बुधवार, 10 मार्च 2010

बदलते मौसम बदलते मंज़र
जो तुमने देखे,जो हमने देखे बदलते तेवर ज़माने लाये जो हमने तुमने थे साथ देखे
न हम कभी भी हुए तुम्हारे
न तुम भी थे हुए हमारे
बंधी थे तुमसे जिसके सहारे
थी मेरी सरहद मेरे किनारे

यहीं कहीं पे वो एक तुम थे,
यहीं कहीं पे वो एक हम थे
बता रहीं है बची ये सरहद
सुना रहे है बचे किनारे

न अब हो तुम ना तुम्हारी बातें
न अब हूँ में ना पुरानी यादें
बची हैं सरहद बचे किनारे
दिखा रहे है निशाँ हमारे


शिखा सिंह

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

मंहगाई और मेरा सपना

मंहगाई और मेरा सपना आज मैं एक सपनें को देखकर डर के उठ गया। सपनें में देखा प्याज 5रू किलो, चीनी 11रू किलो, नमक 3रू किलो । इतना देखा तो आगे देखने की हिम्मत ही नही हुई। खतरनाक जो था। कि कैसा सपना था। और मैं क्या-क्या देखा रहा था।
सच में अगर कोई आदमी सपनें में भी यह सोचता है तो उसें यह चीजे असम्भव लगती है। बढ़ती महगाई में ऐसा सोचना किसी सपनें से कम भी नही है। बढ़ती महगाई ने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी है। आज अगर किसी के सामने सबसे बड़ी समस्या हैं तो वह है मंहगाई, और इस मंहगाई मे अपनें दो वक्त की रोटी का जुगाड करना ।पहले लोग प्याज को काटने में आसूँ बहाते थे लेकिन आज अगर प्याज खरीदनी हो तो आसूँ बह जाते है। पहले चीनी खाने कि मिठास को बढ़ाती थी आज वों हमारे बजट की कड़वाहट को बढ़ा रही है।
बात साफ है कि आज मंहगाई ही सबसे बड़ी समस्या है और आम आदमी को प्रभावित कर रही है। जिम्मेदार और जिसकी जवाब देही बनती है वे एक दूसरे पर आरोप लगाकर अपना बचाव करते हैं लेकिन जब बात जन हितैषी घोषित करने की होती है, तो गरीबो के घर रोटी खा आते हैं । लेकिन वे ही इस रोटी को लगातार महगां करते जा रहे है। जब जवाब मागों तो कहते हैं कि ‘’मैं गरीबों की गरीबी को करीब से देखने के लिए जाता हूँ”। अरे मान्यवर जो गरीबी को बढ़ा रही है वो जब दूर से ही नजर आ रही है तो पास जाकर देखने की क्या जरूरत, पहले इसके लिए कुछ करों।
खैर ये तो गरीबों की बात हुई । जो मध्यम वर्ग है जो गरीब से थोड़ा अमीर है उसें भी मंहगाई गरीब बनाने पर तुली है। बिजली, पानी, बच्चों की शिक्षा, आदि रोज की चीजे लगातार महगीं होती जा रही है । जिसने इन अमीरो की स्थिति को बिगाड़ दिया है।
सन 2009 में अर्थव्यवस्था में आए उतार चढ़ाव और कीमतों में एकाएक हुई तेजी के ग्राफ को देखते हुए 2010 मे भी बढ़ती कीमतों से राहत मिलनें की उम्मीद करना बेइमानी है। सरकार इस वर्ष भी राहत देने का कोई वादा करती नजर नहीं आ रही है। कारण तो सरकार के पास है ही, अरे जी हाँ आप सही समझें वही अनियमित मानसून, प्राकृतिक आपदा, बाढ, सूखा। सरकार कहती है कि ये ना होता तो कीमते ना बढ़ती लेकिन जो सच में कारण है वह हैं जमाखोरी। उस पर ध्यान न देना सरकार का हठ है। जमाखोरो ने अपनें भंड़ार पहले भर लियें और ऊचें दामों में बेचते है। सरकार इनसेँ निपटती ही नही न कोई केन्द्रीय भंडारण की कोई नीति और न कोई प्रयास। जनता के पास विकल्प के रूप में ये ही जमाखोर है, जो औने- पौने दामों में चीजों को बेच रहे है।
उद्योगपति रिटेल के नाम पर अनाज और सामान सस्ता बेच रहे है। इससे बाजार पर दवाब बढ़ जाता है जिससें मंहगाई बढ़ती है। अब दावा है कि रिटेल बाजार में सस्ता है। लेकिन आप खुद सोचिए कि आप वहाँ कितनी बार गयें है और सब्जी लेकर आये है। थोड़े समय के लिए ऐसा लग सकता है कि ये बड़े बाजार आपके लिए सस्ता है लेकिन जैसे-जैसे इनका अधिपत्य मजबूत होगा, चीजों का दाम बढ़ना तय है। सरकार का कुप्रंबधन निश्चित रूप से इसमें सहयोगी होगा।
हमारे देश की विडम्बना देखिए जहाँ धर्म, भाषा, जाति, क्षेत्र, आदि को लेकर जो किसी छोटे भू-भाग और कम जन संख्या को प्रभावित करती है उसके लिए जन आंदोलन और राजनीति होती है। लेकिन मंहगाई न किसी को आन्दोलित कर पा रही है और न ही राजनीति का हिस्सा बन पा रही है। हाल के लोक सभा और झारखण्ड राज्य के चुनाव से स्पष्ट है।
रोटी और मंहगाई के लिए कोई भी आंदोलन नहीं हो रहा है। य़ह तब तक नहीं रूकेगा जब तक जनता खुद सरकार को मजबूर ना करे तभी मुझ जैसा आदमी एक सपना देख सकेगां जिसमें प्याज 5रू किलो, चीनी 11रू किलो, नमक 3रू किलो हो।

