शनिवार, 23 मार्च 2013

सोलह की उम्र की सहमति के मायने


देश की संसद महिलाओं के साथ बलात्कार पर सशक्त कानून की जरूरत को लेकर एंटी रेप बिल पर बहस करने वाली है। संसद मे जाने से पहले ही इस बिल पर कैबिनेट मंत्रियों की बैठक में इसे अंतिम रूप दे दिया गया हैं। इस बैठक में एक निर्णय के तहत किशोरों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबधों की उम्र को 16 वर्ष निर्धारित करने का प्रस्ताव किया गया हैं यानी अगर कोई 16 साल की लड़की अपनी सहमति के साथ किसी किशोर के साथ यौन संबध बनाती हैं तो उसे बलात्कार नहीं माना जाएगां। इस सहमति के बाद देश भर एक बड़ी बहस यौन संबधों की उम्र को लेकर एक जोरदार बहस छिडी हुई हैं। कि क्या 16 वर्ष के बच्चों को यौन संबध बनाने का यह कानूनी प्रस्ताव भारतीय परिदृश्य में सहीं होगा। पक्ष और विपक्ष दोनो अपनी अपनी बातो से इस प्रस्ताव की आलोचना और समर्थन कर रहे हैं।
पक्ष में दिया गया सबसे बड़ा तर्क यह हैं कि किशोरों का एक दूसरे के प्रति आकर्षण स्वाभाविक और प्राक़तिक हैं, ऐसें में सहमति के साथ बने किसी संबध में लड़के को बलात्कार जैसें गम्भीर आरोप में जेल भेजना न्याय संगत और उसके भविष्य के लिए हितकर नहीं होगा। विरोध में दिया जानें वाला तर्क सहमति को तय करने का मापक और उसके पीछे छुपे अवाछनीय तत्वों से सहमति के भाव का आकलन कैसे किया जा सकता हैं? इस विचार के विरोधी इस नियम को बाल अपराधों और ट्रैफिंकिंग इन्डस्ट्री के वरदान सरीखा आँक रहें हैं। जिसका नुकसान बाल और बचपन बचाओं आंदोलनों को उठाना पडेगा।
दोनो ही तर्को को सिरे से खारिज करना ना ही आसान हैं और ना ही सही भी। पहले तर्क की बात करें तो हाल में गाजियाबाद कोर्ट के मामले को ध्यान में रख कर बात की जाए लड़की के बयान के बाद भी कोर्ट लड़के को अपराधी घोषित करती हैं, क्योंकि न्यायाधीश कानून के तहत उसे निर्दोष नहीं मान सकते थें। हाल में हुए कुछ और निर्णयों में कोर्ट को नियमों के अभाव में सहमति के होते हुए भी किशोर युवक को अपराधी मानने पर मजबूर होना पड़ा। ऐसे में सहमति के साथ बने संबधों में इतनी बडी सजा की नैतिकता पर सवाल उठाया जा रहा हैं। कि आकर्षण प्राकृतिक हैं और ये सहमति का विषय हैं तो ऐसें में इसे अपराध मानना कहाँ तक उचित होगा। ( ध्यान रहें असहमति के साथ किया गया प्रयास बलात्कार की श्रेणीं में ही आएगा)
दूसरी तरफ के तर्क के अनुसार, बहुत सारी लड़कियां भय, लालच और मजबूरी के कारण हर साल बड़ी मात्रा में यौन शोषण का शिकार होती हैं। इनकी संख्या आकड़ो से बहुत अधिक हैं, बहुत सारे मामले खुलकर सामने आते ही नहीं हैं। नेशनल क्राइम रिपोर्ट के आकड़े और चौकाने वाले हैं, इन आकड़ो के हिसाब से 2011 में किशोरो पर दर्ज 30,766  में से 20000 केस जिन्हें भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड) के तहत दर्ज किये गए किशोरो की उम्र 16 से 20 वर्ष की थी। बाकी बचे केस में उम् 7 से 12 ते बीच थी। इसमें भी चौकाने वाली खबर ये थी कि 1231 रेप केस दर्ज हुए थें। बढते अपराधों में 2012 के आकड़े इससे और भी भयावह होगें इसका अनुमान लगाना आसान ही हैं। ऐसें में 16 साल की उम्र में सहमति से बने यौन संबधो को कानूनी तौर पर मान्यता देने के बाद यौन अपराधों में इजाफा होना स्वाभाविक हैं जिसे सहमति का जामा पहना कर न्यायोचित ठहराया जायेगा। सहमति साबित करवाने के लिए अपराधी या उसके परिवार का किसी भी हद तक जाने की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता हैं। ऐसे में इस तरह का प्रस्ताव एक गंभीर समस्या पैदा कर देगा, जिसकी वजह से दैनिक मजदूरी कर के और घरो में काम करने वाली किशोरियों को बहला फुसला कर उनका शोषण करने की प्रवृत्ति को बढावा मिलेगा। आज भी ऐसे शोषण हर कार्य क्षेत्र में बड़ी मात्रा में होते हैं, उनमें से अधिकतर मामले सामने आते ही नहीं हैं और जो आते हैं उनका इस नियम के आने के बाद इन बचे कुचे अपराधों को सहमति का जामा पहना कर इनसे आसाना से बचा जा सकता हैं।
ये आकड़े उतने ही अपराधों के हैं जिन्हें दर्ज किया गया हैं जबकि वास्तविकता के आकड़े और भयानक हैं। हर दिन किसी ना किसी रूप में किसी 18 साल की कम लडकी जो घरों से लेकर सड़क तक बहला फुसला कर या डर और लालच के चलते यौन शोषण का शिकार होती हैं। ऐसी स्थितियों में सहमति का विषय कितना सहीं प्रासंगिक रह जाता हैं यह एक बडा सवाल हैं। ट्रैफिकिंग रेहैबिलिटेशन विषय पर शोध कर रही आईआईटी खड़कपुर की छात्रा सोनल पाण्डेय का कहना हैं कि अधिकतर ट्रैफिक्ट हो चुकी लड़कियाँ स्टॉकहोम सिन्ड्रोम से पीडित हो जाती हैं, जिसमें वो अपने ही खिलाफ काम करती हैं, जिसके तहत वे उस दलाल को ही बेहतर मानने लगती हैं जो उन्हें इन जगहों पर ला कर बेच देते हैं या फिर उनका शोषण करवाते हैं, और ये दलाल भी इनका यौन शोषण करते हैं। ऐसें में छुड़ाई गई लड़कियाँ घर नहीं जाना चाहती, क्योंकि समाज में लौटने पर इन्हें मानिसक प्रताडना के साथ साथ इस तरह से यौन शोषित होने की संभावन और बढ जाती है। इसी लिए अधिकतर मामलों में एक बार घर से भगाई गई लड़की इन दलालों के लिए सबसे आसान शिकार होती हैं। इस प्रकार जब ये सब पहले से ही इन्हें इतनी प्रताडित होती हैं, तो कि जब पुलिस उन्हे बचाती है तो वो किसी के साथ जाने के बजाय अपने दलालो का ही साथ देती हैं। ऐसे में इस कानून के आने के बाद इस तरह की समस्याओं से निपटने की रूपरेखा क्या होगी यह एक बडा सवाल होगा।
तो क्या ऐसे में कम उम्र में लड़कियों के साथ हो रहे अपराधो का बाजार (वेश्यावृत्ति, अवैध मजदूरी), इस कानून के आने के बाद इसे अपने हित में नहीं भुनाएगां। ऐसें में सहमति पर विषय कितना छोटा हो जाता हैं । सहमति को साबित करने वाले बल किसी से छुपे नहीं है। सहमति और असहमति की लक्ष्मण रेखा क्या होगी और यह लक्ष्मण रेखा तय कैसे होगी ये बडे सवाल हैं। भारत जैसे देश में जहाँ नैतिकता और संस्कृति के मापक महिलाओं की हत्या से नहीं चूकता हैं ऐसे में इस तरह का कानून धर्म और संस्कृति के ठेकेदारों के लिए अपने असंवैधानिक और अलोकतात्रिक नियमों को वैध करने का ठोस आधार देता दिखाई पडेगा। जिससे वो महिला के अधिकारों को और बुरी तरह से नियत्रित करने की कोशिश करेगें। हम इनसे पूरी तरह निपट पाने में कितना सक्षम हैं इस सीमा से भी हम परिचित हैं। भारत जैसे देश में जहाँ महिलाओं को लेकर अपराध और शोषण का एक लम्बा इतिहास हैं वहाँ इस तरह के प्रयोग करते समय एक गहन चिन्तन की जरूरत हैं। स्पष्ट है कि इस हवन में हाथ बहुत सम्हालने की जरूरत हैं वरना हाथ जलना तय है।  महिला अधिकारो को लेकर एक लम्बे सघर्ष के बाद, हमने जो मुकाम हासिल किया हैं, उसे कच्ची उम्र मे सेक्स की छूट का फर्जी प्रचार कर के छीना भी जा सकता हैं। इसलिए विषय की गंभीरता और प्रकृति इस विषय पर गहन अध्ययन की ओर बल दे रहे हैं, जल्दबाजी में उठाया गया कदम महिला अधिकारो के लिए आत्मघाती भी हो सकता हैं।
शिशिर कुमार यादव 

