सोमवार, 29 अगस्त 2011

कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं!


           

आज आकाशवाणी के लिए JNU  से निकलना चाहाँ तो ऑटो नहीं मिला.... काफी देर का इन्तजार, बार बार गोदावरी बस स्टैंण्ड के नाम पढनें के अलावा कोई विकल्प भी नहीं दे रहा था ...खैंर इन्तजार को भी चैंन कहाँ जल्द ही खत्म हुआ ऑटो तय हुआ ..मीटर के डिजीटल अंको ने तय करती दूरी का खाका खीचना शुरू कर दिया.... बरसात की गर्मी और वो ऑटों ... दिल्ली को ऑटो के पर्दे से देखना चाहा तो दिल्ली मुझें ठहरे शहर में भागते हुए लोगों कि अन्धी दौड़ का शहर नजर आया (ये मेरा भ्रम भी हो सकता है क्यों कि फिल्मों मे दिल्ली का अपना बखान है).आपकी राय भी दिल्ली के बारे में मुझसे इतर हो सकती है.


ऑटों से बाहर की दिल्ली 



बस यूँ ही सफर चलता रहा तभी ऑटो वाले ने मुझ से 5 मिनट का समय माँगा ताकि वो अपनी गाड़ी के लिए ईधन ले सके..मेरे पास भी उसकी इस माँग को स्वीकार न करने की कोई वजह नजर नहीं आई..क्योंकि अगर न मानता तो शायद ऑटो बढता ही नहीं ..खैर ऑटो की लम्बी लाईन और उसी लाइन में हमारा भी ऑटो.. खाली वक्त और जिंदगी से रोज मिलते रहने वाले सख्स से बात करने की उत्कंठा ने मुझे एक सवाल दागने पर मजबूर किया दिल्ली के ही हो आप या बाहर के ? “.. आटों वाले ने मेरी ओर देखा और बड़ी अजीब से मुस्कुराते हुए जवाब दिया ...है तो बाहर के पर 20 साल से यहीं है मन में ही उसकी हँसी का राज जानना चाहा तो जवाब मिला शायद मुझ जैसा हर आदमी अपना समय काटने के लिए यह सवाल पूछता होगा ....खैर इस सोच से बाहर निकलते है ही दूसरा सवाल दागा कहाँ से हो ?जवाब आया कानपुर ”… कानों को अच्छा लगा सुनकर ... मैनें भी धड़ाध़ड़ कानपुर और उससे जुड़े जिले उन्नाव के कुछ परिचित नाम बताए तो उसे अच्छा लगा और उसे मेरी बातो में अपनापन सा महसूस हुआ..तब ऑटो वाले ने मुझसे पूछा कि आप कौन सी पढाई करते हो ..तो मेरा जवाब उसके शब्द कोष से ऊपर निकल गया ..जवाब मिला भइया हम पढे नहीं है इस लिए समझ नहीं सकते कि आप क्या करते हो पर इतना बड़े स्कूल में हैं तो अच्छा ही करते होगें.. उसके जवाब में अपनी तारीफ सुन कर गुरूर यूं ही चढ गया ... अगला सवाल ऑटो वाले का था  भइया 12वी के बाद बच्चे को क्या पढाएँ ..हम भी उसे अपना मान कर सभी विकल्पों पर एक छोटा सा व्याख्यान दे बैढें ... उसने लम्बी सांस ली और बोला कि  लड़का तेज बहुत है पर अच्छे स्कूल में पढीं नहीं पाता ....पैसा भी हैय पर हम पढे़ ही नहीं है इस लिए एडमिशनवई नहीं लेते है .... अभी 8 वी में है पर... इस पर के बाद वो चुप और  उसकी इस चुप्पी पर  मेरी भी ताकत न थी कि मैं कोई और सवाल कर सकूँ... पर उसकी इस चुप्पी ने मेरे मुँह पर वह सवालों का वो गठ्ठर छोड़ गया जिसके जवाब मैं शायद खोज भी ना सकूँ ... तेज रफ्तार में आटो रायसीना मार्ग को पार करते हुए आकाशवाणी पर मुझे छोड़ आटो वाला फिर जिंदगी से लड़ने निकल पड़ा... मैं कुछ कह भी न सका... फिर एक भइया कि लाइन याद आ गई कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं! “… यहीं सोच मैं आकाशवाणी की ओर बढ चला ....

