शनिवार, 2 मार्च 2013

काट्जू का मोदी प्रेम: संभावनाएं और प्रतिफल


काट्जू साहब गुस्से फिर गुस्सें में हैं, और इस बार वजह बने, विकास और प्रगति के वैश्विक नेता नरेन्द्र मोदी। जी हां आप सही समझें वहीं नेता जो आजकल राहुल गांधी से युवाओं के नेता का पद छीनने पर लगे हुए हैं, और फेसबुक और ट्विटर पर रहने वाली युवाओं का ऐसा ही सहयोग मिला ना तो जल्दी ही देश को 62 साल का युवा नेता मिल जाएगां (अब देश के प्रधानमंत्री 80 के तो युवा नेता 62 का ही होगा ना)।लेकिन फिर भी काटजू साहब नाराज हैं लिख बैठे एक लेख द हिन्दू सरीखे अखबार में गोधरा से जुडे सरोकारो पर, और भूल गए शानदार स्वागत और तालियों को जो दिल्ली यूनीवर्सिटी में मिली थी, सारी यूनीवर्सिटी नमो नमो कर रही थीं।

खैर मैं समझ सकता हूँ आप लोगों की समस्या। बूढे जो हो रहे हो। तो युवाओं और उनकी पंसद से चिढ़ना तो लाजमी हैं। अरे साहब, युवा जो शहरी हैं, जिसने आज तक गांव के फोटो देखे हैं या फिर फन के साथ मक्के दी रोटी और चने दा साग खाया है, उन लोगों को मालन्यूट्रिशन (कुपोषण), वुमेन मौरटेलिटी रेट ( मातृ मृत्यु दर), ह्यूमन इंडेक्स जैसे, उलूल जूलूल वाले आंकड़े दे कर पथ भ्रमित करने की साजिश करते हैं, शर्म तो आती नही। खैर लज्जा शर्म तो महिलाओं का आभूषण है तो आप क्यूं पहनो, इस लिए बात भी की, तो दलितो, पिछड़ो और आदिवासियों की। उनकी शिक्षा और रोजगार की समस्या पर लिखने लगें। अरे भाई यह समस्या भी कोई समस्या है देश के लिए, हजारो सालों से चली आ रही हैं और आप चाहते हैं कि इतनी जल्दी सुलझा दी जाएं।अरे, जिनके क्षेत्र का लोकतांत्रिक पर्व चुनाव सुर्खिया तक बटोर नहीं पाता  त्रिपुरा में चुनाव बीते 14 फरवरी और 23 फरवरी को मेघालय और नगालैंड में चुनाव थे, वहां की समस्याएं क्या खाक ध्यान आकर्षित करेगीं।

26 लोक सभा सीटों वाले राज्य के नेता देश के प्रधानमंत्री बनने के सच्चे अधिकारी हो जाते हैं, और आप हैं कि उन्हे 2002 में हुए दंगों की याद दिलाते हैं। शायद आप भूल गए हैं आजकल मोदी साहब आधा आस्तीन का कुर्ता ही पहन रहे हैं या फुल इस पर भी मीडिया सिर्फ फुल कवरेज दे रहा हैं और आप उस कुर्ते की ओर इशारा कर रहें है जिस पर मासूमों के खून के छीटे पड़े हुए हैं। मोदी का 3डी कैंपेन देखिए, ऊ कुर्ता के चक्कर में काहे को पड़े हैं मालिक। जल्द ही आप ने अपने सुर नहीं बदले ना तो देश भक्ति के रस से सराबोर युवा, जिनके मोदी ही सारथी है, आप के खिलाफ इतना बड़ा आदोलन खड़ा कर देगे, जिसका पता तो उन्हें भी नहीं चलेगा कि वो समर्थन या विरोध किस चीज का कर रहे हैं। आप के जेहन में मैं अन्ना हूँ वाला आंदोलन (जो बाद में केजरीवाल होते हुए खत्म हो गया) नही हैं क्या ? भूलिए मत उनके इस सारथी पर जरा सी आंच आई तो वो क्या नहीं कर गुजरेगें। अन्ना का विरोध करना भष्ट्राचारी बना रहा था, तो मोदी का विरोध आप को राष्ट्रद्रोही तो बना ही सकता हैं। इस द्रोह का बदला लेने के लिए हमारे देश में वध करने की परम्परा रही हैं.. हां सही समझे गांधी जी इसी वध में दुनिया छोड़ गए थे।
आप एक और चीज भूल जाते हैं इस देश में दंगे, बहुसंख्यकों के लिए गर्व के विषय रहे हैं, और बहुसंख्यक इन्हे सिर्फ अल्पसंख्यकों की उद्दण्डता की प्रतिक्रिया में हुई क्रिया के रूप में सहीं ठहराता रहा हैं। 1984 के दिल्ली दंगें, गोधरा के दंगे, देश के हर कोने में दलितों और आदिवासियों के नरसंहार सिर्फ और सिर्फ अल्पसंख्यको और कमजोरों को चेतावनी देते हैं कि हमारे ढंग से रहो वरना................ ( खाली स्थान को भरने के लिए मेरे पास जगह कम है)। और काट्जू साहब आप जिस संस्थान के सर्वेसर्वाओ में से एक रहे है वो भी आज कल न्याय देते वक्त अजीबोगरीब तर्क दे कर न्याय देते हैं। अयोध्या मसले पर बहुसंख्यकों की भावना का ख्याल रखते हुए दिया गया न्याय, साथ ही साथ हाल में हुई अफजल की फांसी को देश की भावना को संतुष्ट करने के पीछे की मंशा भी, न्याय के प्रतीक (न्याय का मंदिर इस लिए नहीं क्यू कि मंदिर ही क्यू ? मस्जिद, गुरूद्वारा और चर्च क्यू नहीं वाली विचार धारा से प्रेरित) पर आस्था को दरकाने वाली ही रही हैं। कमजोरो, पिछड़ो और वंचितों की आवाज भी अगर इसी तरह इन संस्थानों में भी बहुसंख्यकों के दबाव में दम तोड़ती रहेगी, तो मोदी को आप के इन जवाबो को देने की जरूरत भी नहीं है क्योंकि ये सवाल और सरोकार बहुसंख्यको के नहीं हैं, ये उनके सवाल हैं जिनको आज ही नहीं, वरन ना जाने कितनी सदियों से कुछ खांचों में डालकर कर दीवारों में चुनवा दिया जाता रहा हैं। तो सजग रहिए काट्जू साहब हमें आप की चिंता हैं इलाहाबादी होने के नातें ही सही।