गुरुवार, 7 मार्च 2013

स्त्री विरोधी नहीं हो सकते सभ्य समाज


पिछले कई दिनों से देश भर में,समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने रूप पर एक चर्चा और विमर्श का माहौल हैं. अफ़सोस यह कि यह माहौल किसी आत्मचेतना के चलते नहीं बल्कि एक निर्मम बलात्कार और हत्या से उभरे जनाक्रोश के चलते बना है. इस घटना के लगभग दो महीने के बाद भी न समाज शर्मिन्दगी से उबार पाया है न उसी समाज के एक हिस्से के लोग दरिंदगी से और हमारा हासिल वह समाज है जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकती क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वह इस तरह सें जिएं.
पिछले कई दिनों से देश भर में,समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने रूप पर एक चर्चा और विमर्श का माहौल हैं. अफ़सोस यह कि यह माहौल किसी आत्मचेतना के चलते नहीं बल्कि एक निर्मम बलात्कार और हत्या से उभरे जनाक्रोश के चलते बना है. इस घटना के लगभग दो महीने के बाद भी न समाज शर्मिन्दगी से उबार पाया है न उसी समाज के एक हिस्से के लोग दरिंदगी से और हमारा हासिल वह समाज है जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकती क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वह इस तरह सें जिएं.

इस खबर के बाद गलतियों और खामियों के सामाजिक और राजनैतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं, जिनकी अपनी ही प्रकृति और सीमा होगी. लेकिन फिर भी यह हत्या, जो न केवल निर्मम बल्कि बडे सधे तरीके से भी की हैं उस ओर सोचना जरूरी हैं कि क्या सच में हम एक सभ्य समाज में जी रहे हैं? क्या सच में हम ऐसा ही समाज चाहते हैं? इस मौत को क्या कहा जाए? हादसा, अपराध, दुर्घटना या कोई और शब्द. शायद किसी भी शब्द में इतनी ताकत हो जो  इसे पूरी तरह से विश्लेषित कर सकें. वस्तुतः देखें तो इस हादसे के सन्दर्भ में भाषा की सीमा भी साफ दिखती हैं क्योंकि सिर्फ हादसा कहने से ऐसे अपराधों की गंभीरता और वीभत्सता का मौलिक चरित्र ही खत्म हो जाता हैं.

अफ़सोस यह भी है कि ऐसे निर्मम अपराधों के बाद तमाम लोग ऐसे अपराधियों के लिए मौत की सजा माँगने लगते हैं जैसे मृत्युदंड से इस समस्या का समाधान हो जाएगा. पर मृत्युदंड ने दुनिया के किसी भी हिस्से में अपराध रोके हों इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता. एक दूसरे स्तर पर भी देखें तो समझ आता है कि अगर मौत की सजा इन दुष्कृत्यो को रोक सकती तो एक अपराधी को ऐसी सजा मिलने के बाद अपराधी और समाज दोनो ही इसकी पुनरावृत्ति नहीं करते. इन हादसों की पुनरावृत्ति हमें यह बतलाती हैं कि अब भी हम ना तो इनकी गंभीरता समझ पाए हैं और ना ही वीभत्सता. हाँ मौत की सजा देने से यह जरूर होगा कि बलात्कारी सबूत न छोड़ने के प्रयास में पीड़ित की हत्या करने पर उतर आयें.

जो भी हो पर इस हादसे ने हमें एक बार खुद की ओर सोचने के लिए झकझोरा हैं कि हम कैसे सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें में जी रहे हैं? हम एक ऐसे समाज रह रहे हैं जिसमे  आधी दुनिया की भागीदार स्त्री के मूलभूत अधिकारों को  हम सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से कुचलता जाता रहा है.  हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जिसमे महिलाओं के प्रति इस बर्बरता को जिंदा रखनें के लिए चरणबद्ध तरीको से जाल बुने जाते हैं और उनके खिलाफ होने वाले अपराधों की फेहरिश्त उनके परिवारों से ही शुरू हो जाती है. भ्रूण हत्या, परिवार के अन्दर यौन हिंसा, दहेज़, दहेज़ हत्या, ध्यान से देखें तो यह सब स्त्रियों के विरुद्ध उनके द्वारा किये जाने वाले अपराध हैं जो अन्यथा उनके बचाव के लिए जिम्मेदार हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि हम जिस देश में रह रहें हैं उसमें इन अपराधों को सामाजिक और राजनैतिक मान्यता की अदृश्य शक्ति मिली हुई हैं. हम और आप इन्हे पहचानते और जानते भी हैं औऱ कई बार इनके हिस्से भी होते हैं पर बदलते नहीं हैं. हमें इनसे दिक्कत सिर्फ तब होती है जब यह हमारे अपनों के साथ हों. हाँ, ऐसे अपराधों के बाद आने वाली प्रतिक्रियायों पर नजर डालने से इन अपराधों को मौन स्वीकृति दिलाने वाले चेहरे भी साफ़ नजर आने लगते हैं. दिल्ली के इस मामले के बाद समाज और सार्वजनिक मंचो से बयान उसकी बानगी हैं। और इसी लिए यह पूछना जरूरी बनता है कि ऑनरकिलिंग को भावनात्मक और सामाजिकता से जुड़ा मुद्दा माननें वाले औऱ चुपचाप भ्रूण हत्या को बढावा देने वाले समाज से, इस हत्या पर ईमानदारी भरी प्रतिक्रिया औऱ बदलाव की उम्मीद करना कहां तक समझदारी भरा कदम होगा.