       
                                 आकाशवाणी से संसद




                                     

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

अनार एक बीमार हजार


बचपन में एक कहावत पढ़ी थी एक अनार सौ बीमारतब गुरू जी लोगो ने जो समझाया वही समझ लिया .... लेकिन आज उसका दूसरा सन्दर्भ भी समझ में आ गया कि एक अनार खरीदने में अगर 23 रू. देने पड़े तो 100 क्या न जाने कितने बीमार ही रहेंगे।  बात यूँ है कि मैं आज पहली बार प्रात: भ्रमण पर निकला तो JNU  स्थित सफल स्टोर (जो फल और सब्जी बेचता है) पर पहुँचा तो देखा कई लोग फल और सब्जी खरीद रहे है मैं भी उस भीड़ में शामिल हो गया.... अपने लिए फल खरीदने .. हाँलाकि मैं फलो का नियमित ग्राहक नहीं हूँ तो मुझे कीमतो का अन्दाजा नहीं था और मुझें वायरल है तो डॉक्टरो ने फल खाने का सझाव दिया था तो मैने सेब और अनार खरीदे सेब की कीमत 35 रू में 4, लेकिन 2 अनार की कीमत 46 रू अदा की । तब मेरे मुह से अपने आप ही निकल पड़ा कि इस अनार को खाने में तो 100 क्या हजारो बीमार पड़ जाएंगे।  

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

मधुमय अतीत .......

बात मेरे बचपन की है .. बचपन में मैं काफी शर्मीला किस्म का लडका था, खास कर लड़कियों के मामले में........... कोई भी कुछ भी कह कर मुझें चिढा सकता था। मेरी इस शर्मीलेपन का फायदा मेरे घर वाले खूब उठाया करते थे खास तौर पर जब मेरे लिए नये कपडे़ आया करते थे .. तो पापा यह कह कर अक्सर चिढा लेते थे कि अब मेरी शादी करा दी जाए .... मेरे को यह बात काफी चिढा देती थी और मैं सारे नयें कपड़े को उतार कर फेक कर गुस्से से अपने आप को कमरे में बंद कर लिया कर लेता था..........
      बात एक बार की हैं हम भोगांव (मैनपुरी) में रहते थे। मै और मेरी दीदी को कापी खरीदनी थी।मैं 4 में पढता था और दीदी 5 में। मुझें हिन्दी और दीदी को अंग्रेजी की कापी खरीदनी थी हम दोनों दुकान पर पहुचे कापी की मांग की दुकानदार ने कापियां दी इत्तेफाक से मेरी कापी पर किसी फिल्म अदाकारा का चित्र था अब मेरा मन उस कापी से उचट गया और कापी लेने से इनकार कर दिया दीदी ने डांट कर उस कापी को ही लेने का दबाब डाला पर मैं अडिग ..उपर से.उस वक्त दीदी भी छोटी थी और थो़डा दुकानदार का डर ... लेकिन मैं अपने विचार पर अडिग ....हार कर दीदी ने उस दुकानदार से कहा कि इसे बदल कर दूसरी कापी दे दें.... उस पर वो दुकानदार डाटते हुये लफ्जो में बोला मौडी (लड़की) अभी तो तूने यही कापी मागी थी ना .....दीदी ने कापते हुये स्वर में कहा कि इस पर हिरोईन छपी है इस लिए मैं इसे नहीं ले रहा हूँ....दुकानदार ने हसते  हुये अपने सहायक से कहा कि कापी बदल कर दूसरी दे दे इस मौड़े (लड़का) को मौड़ी (लड़की ) पंसद नही है।
    आज भी हम इस बात को याद  कर अपने बचपन के दिन को याद कर उन बचपन के दिनों में लौट जाते हैं।  सच में कितना अच्छा है मधुमय अतीत .......