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

हम अब भी बर्बर और असभ्य हैं...


सुबह 3 बजकर 38 मिनट का समय और लैपटाप पर चल रही खबर पर नजर क्या पडी दिल बैठ गया। पिछले कई दिनों से देश भर में, समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने चहरे  पर  एक चर्चा और माहौल हैं। जिसे हम और आप महिला अधिकारों और महिला अस्मिता का प्रतीक मान कर लड़ रहे थे वो अब नहीं रहीं। यानी दिल्ली में हुए बलात्कार के बाद 23 वर्षीय छात्रा की सिंगापुर में मौत हो गई। मेरे शब्द और लेखन शक्ति उस नायिका के प्रति क्या प्रदर्शित करें यह मेरे लिए कठिन बन पड़ा। सच कहूँ  तो मैं उसकी मौत के बाद शर्मिदा हूँ कि मैं उस समाज का हिस्सा हूँ, जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकी क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वो इस तरह सें जिए।

इस खबर के बाद दोष और सामाजिक सामाजिक औऱ राजनैतिक निहतार्थ निकाले जाएगें, जिसकी अपनी अपनी प्रकृति और सीमा होगीं। लेकिन फिर भी इस हत्या, जिसे हम और आप ने बडे सधे तरीके से की हैं उस और सोचना जरूरी हैं कि क्या सच में हम एक सभ्य समाज में हैं? क्या सच में हम ऐसा ही समाज चाहते हैं? इस मौत को क्या कहा जाएहादसा, अपराध, दुर्घटना या कोई और शब्द। शायद किसी भी शब्द में इतनी ताकत हो जो  इसे पूरी तरह विश्लेषित कर सकें । सच में आज लगा कि भाषा मूक है, जिसमें बधते ही इस तरह के हादसे (हादसे लिखने के लिए माफी क्योंकि यह हादसों की परिभाषा से बहुत गंभीर विषय हैं) अपनी गंभीरता और विभत्सता का मौलिक मूल खत्म हो जाता हैं। सच में, जैसे ही हम इस तरह के हादसों को भाषा या शब्द में बाधते हैं तो हम इस हादसे को कम आँक बैठते हैं। इस तरह के हादसों की गंभीरता और विभत्सता शायद ही मानव मस्तिष्क आंक पाएं। अगर आँक पाता तो इस तरह के अपराध तो कत्तई न करता। कुछ लोग मौत को इसका अंतिम छोर मानते हैं और अपराधी को मौत की सजा देकर इसकी विभत्सता की सजा को पूरा करना चाहते हैं। मौत जिसे आज भी रहस्य माना जाता हैं वो भी इस तरह के हादसों के लिए पड़ाव हैं ना कि पूर्ण। यह बात इस बात से और भी सिद्ध होती हैं कि अगर मौत इस तरह के हादसों के लिए पूर्ण होती तो मौत के बाद अपराधी और समाज दोनो ही इसकी पुनरावृत्ति नहीं करते। इन हादसों की पुनरावृत्ति हमें यह बतलाती हैं कि अब भी हम इन हादसों की ना तो गंभीरता समझ पाए हैं और ना ही विभत्सता। कई बार पीडित खुद भी मौत का शिकार हो जाते हैं जैसा कि इस मामले मे हुआ हैं, जहाँ पीडिता जिंदगी से अपनी जंग हार गई । 
जो भी हो पर इस हादसे ने हमें एक बार खुद की ओर सोचने के लिए झकझोरा हैं कि हम किस सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें को ढो और पास पोल रहे हैं। जिसमें हम आधी दुनिया की भागीदारी निभाने वाली स्त्री के मूल भूत अधिकारों को, जिसमें जीने, चलने, चुननें, पहननें, बोलने के अधिकारों को हम सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से चलाते आ रहे हैं और हम खुद को सभ्य होने का दावा करने की होड़ मे लगें हैं। हम आज भी प्रतोकों की भाषा से अपने आप को सभ्य घोषित करने पर तुले हैं लेकिन सच ये हैं कि आज भी हम बर्बर और असभ्य हैं।
समाज ने महिलाओं के प्रति इस बर्बरता को जिंदा रखनें के लिए चरणबद्ध तरीको से जाल  बनाए हैं। जिसमें परिवार फिर समाज और फिर अपराध की श्रृखला हैं। इन्ही जालो में नारी कहीं ना कही फसी रहती हैं और अगर किसी एक से बच भी जाए तो दूसरे में उसे उलझ जाएं। इस प्रकार के जालों से बच कर निकलने के दौरान फसने की बड़ीं कीमत चुकानी पड़ती हैं। जिसकी कल्पना करना सच में हम जैसे असभ्य और बर्बर लोगों के लिए इतनी आसान भी नहीं हैं। जिस पर गुजरती हैं वो इस हालात में पहुच जाता हैं कि वो इसका सहीं आकलन नहीं कर सकता हैं। सामान्यतया या तो वे जिंदगी की जंग हार जाते हैं और अगर बच जाते हैं तो हम और आप उनका बहिष्कार इन्हीं चरण बद्ध जालो के अन्तर्गत कर देते हैं।
   