अफ़सोस यह भी है कि समाज संस्कृति के उद्घोषक जो इस देश को " कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी से" विविधता भरी संस्कृति का वर्णन कर अपना सीना चौड़ा करते हैं  वे भी यह भूल जाते हैं कि महिलाओं को लेकर लगभग पूरा देश एक ही तरह का व्यवहार करता है. क्या उत्तर क्या दक्षिण, क्या राजस्थान क्या बंगाल, क्या शिक्षित क्या अशिक्षित, महिलाओं के प्रति अपराध और उनके अधिकारों के प्रति रवैया लगभग एक सरीखा और एक समान हैं. देश का कोई कोना दंभ से इसका दावा नही कर सकता हैं कि वह इन स्थितियों और परिस्थितियों से खुद को इतर रखे हुए हैं.  स्पष्ट हैं कि महिलाओं के प्रति नजरिये को लेकर आजतक हमारा समाज जहां था वहीं हैं और अगर कुछ बदलाव के चिन्ह दिखाई भी पडे हैं तो उन्हे कुचलनें के लिए समाज ने अपराधियों को हमेशा बढ़ावा दिया हैं. जिससे उनकी नैतिकता और सभ्यता की खोखली पाठशाला का पाठ महिलाएं आसानी से समझ लें. आज भी समाज, नारी देह और उसकी स्वतंत्रता को अपने पैमानो से देखता हैं और आगे भी उसे नियंत्रित करने का प्रयास जारी हैं. इन कोशिशों में अपराधी और अपराध को मौन सहमति देकर आगे भी नियंत्रित करना चाहता हैं. इसीलिए सामाजिक व्यवस्था का कोई भी परिवर्तन, आज भी अलोकतांत्रिक तरीके से ही कुचला जाता हैं. राजनैतिक और सामाजिक संस्थाए इनको न केवल बढ़ावा देती हैं वरन कई बार अगुवाई भी करती नजर आती हैं.

निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं. भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी  महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वह व्यवस्था जिसमें उनके प्रति किए गए अपराध जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रहे है. इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं. आज भी हम ऐसे ही समाज को पाल पोस रहे हैं जो महिलाओं के अधिकारों के प्रति पूर्णतया असंवेदनशील हैं. इस कदर की असंवेदनशीलता और अपराध को बढावा देना किसी भी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं होता हैं. ऐसे में हमारा दावा कितना खोखला हैं कि हम एक सभ्य समाज में हैं और हमारे द्वारा एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा रहा हैं.

About the Author: Mr. Shishir Kumar Yadav is a research scholar based in Jawaharlal Nehru University, New Delhi. He could be contacted at shishiryadav16@gmail.co
यह लेख Asian Human Right  से भी प्रकाशित हो चुका हैं ... 
लिंक ..http://www.humanrights.asia/opinions/columns/AHRC-ETC-014-2013





रविवार, 3 मार्च 2013

प्राकृतिक आपदाओं से बचाव सामाजिक न्याय में हैं ।

आपदा एक सामाजिक समस्या हैं ...


प्राकृतिक आपदाएं इस देश का सच हैं, जो समय समय पर इस देश को झकझोरती हैं और बतलाती हैं कि इस देश में मानव और प्रकृति के बीच के अन्तर्संबंधो में कमी आई हैं। बदलती आर्थिक प्राथमिकताओं नें इस दूरी को गढ्ढें से खाई मे परिवर्तित कर दिया हैं। अत: इससें पनपे नुकसान का भुगतान हम केवल आर्थिक कमजोरी से नही चुका रहें हैं, बल्कि सामाजिक और राजनैतिक रूप से भी भुगत रहें है। जिसकी भयावहता का अनुमान हम बड़ी आसानी से किसी भी आपदा ग्रस्त इलाके पर एक नजर ड़ालनें से समझ सकते हैं।

   आपदाओं की परिभाषा पर ध्यान दें तो हम पाते हैं कि आपदाए वे होती हैं जो बड़ें पैमाने पर होने वाली एकाएक प्राकृतिक गतिविधियां है, जिसका प्रभाव मानव जाति पर नकारात्मक पड़ता हैं। बाढ, भूकंप, सूखा, चक्रवाती तूफान और वे सभी हादसें जिनसे मानव प्रभावित होता हैं आपदाए कहलाती हैं जिनमें प्रकृति और मानव के कारण उत्पन्न आपदाएं सम्मलित हैं। प्रतिवर्ष भारत अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह सें इन आपदाओं का बड़ा शिकार बनता हैं, जिसमें प्रतिवर्ष बडे पैमाने पर जन और धन की हानि होती हैं। आपदाओं का आंकलन करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय डाटाबेस संस्था सेंटर फार द रिसर्च आन इपिडिमियोलाजी आफ डिजास्टर का आकलन  हैं कि भारत 2000 से 2009 के मध्य 24 अरब अमरीकी डालर का नुकसान उठा चुका हैं, जिसमें सबसे ज्यादा नुकसान 17 अरब अमरीकी डालर बाढ की वजह से हैं और 4.5 अरब अमरीकी डालर भूकंप की वजह से 1.5 अरब अमरीकी डालर सूखे की वजह से और बाकी नुकसान अन्य प्रकार की विपदाओं की वजह से उपजा हैं। वर्ड बैंक के आंकलन को सही मानें तो भारत जीडीपी का 2 % और राजस्व का 12 % नुकसान सिर्फ और सिर्फ इन आपदाओं की वजह से उठाता हैं।

ये आकड़े भला ही बहुत बडे हो और आम जन की समझ से परे हो, पर इन आपदाओं की वजह से होनें वाले नुकसान की एक छोटी सी समझ सभी के मन में बडी आसानी से उभर सकती है। इन आपदाओं में बहुत कुछ बर्बाद हो जाता हैं। कोसी की बाढ, भुज का भूकप, विदर्भ का सूखा आदि तो कुछ एक बडें उदाहरण हैं लेकिन हर साल आनें वाली समस्याएं मिलकर देश के लिए लगातार एक बडे नुकसान का कारण बनती हैं और इन सबके सामने असहाय जनता सिर्फ और सिर्फ मूकदर्शक बनी रहती हैं।

ऐसा नहीं हैं कि भारत के पास इन आपदाओं से निपटनें का कोई तंत्र नहीं हैं, पर समस्याओं से निपटते हुए उनकी क्षमता और कार्ययोजना पर बडी ही आसानी से सवाल उठाएं जा सकते हैं। भारत में आपदाओं से निपटने के लिए त्रिस्तरीय केन्द्र, राज्य और जिला स्तर पर आपदा प्रबंधन विभाग हैं जो इन आपदाओं पर ना केवल नजर रखते हैं, साथ ही साथ सभी स्तर पर इनसे निपटने के लिए कार्ययोजना का निर्माण भी करते है, लेकिन ऐसा क्या है कि जिसकी वजह से हम साल दर साल इस नुकसान का शिकार बनते जा रहे हैं।

भारत सरकार नें 2005 में डिजास्टर मैनेजमैंट एक्ट 2005 के तहत अपनी कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया जिसमें आपदा के आने के बाद, इसपर बचाव, नुकसान की भरपाई, फिर निदान और फिर आपदा पूर्व तैयारी की जाती हैं। लेकिन इस कार्ययोजना के लागू हो जाने के बाद के ही आकडें उठा कर देखें, तो हम पाते हैं कि हर साल आपदा से होनें वाले नुकसान में इजाफा ही हुआ है और हम एक ही प्रकार की समस्याओं से जूझते नजर आते हैं। ऐसें मे यह तय कर पाना एक कठिन काम हैं कि क्या वाकई यह तंत्र इन समस्याओं से निपटने में सक्षम हुए हैं ?

