शनिवार, 25 अगस्त 2012

मेरा निक नेम बच्चा हैं


मेरा निक नेम बच्चा हैं , बचपन में जब कोई घर पर मिलने आता तो पापा बुलाते बच्चा देखों अकंल आए हैं इनसे मिलों .... अंकल बडें प्यार से पूछते कि आप का नाम क्या हैं हम भी इतराते हुए बतलाते शिशिर कुमार यादव ... हमेशा की तरह अंकल लोग सुशील, सुनील की जद्दोजहद के बाद कहीं मेरा सहीं नाम बोल पाते... मैं भी अपनें नाम को लेकर खूब इतराता... मेरी माते (मां) बताती हैं कि एक दीदी थी उन्होनें रखा था ये नाम.. पापा नें इसलिए मोहर मार दी क्योंकि वो किसी आई ए एस आफीसर को भी जानते थे इस नाम से तो पड़ गया मेरा नाम शिशिर वरना मेरा नाम भी राजेन्द्र नागेन्द्र, ज्ञानेन्द्र ( ये मेरे घर में नाम हैं और मेरे नाम से ये तुक बंदी खत्म हुई) की सीरिज का अगला नाम सुरेन्द्र, महेन्द्र, देवेन्द्र आदि आदि मे से एक होता
 ..मैं भी अपनें इस नाम से खुश रहता क्योंकि बड़ी आसानी से ये नाम मेरे पूरे स्कूल में नहीं होता था मेरे नाम जैसा .. संदीप, अमित, सचिन विकास, सुशील, सुनील जैसे तो बहुत थे पर  ,,, मैं अकेला होता था अपने नाम का ....इस तरह मेरी पहली पहचान बच्चा और दूसरी पहचान शिशिर होती थी ...
     आज धीरें धीरे घर से बाहर रहते हुए 3 साल से ऊपर होते जा रहे हैं,,, पहचान बदलती जा रहीं हैं सब इसी नाम से पुकारते हैं ,,,, किसी से मिलो ...हाय आई एम शिशिर फ्राम...  हे मीट माई फ्रेंड शिशिर.. ही इज इन ...
बैक, रेलवें, रेस्ट्रों कहीं भी सर योर गुड नेम प्लीज ... मेरा जवाब शिशिर ... ओके सर .. सो मिस्टर शिशिर ..
अब यहीं नाम पहचान हैं लडाई में जिगरी दोस्त जो कुछ और नाम से पुकारते हैं वो भी गुस्सें में इसी नाम का उपयोग करते हैं.... एक्स, वाई, या जेड गर्लफ्रेडम भी गुस्सें में मिस्टर शिशिर आई वाना वांट टू टेल यू दैट यू ना यू छोडो... तुमसे तो बात करना ही बेकार हैं...
टीचर और सुपर वाइजर भी यू नो शिशिर योर वर्क इज लिटिल ....... या वैलडन शिशिर यू हैव डन .... हर जगह शिशिर शिशिर
इस शिशिर में धीरे धीरे सब बदल दिया... वो पहचान और वो मनमानी  सब कुछ ...इसने मेरी पहली पहचान छीन ही ली हैं ,,, अब मैं दूसरी पहचान से पहचानें जाना लगा हूँ और लोग कहते हैं कि ये जो हैं ना जैसा हैं ना वैसा है नहीं जो दिखता हैं वैसा हैं नहीं,,, अंदर कुछ बाहर कुछ ... मुखोटा तो हैं ही दोस्त ... खुद से पूछिएं... शायद आप को खुद में कोई शिशिर दिखें... जो अपने पहले नाम को खोज रहा हैं ,,,, बच्चा 



गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

उसका नाम कुसुम है


उसका नाम कुसुम है। जीवन नें उसके साथ मजाक किया उसे कभी पैरों पर खड़ा ही नहीं होने दिया। कारण वहीं पुराना घिसा पिटा, पहला उसका लड़की होना, दूसरा 10-11 बच्चों में जिनमें से 8-9 होना, जागरूकता की कमीं, और चौथा गरीबी का स्वर्ण मुकुट होना। इस मुकुट के आगे बाकी कारण तो बेईमानी हो ही जाते है, पर आगे लिखने से पहले कहना चाहुँगां कि गरीबी प्रमुख कारणों में से एक जरूर थी, पर पहली नहीं। कारण जो भी रहा हो पर उसके नाम को उसकी मार्कशीट ने जाना बाकी सबने लंगड़ी के रूप में पहचाना, और नाम दिया लगंड़ी बिट्टीबिट्टी अवध प्रदेश में बिटियाँ को कहा जाता है। लगड़ी बिट्टी चली पर ड़डे के सहारे।
  खैर जीवन से सघर्ष उसकी नियति थी। उसके साथ उसने समय बिताया, इस उम्मीद के साथ कि भविष्य शायद उसे कुछ सपने देखने की ताकत और इजाजत दे दें। वक्त बीतता गया और उसका नाम अभी भी लगंड़ी बिट्टी था। पर उसे भरोसा था कि शायद कुछ अच्छा हो जाएं। उम्र के पड़ाव बीतते गएं, इस दौड़ में कुछ भी न बदला ना ही उसका नाम और न ही उसकी नियति। उम्र के पड़ाव के साथ उसे उस घर को छोड़ना ही था क्योंकि वो एक लड़की थी। अच्छी गरीब लड़की की तो शादी नहीं होती ये तो गरीब लंगड़ी बिट्टी थी। उसकी शादी इतनी आसानी से कैसे हो जाती। मां-बाप ने सभी जगह घोड़े दौड़ाएं और शादी तय की, लड़का देखने दिखाने में सुंदर और सब तरह से सही। सबको शक हुआ कि अरे जिस लगंड़ी बिट्टी को महक तक नसीब न थी उसके हिस्सें में गुलशन की महक कहाँ से आ गई। शक सहीं था गुलशन की महक नहीं खाली पड़े वीरान ऊसर उसके हिस्से में आ गया। जिससें उसकी शादी की गई, उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं रहती। अब लगड़ी बिट्टी का नाम और पहचान बदल चुकी है, उसमें उसकी सामाजिक पहचान जुड़ चुकी है, और वो है, एक पागल की पत्नी जो लंगड़ी है।


कुसुम की बिटियाँ जो 4 ड़िग्री के तापमान पर इन कपड़ों में थी
 एक स्त्री होने के नाते उसको और भी भूमिका का निर्वाहन करना था... जीवन ने उसके नाम में एक और नाम जोड़ा, माँ.... 2 लड़कों की माँ और एक बेटी की, सभी सहीं है ना वो पागल है और ना ही वो लगड़े। पर कुसुम उर्फ लगड़ी बिट्टी परेशान है कि जिस ठंड़ में सबके तन पर कपड़ों के लबादे है उसके बच्चे हाफ फ्राक और हाफ पैंट पर है। लड़के के पास फुल स्वेटर और सर पर टोपी है लड़की के हिस्से में हाफ फ्राक के साथ हाफ स्वेटर । खैर कुसुम आज भी वक्त के पैमानों से दूर खड़ी है क्योंकि न तो उसे वक्त समझ में आ रहा है और न ही उसके पैमाने।

सोमवार, 29 अगस्त 2011

कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं!


           

आज आकाशवाणी के लिए JNU  से निकलना चाहाँ तो ऑटो नहीं मिला.... काफी देर का इन्तजार, बार बार गोदावरी बस स्टैंण्ड के नाम पढनें के अलावा कोई विकल्प भी नहीं दे रहा था ...खैंर इन्तजार को भी चैंन कहाँ जल्द ही खत्म हुआ ऑटो तय हुआ ..मीटर के डिजीटल अंको ने तय करती दूरी का खाका खीचना शुरू कर दिया.... बरसात की गर्मी और वो ऑटों ... दिल्ली को ऑटो के पर्दे से देखना चाहा तो दिल्ली मुझें ठहरे शहर में भागते हुए लोगों कि अन्धी दौड़ का शहर नजर आया (ये मेरा भ्रम भी हो सकता है क्यों कि फिल्मों मे दिल्ली का अपना बखान है).आपकी राय भी दिल्ली के बारे में मुझसे इतर हो सकती है.