हम जिस देश में रह रहें हैं उसमें इस अपराध की प्रवृत्ति और चरण को सामाजिक और राजनैतिक मान्यता की अदृश्य शक्ति मिली हुई हैं। हम और आप इन्हे पहचानते और जानते भी हैं औऱ कई बार हिस्से भी होते हैं पर बदलते नहीं हैं। इनकी गर्जना तब और सुनाई पड़ने लगती हैं जब इस तरह के हादसें हम आप के करीब से गुजरते हैं। इस दौरान इनकी प्रतिक्रिया पर नजर डालने भर मात्र से इन ताकतो और चेहरों को आसानी से पहचाना जा सकता हैं। दिल्ली के इस मामले के बाद समाज और सार्वजनिक मंचो से बयान उसकी बानगी हैं। ऑनरकिलिगं को भावनात्मक और सामाजिकता से जुड़ा मुद्दा माननें वाले औऱ चुपचाप भ्रूण हत्या को बढावा देने वाले समाज से, इस हत्या पर ईमानदारी भरी प्रतिक्रिया औऱ बदलाव की उम्मीद करना कहां तक समझदारी भरा कदम होगा, यह प्रश्न आप जैसे विद्वानों की बौद्दिक जुगाली के लिए छोड़ता हूँ। इस मामले में भी सामाजिक और राजनैतिक बयानवीरों ने इसी कड़ी को जिंदा रखा था जिसमें पीड़ित स्वत अपने प्रति हुए अपराध के लिए दोषी थी।

समाज संस्कृति के उद्घोषक जो इस देश को कोस कोस पर बदले पानीचार कोस पर बानी से विविधता भरी संस्कृति का वर्णन कर अपना सीना चौडा करते हैं। वो कभी ये नहीं बताते हैं कि महिलाओं को लेकर यह देश पूरी तरह से एक तरह की राय रखता हैं। क्या उत्तर क्या दक्षिण, क्या राजस्थान या बंगाल, क्या शिक्षित क्या अशिक्षित, महिलाओं के प्रति अपराध और उनके अधिकारों के प्रति हमारा रवैया लगभग एक सरीखा औऱ एक समान हैं। देश का कोई कोना दंभ और दावा नही भर सकता हैं कि वो इन स्थितियों और परिस्थितियों से अपने को इतर रखे हुए हैं। स्पष्ट हैं कि महिलाओं के प्रति नजरिये को लेकर आजतक हमारा समाज जहां था वहीं हैं और अगर कुछ भी बदलाव के पद चिन्ह दिखलाई भी पडे हैं तो उन्हे कुचलनें के लिए समाज ने अपराधियों को हमेशा बढ़ावा दिया हैं। जिससे उनकी नैतिकता और सभ्यता की खोखली पाठशाला का पाठ महिलाएं आसानी से समझ लें। आज भी समाज, नारी देह और उसकी स्वतत्रता को अपने पैमानो पर देखता हैं और आगे भी उसे नियत्रित करने का प्रयास जारी हैं, इन कोशिशों में अपराधी को और अपराध को मौन सहमति देकर आगे भी नियत्रिंत करना चाहता हैं। इसीलिए सामाजिक व्यवस्था का कोई भी परिवर्तन, आज भी अलोकतात्रिक तरीके से ही कुचला जाता हैं। राजनैतिक और सामाजिक संस्थाए इनको न केवल बढ़ावा देती हैं वरन कई बार अगुवाई करती नजर आती हैं।

निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं। भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी  महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वो व्यवस्था जिसमें उनके प्रति अपराधो जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रही है। इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं। आज भी हम ऐसे ही समाज को पाल पोस रहे हैं जो महिलाओं के अधिकारों के प्रति पूर्णतया असंवेदनशील हैं।इस कदर की असंवेदनशीलता और अपराध को बढावा देना किसी भी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं होता हैं। ऐसे में हमारा दावा कितना खोखला हैं कि हम एक सभ्य समाज में हैं और हमारे द्वारा एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा रहा हैं।

