गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

विरोध की प्रयोगशाला राजपथ नहीं आपका अपना घर होना चाहिए

बीते हफ्ते दिल्ली में हुए 23 वर्षीय छात्रा के बलात्कार के बाद दिल्ली में बलात्कार के विरोध में एकाएक जनता सड़क पर उतरी। जिसमें युवाओं की बड़ी भागीदारी दिखी। सड़क पर उतरी जनता ने इस अमाननवीय कृत्य का पुरजोर विरोध किया गया। जिसने सरकार की चूल्हें हिला कर रख दी। इस विरोध ने राज्य सरकार क्या केन्द्र सरकार के प्रमुख जिम्मेदार ओहदे पर बैठे लोगों को अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही के लिए मजबूर किया। इस विरोध के बाद महिलाओं की सुरक्षा और उनके सार्वजनिक जगहों पर अधिकार को लेकर सभी मंचो पर एक चर्चा का माहौल बना। इस माहौल को ना तो गुजरात के मोदी का जादू ही धूमिल कर सका और ना ही क्रिकेट के भगवान सचिन तेदुलकर का एकदिवसीय क्रिकेट से सन्यास। इस विरोध ने इस महत्वपूर्ण चर्चा को जिंदा रखा जो आमतौर पर इतनी बडी खबरों के बाद स्वत: ही दम तोड़ देती है।               

ऐसा नहीं हैं कि बलात्कार इस देश में पहली बार हुआ था या सरकार का विरोध पहली बार हो रहा हैं। लेकिन फिर भी यह जनाक्रोश अपने आप में काफी अलग था। जिसने दिखाया कि ने अगर इस देश के हालात में कुछ बदलाव आ सकता हैं वो सिर्फ और सिर्फ युवाओं के विरोध से बदल सकता हैं, क्योंकि छात्रों और युवाओं का एक मात्र विरोध बचा हैं जो लोकतांत्रिक देश में एक परिवर्तनकारी शक्ति रखता हैं और पवित्र हैं। यह विरोध हालातों में और महत्वपूर्ण हो जाता हैं जब राजनीति और महत्वपूर्ण विरोध की आवाजों में धर्म, जाति, क्षेत्र और वर्ग का असर साफ झलकता हैं। ऐसें मे युवाओं का यह ईमानदारी भरा विरोध सच में अपने आप में क्रांतिकारी होता जाता हैं। इन स्थितियों में युवाओं की जिम्मेदारी और भी बढ जाती हैं कि वो किसी भी विषय को सहीं से समझें ही नहीं वरन अपनी आवाज सामाजिक न्याय और कमजोरो के लिए उठाते रहें।