ऑटों से बाहर की दिल्ली 



बस यूँ ही सफर चलता रहा तभी ऑटो वाले ने मुझ से 5 मिनट का समय माँगा ताकि वो अपनी गाड़ी के लिए ईधन ले सके..मेरे पास भी उसकी इस माँग को स्वीकार न करने की कोई वजह नजर नहीं आई..क्योंकि अगर न मानता तो शायद ऑटो बढता ही नहीं ..खैर ऑटो की लम्बी लाईन और उसी लाइन में हमारा भी ऑटो.. खाली वक्त और जिंदगी से रोज मिलते रहने वाले सख्स से बात करने की उत्कंठा ने मुझे एक सवाल दागने पर मजबूर किया दिल्ली के ही हो आप या बाहर के ? “.. आटों वाले ने मेरी ओर देखा और बड़ी अजीब से मुस्कुराते हुए जवाब दिया ...है तो बाहर के पर 20 साल से यहीं है मन में ही उसकी हँसी का राज जानना चाहा तो जवाब मिला शायद मुझ जैसा हर आदमी अपना समय काटने के लिए यह सवाल पूछता होगा ....खैर इस सोच से बाहर निकलते है ही दूसरा सवाल दागा कहाँ से हो ?जवाब आया कानपुर ”… कानों को अच्छा लगा सुनकर ... मैनें भी धड़ाध़ड़ कानपुर और उससे जुड़े जिले उन्नाव के कुछ परिचित नाम बताए तो उसे अच्छा लगा और उसे मेरी बातो में अपनापन सा महसूस हुआ..तब ऑटो वाले ने मुझसे पूछा कि आप कौन सी पढाई करते हो ..तो मेरा जवाब उसके शब्द कोष से ऊपर निकल गया ..जवाब मिला भइया हम पढे नहीं है इस लिए समझ नहीं सकते कि आप क्या करते हो पर इतना बड़े स्कूल में हैं तो अच्छा ही करते होगें.. उसके जवाब में अपनी तारीफ सुन कर गुरूर यूं ही चढ गया ... अगला सवाल ऑटो वाले का था  भइया 12वी के बाद बच्चे को क्या पढाएँ ..हम भी उसे अपना मान कर सभी विकल्पों पर एक छोटा सा व्याख्यान दे बैढें ... उसने लम्बी सांस ली और बोला कि  लड़का तेज बहुत है पर अच्छे स्कूल में पढीं नहीं पाता ....पैसा भी हैय पर हम पढे़ ही नहीं है इस लिए एडमिशनवई नहीं लेते है .... अभी 8 वी में है पर... इस पर के बाद वो चुप और  उसकी इस चुप्पी पर  मेरी भी ताकत न थी कि मैं कोई और सवाल कर सकूँ... पर उसकी इस चुप्पी ने मेरे मुँह पर वह सवालों का वो गठ्ठर छोड़ गया जिसके जवाब मैं शायद खोज भी ना सकूँ ... तेज रफ्तार में आटो रायसीना मार्ग को पार करते हुए आकाशवाणी पर मुझे छोड़ आटो वाला फिर जिंदगी से लड़ने निकल पड़ा... मैं कुछ कह भी न सका... फिर एक भइया कि लाइन याद आ गई कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं! “… यहीं सोच मैं आकाशवाणी की ओर बढ चला ....

       
                                 आकाशवाणी से संसद




                                     

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

अनार एक बीमार हजार


बचपन में एक कहावत पढ़ी थी एक अनार सौ बीमारतब गुरू जी लोगो ने जो समझाया वही समझ लिया .... लेकिन आज उसका दूसरा सन्दर्भ भी समझ में आ गया कि एक अनार खरीदने में अगर 23 रू. देने पड़े तो 100 क्या न जाने कितने बीमार ही रहेंगे।  बात यूँ है कि मैं आज पहली बार प्रात: भ्रमण पर निकला तो JNU  स्थित सफल स्टोर (जो फल और सब्जी बेचता है) पर पहुँचा तो देखा कई लोग फल और सब्जी खरीद रहे है मैं भी उस भीड़ में शामिल हो गया.... अपने लिए फल खरीदने .. हाँलाकि मैं फलो का नियमित ग्राहक नहीं हूँ तो मुझे कीमतो का अन्दाजा नहीं था और मुझें वायरल है तो डॉक्टरो ने फल खाने का सझाव दिया था तो मैने सेब और अनार खरीदे सेब की कीमत 35 रू में 4, लेकिन 2 अनार की कीमत 46 रू अदा की । तब मेरे मुह से अपने आप ही निकल पड़ा कि इस अनार को खाने में तो 100 क्या हजारो बीमार पड़ जाएंगे।  

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

मधुमय अतीत .......