शिशिर कुमार यादव

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

विरोध की प्रयोगशाला राजपथ नहीं आपका अपना घर होना चाहिए

बीते हफ्ते दिल्ली में हुए 23 वर्षीय छात्रा के बलात्कार के बाद दिल्ली में बलात्कार के विरोध में एकाएक जनता सड़क पर उतरी। जिसमें युवाओं की बड़ी भागीदारी दिखी। सड़क पर उतरी जनता ने इस अमाननवीय कृत्य का पुरजोर विरोध किया गया। जिसने सरकार की चूल्हें हिला कर रख दी। इस विरोध ने राज्य सरकार क्या केन्द्र सरकार के प्रमुख जिम्मेदार ओहदे पर बैठे लोगों को अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही के लिए मजबूर किया। इस विरोध के बाद महिलाओं की सुरक्षा और उनके सार्वजनिक जगहों पर अधिकार को लेकर सभी मंचो पर एक चर्चा का माहौल बना। इस माहौल को ना तो गुजरात के मोदी का जादू ही धूमिल कर सका और ना ही क्रिकेट के भगवान सचिन तेदुलकर का एकदिवसीय क्रिकेट से सन्यास। इस विरोध ने इस महत्वपूर्ण चर्चा को जिंदा रखा जो आमतौर पर इतनी बडी खबरों के बाद स्वत: ही दम तोड़ देती है।               

ऐसा नहीं हैं कि बलात्कार इस देश में पहली बार हुआ था या सरकार का विरोध पहली बार हो रहा हैं। लेकिन फिर भी यह जनाक्रोश अपने आप में काफी अलग था। जिसने दिखाया कि ने अगर इस देश के हालात में कुछ बदलाव आ सकता हैं वो सिर्फ और सिर्फ युवाओं के विरोध से बदल सकता हैं, क्योंकि छात्रों और युवाओं का एक मात्र विरोध बचा हैं जो लोकतांत्रिक देश में एक परिवर्तनकारी शक्ति रखता हैं और पवित्र हैं। यह विरोध हालातों में और महत्वपूर्ण हो जाता हैं जब राजनीति और महत्वपूर्ण विरोध की आवाजों में धर्म, जाति, क्षेत्र और वर्ग का असर साफ झलकता हैं। ऐसें मे युवाओं का यह ईमानदारी भरा विरोध सच में अपने आप में क्रांतिकारी होता जाता हैं। इन स्थितियों में युवाओं की जिम्मेदारी और भी बढ जाती हैं कि वो किसी भी विषय को सहीं से समझें ही नहीं वरन अपनी आवाज सामाजिक न्याय और कमजोरो के लिए उठाते रहें।

विरोध के बाद से कुछ परिवर्तन होना तय तो हैं, लेकिन ये लड़ाई यहीं खत्म नहीं हो जाती हैं। अभी भी महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई बडी लम्बी हैं क्योंकि इस विरोध सें हम कानून के नियमों में परिवर्तन तो करा ले जाएगें, अपराधियों को दंड भी दिला दे जाएगें, लेकिन उस संस्कृति का क्या करेंगें जिसने इस तरह के अपराधों की पौध को खुद ही सीचा और बड़ा कर रखा हैं। सबसे बड़ा सवाल यह हैं कि समाज इस तरह के अपराधों से पीड़ित छात्रा को कहाँ तक जीने देगी ? समाज का एक वर्ग जहां विरोध कर के परिवर्तन करने की मांग कर रहा हैं वहीं दूसरी और देश के हर कोने में बलात्कार, भ्रूण हत्या और महिलाओं के प्रति अपराध जारी हैं। इस घटना के अगले ही दिन बिहार और तमिलनाडु में हुए बलात्कार के बाद हत्या की घटनाए इस पर मोहर लगाती हैं। ऐसे में यह सवाल अपने आप में एक कठोर कानून कहाँ तक महिलाओं और उनके अधिकारों को सुरक्षित कर सकेगा। जबकि समाज महिलाओं के प्रति अपनी सामंती और पित्रृसतात्मक सोच से बाहर निकलने के लिए तैयार ही नहीं हैं। जिस समाज में महिलाओं से जुडे अपराधों में महिलाओं को अपराधी बनाने की प्रवृत्ति प्रमुख हैं, उस समाज में सिर्फ इंडिया गेट का विरोध कहाँ तक कारगर होगा। मेरी चिंता तब और बढ जाती हैं जब महिला को ही उनके साथ हुए अपराध के लिए दोषी ठहरा दिया जाता हैं। महिला के साथ हुई घटना के बाद, जगह घटना की जगह, वक्त उनका पहनावा और उसका उस वक्त उस जगह होने का कारण प्रमुख हो जाता हैं। तो ऐसे में यह विरोध सिर्फ अपराधी और कठोर कानून के अलावा क्या महिलाओं को एक समाज में लोकतांत्रिक जगह दिलाने में सक्षम हो पाएगा ? इस पर मुझें शक हैं। मेरा शक उस वक्त और बढ जाता हैं जब समाज में महिलाओं का घरों में रह कर विरोध करने का भी अधिकार सुरक्षित नहीं दिखाई पड़ता हैं। तो ऐसें में उनका सड़क पर वक्त बेवक्त चलनें के अधिकार और सार्वजनिक जगहों पर समान भागेदारी की कल्पना करना दिन मे दिवास्वप्न देखने सरीखा नहीं होगा ?