विरोध के बाद से कुछ परिवर्तन होना तय तो हैं, लेकिन ये लड़ाई यहीं खत्म नहीं हो जाती हैं। अभी भी महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई बडी लम्बी हैं क्योंकि इस विरोध सें हम कानून के नियमों में परिवर्तन तो करा ले जाएगें, अपराधियों को दंड भी दिला दे जाएगें, लेकिन उस संस्कृति का क्या करेंगें जिसने इस तरह के अपराधों की पौध को खुद ही सीचा और बड़ा कर रखा हैं। सबसे बड़ा सवाल यह हैं कि समाज इस तरह के अपराधों से पीड़ित छात्रा को कहाँ तक जीने देगी ? समाज का एक वर्ग जहां विरोध कर के परिवर्तन करने की मांग कर रहा हैं वहीं दूसरी और देश के हर कोने में बलात्कार, भ्रूण हत्या और महिलाओं के प्रति अपराध जारी हैं। इस घटना के अगले ही दिन बिहार और तमिलनाडु में हुए बलात्कार के बाद हत्या की घटनाए इस पर मोहर लगाती हैं। ऐसे में यह सवाल अपने आप में एक कठोर कानून कहाँ तक महिलाओं और उनके अधिकारों को सुरक्षित कर सकेगा। जबकि समाज महिलाओं के प्रति अपनी सामंती और पित्रृसतात्मक सोच से बाहर निकलने के लिए तैयार ही नहीं हैं। जिस समाज में महिलाओं से जुडे अपराधों में महिलाओं को अपराधी बनाने की प्रवृत्ति प्रमुख हैं, उस समाज में सिर्फ इंडिया गेट का विरोध कहाँ तक कारगर होगा। मेरी चिंता तब और बढ जाती हैं जब महिला को ही उनके साथ हुए अपराध के लिए दोषी ठहरा दिया जाता हैं। महिला के साथ हुई घटना के बाद, जगह घटना की जगह, वक्त उनका पहनावा और उसका उस वक्त उस जगह होने का कारण प्रमुख हो जाता हैं। तो ऐसे में यह विरोध सिर्फ अपराधी और कठोर कानून के अलावा क्या महिलाओं को एक समाज में लोकतांत्रिक जगह दिलाने में सक्षम हो पाएगा ? इस पर मुझें शक हैं। मेरा शक उस वक्त और बढ जाता हैं जब समाज में महिलाओं का घरों में रह कर विरोध करने का भी अधिकार सुरक्षित नहीं दिखाई पड़ता हैं। तो ऐसें में उनका सड़क पर वक्त बेवक्त चलनें के अधिकार और सार्वजनिक जगहों पर समान भागेदारी की कल्पना करना दिन मे दिवास्वप्न देखने सरीखा नहीं होगा ?

हम समाज के उस नजरिए का क्या करेगें जो अस्पताल में लड रही पीडित के लिए मर जाने को बेहतर विकल्प मान ररहें हैं। क्योंकि अगर वो बच जाती हैं तो उसका जीवन नर्क हो जाएगा औऱ इस नर्क के पीछें का तर्क डॉक्टरों का बयान जिसमें उसके इन्फेक्सन और मातृत्व सुख ना प्राप्त कर पाने का हवाला हैं। जिसमें उसके वैवाहिक जीवन और मातृत्व सुख की कल्पना और कठिनाईयों को केन्द्र में रखा जा रहा हैं। ऐसे में उस पीडित की लडाई कितनी कठिन और कितने मोर्चों पर होगी इसका आकलन करना आसान न होगा। ऐसे हालातों मे क्या उस पीडित की अपनी मौत से लडी और जीती हुई लडाई काफी छोटी न हो जाएगी, जब उसे हर कदम पर अपनें ही समाज में अपने ईर्द गिर्द के लोगों को खिलाफ लडना होगा ।

ये वो सवाल हैं जिनके बारे में हमें सिर्फ चर्चा करनी हैं पर उस पीडित को लडना होगा। वैवाहिक जीवन और मातृत्व के सुख की चिन्ता हमें हमारे उस समाज का असली चेहरा दिखलाता हैं जिसमें जहाँ स्त्री की उपयोगिता विवाह तक सीमित हैं और जहाँ वो बच्चें पैदा करने की मशीन भर हैं। तो ऐसें में जब यह पीडित अपनी मौत से जीत कर बाहर आएगीं तो क्या समाज उसके सामनें कई विषद लडाईयां लड़ने के लिए मैदान तैयार नहीं कर देगा जिसमें समाज पीडित को अयोग्य घोषित कर देगा, क्यों कि वो विवाह और मातृत्व सुख प्राप्त करने लायक नहीं रह जाएगीं। इस लडाई में पीडित को अपनी उपयोगिता साबित करनें के लिए उसे अपनी सारी जिंदगी लडना होगा ? वो हाथ में थाली लेकर अपने आप को समाज रूपी बाजार में खुद को प्रस्तुत तो कर ना सकेगी और किसी समाज दूसरे रूप में उसें स्वीकार भी नहीं करेगा। मातृत्व सुख ना पा पाने की स्थिति में क्या समाजिक संस्थाएं उसका स्वत: तिरस्कार ना कर देगीं ? ऐसें में इंडिया गेट से लेकर राजपथ तक विरोध का असर कहां तक प्रतिफलित होगा यह एक बडा सवाल हैं ? 