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

सब अपनई हयेन

मैनें अपने मित्र अरविन्द का एक लेख पढा जिसमें भारत की विद्वानों की यूनीवर्सिंटी माने जाने वाली जेएनयू में बदलते राजनैतिक बहार की महक महसूस हुई। सच में बदलाव ही किसी प्रक्रिया की व्यवहारिकता है। हम सभी किसी न किसी राजनैतिक विचारधारा के समर्थक हो सकते हैं उस विचारधारा के समर्थक होने के नाते हमारा उस विचारधारा के प्रति झुकाव भी जायज है लेकिन उस विचारधारा के चलते हम मानवीयता के पैमानों को भूल जायें ये कौन सी विचारधारा का हिस्सा है। राजनीति में तो मानवीय पहलू ही केंद्र में होते हैं अगर आदिवासीयों के हक की लड़ाई लड़ रहे लोग मानवीयता की दुहाई देते हैं तो दंतेवाड़ा में मारे जाने वाला सिपाही कौन हैं । आखिर मानवीयता का कौन सा पैमाना इस हिंसा को जायज ठहरा सकता हैं। दंतेवाड़ा की हिंसा को किसी भी कीमत पर सहीं नहीं कहाँ जा सकता है। अभी हिन्दुस्तान की ओर से हमें लखनऊ भेजा गया हैं और दंतेवाड़ा में मारे गयें जवानों में से 42 उत्तर प्रदेश के थे और उन में से 25 जवानों के पार्थिव शरीर को अमौसी हवाई अड्डे पर उतार कर उनके गृह जनपदों को भेजा जाना था तो हमें भी मौका मिला वहाँ जाने का । बड़ा ही खामोश मंजर था सच में 400 से 500 की भीड़ के बाद इतनी खामोशी मैनें अपने जीवन में कभीं नहीं महसूस की, एक एक करके 25 शवों के बाद विचारशून्यता सी स्थिति न कोई भाव न कोई नक्सलवाद की बहस का विचार सिर्फ एकटक उनकी ओर निहारता रहा जो वहाँ थे ही नहीं। नया नया पत्रकार तो खबर लिखनी ही थी तो कुछ ऐसा लिखनें की इच्छा थी जो सच्चे चित्र उभार सके, तो देखा कि पास में कुछ महिलाएं रो रहीं है सारा मि़डिंया का मुँह उन्हीं की ओर सबने समझा किसी शहीद के परिवारी जन होगें । पहला सवाल आप का कोई परिवारीजन इसमें हैं कया ? जवाब मिला “सब अपनई त हयेन” इसके बाद किसी ने कुछ नहीं पूछाँ। सच में ये मानवीय पहलू हैं जिसें हमें समझना होगा।

शनिवार, 20 मार्च 2010

उच्चारण

शिखा सिंह

 

 

 

अपनी भावनाओं ,विचारों और सूचना बताने के लिए हम भाषा का इस्तेमाल करते हैं। और भाषा गठन शब्दों से होता है। शब्द हमारी अभिव्यक्ति की इकाई होते हैं। हम शब्दों से ही वाक्य विन्यास होता है। वाक्य सूचना, विचार और भावनाओं को सम्प्रेषित करते हैं। यहां हम बोलकर और लिखकर सूचना सम्प्रेषण की बात कर रहे हैं। जब हम बोलकर अपने संदेश को प्रेषित करते हैं, तब शब्दों का वजन बढ जाता है। हमारा संदेश किसी को कितना प्रभावित करता है। प्रभावपूर्ण संदेश संप्रेषण हमारे उच्चारण पर निर्भर करता है। उच्चारण की एक गलती पूरी बात को बदल देती है।

 

हम सभी का उच्चारण या प्रननसियेशन हमारी पृष्ठभूमि निर्धारित करता है। हम किस समाज या किस प्रदेश से आ रहे हैं जैसे ऐसा माना जाता है उत्तर भारतीय लोगों की हिन्दी काफी अच्छी होती है। वहीं पश्चिम बंगाल के लोगों का हिन्दी में बंग्ला का पुट लिए होती है। यहां मेरी चर्चा का विषय हिन्दी भाषा नहीं है बल्कि उच्चारण है। यहां मैं उच्चारण को लेकर अपनी बात आप सबके सामने रखना चाहती हूं।

 