हम समाज के उस नजरिए का क्या करेगें जो अस्पताल में लड रही पीडित के लिए मर जाने को बेहतर विकल्प मान ररहें हैं। क्योंकि अगर वो बच जाती हैं तो उसका जीवन नर्क हो जाएगा औऱ इस नर्क के पीछें का तर्क डॉक्टरों का बयान जिसमें उसके इन्फेक्सन और मातृत्व सुख ना प्राप्त कर पाने का हवाला हैं। जिसमें उसके वैवाहिक जीवन और मातृत्व सुख की कल्पना और कठिनाईयों को केन्द्र में रखा जा रहा हैं। ऐसे में उस पीडित की लडाई कितनी कठिन और कितने मोर्चों पर होगी इसका आकलन करना आसान न होगा। ऐसे हालातों मे क्या उस पीडित की अपनी मौत से लडी और जीती हुई लडाई काफी छोटी न हो जाएगी, जब उसे हर कदम पर अपनें ही समाज में अपने ईर्द गिर्द के लोगों को खिलाफ लडना होगा ।

ये वो सवाल हैं जिनके बारे में हमें सिर्फ चर्चा करनी हैं पर उस पीडित को लडना होगा। वैवाहिक जीवन और मातृत्व के सुख की चिन्ता हमें हमारे उस समाज का असली चेहरा दिखलाता हैं जिसमें जहाँ स्त्री की उपयोगिता विवाह तक सीमित हैं और जहाँ वो बच्चें पैदा करने की मशीन भर हैं। तो ऐसें में जब यह पीडित अपनी मौत से जीत कर बाहर आएगीं तो क्या समाज उसके सामनें कई विषद लडाईयां लड़ने के लिए मैदान तैयार नहीं कर देगा जिसमें समाज पीडित को अयोग्य घोषित कर देगा, क्यों कि वो विवाह और मातृत्व सुख प्राप्त करने लायक नहीं रह जाएगीं। इस लडाई में पीडित को अपनी उपयोगिता साबित करनें के लिए उसे अपनी सारी जिंदगी लडना होगा ? वो हाथ में थाली लेकर अपने आप को समाज रूपी बाजार में खुद को प्रस्तुत तो कर ना सकेगी और किसी समाज दूसरे रूप में उसें स्वीकार भी नहीं करेगा। मातृत्व सुख ना पा पाने की स्थिति में क्या समाजिक संस्थाएं उसका स्वत: तिरस्कार ना कर देगीं ? ऐसें में इंडिया गेट से लेकर राजपथ तक विरोध का असर कहां तक प्रतिफलित होगा यह एक बडा सवाल हैं ? 

तो ऐसें में क्या हम इस विरोध से सिर्फ और सिर्फ अपराधी को सजा और अपराध के लिए कानून के लिए नहीं लड रहें हैं। क्या अपराधी को मौत की सजा और कानून के बाद हमारें कर्तव्यों की इतिश्री हो जाएगीं ? क्या हम इस विरोध में सामाजिक गैरजिम्मेदारी औऱ राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव को अनदेखा नहीं कर रहे है। जो इनका मूल हैं। सच में कानून लैण्डमार्क तय कर सकता हैं पर पूरा रास्ता नहीं। जो रास्ते तय कर रहें हैं वो नारी देह को आजाद करने के लिए तैयार ही नहीं हैं। तो क्या हमारी लडाई की दिशा अधूरी नहीं हैं। हम किस ओर लड़ रहे हैं यह एक महत्वपूर्ण सवाल हैं। हम लगातार असली जड़ को लगातार अनदेखा किए जा रहे हैं जिनसे हमें सच में लडना हैं। हम कब तक अपराधियों से अपराध के लिए लड़ते रहेगे ? क्या इस विरोध के बाद अपराधी फिर से हम और आप के चहरें से उभर नही आएगें ? इस लडाई से राजनैतिक जिम्मेदारी को एक हद तक जवाबदेह बना लेगें लेकिन सामाजिक जवाबदेही का क्या जो राजनैतिक जवाब देही को भी पूरी तरह प्रभावित करता हैं। सामाजिक जवाबदेही के बिना हमारी लडाई अधूरी ही रह जाएगी और राजनैतिक जवाबदेही को भी बच निकलने का पूरा मौका मिल जाएगा जैसा कि खाँप पंचायतो के मामले में हआ था। 

ऐसें में लडाई सिर्फ कानूनी परिवर्तन के लिए राजनैतिक दबाब के साथ साथ सामाजिक जवाब देही की ओर मोड़ने की भी जरूरत हैं। जहाँ पितृसत्तात्मक समाज के अलोकतांत्रिक नियमों के तलें महिलाएं एक लम्बे दौर से अपने लोकतात्रिक हको का बलिदान करती आ रही हैं। और अगर महिलाओं ने कहीं विरोध उठाने के लिए पहल की वहाँ इस पितृसत्ता द्वारा अपनी दमनकारी निर्णयों और तरीको से इस लोकतांत्रिक विरोध का दमन किया जाता रहा हैं। खुद महिलाओं का भी सामाजीकरण इस तरह किया जाता रहा हैं जहाँ महिलाएं भी महिलाओं के अधिकारो की दुश्मन बनी रही हैं। देहज हत्या, भ्रूण हत्या और अन्तर्जातीय विवाह इनके ज्वलन्त उदाहरण हैं।