तो ऐसें में क्या हम इस विरोध से सिर्फ और सिर्फ अपराधी को सजा और अपराध के लिए कानून के लिए नहीं लड रहें हैं। क्या अपराधी को मौत की सजा और कानून के बाद हमारें कर्तव्यों की इतिश्री हो जाएगीं ? क्या हम इस विरोध में सामाजिक गैरजिम्मेदारी औऱ राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव को अनदेखा नहीं कर रहे है। जो इनका मूल हैं। सच में कानून लैण्डमार्क तय कर सकता हैं पर पूरा रास्ता नहीं। जो रास्ते तय कर रहें हैं वो नारी देह को आजाद करने के लिए तैयार ही नहीं हैं। तो क्या हमारी लडाई की दिशा अधूरी नहीं हैं। हम किस ओर लड़ रहे हैं यह एक महत्वपूर्ण सवाल हैं। हम लगातार असली जड़ को लगातार अनदेखा किए जा रहे हैं जिनसे हमें सच में लडना हैं। हम कब तक अपराधियों से अपराध के लिए लड़ते रहेगे ? क्या इस विरोध के बाद अपराधी फिर से हम और आप के चहरें से उभर नही आएगें ? इस लडाई से राजनैतिक जिम्मेदारी को एक हद तक जवाबदेह बना लेगें लेकिन सामाजिक जवाबदेही का क्या जो राजनैतिक जवाब देही को भी पूरी तरह प्रभावित करता हैं। सामाजिक जवाबदेही के बिना हमारी लडाई अधूरी ही रह जाएगी और राजनैतिक जवाबदेही को भी बच निकलने का पूरा मौका मिल जाएगा जैसा कि खाँप पंचायतो के मामले में हआ था। 

ऐसें में लडाई सिर्फ कानूनी परिवर्तन के लिए राजनैतिक दबाब के साथ साथ सामाजिक जवाब देही की ओर मोड़ने की भी जरूरत हैं। जहाँ पितृसत्तात्मक समाज के अलोकतांत्रिक नियमों के तलें महिलाएं एक लम्बे दौर से अपने लोकतात्रिक हको का बलिदान करती आ रही हैं। और अगर महिलाओं ने कहीं विरोध उठाने के लिए पहल की वहाँ इस पितृसत्ता द्वारा अपनी दमनकारी निर्णयों और तरीको से इस लोकतांत्रिक विरोध का दमन किया जाता रहा हैं। खुद महिलाओं का भी सामाजीकरण इस तरह किया जाता रहा हैं जहाँ महिलाएं भी महिलाओं के अधिकारो की दुश्मन बनी रही हैं। देहज हत्या, भ्रूण हत्या और अन्तर्जातीय विवाह इनके ज्वलन्त उदाहरण हैं।