कहानी वहीं हैं जिसमें तत्रं का रोना रो कर, हम बडी आसानी से अपनी समस्याओ को बड़ा आंक देते हैं। ऐसें में, हम कहीं न कहीं इन समस्याओं से न निपट पाने की विफलता के लिए बहाना ढूढनें की कोशिश करते हैं, ताकि हम अपना बचाव कर सकें। लेकिन इससें हम अपनी जवाबदेही से तो बच सकते हैं पर समस्याओं से बिल्कुल नहीं। इस साल को ही देखें तो पाएगें कि, असम की बाढ, और अब मानसून के धोखे के बाद सूखे का संकट देश के लिए चुनौती बना हुआ हैं। हमारे तंत्र की कमजोरी से भी ये संकट हम पर कोई भी रहम करनें के मूड में नही हैं।  इसलिए जवाबदेही से बच कर हम अपना दामन भला ही छुपा ले लेकिन संकटों से सामना हमें करना ही पडेगा।

 तो आखिर हम करें क्या जिससें हम इन आपदाओं से लड़ सके। इसकें दो ही तरीके हैं, पहला या तो हम इन आपदाओं को रोकें और या फिर इनसे प्रभावित होनें वालें लोगों को इतना मजबूत कर दें कि उन पर इन आपदाओं का प्रभाव कम से कम दिखलाई पडें। पहला वाला उपाय लगभग नामुमकिन सा हैं लेकिन अगर हम प्रकृति से अच्छें संबध बना ले तो कुछ कमी लायी जा सकती हैं। इसके लिए एक लम्बें समय की दरकार हैं तो ऐसें में तब तक हम इन आपदाओं के सामनें खुद को बलि के बकरें के रूप में तो पेश करते नहीं रहेगें। हमें हमेशा ही अपने दूसरें विकल्प की ओर सोचना होगा, जिसमें लोगो को मजबूत किया जाए। जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं कि तंत्र के पास योजना और पैसा दोनों ही हैं लेकिन फिर भी हम हर मोर्चों पर असफल हो रहें है, इसका सीधा और सरल मतलब हैं कि योजनाओं को संचालित करनें वाले और योजनाओं को लेनें वालें दोनों लोगो के बीच बडें स्तर पर खामियाँ हैं। ऐसें में सिर्फ तंत्र की ओर उंगली उठा कर हम दूसरें पक्ष की लापरवाही को अनदेखा भी नहीं कर सकते हैं, और ये भी किसी से छुपा नहीं हैं कि इस लापरवाहीं को बढावा देने वालें कौन हैं।ऐसें में जब प्राकृतिक आपदा के परिणाम और प्रभाव सामाजिक हो चले हो तो सिर्फ प्राकृतिक आपदा मान कर हम कब तक अपनी कार्य योजना को संचालित करते रहेंगें।

ऐसें में हमें इन आपदाओं के उपरान्त होने वाले प्रभावों से लड़नें के लिए सामाजिक रूपरेखा तैयार कर फिर लड़नें पर बल देनें की जरूरत हैं ना कि सिर्फ प्राकृतिक कारणों से निपटनें पर अपनी सारी ऊर्जा खत्म करनें की। समय की मांग यह है कि हम अपनी योजनाओ का निर्धारण बराबरी के आधार पर करने की बजाय जरूरत के आधार पर करें। ताकि हम सच में प्रभावित होनें वालों को बचा सकें और आपदाओं के प्रभाव को कम कर सकें। वरना साल दर साल हम इन आपदाओं के सामनें मूक दर्शक बनें रहेंगें और ये आपदाएं हमारा मजाक उड़ाती रहेगीं।
                                                          


                                               शिशिर कुमार यादव.

शनिवार, 2 मार्च 2013

काट्जू का मोदी प्रेम: संभावनाएं और प्रतिफल


काट्जू साहब गुस्से फिर गुस्सें में हैं, और इस बार वजह बने, विकास और प्रगति के वैश्विक नेता नरेन्द्र मोदी। जी हां आप सही समझें वहीं नेता जो आजकल राहुल गांधी से युवाओं के नेता का पद छीनने पर लगे हुए हैं, और फेसबुक और ट्विटर पर रहने वाली युवाओं का ऐसा ही सहयोग मिला ना तो जल्दी ही देश को 62 साल का युवा नेता मिल जाएगां (अब देश के प्रधानमंत्री 80 के तो युवा नेता 62 का ही होगा ना)।लेकिन फिर भी काटजू साहब नाराज हैं लिख बैठे एक लेख द हिन्दू सरीखे अखबार में गोधरा से जुडे सरोकारो पर, और भूल गए शानदार स्वागत और तालियों को जो दिल्ली यूनीवर्सिटी में मिली थी, सारी यूनीवर्सिटी नमो नमो कर रही थीं।

खैर मैं समझ सकता हूँ आप लोगों की समस्या। बूढे जो हो रहे हो। तो युवाओं और उनकी पंसद से चिढ़ना तो लाजमी हैं। अरे साहब, युवा जो शहरी हैं, जिसने आज तक गांव के फोटो देखे हैं या फिर फन के साथ मक्के दी रोटी और चने दा साग खाया है, उन लोगों को मालन्यूट्रिशन (कुपोषण), वुमेन मौरटेलिटी रेट ( मातृ मृत्यु दर), ह्यूमन इंडेक्स जैसे, उलूल जूलूल वाले आंकड़े दे कर पथ भ्रमित करने की साजिश करते हैं, शर्म तो आती नही। खैर लज्जा शर्म तो महिलाओं का आभूषण है तो आप क्यूं पहनो, इस लिए बात भी की, तो दलितो, पिछड़ो और आदिवासियों की। उनकी शिक्षा और रोजगार की समस्या पर लिखने लगें। अरे भाई यह समस्या भी कोई समस्या है देश के लिए, हजारो सालों से चली आ रही हैं और आप चाहते हैं कि इतनी जल्दी सुलझा दी जाएं।अरे, जिनके क्षेत्र का लोकतांत्रिक पर्व चुनाव सुर्खिया तक बटोर नहीं पाता  त्रिपुरा में चुनाव बीते 14 फरवरी और 23 फरवरी को मेघालय और नगालैंड में चुनाव थे, वहां की समस्याएं क्या खाक ध्यान आकर्षित करेगीं।