अक्सर ये देखने को मिलता है कि एक ही शब्द को लोग अलग- अलग तरह से उच्चारण बोलते हैं। अंग्रेजी भाषा में तो सबसे ज्यादा दिक्कत आती ेहै। विटामिन को वाइटामिन, एटिट्यूड , प्रोनाउनसिएशन ऐसे ढेरे शब्द है जिनको लेकर सही उच्चारण को लेकर क्या है। कोई नहीं जानता । उच्चापण की इसी समस्या के समाधान के लिए 2000 में इन्टरनेशनल फोनेटिक एसोसिएशन की स्थापना की गई। इसकी स्थापना का उद्देश्य यह है कि ईन्टरनेशनल भाषा का उच्चारण पूरे विश्व में एक जैसा हो। भारत, ब्रिटेन, इंग्लैंड ऑस्ट्रेलिया फ्रान्स हर जगह अंग्रेजी बोली जाती है। हर देश के लोग अपनी सुविधानुसार उच्चारण करते है। इसकी कई खामियाँ सामने आती है। शब्द का वास्तविक उच्चारण खो जाता है और सुविधा वाला उच्चारण हावी हो जाता है। पूरे विश्व में एक समान अंग्रेजी बोले जाने के लिए यह ऑर्गनाईजेशन फोनेटिक डिक्शनरी बना चुकी है। जिसमें शब्दों के अर्थ के साथ-साथ अलग अलग चिन्ह बनाए गए है ये चिन्ह उच्चारण के संकेत हैं।

 

^...अ  cup  /k^p/

Double     /D^bal/

Monk       /m^nk/

^...ae

Cat        /kaet/

Stamp     /staemp/

Dad       /daed/

ये कुछ संकेत हैं जिनके माध्यम से एक समान उच्चारण किए जाने का प्रयास किया जा रहा है। और अब पूरी दुनिया इस उच्चारण पर अमल कर रही है। कुछ शब्द एक समान ध्वनि के साथ बोले जाते हैं जिन्हें डिपथांग्स कहते हैं। इसका विवरण भी दिया गया है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और कम्युनिकेशन के छात्रों से शुद्ध उच्चारण की आशा की जाती है।

हिन्दी भाषा में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो सही उच्चारण की पैरवी करे। इसीलिए इसमें स,श,ष,र,ड,को लेकर गलतियां बड़े पैमाने पर मतभेद बना हुआ है। और स्वान्त़: सुखाय उच्चारण अधिकतर लोग करते हैं।

बुधवार, 10 मार्च 2010

बदलते मौसम बदलते मंज़र
जो तुमने देखे,जो हमने देखे बदलते तेवर ज़माने लाये जो हमने तुमने थे साथ देखे
न हम कभी भी हुए तुम्हारे
न तुम भी थे हुए हमारे
बंधी थे तुमसे जिसके सहारे
थी मेरी सरहद मेरे किनारे

यहीं कहीं पे वो एक तुम थे,
यहीं कहीं पे वो एक हम थे
बता रहीं है बची ये सरहद
सुना रहे है बचे किनारे

न अब हो तुम ना तुम्हारी बातें
न अब हूँ में ना पुरानी यादें
बची हैं सरहद बचे किनारे
दिखा रहे है निशाँ हमारे