इन परिस्थितियों में युवाओ का विरोध जिसमें बदलाव की क्षमता है उनकी जिम्मेदारी और बढ जाती हैं क्यों कि जो बीत गया वो बीत चुका हैं पर हमें जिस समाज में रहना हैं उसका निर्माँण खुद करना होगा ताकि समाज जिन अपराधों को देखे -अनदेखे में लगातार बढावा देता आ रहा हैं उस बढावें को एक करारा धक्का लग सकें। मजूबत लोगों ने कमजोरो के अधिकारों को सहर्ष नहीं दिया हैं। बडी लडाईयां लडनी पडी है। इतिहास साक्षी हैं हर लड़ाई का। कई चेहरे हैं इन लडाईयों के। जब भी उनका अधिकार खिसके हैं, तो मजबूत वर्ग द्वारा अपराध ही कियें गए है। ऐसे में दमनकारी नीतियों का एक लोकतांत्रिक विरोध करने का वक्त हैं। इसके लिए सबसे पहलें हमें अपने घर में आवाज उठाने की जरूरत हैं, वहाँ के नियमो को ना सिर्फ तोडना हैं वरन फिर से लिखने की जरूरत हैं। कई मोर्चो पर काम करने के की जरूरत होगी जिसमें महिलाओं का आर्थिक हिस्सेदारी से लेकर निर्णय की स्वतन्त्रता तक रास्ता तय करना होगा। पितृसत्ता की प्राथमिक और महत्वपूर्ण पाठशाला में महिलाओं के लिए विषय बदलने होगें,स्त्री अधिकारों का सबसे बडें दमनकारी केन्द्र बने हुए हैं। इन्ही से समाज भी बनता हैं । वहाँ आवाज उठी तो भरोसा रखिएं एक युगान्तरकारी परिवर्तन देखने को मिलेगा इसके बाद.इडिया गेट का चेहरा देखनें औऱ लाठी खाने की जरूरत नहीं पडेगी अगर हम और आप ऐसा नहीं कर सके तो ये विरोध और कई दिनो तक की लड़ाई अधूरी और अपनें लक्ष्य को पाएं बिना खत्म हो जाएगी और हम फिर एक और दिल्ली में बलात्कार का इन्तजार कर रहें होगे ताकि फिर से एक बार फिर इंडिया गेट पर पहुच सकें। दिल्ली में इस लिए क्योंकि देश के बाकी हिस्सों में हो रहें लगातार बलात्कार पर हमारा और मीडिया का ध्यान इतनी आसानी से नहीं जाता हैं। समाजिक जवाबदेही की लडाई लम्बी जरूर हैं पर अगर सच में हम अपने समाज को बदलना चाहते हैं तो इसके लिए हमें इसके लिए ना सिर्फ अभी से लड़ना होगा बल्कि एक सामाजिक चेतना के साथ कई मोर्चों पर लडना होगा, तब कहीं हम कुछ बदल सकेगें वरना कैडिल लाइट विरोध और राजपथ का विरोध सिर्फ जो सिर्फ दिखावा रह जाएगा। 



शिशिर कुमार यादव 


य़ह लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में  28 दिसम्बर के  अंक में   "घर बने विरोध की प्रयोगशाला" के नाम से प्रकाशित हुआ 

शनिवार, 25 अगस्त 2012

मेरा निक नेम बच्चा हैं


मेरा निक नेम बच्चा हैं , बचपन में जब कोई घर पर मिलने आता तो पापा बुलाते बच्चा देखों अकंल आए हैं इनसे मिलों .... अंकल बडें प्यार से पूछते कि आप का नाम क्या हैं हम भी इतराते हुए बतलाते शिशिर कुमार यादव ... हमेशा की तरह अंकल लोग सुशील, सुनील की जद्दोजहद के बाद कहीं मेरा सहीं नाम बोल पाते... मैं भी अपनें नाम को लेकर खूब इतराता... मेरी माते (मां) बताती हैं कि एक दीदी थी उन्होनें रखा था ये नाम.. पापा नें इसलिए मोहर मार दी क्योंकि वो किसी आई ए एस आफीसर को भी जानते थे इस नाम से तो पड़ गया मेरा नाम शिशिर वरना मेरा नाम भी राजेन्द्र नागेन्द्र, ज्ञानेन्द्र ( ये मेरे घर में नाम हैं और मेरे नाम से ये तुक बंदी खत्म हुई) की सीरिज का अगला नाम सुरेन्द्र, महेन्द्र, देवेन्द्र आदि आदि मे से एक होता
 ..मैं भी अपनें इस नाम से खुश रहता क्योंकि बड़ी आसानी से ये नाम मेरे पूरे स्कूल में नहीं होता था मेरे नाम जैसा .. संदीप, अमित, सचिन विकास, सुशील, सुनील जैसे तो बहुत थे पर  ,,, मैं अकेला होता था अपने नाम का ....इस तरह मेरी पहली पहचान बच्चा और दूसरी पहचान शिशिर होती थी ...
     आज धीरें धीरे घर से बाहर रहते हुए 3 साल से ऊपर होते जा रहे हैं,,, पहचान बदलती जा रहीं हैं सब इसी नाम से पुकारते हैं ,,,, किसी से मिलो ...हाय आई एम शिशिर फ्राम...  हे मीट माई फ्रेंड शिशिर.. ही इज इन ...
बैक, रेलवें, रेस्ट्रों कहीं भी सर योर गुड नेम प्लीज ... मेरा जवाब शिशिर ... ओके सर .. सो मिस्टर शिशिर ..
अब यहीं नाम पहचान हैं लडाई में जिगरी दोस्त जो कुछ और नाम से पुकारते हैं वो भी गुस्सें में इसी नाम का उपयोग करते हैं.... एक्स, वाई, या जेड गर्लफ्रेडम भी गुस्सें में मिस्टर शिशिर आई वाना वांट टू टेल यू दैट यू ना यू छोडो... तुमसे तो बात करना ही बेकार हैं...
टीचर और सुपर वाइजर भी यू नो शिशिर योर वर्क इज लिटिल ....... या वैलडन शिशिर यू हैव डन .... हर जगह शिशिर शिशिर
इस शिशिर में धीरे धीरे सब बदल दिया... वो पहचान और वो मनमानी  सब कुछ ...इसने मेरी पहली पहचान छीन ही ली हैं ,,, अब मैं दूसरी पहचान से पहचानें जाना लगा हूँ और लोग कहते हैं कि ये जो हैं ना जैसा हैं ना वैसा है नहीं जो दिखता हैं वैसा हैं नहीं,,, अंदर कुछ बाहर कुछ ... मुखोटा तो हैं ही दोस्त ... खुद से पूछिएं... शायद आप को खुद में कोई शिशिर दिखें... जो अपने पहले नाम को खोज रहा हैं ,,,, बच्चा 



गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

उसका नाम कुसुम है


उसका नाम कुसुम है। जीवन नें उसके साथ मजाक किया उसे कभी पैरों पर खड़ा ही नहीं होने दिया। कारण वहीं पुराना घिसा पिटा, पहला उसका लड़की होना, दूसरा 10-11 बच्चों में जिनमें से 8-9 होना, जागरूकता की कमीं, और चौथा गरीबी का स्वर्ण मुकुट होना। इस मुकुट के आगे बाकी कारण तो बेईमानी हो ही जाते है, पर आगे लिखने से पहले कहना चाहुँगां कि गरीबी प्रमुख कारणों में से एक जरूर थी, पर पहली नहीं। कारण जो भी रहा हो पर उसके नाम को उसकी मार्कशीट ने जाना बाकी सबने लंगड़ी के रूप में पहचाना, और नाम दिया लगंड़ी बिट्टीबिट्टी अवध प्रदेश में बिटियाँ को कहा जाता है। लगड़ी बिट्टी चली पर ड़डे के सहारे।
  खैर जीवन से सघर्ष उसकी नियति थी। उसके साथ उसने समय बिताया, इस उम्मीद के साथ कि भविष्य शायद उसे कुछ सपने देखने की ताकत और इजाजत दे दें। वक्त बीतता गया और उसका नाम अभी भी लगंड़ी बिट्टी था। पर उसे भरोसा था कि शायद कुछ अच्छा हो जाएं। उम्र के पड़ाव बीतते गएं, इस दौड़ में कुछ भी न बदला ना ही उसका नाम और न ही उसकी नियति। उम्र के पड़ाव के साथ उसे उस घर को छोड़ना ही था क्योंकि वो एक लड़की थी। अच्छी गरीब लड़की की तो शादी नहीं होती ये तो गरीब लंगड़ी बिट्टी थी। उसकी शादी इतनी आसानी से कैसे हो जाती। मां-बाप ने सभी जगह घोड़े दौड़ाएं और शादी तय की, लड़का देखने दिखाने में सुंदर और सब तरह से सही। सबको शक हुआ कि अरे जिस लगंड़ी बिट्टी को महक तक नसीब न थी उसके हिस्सें में गुलशन की महक कहाँ से आ गई। शक सहीं था गुलशन की महक नहीं खाली पड़े वीरान ऊसर उसके हिस्से में आ गया। जिससें उसकी शादी की गई, उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं रहती। अब लगड़ी बिट्टी का नाम और पहचान बदल चुकी है, उसमें उसकी सामाजिक पहचान जुड़ चुकी है, और वो है, एक पागल की पत्नी जो लंगड़ी है।


