़, स्थानीय
|
136
|
25592
|
517412587
|
27834379
|
हिमस्खलन/ लैंड स्लाइड)
|
25
|
1811
|
1333804
|
54500
|
तूफान
|
45
|
17535
|
34660320
|
548116
|
Source: (EM- DAT: the OFDA/ CRED international Disaster Database-Université
Catholique de Louvain, Brussels (Belgium))
स्त्रौत: (अन्तर्राष्ट्रीय डाटाबेस संस्था “सेंटर फार द रिसर्च आन
इपिडिमियोलाजी आफ डिजास्टर)
यह केवल 20 सालों के आकड़े हैं,
जबकि इतिहास और अधिक पुराना और भयानक रहा हैं। ये आकड़े भला ही बहुत बड़े और आम जन
की समझ से परे हो, पर इन आपदाओं की वजह से होनें वाले नुकसान की एक छोटी सी
समझ सभी के मन में बडी आसानी से उभर
सकती है कि, इन आपदाओं में बहुत कुछ बर्बाद हो जाता हैं। कोसी की बाढ, भुज का भूकप, विदर्भ का सूखा आदि तो कुछ एक बडें उदाहरण हैं और
तमाम ऐसी प्राकृतिक स्थितियां जिन्हें हर साल बदलते मौसम के साथ देश के विभिन्न
भागों में झेलना पड़ता हैं। ये स्थितियां भारत को आपदा प्रधान देश बना देती हैं और
कुल समस्याएं मिलकर देश के लिए लगातार एक बडे नुकसान का कारण बनती हैं और इन सबके
सामने असहाय जनता सिर्फ और सिर्फ मूकदर्शक बनी रहती हैं।
ऐसा नहीं हैं कि भारत के
पास इन आपदाओं से निपटनें का कोई तंत्र नहीं हैं, पर
समस्याओं से निपटते हुए उनकी क्षमता और कार्ययोजना पर बडी ही आसानी से सवाल उठाएं
जा सकते हैं। भारत में आपदाओं से निपटने के लिए त्रिस्तरीय केन्द्र, राज्य और जिला स्तर पर आपदा प्रबंधन विभाग हैं जो इन आपदाओं पर ना
केवल नजर रखते हैं, साथ ही साथ सभी स्तर पर
इनसे निपटने के लिए कार्ययोजना का निर्माण भी करते है, लेकिन ऐसा क्या है कि जिसकी वजह से हम साल दर साल इस नुकसान का शिकार
बनते जा रहे हैं।
भारत में आपदा के लिए पृथक
ध्यान 1990 में कृषि मंत्रालय के अन्तर्गत डिजास्टर मैनेजमेंट सेल के साथ स्थापित
किया गया। लेकिन लातूर का भूकंप (1993), मालपा का भूस्खलन (1994), उडिसा के सुपर
साइक्लोन (1999), भुज के भूकंप (2001) के बाद देश में पृथक व्यवस्था को महसूस करते
हुए जी. सी पंत की अध्यक्षता में ‘हाई पावर कमेटी’ की रिपोर्ट में एक व्यवस्थित और व्यापक निर्देशों को जारी किया गया।
2002 में आपदा को देश की आंतरिक सुरक्षा का मसला मानते हुए इसे गृहमंत्रालय के
अन्तर्गत लाया गया। आपदा प्रंबधन के इतिहास में भारत में एक कांत्रिक परिवर्तन
2005 में “डिजास्टर मैनेजमैंट एक्ट
2005” के तहत भारत सरकार ने अपनी
कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया। जिसमें आपदा के आने के बाद, इस पर बचाव, नुकसान की भरपाई, फिर निदान और फिर आपदा पूर्व तैयारी की जाती हैं। जो आज भी जारी हैं।
लेकिन इस कार्ययोजना के लागू हो जाने के बाद के
ही आकडें उठा कर देखें, तो हम पाते हैं कि हर साल
आपदा से होनें वाले नुकसान में इजाफा ही हुआ है और हम एक ही प्रकार की समस्याओं से
जूझते नजर आते हैं। ऐसें मे यह तय कर पाना एक कठिन काम हैं कि क्या वाकई यह तंत्र