इन परिस्थितियों में युवाओ का विरोध जिसमें बदलाव की क्षमता है उनकी जिम्मेदारी और बढ जाती हैं क्यों कि जो बीत गया वो बीत चुका हैं पर हमें जिस समाज में रहना हैं उसका निर्माँण खुद करना होगा ताकि समाज जिन अपराधों को देखे -अनदेखे में लगातार बढावा देता आ रहा हैं उस बढावें को एक करारा धक्का लग सकें। मजूबत लोगों ने कमजोरो के अधिकारों को सहर्ष नहीं दिया हैं। बडी लडाईयां लडनी पडी है। इतिहास साक्षी हैं हर लड़ाई का। कई चेहरे हैं इन लडाईयों के। जब भी उनका अधिकार खिसके हैं, तो मजबूत वर्ग द्वारा अपराध ही कियें गए है। ऐसे में दमनकारी नीतियों का एक लोकतांत्रिक विरोध करने का वक्त हैं। इसके लिए सबसे पहलें हमें अपने घर में आवाज उठाने की जरूरत हैं, वहाँ के नियमो को ना सिर्फ तोडना हैं वरन फिर से लिखने की जरूरत हैं। कई मोर्चो पर काम करने के की जरूरत होगी जिसमें महिलाओं का आर्थिक हिस्सेदारी से लेकर निर्णय की स्वतन्त्रता तक रास्ता तय करना होगा। पितृसत्ता की प्राथमिक और महत्वपूर्ण पाठशाला में महिलाओं के लिए विषय बदलने होगें,स्त्री अधिकारों का सबसे बडें दमनकारी केन्द्र बने हुए हैं। इन्ही से समाज भी बनता हैं । वहाँ आवाज उठी तो भरोसा रखिएं एक युगान्तरकारी परिवर्तन देखने को मिलेगा इसके बाद.इडिया गेट का चेहरा देखनें औऱ लाठी खाने की जरूरत नहीं पडेगी अगर हम और आप ऐसा नहीं कर सके तो ये विरोध और कई दिनो तक की लड़ाई अधूरी और अपनें लक्ष्य को पाएं बिना खत्म हो जाएगी और हम फिर एक और दिल्ली में बलात्कार का इन्तजार कर रहें होगे ताकि फिर से एक बार फिर इंडिया गेट पर पहुच सकें। दिल्ली में इस लिए क्योंकि देश के बाकी हिस्सों में हो रहें लगातार बलात्कार पर हमारा और मीडिया का ध्यान इतनी आसानी से नहीं जाता हैं। समाजिक जवाबदेही की लडाई लम्बी जरूर हैं पर अगर सच में हम अपने समाज को बदलना चाहते हैं तो इसके लिए हमें इसके लिए ना सिर्फ अभी से लड़ना होगा बल्कि एक सामाजिक चेतना के साथ कई मोर्चों पर लडना होगा, तब कहीं हम कुछ बदल सकेगें वरना कैडिल लाइट विरोध और राजपथ का विरोध सिर्फ जो सिर्फ दिखावा रह जाएगा। 



शिशिर कुमार यादव 


य़ह लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में  28 दिसम्बर के  अंक में   "घर बने विरोध की प्रयोगशाला" के नाम से प्रकाशित हुआ 

शनिवार, 25 अगस्त 2012

मेरा निक नेम बच्चा हैं


मेरा निक नेम बच्चा हैं , बचपन में जब कोई घर पर मिलने आता तो पापा बुलाते बच्चा देखों अकंल आए हैं इनसे मिलों .... अंकल बडें प्यार से पूछते कि आप का नाम क्या हैं हम भी इतराते हुए बतलाते शिशिर कुमार यादव ... हमेशा की तरह अंकल लोग सुशील, सुनील की जद्दोजहद के बाद कहीं मेरा सहीं नाम बोल पाते... मैं भी अपनें नाम को लेकर खूब इतराता... मेरी माते (मां) बताती हैं कि एक दीदी थी उन्होनें रखा था ये नाम.. पापा नें इसलिए मोहर मार दी क्योंकि वो किसी आई ए एस आफीसर को भी जानते थे इस नाम से तो पड़ गया मेरा नाम शिशिर वरना मेरा नाम भी राजेन्द्र नागेन्द्र, ज्ञानेन्द्र ( ये मेरे घर में नाम हैं और मेरे नाम से ये तुक बंदी खत्म हुई) की सीरिज का अगला नाम सुरेन्द्र, महेन्द्र, देवेन्द्र आदि आदि मे से एक होता
 ..मैं भी अपनें इस नाम से खुश रहता क्योंकि बड़ी आसानी से ये नाम मेरे पूरे स्कूल में नहीं होता था मेरे नाम जैसा .. संदीप, अमित, सचिन विकास, सुशील, सुनील जैसे तो बहुत थे पर  ,,, मैं अकेला होता था अपने नाम का ....इस तरह मेरी पहली पहचान बच्चा और दूसरी पहचान शिशिर होती थी ...
     आज धीरें धीरे घर से बाहर रहते हुए 3 साल से ऊपर होते जा रहे हैं,,, पहचान बदलती जा रहीं हैं सब इसी नाम से पुकारते हैं ,,,, किसी से मिलो ...हाय आई एम शिशिर फ्राम...  हे मीट माई फ्रेंड शिशिर.. ही इज इन ...
बैक, रेलवें, रेस्ट्रों कहीं भी सर योर गुड नेम प्लीज ... मेरा जवाब शिशिर ... ओके सर .. सो मिस्टर शिशिर ..
अब यहीं नाम पहचान हैं लडाई में जिगरी दोस्त जो कुछ और नाम से पुकारते हैं वो भी गुस्सें में इसी नाम का उपयोग करते हैं.... एक्स, वाई, या जेड गर्लफ्रेडम भी गुस्सें में मिस्टर शिशिर आई वाना वांट टू टेल यू दैट यू ना यू छोडो... तुमसे तो बात करना ही बेकार हैं...
टीचर और सुपर वाइजर भी यू नो शिशिर योर वर्क इज लिटिल ....... या वैलडन शिशिर यू हैव डन .... हर जगह शिशिर शिशिर
इस शिशिर में धीरे धीरे सब बदल दिया... वो पहचान और वो मनमानी  सब कुछ ...इसने मेरी पहली पहचान छीन ही ली हैं ,,, अब मैं दूसरी पहचान से पहचानें जाना लगा हूँ और लोग कहते हैं कि ये जो हैं ना जैसा हैं ना वैसा है नहीं जो दिखता हैं वैसा हैं नहीं,,, अंदर कुछ बाहर कुछ ... मुखोटा तो हैं ही दोस्त ... खुद से पूछिएं... शायद आप को खुद में कोई शिशिर दिखें... जो अपने पहले नाम को खोज रहा हैं ,,,, बच्चा 



गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

उसका नाम कुसुम है


उसका नाम कुसुम है। जीवन नें उसके साथ मजाक किया उसे कभी पैरों पर खड़ा ही नहीं होने दिया। कारण वहीं पुराना घिसा पिटा, पहला उसका लड़की होना, दूसरा 10-11 बच्चों में जिनमें से 8-9 होना, जागरूकता की कमीं, और चौथा गरीबी का स्वर्ण मुकुट होना। इस मुकुट के आगे बाकी कारण तो बेईमानी हो ही जाते है, पर आगे लिखने से पहले कहना चाहुँगां कि गरीबी प्रमुख कारणों में से एक जरूर थी, पर पहली नहीं। कारण जो भी रहा हो पर उसके नाम को उसकी मार्कशीट ने जाना बाकी सबने लंगड़ी के रूप में पहचाना, और नाम दिया लगंड़ी बिट्टीबिट्टी अवध प्रदेश में बिटियाँ को कहा जाता है। लगड़ी बिट्टी चली पर ड़डे के सहारे।
  खैर जीवन से सघर्ष उसकी नियति थी। उसके साथ उसने समय बिताया, इस उम्मीद के साथ कि भविष्य शायद उसे कुछ सपने देखने की ताकत और इजाजत दे दें। वक्त बीतता गया और उसका नाम अभी भी लगंड़ी बिट्टी था। पर उसे भरोसा था कि शायद कुछ अच्छा हो जाएं। उम्र के पड़ाव बीतते गएं, इस दौड़ में कुछ भी न बदला ना ही उसका नाम और न ही उसकी नियति। उम्र के पड़ाव के साथ उसे उस घर को छोड़ना ही था क्योंकि वो एक लड़की थी। अच्छी गरीब लड़की की तो शादी नहीं होती ये तो गरीब लंगड़ी बिट्टी थी। उसकी शादी इतनी आसानी से कैसे हो जाती। मां-बाप ने सभी जगह घोड़े दौड़ाएं और शादी तय की, लड़का देखने दिखाने में सुंदर और सब तरह से सही। सबको शक हुआ कि अरे जिस लगंड़ी बिट्टी को महक तक नसीब न थी उसके हिस्सें में गुलशन की महक कहाँ से आ गई। शक सहीं था गुलशन की महक नहीं खाली पड़े वीरान ऊसर उसके हिस्से में आ गया। जिससें उसकी शादी की गई, उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं रहती। अब लगड़ी बिट्टी का नाम और पहचान बदल चुकी है, उसमें उसकी सामाजिक पहचान जुड़ चुकी है, और वो है, एक पागल की पत्नी जो लंगड़ी है।


कुसुम की बिटियाँ जो 4 ड़िग्री के तापमान पर इन कपड़ों में थी
 एक स्त्री होने के नाते उसको और भी भूमिका का निर्वाहन करना था... जीवन ने उसके नाम में एक और नाम जोड़ा, माँ.... 2 लड़कों की माँ और एक बेटी की, सभी सहीं है ना वो पागल है और ना ही वो लगड़े। पर कुसुम उर्फ लगड़ी बिट्टी परेशान है कि जिस ठंड़ में सबके तन पर कपड़ों के लबादे है उसके बच्चे हाफ फ्राक और हाफ पैंट पर है। लड़के के पास फुल स्वेटर और सर पर टोपी है लड़की के हिस्से में हाफ फ्राक के साथ हाफ स्वेटर । खैर कुसुम आज भी वक्त के पैमानों से दूर खड़ी है क्योंकि न तो उसे वक्त समझ में आ रहा है और न ही उसके पैमाने।

सोमवार, 29 अगस्त 2011

कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं!