26 लोक सभा सीटों वाले राज्य के नेता देश के प्रधानमंत्री बनने के सच्चे अधिकारी हो जाते हैं, और आप हैं कि उन्हे 2002 में हुए दंगों की याद दिलाते हैं। शायद आप भूल गए हैं आजकल मोदी साहब आधा आस्तीन का कुर्ता ही पहन रहे हैं या फुल इस पर भी मीडिया सिर्फ फुल कवरेज दे रहा हैं और आप उस कुर्ते की ओर इशारा कर रहें है जिस पर मासूमों के खून के छीटे पड़े हुए हैं। मोदी का 3डी कैंपेन देखिए, ऊ कुर्ता के चक्कर में काहे को पड़े हैं मालिक। जल्द ही आप ने अपने सुर नहीं बदले ना तो देश भक्ति के रस से सराबोर युवा, जिनके मोदी ही सारथी है, आप के खिलाफ इतना बड़ा आदोलन खड़ा कर देगे, जिसका पता तो उन्हें भी नहीं चलेगा कि वो समर्थन या विरोध किस चीज का कर रहे हैं। आप के जेहन में मैं अन्ना हूँ वाला आंदोलन (जो बाद में केजरीवाल होते हुए खत्म हो गया) नही हैं क्या ? भूलिए मत उनके इस सारथी पर जरा सी आंच आई तो वो क्या नहीं कर गुजरेगें। अन्ना का विरोध करना भष्ट्राचारी बना रहा था, तो मोदी का विरोध आप को राष्ट्रद्रोही तो बना ही सकता हैं। इस द्रोह का बदला लेने के लिए हमारे देश में वध करने की परम्परा रही हैं.. हां सही समझे गांधी जी इसी वध में दुनिया छोड़ गए थे।
आप एक और चीज भूल जाते हैं इस देश में दंगे, बहुसंख्यकों के लिए गर्व के विषय रहे हैं, और बहुसंख्यक इन्हे सिर्फ अल्पसंख्यकों की उद्दण्डता की प्रतिक्रिया में हुई क्रिया के रूप में सहीं ठहराता रहा हैं। 1984 के दिल्ली दंगें, गोधरा के दंगे, देश के हर कोने में दलितों और आदिवासियों के नरसंहार सिर्फ और सिर्फ अल्पसंख्यको और कमजोरों को चेतावनी देते हैं कि हमारे ढंग से रहो वरना................ ( खाली स्थान को भरने के लिए मेरे पास जगह कम है)। और काट्जू साहब आप जिस संस्थान के सर्वेसर्वाओ में से एक रहे है वो भी आज कल न्याय देते वक्त अजीबोगरीब तर्क दे कर न्याय देते हैं। अयोध्या मसले पर बहुसंख्यकों की भावना का ख्याल रखते हुए दिया गया न्याय, साथ ही साथ हाल में हुई अफजल की फांसी को देश की भावना को संतुष्ट करने के पीछे की मंशा भी, न्याय के प्रतीक (न्याय का मंदिर इस लिए नहीं क्यू कि मंदिर ही क्यू ? मस्जिद, गुरूद्वारा और चर्च क्यू नहीं वाली विचार धारा से प्रेरित) पर आस्था को दरकाने वाली ही रही हैं। कमजोरो, पिछड़ो और वंचितों की आवाज भी अगर इसी तरह इन संस्थानों में भी बहुसंख्यकों के दबाव में दम तोड़ती रहेगी, तो मोदी को आप के इन जवाबो को देने की जरूरत भी नहीं है क्योंकि ये सवाल और सरोकार बहुसंख्यको के नहीं हैं, ये उनके सवाल हैं जिनको आज ही नहीं, वरन ना जाने कितनी सदियों से कुछ खांचों में डालकर कर दीवारों में चुनवा दिया जाता रहा हैं। तो सजग रहिए काट्जू साहब हमें आप की चिंता हैं इलाहाबादी होने के नातें ही सही।

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

हम अब भी बर्बर और असभ्य हैं...


सुबह 3 बजकर 38 मिनट का समय और लैपटाप पर चल रही खबर पर नजर क्या पडी दिल बैठ गया। पिछले कई दिनों से देश भर में, समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने चहरे  पर  एक चर्चा और माहौल हैं। जिसे हम और आप महिला अधिकारों और महिला अस्मिता का प्रतीक मान कर लड़ रहे थे वो अब नहीं रहीं। यानी दिल्ली में हुए बलात्कार के बाद 23 वर्षीय छात्रा की सिंगापुर में मौत हो गई। मेरे शब्द और लेखन शक्ति उस नायिका के प्रति क्या प्रदर्शित करें यह मेरे लिए कठिन बन पड़ा। सच कहूँ  तो मैं उसकी मौत के बाद शर्मिदा हूँ कि मैं उस समाज का हिस्सा हूँ, जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकी क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वो इस तरह सें जिए।

इस खबर के बाद दोष और सामाजिक सामाजिक औऱ राजनैतिक निहतार्थ निकाले जाएगें, जिसकी अपनी अपनी प्रकृति और सीमा होगीं। लेकिन फिर भी इस हत्या, जिसे हम और आप ने बडे सधे तरीके से की हैं उस और सोचना जरूरी हैं कि क्या सच में हम एक सभ्य समाज में हैं? क्या सच में हम ऐसा ही समाज चाहते हैं? इस मौत को क्या कहा जाएहादसा, अपराध, दुर्घटना या कोई और शब्द। शायद किसी भी शब्द में इतनी ताकत हो जो  इसे पूरी तरह विश्लेषित कर सकें । सच में आज लगा कि भाषा मूक है, जिसमें बधते ही इस तरह के हादसे (हादसे लिखने के लिए माफी क्योंकि यह हादसों की परिभाषा से बहुत गंभीर विषय हैं) अपनी गंभीरता और विभत्सता का मौलिक मूल खत्म हो जाता हैं। सच में, जैसे ही हम इस तरह के हादसों को भाषा या शब्द में बाधते हैं तो हम इस हादसे को कम आँक बैठते हैं। इस तरह के हादसों की गंभीरता और विभत्सता शायद ही मानव मस्तिष्क आंक पाएं। अगर आँक पाता तो इस तरह के अपराध तो कत्तई न करता। कुछ लोग मौत को इसका अंतिम छोर मानते हैं और अपराधी को मौत की सजा देकर इसकी विभत्सता की सजा को पूरा करना चाहते हैं। मौत जिसे आज भी रहस्य माना जाता हैं वो भी इस तरह के हादसों के लिए पड़ाव हैं ना कि पूर्ण। यह बात इस बात से और भी सिद्ध होती हैं कि अगर मौत इस तरह के हादसों के लिए पूर्ण होती तो मौत के बाद अपराधी और समाज दोनो ही इसकी पुनरावृत्ति नहीं करते। इन हादसों की पुनरावृत्ति हमें यह बतलाती हैं कि अब भी हम इन हादसों की ना तो गंभीरता समझ पाए हैं और ना ही विभत्सता। कई बार पीडित खुद भी मौत का शिकार हो जाते हैं जैसा कि इस मामले मे हुआ हैं, जहाँ पीडिता जिंदगी से अपनी जंग हार गई । 
जो भी हो पर इस हादसे ने हमें एक बार खुद की ओर सोचने के लिए झकझोरा हैं कि हम किस सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें को ढो और पास पोल रहे हैं। जिसमें हम आधी दुनिया की भागीदारी निभाने वाली स्त्री के मूल भूत अधिकारों को, जिसमें जीने, चलने, चुननें, पहननें, बोलने के अधिकारों को हम सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से चलाते आ रहे हैं और हम खुद को सभ्य होने का दावा करने की होड़ मे लगें हैं। हम आज भी प्रतोकों की भाषा से अपने आप को सभ्य घोषित करने पर तुले हैं लेकिन सच ये हैं कि आज भी हम बर्बर और असभ्य हैं।
समाज ने महिलाओं के प्रति इस बर्बरता को जिंदा रखनें के लिए चरणबद्ध तरीको से जाल  बनाए हैं। जिसमें परिवार फिर समाज और फिर अपराध की श्रृखला हैं। इन्ही जालो में नारी कहीं ना कही फसी रहती हैं और अगर किसी एक से बच भी जाए तो दूसरे में उसे उलझ जाएं। इस प्रकार के जालों से बच कर निकलने के दौरान फसने की बड़ीं कीमत चुकानी पड़ती हैं। जिसकी कल्पना करना सच में हम जैसे असभ्य और बर्बर लोगों के लिए इतनी आसान भी नहीं हैं। जिस पर गुजरती हैं वो इस हालात में पहुच जाता हैं कि वो इसका सहीं आकलन नहीं कर सकता हैं। सामान्यतया या तो वे जिंदगी की जंग हार जाते हैं और अगर बच जाते हैं तो हम और आप उनका बहिष्कार इन्हीं चरण बद्ध जालो के अन्तर्गत कर देते हैं।
   