कुसुम की बिटियाँ जो 4 ड़िग्री के तापमान पर इन कपड़ों में थी
 एक स्त्री होने के नाते उसको और भी भूमिका का निर्वाहन करना था... जीवन ने उसके नाम में एक और नाम जोड़ा, माँ.... 2 लड़कों की माँ और एक बेटी की, सभी सहीं है ना वो पागल है और ना ही वो लगड़े। पर कुसुम उर्फ लगड़ी बिट्टी परेशान है कि जिस ठंड़ में सबके तन पर कपड़ों के लबादे है उसके बच्चे हाफ फ्राक और हाफ पैंट पर है। लड़के के पास फुल स्वेटर और सर पर टोपी है लड़की के हिस्से में हाफ फ्राक के साथ हाफ स्वेटर । खैर कुसुम आज भी वक्त के पैमानों से दूर खड़ी है क्योंकि न तो उसे वक्त समझ में आ रहा है और न ही उसके पैमाने।

सोमवार, 29 अगस्त 2011

कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं!


           

आज आकाशवाणी के लिए JNU  से निकलना चाहाँ तो ऑटो नहीं मिला.... काफी देर का इन्तजार, बार बार गोदावरी बस स्टैंण्ड के नाम पढनें के अलावा कोई विकल्प भी नहीं दे रहा था ...खैंर इन्तजार को भी चैंन कहाँ जल्द ही खत्म हुआ ऑटो तय हुआ ..मीटर के डिजीटल अंको ने तय करती दूरी का खाका खीचना शुरू कर दिया.... बरसात की गर्मी और वो ऑटों ... दिल्ली को ऑटो के पर्दे से देखना चाहा तो दिल्ली मुझें ठहरे शहर में भागते हुए लोगों कि अन्धी दौड़ का शहर नजर आया (ये मेरा भ्रम भी हो सकता है क्यों कि फिल्मों मे दिल्ली का अपना बखान है).आपकी राय भी दिल्ली के बारे में मुझसे इतर हो सकती है.


ऑटों से बाहर की दिल्ली 



बस यूँ ही सफर चलता रहा तभी ऑटो वाले ने मुझ से 5 मिनट का समय माँगा ताकि वो अपनी गाड़ी के लिए ईधन ले सके..मेरे पास भी उसकी इस माँग को स्वीकार न करने की कोई वजह नजर नहीं आई..क्योंकि अगर न मानता तो शायद ऑटो बढता ही नहीं ..खैर ऑटो की लम्बी लाईन और उसी लाइन में हमारा भी ऑटो.. खाली वक्त और जिंदगी से रोज मिलते रहने वाले सख्स से बात करने की उत्कंठा ने मुझे एक सवाल दागने पर मजबूर किया दिल्ली के ही हो आप या बाहर के ? “.. आटों वाले ने मेरी ओर देखा और बड़ी अजीब से मुस्कुराते हुए जवाब दिया ...है तो बाहर के पर 20 साल से यहीं है मन में ही उसकी हँसी का राज जानना चाहा तो जवाब मिला शायद मुझ जैसा हर आदमी अपना समय काटने के लिए यह सवाल पूछता होगा ....खैर इस सोच से बाहर निकलते है ही दूसरा सवाल दागा कहाँ से हो ?जवाब आया कानपुर ”… कानों को अच्छा लगा सुनकर ... मैनें भी धड़ाध़ड़ कानपुर और उससे जुड़े जिले उन्नाव के कुछ परिचित नाम बताए तो उसे अच्छा लगा और उसे मेरी बातो में अपनापन सा महसूस हुआ..तब ऑटो वाले ने मुझसे पूछा कि आप कौन सी पढाई करते हो ..तो मेरा जवाब उसके शब्द कोष से ऊपर निकल गया ..जवाब मिला भइया हम पढे नहीं है इस लिए समझ नहीं सकते कि आप क्या करते हो पर इतना बड़े स्कूल में हैं तो अच्छा ही करते होगें.. उसके जवाब में अपनी तारीफ सुन कर गुरूर यूं ही चढ गया ... अगला सवाल ऑटो वाले का था  भइया 12वी के बाद बच्चे को क्या पढाएँ ..हम भी उसे अपना मान कर सभी विकल्पों पर एक छोटा सा व्याख्यान दे बैढें ... उसने लम्बी सांस ली और बोला कि  लड़का तेज बहुत है पर अच्छे स्कूल में पढीं नहीं पाता ....पैसा भी हैय पर हम पढे़ ही नहीं है इस लिए एडमिशनवई नहीं लेते है .... अभी 8 वी में है पर... इस पर के बाद वो चुप और  उसकी इस चुप्पी पर  मेरी भी ताकत न थी कि मैं कोई और सवाल कर सकूँ... पर उसकी इस चुप्पी ने मेरे मुँह पर वह सवालों का वो गठ्ठर छोड़ गया जिसके जवाब मैं शायद खोज भी ना सकूँ ... तेज रफ्तार में आटो रायसीना मार्ग को पार करते हुए आकाशवाणी पर मुझे छोड़ आटो वाला फिर जिंदगी से लड़ने निकल पड़ा... मैं कुछ कह भी न सका... फिर एक भइया कि लाइन याद आ गई कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं! “… यहीं सोच मैं आकाशवाणी की ओर बढ चला ....