शिखा सिंह

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

मंहगाई और मेरा सपना

मंहगाई और मेरा सपना आज मैं एक सपनें को देखकर डर के उठ गया। सपनें में देखा प्याज 5रू किलो, चीनी 11रू किलो, नमक 3रू किलो । इतना देखा तो आगे देखने की हिम्मत ही नही हुई। खतरनाक जो था। कि कैसा सपना था। और मैं क्या-क्या देखा रहा था।
सच में अगर कोई आदमी सपनें में भी यह सोचता है तो उसें यह चीजे असम्भव लगती है। बढ़ती महगाई में ऐसा सोचना किसी सपनें से कम भी नही है। बढ़ती महगाई ने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी है। आज अगर किसी के सामने सबसे बड़ी समस्या हैं तो वह है मंहगाई, और इस मंहगाई मे अपनें दो वक्त की रोटी का जुगाड करना ।पहले लोग प्याज को काटने में आसूँ बहाते थे लेकिन आज अगर प्याज खरीदनी हो तो आसूँ बह जाते है। पहले चीनी खाने कि मिठास को बढ़ाती थी आज वों हमारे बजट की कड़वाहट को बढ़ा रही है।
बात साफ है कि आज मंहगाई ही सबसे बड़ी समस्या है और आम आदमी को प्रभावित कर रही है। जिम्मेदार और जिसकी जवाब देही बनती है वे एक दूसरे पर आरोप लगाकर अपना बचाव करते हैं लेकिन जब बात जन हितैषी घोषित करने की होती है, तो गरीबो के घर रोटी खा आते हैं । लेकिन वे ही इस रोटी को लगातार महगां करते जा रहे है। जब जवाब मागों तो कहते हैं कि ‘’मैं गरीबों की गरीबी को करीब से देखने के लिए जाता हूँ”। अरे मान्यवर जो गरीबी को बढ़ा रही है वो जब दूर से ही नजर आ रही है तो पास जाकर देखने की क्या जरूरत, पहले इसके लिए कुछ करों।
खैर ये तो गरीबों की बात हुई । जो मध्यम वर्ग है जो गरीब से थोड़ा अमीर है उसें भी मंहगाई गरीब बनाने पर तुली है। बिजली, पानी, बच्चों की शिक्षा, आदि रोज की चीजे लगातार महगीं होती जा रही है । जिसने इन अमीरो की स्थिति को बिगाड़ दिया है।
सन 2009 में अर्थव्यवस्था में आए उतार चढ़ाव और कीमतों में एकाएक हुई तेजी के ग्राफ को देखते हुए 2010 मे भी बढ़ती कीमतों से राहत मिलनें की उम्मीद करना बेइमानी है। सरकार इस वर्ष भी राहत देने का कोई वादा करती नजर नहीं आ रही है। कारण तो सरकार के पास है ही, अरे जी हाँ आप सही समझें वही अनियमित मानसून, प्राकृतिक आपदा, बाढ, सूखा। सरकार कहती है कि ये ना होता तो कीमते ना बढ़ती लेकिन जो सच में कारण है वह हैं जमाखोरी। उस पर ध्यान न देना सरकार का हठ है। जमाखोरो ने अपनें भंड़ार पहले भर लियें और ऊचें दामों में बेचते है। सरकार इनसेँ निपटती ही नही न कोई केन्द्रीय भंडारण की कोई नीति और न कोई प्रयास। जनता के पास विकल्प के रूप में ये ही जमाखोर है, जो औने- पौने दामों में चीजों को बेच रहे है।
उद्योगपति रिटेल के नाम पर अनाज और सामान सस्ता बेच रहे है। इससे बाजार पर दवाब बढ़ जाता है जिससें मंहगाई बढ़ती है। अब दावा है कि रिटेल बाजार में सस्ता है। लेकिन आप खुद सोचिए कि आप वहाँ कितनी बार गयें है और सब्जी लेकर आये है। थोड़े समय के लिए ऐसा लग सकता है कि ये बड़े बाजार आपके लिए सस्ता है लेकिन जैसे-जैसे इनका अधिपत्य मजबूत होगा, चीजों का दाम बढ़ना तय है। सरकार का कुप्रंबधन निश्चित रूप से इसमें सहयोगी होगा।
हमारे देश की विडम्बना देखिए जहाँ धर्म, भाषा, जाति, क्षेत्र, आदि को लेकर जो किसी छोटे भू-भाग और कम जन संख्या को प्रभावित करती है उसके लिए जन आंदोलन और राजनीति होती है। लेकिन मंहगाई न किसी को आन्दोलित कर पा रही है और न ही राजनीति का हिस्सा बन पा रही है। हाल के लोक सभा और झारखण्ड राज्य के चुनाव से स्पष्ट है।
रोटी और मंहगाई के लिए कोई भी आंदोलन नहीं हो रहा है। य़ह तब तक नहीं रूकेगा जब तक जनता खुद सरकार को मजबूर ना करे तभी मुझ जैसा आदमी एक सपना देख सकेगां जिसमें प्याज 5रू किलो, चीनी 11रू किलो, नमक 3रू किलो हो।

शिशिर कुमार यादव