हम जिस देश में रह रहें हैं उसमें इस अपराध की प्रवृत्ति और चरण को सामाजिक और राजनैतिक मान्यता की अदृश्य शक्ति मिली हुई हैं। हम और आप इन्हे पहचानते और जानते भी हैं औऱ कई बार हिस्से भी होते हैं पर बदलते नहीं हैं। इनकी गर्जना तब और सुनाई पड़ने लगती हैं जब इस तरह के हादसें हम आप के करीब से गुजरते हैं। इस दौरान इनकी प्रतिक्रिया पर नजर डालने भर मात्र से इन ताकतो और चेहरों को आसानी से पहचाना जा सकता हैं। दिल्ली के इस मामले के बाद समाज और सार्वजनिक मंचो से बयान उसकी बानगी हैं। ऑनरकिलिगं को भावनात्मक और सामाजिकता से जुड़ा मुद्दा माननें वाले औऱ चुपचाप भ्रूण हत्या को बढावा देने वाले समाज से, इस हत्या पर ईमानदारी भरी प्रतिक्रिया औऱ बदलाव की उम्मीद करना कहां तक समझदारी भरा कदम होगा, यह प्रश्न आप जैसे विद्वानों की बौद्दिक जुगाली के लिए छोड़ता हूँ। इस मामले में भी सामाजिक और राजनैतिक बयानवीरों ने इसी कड़ी को जिंदा रखा था जिसमें पीड़ित स्वत अपने प्रति हुए अपराध के लिए दोषी थी।

समाज संस्कृति के उद्घोषक जो इस देश को कोस कोस पर बदले पानीचार कोस पर बानी से विविधता भरी संस्कृति का वर्णन कर अपना सीना चौडा करते हैं। वो कभी ये नहीं बताते हैं कि महिलाओं को लेकर यह देश पूरी तरह से एक तरह की राय रखता हैं। क्या उत्तर क्या दक्षिण, क्या राजस्थान या बंगाल, क्या शिक्षित क्या अशिक्षित, महिलाओं के प्रति अपराध और उनके अधिकारों के प्रति हमारा रवैया लगभग एक सरीखा औऱ एक समान हैं। देश का कोई कोना दंभ और दावा नही भर सकता हैं कि वो इन स्थितियों और परिस्थितियों से अपने को इतर रखे हुए हैं। स्पष्ट हैं कि महिलाओं के प्रति नजरिये को लेकर आजतक हमारा समाज जहां था वहीं हैं और अगर कुछ भी बदलाव के पद चिन्ह दिखलाई भी पडे हैं तो उन्हे कुचलनें के लिए समाज ने अपराधियों को हमेशा बढ़ावा दिया हैं। जिससे उनकी नैतिकता और सभ्यता की खोखली पाठशाला का पाठ महिलाएं आसानी से समझ लें। आज भी समाज, नारी देह और उसकी स्वतत्रता को अपने पैमानो पर देखता हैं और आगे भी उसे नियत्रित करने का प्रयास जारी हैं, इन कोशिशों में अपराधी को और अपराध को मौन सहमति देकर आगे भी नियत्रिंत करना चाहता हैं। इसीलिए सामाजिक व्यवस्था का कोई भी परिवर्तन, आज भी अलोकतात्रिक तरीके से ही कुचला जाता हैं। राजनैतिक और सामाजिक संस्थाए इनको न केवल बढ़ावा देती हैं वरन कई बार अगुवाई करती नजर आती हैं।

निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं। भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी  महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वो व्यवस्था जिसमें उनके प्रति अपराधो जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रही है। इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं। आज भी हम ऐसे ही समाज को पाल पोस रहे हैं जो महिलाओं के अधिकारों के प्रति पूर्णतया असंवेदनशील हैं।इस कदर की असंवेदनशीलता और अपराध को बढावा देना किसी भी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं होता हैं। ऐसे में हमारा दावा कितना खोखला हैं कि हम एक सभ्य समाज में हैं और हमारे द्वारा एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा रहा हैं।

शिशिर कुमार यादव

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

विरोध की प्रयोगशाला राजपथ नहीं आपका अपना घर होना चाहिए

बीते हफ्ते दिल्ली में हुए 23 वर्षीय छात्रा के बलात्कार के बाद दिल्ली में बलात्कार के विरोध में एकाएक जनता सड़क पर उतरी। जिसमें युवाओं की बड़ी भागीदारी दिखी। सड़क पर उतरी जनता ने इस अमाननवीय कृत्य का पुरजोर विरोध किया गया। जिसने सरकार की चूल्हें हिला कर रख दी। इस विरोध ने राज्य सरकार क्या केन्द्र सरकार के प्रमुख जिम्मेदार ओहदे पर बैठे लोगों को अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही के लिए मजबूर किया। इस विरोध के बाद महिलाओं की सुरक्षा और उनके सार्वजनिक जगहों पर अधिकार को लेकर सभी मंचो पर एक चर्चा का माहौल बना। इस माहौल को ना तो गुजरात के मोदी का जादू ही धूमिल कर सका और ना ही क्रिकेट के भगवान सचिन तेदुलकर का एकदिवसीय क्रिकेट से सन्यास। इस विरोध ने इस महत्वपूर्ण चर्चा को जिंदा रखा जो आमतौर पर इतनी बडी खबरों के बाद स्वत: ही दम तोड़ देती है।               

ऐसा नहीं हैं कि बलात्कार इस देश में पहली बार हुआ था या सरकार का विरोध पहली बार हो रहा हैं। लेकिन फिर भी यह जनाक्रोश अपने आप में काफी अलग था। जिसने दिखाया कि ने अगर इस देश के हालात में कुछ बदलाव आ सकता हैं वो सिर्फ और सिर्फ युवाओं के विरोध से बदल सकता हैं, क्योंकि छात्रों और युवाओं का एक मात्र विरोध बचा हैं जो लोकतांत्रिक देश में एक परिवर्तनकारी शक्ति रखता हैं और पवित्र हैं। यह विरोध हालातों में और महत्वपूर्ण हो जाता हैं जब राजनीति और महत्वपूर्ण विरोध की आवाजों में धर्म, जाति, क्षेत्र और वर्ग का असर साफ झलकता हैं। ऐसें मे युवाओं का यह ईमानदारी भरा विरोध सच में अपने आप में क्रांतिकारी होता जाता हैं। इन स्थितियों में युवाओं की जिम्मेदारी और भी बढ जाती हैं कि वो किसी भी विषय को सहीं से समझें ही नहीं वरन अपनी आवाज सामाजिक न्याय और कमजोरो के लिए उठाते रहें।