       
                                 आकाशवाणी से संसद




                                     

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

अनार एक बीमार हजार


बचपन में एक कहावत पढ़ी थी एक अनार सौ बीमारतब गुरू जी लोगो ने जो समझाया वही समझ लिया .... लेकिन आज उसका दूसरा सन्दर्भ भी समझ में आ गया कि एक अनार खरीदने में अगर 23 रू. देने पड़े तो 100 क्या न जाने कितने बीमार ही रहेंगे।  बात यूँ है कि मैं आज पहली बार प्रात: भ्रमण पर निकला तो JNU  स्थित सफल स्टोर (जो फल और सब्जी बेचता है) पर पहुँचा तो देखा कई लोग फल और सब्जी खरीद रहे है मैं भी उस भीड़ में शामिल हो गया.... अपने लिए फल खरीदने .. हाँलाकि मैं फलो का नियमित ग्राहक नहीं हूँ तो मुझे कीमतो का अन्दाजा नहीं था और मुझें वायरल है तो डॉक्टरो ने फल खाने का सझाव दिया था तो मैने सेब और अनार खरीदे सेब की कीमत 35 रू में 4, लेकिन 2 अनार की कीमत 46 रू अदा की । तब मेरे मुह से अपने आप ही निकल पड़ा कि इस अनार को खाने में तो 100 क्या हजारो बीमार पड़ जाएंगे।  

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

मधुमय अतीत .......