बात मेरे बचपन की है .. बचपन में मैं काफी शर्मीला किस्म का लडका था, खास कर लड़कियों के मामले में........... कोई भी कुछ भी कह कर मुझें चिढा सकता था। मेरी इस शर्मीलेपन का फायदा मेरे घर वाले खूब उठाया करते थे खास तौर पर जब मेरे लिए नये कपडे़ आया करते थे .. तो पापा यह कह कर अक्सर चिढा लेते थे कि अब मेरी शादी करा दी जाए .... मेरे को यह बात काफी चिढा देती थी और मैं सारे नयें कपड़े को उतार कर फेक कर गुस्से से अपने आप को कमरे में बंद कर लिया कर लेता था..........
      बात एक बार की हैं हम भोगांव (मैनपुरी) में रहते थे। मै और मेरी दीदी को कापी खरीदनी थी।मैं 4 में पढता था और दीदी 5 में। मुझें हिन्दी और दीदी को अंग्रेजी की कापी खरीदनी थी हम दोनों दुकान पर पहुचे कापी की मांग की दुकानदार ने कापियां दी इत्तेफाक से मेरी कापी पर किसी फिल्म अदाकारा का चित्र था अब मेरा मन उस कापी से उचट गया और कापी लेने से इनकार कर दिया दीदी ने डांट कर उस कापी को ही लेने का दबाब डाला पर मैं अडिग ..उपर से.उस वक्त दीदी भी छोटी थी और थो़डा दुकानदार का डर ... लेकिन मैं अपने विचार पर अडिग ....हार कर दीदी ने उस दुकानदार से कहा कि इसे बदल कर दूसरी कापी दे दें.... उस पर वो दुकानदार डाटते हुये लफ्जो में बोला मौडी (लड़की) अभी तो तूने यही कापी मागी थी ना .....दीदी ने कापते हुये स्वर में कहा कि इस पर हिरोईन छपी है इस लिए मैं इसे नहीं ले रहा हूँ....दुकानदार ने हसते  हुये अपने सहायक से कहा कि कापी बदल कर दूसरी दे दे इस मौड़े (लड़का) को मौड़ी (लड़की ) पंसद नही है।
    आज भी हम इस बात को याद  कर अपने बचपन के दिन को याद कर उन बचपन के दिनों में लौट जाते हैं।  सच में कितना अच्छा है मधुमय अतीत .......

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

सब अपनई हयेन

मैनें अपने मित्र अरविन्द का एक लेख पढा जिसमें भारत की विद्वानों की यूनीवर्सिंटी माने जाने वाली जेएनयू में बदलते राजनैतिक बहार की महक महसूस हुई। सच में बदलाव ही किसी प्रक्रिया की व्यवहारिकता है। हम सभी किसी न किसी राजनैतिक विचारधारा के समर्थक हो सकते हैं उस विचारधारा के समर्थक होने के नाते हमारा उस विचारधारा के प्रति झुकाव भी जायज है लेकिन उस विचारधारा के चलते हम मानवीयता के पैमानों को भूल जायें ये कौन सी विचारधारा का हिस्सा है। राजनीति में तो मानवीय पहलू ही केंद्र में होते हैं अगर आदिवासीयों के हक की लड़ाई लड़ रहे लोग मानवीयता की दुहाई देते हैं तो दंतेवाड़ा में मारे जाने वाला सिपाही कौन हैं । आखिर मानवीयता का कौन सा पैमाना इस हिंसा को जायज ठहरा सकता हैं। दंतेवाड़ा की हिंसा को किसी भी कीमत पर सहीं नहीं कहाँ जा सकता है। अभी हिन्दुस्तान की ओर से हमें लखनऊ भेजा गया हैं और दंतेवाड़ा में मारे गयें जवानों में से 42 उत्तर प्रदेश के थे और उन में से 25 जवानों के पार्थिव शरीर को अमौसी हवाई अड्डे पर उतार कर उनके गृह जनपदों को भेजा जाना था तो हमें भी मौका मिला वहाँ जाने का । बड़ा ही खामोश मंजर था सच में 400 से 500 की भीड़ के बाद इतनी खामोशी मैनें अपने जीवन में कभीं नहीं महसूस की, एक एक करके 25 शवों के बाद विचारशून्यता सी स्थिति न कोई भाव न कोई नक्सलवाद की बहस का विचार सिर्फ एकटक उनकी ओर निहारता रहा जो वहाँ थे ही नहीं। नया नया पत्रकार तो खबर लिखनी ही थी तो कुछ ऐसा लिखनें की इच्छा थी जो सच्चे चित्र उभार सके, तो देखा कि पास में कुछ महिलाएं रो रहीं है सारा मि़डिंया का मुँह उन्हीं की ओर सबने समझा किसी शहीद के परिवारी जन होगें । पहला सवाल आप का कोई परिवारीजन इसमें हैं कया ? जवाब मिला “सब अपनई त हयेन” इसके बाद किसी ने कुछ नहीं पूछाँ। सच में ये मानवीय पहलू हैं जिसें हमें समझना होगा।