विरोध के बाद से कुछ परिवर्तन होना तय तो हैं, लेकिन ये लड़ाई यहीं खत्म नहीं हो जाती हैं। अभी भी महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई बडी लम्बी हैं क्योंकि इस विरोध सें हम कानून के नियमों में परिवर्तन तो करा ले जाएगें, अपराधियों को दंड भी दिला दे जाएगें, लेकिन उस संस्कृति का क्या करेंगें जिसने इस तरह के अपराधों की पौध को खुद ही सीचा और बड़ा कर रखा हैं। सबसे बड़ा सवाल यह हैं कि समाज इस तरह के अपराधों से पीड़ित छात्रा को कहाँ तक जीने देगी ? समाज का एक वर्ग जहां विरोध कर के परिवर्तन करने की मांग कर रहा हैं वहीं दूसरी और देश के हर कोने में बलात्कार, भ्रूण हत्या और महिलाओं के प्रति अपराध जारी हैं। इस घटना के अगले ही दिन बिहार और तमिलनाडु में हुए बलात्कार के बाद हत्या की घटनाए इस पर मोहर लगाती हैं। ऐसे में यह सवाल अपने आप में एक कठोर कानून कहाँ तक महिलाओं और उनके अधिकारों को सुरक्षित कर सकेगा। जबकि समाज महिलाओं के प्रति अपनी सामंती और पित्रृसतात्मक सोच से बाहर निकलने के लिए तैयार ही नहीं हैं। जिस समाज में महिलाओं से जुडे अपराधों में महिलाओं को अपराधी बनाने की प्रवृत्ति प्रमुख हैं, उस समाज में सिर्फ इंडिया गेट का विरोध कहाँ तक कारगर होगा। मेरी चिंता तब और बढ जाती हैं जब महिला को ही उनके साथ हुए अपराध के लिए दोषी ठहरा दिया जाता हैं। महिला के साथ हुई घटना के बाद, जगह घटना की जगह, वक्त उनका पहनावा और उसका उस वक्त उस जगह होने का कारण प्रमुख हो जाता हैं। तो ऐसे में यह विरोध सिर्फ अपराधी और कठोर कानून के अलावा क्या महिलाओं को एक समाज में लोकतांत्रिक जगह दिलाने में सक्षम हो पाएगा ? इस पर मुझें शक हैं। मेरा शक उस वक्त और बढ जाता हैं जब समाज में महिलाओं का घरों में रह कर विरोध करने का भी अधिकार सुरक्षित नहीं दिखाई पड़ता हैं। तो ऐसें में उनका सड़क पर वक्त बेवक्त चलनें के अधिकार और सार्वजनिक जगहों पर समान भागेदारी की कल्पना करना दिन मे दिवास्वप्न देखने सरीखा नहीं होगा ?

हम समाज के उस नजरिए का क्या करेगें जो अस्पताल में लड रही पीडित के लिए मर जाने को बेहतर विकल्प मान ररहें हैं। क्योंकि अगर वो बच जाती हैं तो उसका जीवन नर्क हो जाएगा औऱ इस नर्क के पीछें का तर्क डॉक्टरों का बयान जिसमें उसके इन्फेक्सन और मातृत्व सुख ना प्राप्त कर पाने का हवाला हैं। जिसमें उसके वैवाहिक जीवन और मातृत्व सुख की कल्पना और कठिनाईयों को केन्द्र में रखा जा रहा हैं। ऐसे में उस पीडित की लडाई कितनी कठिन और कितने मोर्चों पर होगी इसका आकलन करना आसान न होगा। ऐसे हालातों मे क्या उस पीडित की अपनी मौत से लडी और जीती हुई लडाई काफी छोटी न हो जाएगी, जब उसे हर कदम पर अपनें ही समाज में अपने ईर्द गिर्द के लोगों को खिलाफ लडना होगा ।

ये वो सवाल हैं जिनके बारे में हमें सिर्फ चर्चा करनी हैं पर उस पीडित को लडना होगा। वैवाहिक जीवन और मातृत्व के सुख की चिन्ता हमें हमारे उस समाज का असली चेहरा दिखलाता हैं जिसमें जहाँ स्त्री की उपयोगिता विवाह तक सीमित हैं और जहाँ वो बच्चें पैदा करने की मशीन भर हैं। तो ऐसें में जब यह पीडित अपनी मौत से जीत कर बाहर आएगीं तो क्या समाज उसके सामनें कई विषद लडाईयां लड़ने के लिए मैदान तैयार नहीं कर देगा जिसमें समाज पीडित को अयोग्य घोषित कर देगा, क्यों कि वो विवाह और मातृत्व सुख प्राप्त करने लायक नहीं रह जाएगीं। इस लडाई में पीडित को अपनी उपयोगिता साबित करनें के लिए उसे अपनी सारी जिंदगी लडना होगा ? वो हाथ में थाली लेकर अपने आप को समाज रूपी बाजार में खुद को प्रस्तुत तो कर ना सकेगी और किसी समाज दूसरे रूप में उसें स्वीकार भी नहीं करेगा। मातृत्व सुख ना पा पाने की स्थिति में क्या समाजिक संस्थाएं उसका स्वत: तिरस्कार ना कर देगीं ? ऐसें में इंडिया गेट से लेकर राजपथ तक विरोध का असर कहां तक प्रतिफलित होगा यह एक बडा सवाल हैं ? 

तो ऐसें में क्या हम इस विरोध से सिर्फ और सिर्फ अपराधी को सजा और अपराध के लिए कानून के लिए नहीं लड रहें हैं। क्या अपराधी को मौत की सजा और कानून के बाद हमारें कर्तव्यों की इतिश्री हो जाएगीं ? क्या हम इस विरोध में सामाजिक गैरजिम्मेदारी औऱ राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव को अनदेखा नहीं कर रहे है। जो इनका मूल हैं। सच में कानून लैण्डमार्क तय कर सकता हैं पर पूरा रास्ता नहीं। जो रास्ते तय कर रहें हैं वो नारी देह को आजाद करने के लिए तैयार ही नहीं हैं। तो क्या हमारी लडाई की दिशा अधूरी नहीं हैं। हम किस ओर लड़ रहे हैं यह एक महत्वपूर्ण सवाल हैं। हम लगातार असली जड़ को लगातार अनदेखा किए जा रहे हैं जिनसे हमें सच में लडना हैं। हम कब तक अपराधियों से अपराध के लिए लड़ते रहेगे ? क्या इस विरोध के बाद अपराधी फिर से हम और आप के चहरें से उभर नही आएगें ? इस लडाई से राजनैतिक जिम्मेदारी को एक हद तक जवाबदेह बना लेगें लेकिन सामाजिक जवाबदेही का क्या जो राजनैतिक जवाब देही को भी पूरी तरह प्रभावित करता हैं। सामाजिक जवाबदेही के बिना हमारी लडाई अधूरी ही रह जाएगी और राजनैतिक जवाबदेही को भी बच निकलने का पूरा मौका मिल जाएगा जैसा कि खाँप पंचायतो के मामले में हआ था। 