इन समस्याओं से निपटने में सक्षम हुए हैं ? और इसकी कार्य क्षमता पर मौजूदा कैग का प्रश्नचिन्ह आपदओं को लेकर
देश की तैयारी पर श्वेत पत्र जारी कर दिया हैं और सरकारी दावों को आइना दिखलाया
हैं।
कहानी वहीं हैं जिसमें
तत्रं का रोना रो कर, हम बडी आसानी से अपनी
समस्याओ को बडा आंक देते हैं। ऐसें में, हम कहीं न कहीं इन समस्याओं
से न निपट पाने की विफलता के लिए बहाना ढूढनें की कोशिश करते हैं, ताकि हम अपना बचाव कर सकें। लेकिन इससें हम अपनी जवाबदेही से तो बच
सकते हैं पर समस्याओं से बिल्कुल नहीं। इस साल को ही देखें तो पाएगें कि, असम की बाढ, और अब मानसून के धोखे के
बाद सूखे का संकट देश के लिए चुनौती बना हुआ हैं। हमारे तंत्र की कमजोरी से भी ये
संकट हम पर कोई भी रहम करनें के मूड में नही हैं। इसलिए जवाबदेही से बच कर हम अपना दामन भला ही छुपा ले लेकिन संकटों
से सामना हमें करना ही पडेगा।
तो आखिर हम करें क्या? जिससें हम इन आपदाओं से
लड़ सके। इसकें दो ही तरीके हैं, पहला या तो हम इन आपदाओं को
रोकें और या फिर इनसे प्रभावित होनें वालें लोगों को इतना मजबूत कर दें कि उन पर
इन आपदाओं का प्रभाव कम से कम दिखलाई पडें। पहला वाला उपाय लगभग नामुमकिन सा हैं
लेकिन अगर हम प्रकृति से अच्छें संबध बना ले तो कुछ कमी लायी जा सकती हैं। इसके
लिए एक लम्बें समय की दरकार हैं, तो ऐसें में तब तक हम इन आपदाओं के सामनें खुद को बलि के बकरें के
रूप में तो पेश करते रहेगें। हमें हमेशा ही
अपने दूसरें विकल्प की ओर सोचना होगा, जिसमें लोगो को मजबूत किया
जाए।
तंत्र के पास योजना और पैसा दोनों ही हैं लेकिन
फिर भी हम हर मोर्चों पर असफल हो रहें है, इसका सीधा और सरल मतलब हैं
कि योजनाओं को संचालित करनें वाले और योजनाओं को लेनें वालें दोनों लोगो के बीच
बडें स्तर पर खामियाँ हैं। ऐसें में सिर्फ तंत्र की ओर उंगली उठा कर हम दूसरें
पक्ष की लापरवाही को अनदेखा भी नहीं कर सकते हैं, और ये भी
किसी से छुपा नहीं हैं कि इस लापरवाहीं को बढावा देने वालें कौन हैं। ऐसें में जब प्राकृतिक आपदा
के परिणाम और प्रभाव सामाजिक हो चले हो तो सिर्फ प्राकृतिक आपदा मान कर हम कब तक
अपनी कार्य योजना को संचालित करते रहेंगें।
ऐसें में हमें इन आपदाओं के
उपरान्त होने वाले प्रभावों से लड़नें के लिए सामाजिक रूपरेखा तैयार कर फिर लड़नें
पर बल देनें की जरूरत हैं ना कि सिर्फ प्राकृतिक कारणों से निपटनें पर अपनी सारी
ऊर्जा खत्म करनें की। समय की मांग यह है कि हम अपनी योजनाओ का निर्धारण बराबरी के
आधार पर करने की बजाय जरूरत के आधार पर करें। ताकि हम सच में प्रभावित होनें वालों
को बचा सकें और आपदाओं के प्रभाव को कम कर सकें। वरना साल दर साल हम इन आपदाओं के
सामनें मूक दर्शक बनें रहेंगें और ये आपदाएं हमारा मजाक उड़ाती रहेगीं।
(यह लेख राष्ट्रीय सहारा में 27 अप्रैल 2013 को प्रकाशित हुआ हैं)
शिशिर कुमार यादव.
लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ( जेएनयू) में
आपदा विषय में शोधार्थी
हैं।