शनिवार, 20 मार्च 2010

उच्चारण

शिखा सिंह

 

 

 

अपनी भावनाओं ,विचारों और सूचना बताने के लिए हम भाषा का इस्तेमाल करते हैं। और भाषा गठन शब्दों से होता है। शब्द हमारी अभिव्यक्ति की इकाई होते हैं। हम शब्दों से ही वाक्य विन्यास होता है। वाक्य सूचना, विचार और भावनाओं को सम्प्रेषित करते हैं। यहां हम बोलकर और लिखकर सूचना सम्प्रेषण की बात कर रहे हैं। जब हम बोलकर अपने संदेश को प्रेषित करते हैं, तब शब्दों का वजन बढ जाता है। हमारा संदेश किसी को कितना प्रभावित करता है। प्रभावपूर्ण संदेश संप्रेषण हमारे उच्चारण पर निर्भर करता है। उच्चारण की एक गलती पूरी बात को बदल देती है।

 

हम सभी का उच्चारण या प्रननसियेशन हमारी पृष्ठभूमि निर्धारित करता है। हम किस समाज या किस प्रदेश से आ रहे हैं जैसे ऐसा माना जाता है उत्तर भारतीय लोगों की हिन्दी काफी अच्छी होती है। वहीं पश्चिम बंगाल के लोगों का हिन्दी में बंग्ला का पुट लिए होती है। यहां मेरी चर्चा का विषय हिन्दी भाषा नहीं है बल्कि उच्चारण है। यहां मैं उच्चारण को लेकर अपनी बात आप सबके सामने रखना चाहती हूं।

 

अक्सर ये देखने को मिलता है कि एक ही शब्द को लोग अलग- अलग तरह से उच्चारण बोलते हैं। अंग्रेजी भाषा में तो सबसे ज्यादा दिक्कत आती ेहै। विटामिन को वाइटामिन, एटिट्यूड , प्रोनाउनसिएशन ऐसे ढेरे शब्द है जिनको लेकर सही उच्चारण को लेकर क्या है। कोई नहीं जानता । उच्चापण की इसी समस्या के समाधान के लिए 2000 में इन्टरनेशनल फोनेटिक एसोसिएशन की स्थापना की गई। इसकी स्थापना का उद्देश्य यह है कि ईन्टरनेशनल भाषा का उच्चारण पूरे विश्व में एक जैसा हो। भारत, ब्रिटेन, इंग्लैंड ऑस्ट्रेलिया फ्रान्स हर जगह अंग्रेजी बोली जाती है। हर देश के लोग अपनी सुविधानुसार उच्चारण करते है। इसकी कई खामियाँ सामने आती है। शब्द का वास्तविक उच्चारण खो जाता है और सुविधा वाला उच्चारण हावी हो जाता है। पूरे विश्व में एक समान अंग्रेजी बोले जाने के लिए यह ऑर्गनाईजेशन फोनेटिक डिक्शनरी बना चुकी है। जिसमें शब्दों के अर्थ के साथ-साथ अलग अलग चिन्ह बनाए गए है ये चिन्ह उच्चारण के संकेत हैं।

 

^...अ  cup  /k^p/

Double     /D^bal/

Monk       /m^nk/

^...ae

Cat        /kaet/

Stamp     /staemp/

Dad       /daed/

ये कुछ संकेत हैं जिनके माध्यम से एक समान उच्चारण किए जाने का प्रयास किया जा रहा है। और अब पूरी दुनिया इस उच्चारण पर अमल कर रही है। कुछ शब्द एक समान ध्वनि के साथ बोले जाते हैं जिन्हें डिपथांग्स कहते हैं। इसका विवरण भी दिया गया है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और कम्युनिकेशन के छात्रों से शुद्ध उच्चारण की आशा की जाती है।

हिन्दी भाषा में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो सही उच्चारण की पैरवी करे। इसीलिए इसमें स,श,ष,र,ड,को लेकर गलतियां बड़े पैमाने पर मतभेद बना हुआ है। और स्वान्त़: सुखाय उच्चारण अधिकतर लोग करते हैं।