ऐसें में लडाई सिर्फ कानूनी परिवर्तन के लिए राजनैतिक दबाब के साथ साथ सामाजिक जवाब देही की ओर मोड़ने की भी जरूरत हैं। जहाँ पितृसत्तात्मक समाज के अलोकतांत्रिक नियमों के तलें महिलाएं एक लम्बे दौर से अपने लोकतात्रिक हको का बलिदान करती आ रही हैं। और अगर महिलाओं ने कहीं विरोध उठाने के लिए पहल की वहाँ इस पितृसत्ता द्वारा अपनी दमनकारी निर्णयों और तरीको से इस लोकतांत्रिक विरोध का दमन किया जाता रहा हैं। खुद महिलाओं का भी सामाजीकरण इस तरह किया जाता रहा हैं जहाँ महिलाएं भी महिलाओं के अधिकारो की दुश्मन बनी रही हैं। देहज हत्या, भ्रूण हत्या और अन्तर्जातीय विवाह इनके ज्वलन्त उदाहरण हैं।


इन परिस्थितियों में युवाओ का विरोध जिसमें बदलाव की क्षमता है उनकी जिम्मेदारी और बढ जाती हैं क्यों कि जो बीत गया वो बीत चुका हैं पर हमें जिस समाज में रहना हैं उसका निर्माँण खुद करना होगा ताकि समाज जिन अपराधों को देखे -अनदेखे में लगातार बढावा देता आ रहा हैं उस बढावें को एक करारा धक्का लग सकें। मजूबत लोगों ने कमजोरो के अधिकारों को सहर्ष नहीं दिया हैं। बडी लडाईयां लडनी पडी है। इतिहास साक्षी हैं हर लड़ाई का। कई चेहरे हैं इन लडाईयों के। जब भी उनका अधिकार खिसके हैं, तो मजबूत वर्ग द्वारा अपराध ही कियें गए है। ऐसे में दमनकारी नीतियों का एक लोकतांत्रिक विरोध करने का वक्त हैं। इसके लिए सबसे पहलें हमें अपने घर में आवाज उठाने की जरूरत हैं, वहाँ के नियमो को ना सिर्फ तोडना हैं वरन फिर से लिखने की जरूरत हैं। कई मोर्चो पर काम करने के की जरूरत होगी जिसमें महिलाओं का आर्थिक हिस्सेदारी से लेकर निर्णय की स्वतन्त्रता तक रास्ता तय करना होगा। पितृसत्ता की प्राथमिक और महत्वपूर्ण पाठशाला में महिलाओं के लिए विषय बदलने होगें,स्त्री अधिकारों का सबसे बडें दमनकारी केन्द्र बने हुए हैं। इन्ही से समाज भी बनता हैं । वहाँ आवाज उठी तो भरोसा रखिएं एक युगान्तरकारी परिवर्तन देखने को मिलेगा इसके बाद.इडिया गेट का चेहरा देखनें औऱ लाठी खाने की जरूरत नहीं पडेगी अगर हम और आप ऐसा नहीं कर सके तो ये विरोध और कई दिनो तक की लड़ाई अधूरी और अपनें लक्ष्य को पाएं बिना खत्म हो जाएगी और हम फिर एक और दिल्ली में बलात्कार का इन्तजार कर रहें होगे ताकि फिर से एक बार फिर इंडिया गेट पर पहुच सकें। दिल्ली में इस लिए क्योंकि देश के बाकी हिस्सों में हो रहें लगातार बलात्कार पर हमारा और मीडिया का ध्यान इतनी आसानी से नहीं जाता हैं। समाजिक जवाबदेही की लडाई लम्बी जरूर हैं पर अगर सच में हम अपने समाज को बदलना चाहते हैं तो इसके लिए हमें इसके लिए ना सिर्फ अभी से लड़ना होगा बल्कि एक सामाजिक चेतना के साथ कई मोर्चों पर लडना होगा, तब कहीं हम कुछ बदल सकेगें वरना कैडिल लाइट विरोध और राजपथ का विरोध सिर्फ जो सिर्फ दिखावा रह जाएगा। 



शिशिर कुमार यादव 


य़ह लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में  28 दिसम्बर के  अंक में   "घर बने विरोध की प्रयोगशाला" के नाम से प्रकाशित हुआ 

शनिवार, 25 अगस्त 2012

मेरा निक नेम बच्चा हैं


मेरा निक नेम बच्चा हैं , बचपन में जब कोई घर पर मिलने आता तो पापा बुलाते बच्चा देखों अकंल आए हैं इनसे मिलों .... अंकल बडें प्यार से पूछते कि आप का नाम क्या हैं हम भी इतराते हुए बतलाते शिशिर कुमार यादव ... हमेशा की तरह अंकल लोग सुशील, सुनील की जद्दोजहद के बाद कहीं मेरा सहीं नाम बोल पाते... मैं भी अपनें नाम को लेकर खूब इतराता... मेरी माते (मां) बताती हैं कि एक दीदी थी उन्होनें रखा था ये नाम.. पापा नें इसलिए मोहर मार दी क्योंकि वो किसी आई ए एस आफीसर को भी जानते थे इस नाम से तो पड़ गया मेरा नाम शिशिर वरना मेरा नाम भी राजेन्द्र नागेन्द्र, ज्ञानेन्द्र ( ये मेरे घर में नाम हैं और मेरे नाम से ये तुक बंदी खत्म हुई) की सीरिज का अगला नाम सुरेन्द्र, महेन्द्र, देवेन्द्र आदि आदि मे से एक होता
 ..मैं भी अपनें इस नाम से खुश रहता क्योंकि बड़ी आसानी से ये नाम मेरे पूरे स्कूल में नहीं होता था मेरे नाम जैसा .. संदीप, अमित, सचिन विकास, सुशील, सुनील जैसे तो बहुत थे पर  ,,, मैं अकेला होता था अपने नाम का ....इस तरह मेरी पहली पहचान बच्चा और दूसरी पहचान शिशिर होती थी ...
     आज धीरें धीरे घर से बाहर रहते हुए 3 साल से ऊपर होते जा रहे हैं,,, पहचान बदलती जा रहीं हैं सब इसी नाम से पुकारते हैं ,,,, किसी से मिलो ...हाय आई एम शिशिर फ्राम...  हे मीट माई फ्रेंड शिशिर.. ही इज इन ...
बैक, रेलवें, रेस्ट्रों कहीं भी सर योर गुड नेम प्लीज ... मेरा जवाब शिशिर ... ओके सर .. सो मिस्टर शिशिर ..
अब यहीं नाम पहचान हैं लडाई में जिगरी दोस्त जो कुछ और नाम से पुकारते हैं वो भी गुस्सें में इसी नाम का उपयोग करते हैं.... एक्स, वाई, या जेड गर्लफ्रेडम भी गुस्सें में मिस्टर शिशिर आई वाना वांट टू टेल यू दैट यू ना यू छोडो... तुमसे तो बात करना ही बेकार हैं...
टीचर और सुपर वाइजर भी यू नो शिशिर योर वर्क इज लिटिल ....... या वैलडन शिशिर यू हैव डन .... हर जगह शिशिर शिशिर
इस शिशिर में धीरे धीरे सब बदल दिया... वो पहचान और वो मनमानी  सब कुछ ...इसने मेरी पहली पहचान छीन ही ली हैं ,,, अब मैं दूसरी पहचान से पहचानें जाना लगा हूँ और लोग कहते हैं कि ये जो हैं ना जैसा हैं ना वैसा है नहीं जो दिखता हैं वैसा हैं नहीं,,, अंदर कुछ बाहर कुछ ... मुखोटा तो हैं ही दोस्त ... खुद से पूछिएं... शायद आप को खुद में कोई शिशिर दिखें... जो अपने पहले नाम को खोज रहा हैं ,,,, बच्चा