बात मेरे बचपन की है .. बचपन में मैं काफी शर्मीला किस्म का लडका था, खास कर लड़कियों के मामले में........... कोई भी कुछ भी कह कर मुझें चिढा सकता था। मेरी इस शर्मीलेपन का फायदा मेरे घर वाले खूब उठाया करते थे खास तौर पर जब मेरे लिए नये कपडे़ आया करते थे .. तो पापा यह कह कर अक्सर चिढा लेते थे कि अब मेरी शादी करा दी जाए .... मेरे को यह बात काफी चिढा देती थी और मैं सारे नयें कपड़े को उतार कर फेक कर गुस्से से अपने आप को कमरे में बंद कर लिया कर लेता था..........
      बात एक बार की हैं हम भोगांव (मैनपुरी) में रहते थे। मै और मेरी दीदी को कापी खरीदनी थी।मैं 4 में पढता था और दीदी 5 में। मुझें हिन्दी और दीदी को अंग्रेजी की कापी खरीदनी थी हम दोनों दुकान पर पहुचे कापी की मांग की दुकानदार ने कापियां दी इत्तेफाक से मेरी कापी पर किसी फिल्म अदाकारा का चित्र था अब मेरा मन उस कापी से उचट गया और कापी लेने से इनकार कर दिया दीदी ने डांट कर उस कापी को ही लेने का दबाब डाला पर मैं अडिग ..उपर से.उस वक्त दीदी भी छोटी थी और थो़डा दुकानदार का डर ... लेकिन मैं अपने विचार पर अडिग ....हार कर दीदी ने उस दुकानदार से कहा कि इसे बदल कर दूसरी कापी दे दें.... उस पर वो दुकानदार डाटते हुये लफ्जो में बोला मौडी (लड़की) अभी तो तूने यही कापी मागी थी ना .....दीदी ने कापते हुये स्वर में कहा कि इस पर हिरोईन छपी है इस लिए मैं इसे नहीं ले रहा हूँ....दुकानदार ने हसते  हुये अपने सहायक से कहा कि कापी बदल कर दूसरी दे दे इस मौड़े (लड़का) को मौड़ी (लड़की ) पंसद नही है।
    आज भी हम इस बात को याद  कर अपने बचपन के दिन को याद कर उन बचपन के दिनों में लौट जाते हैं।  सच में कितना अच्छा है मधुमय अतीत .......

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

सब अपनई हयेन

मैनें अपने मित्र अरविन्द का एक लेख पढा जिसमें भारत की विद्वानों की यूनीवर्सिंटी माने जाने वाली जेएनयू में बदलते राजनैतिक बहार की महक महसूस हुई। सच में बदलाव ही किसी प्रक्रिया की व्यवहारिकता है। हम सभी किसी न किसी राजनैतिक विचारधारा के समर्थक हो सकते हैं उस विचारधारा के समर्थक होने के नाते हमारा उस विचारधारा के प्रति झुकाव भी जायज है लेकिन उस विचारधारा के चलते हम मानवीयता के पैमानों को भूल जायें ये कौन सी विचारधारा का हिस्सा है। राजनीति में तो मानवीय पहलू ही केंद्र में होते हैं अगर आदिवासीयों के हक की लड़ाई लड़ रहे लोग मानवीयता की दुहाई देते हैं तो दंतेवाड़ा में मारे जाने वाला सिपाही कौन हैं । आखिर मानवीयता का कौन सा पैमाना इस हिंसा को जायज ठहरा सकता हैं। दंतेवाड़ा की हिंसा को किसी भी कीमत पर सहीं नहीं कहाँ जा सकता है। अभी हिन्दुस्तान की ओर से हमें लखनऊ भेजा गया हैं और दंतेवाड़ा में मारे गयें जवानों में से 42 उत्तर प्रदेश के थे और उन में से 25 जवानों के पार्थिव शरीर को अमौसी हवाई अड्डे पर उतार कर उनके गृह जनपदों को भेजा जाना था तो हमें भी मौका मिला वहाँ जाने का । बड़ा ही खामोश मंजर था सच में 400 से 500 की भीड़ के बाद इतनी खामोशी मैनें अपने जीवन में कभीं नहीं महसूस की, एक एक करके 25 शवों के बाद विचारशून्यता सी स्थिति न कोई भाव न कोई नक्सलवाद की बहस का विचार सिर्फ एकटक उनकी ओर निहारता रहा जो वहाँ थे ही नहीं। नया नया पत्रकार तो खबर लिखनी ही थी तो कुछ ऐसा लिखनें की इच्छा थी जो सच्चे चित्र उभार सके, तो देखा कि पास में कुछ महिलाएं रो रहीं है सारा मि़डिंया का मुँह उन्हीं की ओर सबने समझा किसी शहीद के परिवारी जन होगें । पहला सवाल आप का कोई परिवारीजन इसमें हैं कया ? जवाब मिला “सब अपनई त हयेन” इसके बाद किसी ने कुछ नहीं पूछाँ। सच में ये मानवीय पहलू हैं जिसें हमें समझना होगा।