           

आज आकाशवाणी के लिए JNU  से निकलना चाहाँ तो ऑटो नहीं मिला.... काफी देर का इन्तजार, बार बार गोदावरी बस स्टैंण्ड के नाम पढनें के अलावा कोई विकल्प भी नहीं दे रहा था ...खैंर इन्तजार को भी चैंन कहाँ जल्द ही खत्म हुआ ऑटो तय हुआ ..मीटर के डिजीटल अंको ने तय करती दूरी का खाका खीचना शुरू कर दिया.... बरसात की गर्मी और वो ऑटों ... दिल्ली को ऑटो के पर्दे से देखना चाहा तो दिल्ली मुझें ठहरे शहर में भागते हुए लोगों कि अन्धी दौड़ का शहर नजर आया (ये मेरा भ्रम भी हो सकता है क्यों कि फिल्मों मे दिल्ली का अपना बखान है).आपकी राय भी दिल्ली के बारे में मुझसे इतर हो सकती है.


ऑटों से बाहर की दिल्ली 



बस यूँ ही सफर चलता रहा तभी ऑटो वाले ने मुझ से 5 मिनट का समय माँगा ताकि वो अपनी गाड़ी के लिए ईधन ले सके..मेरे पास भी उसकी इस माँग को स्वीकार न करने की कोई वजह नजर नहीं आई..क्योंकि अगर न मानता तो शायद ऑटो बढता ही नहीं ..खैर ऑटो की लम्बी लाईन और उसी लाइन में हमारा भी ऑटो.. खाली वक्त और जिंदगी से रोज मिलते रहने वाले सख्स से बात करने की उत्कंठा ने मुझे एक सवाल दागने पर मजबूर किया दिल्ली के ही हो आप या बाहर के ? “.. आटों वाले ने मेरी ओर देखा और बड़ी अजीब से मुस्कुराते हुए जवाब दिया ...है तो बाहर के पर 20 साल से यहीं है मन में ही उसकी हँसी का राज जानना चाहा तो जवाब मिला शायद मुझ जैसा हर आदमी अपना समय काटने के लिए यह सवाल पूछता होगा ....खैर इस सोच से बाहर निकलते है ही दूसरा सवाल दागा कहाँ से हो ?जवाब आया कानपुर ”… कानों को अच्छा लगा सुनकर ... मैनें भी धड़ाध़ड़ कानपुर और उससे जुड़े जिले उन्नाव के कुछ परिचित नाम बताए तो उसे अच्छा लगा और उसे मेरी बातो में अपनापन सा महसूस हुआ..तब ऑटो वाले ने मुझसे पूछा कि आप कौन सी पढाई करते हो ..तो मेरा जवाब उसके शब्द कोष से ऊपर निकल गया ..जवाब मिला भइया हम पढे नहीं है इस लिए समझ नहीं सकते कि आप क्या करते हो पर इतना बड़े स्कूल में हैं तो अच्छा ही करते होगें.. उसके जवाब में अपनी तारीफ सुन कर गुरूर यूं ही चढ गया ... अगला सवाल ऑटो वाले का था  भइया 12वी के बाद बच्चे को क्या पढाएँ ..हम भी उसे अपना मान कर सभी विकल्पों पर एक छोटा सा व्याख्यान दे बैढें ... उसने लम्बी सांस ली और बोला कि  लड़का तेज बहुत है पर अच्छे स्कूल में पढीं नहीं पाता ....पैसा भी हैय पर हम पढे़ ही नहीं है इस लिए एडमिशनवई नहीं लेते है .... अभी 8 वी में है पर... इस पर के बाद वो चुप और  उसकी इस चुप्पी पर  मेरी भी ताकत न थी कि मैं कोई और सवाल कर सकूँ... पर उसकी इस चुप्पी ने मेरे मुँह पर वह सवालों का वो गठ्ठर छोड़ गया जिसके जवाब मैं शायद खोज भी ना सकूँ ... तेज रफ्तार में आटो रायसीना मार्ग को पार करते हुए आकाशवाणी पर मुझे छोड़ आटो वाला फिर जिंदगी से लड़ने निकल पड़ा... मैं कुछ कह भी न सका... फिर एक भइया कि लाइन याद आ गई कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं! “… यहीं सोच मैं आकाशवाणी की ओर बढ चला ....

       
                                 आकाशवाणी से संसद




                                     

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

अनार एक बीमार हजार


बचपन में एक कहावत पढ़ी थी एक अनार सौ बीमारतब गुरू जी लोगो ने जो समझाया वही समझ लिया .... लेकिन आज उसका दूसरा सन्दर्भ भी समझ में आ गया कि एक अनार खरीदने में अगर 23 रू. देने पड़े तो 100 क्या न जाने कितने बीमार ही रहेंगे।  बात यूँ है कि मैं आज पहली बार प्रात: भ्रमण पर निकला तो JNU  स्थित सफल स्टोर (जो फल और सब्जी बेचता है) पर पहुँचा तो देखा कई लोग फल और सब्जी खरीद रहे है मैं भी उस भीड़ में शामिल हो गया.... अपने लिए फल खरीदने .. हाँलाकि मैं फलो का नियमित ग्राहक नहीं हूँ तो मुझे कीमतो का अन्दाजा नहीं था और मुझें वायरल है तो डॉक्टरो ने फल खाने का सझाव दिया था तो मैने सेब और अनार खरीदे सेब की कीमत 35 रू में 4, लेकिन 2 अनार की कीमत 46 रू अदा की । तब मेरे मुह से अपने आप ही निकल पड़ा कि इस अनार को खाने में तो 100 क्या हजारो बीमार पड़ जाएंगे।