शिशिर कुमार यादव

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

अवतार

अवतार (फिल्म समीक्षा)
बैनर ;- 20, सेचुरी फाँक्स ।
निर्माता-निर्देशक ;- जैम्स कैमरून।
संगीत;- जेम्स हार्नर ।
कलाकार ;- सैम वर्थिगटन, सीर्गोनी विवर, स्टीफन लैग, जोसाल्डाना ।
‘अवतार’ वर्तमान से भविष्य की ओर देखने की एक सोच हैं। अवतार भविष्य में मानव की प्रकृति (NATURE) उसकी अपनी संसाधनो की भूख जिसें वह पाने के लिए किसी भी हद तक जाने का फिल्माकंन है। भविष्य की भूख के साथ संसाधनो को सहेजने के लिए मानवीय चेहरा भी दिखाया गया है। यह मानवीय चेहरा इस फिल्म में नायक के माध्यम से दिखाया गया है। वैसे कहानी 2154ई. की है।
फिल्म की कहानी एक पड़ोरा नामक ग्रह के इर्द-गिर्द घूमती है। पृथ्वीवासियों के गन्दें इरादो शिकार हो जात है। वे पेड़ोरा की कुछ जानकारी जुटाने, उस पर कालोनी बनाने के साथ साथ वहाँ की बहुमूल्य़ सम्पदा को ले जाना चाहते है। उनके रास्ते मे वहाँ के स्थानीय निवासी बाधा हैं। जिन्हे वो ब्लू मंकी कहते है। इन्हे वे नावी भी कहते है और इन्हे इंसानो से पिछड़ा मानते है।मानव बीच तकनीक से एक जैक को तैयार करते करते है। जिसे मनुष्य और नावी के DNA से मिलाकर बनाया गया है। जो अवतार का रूप है। इसे गहरी नीद मे रखकर निंयन्त्रित किया जा सकता है। जो उनके बीच जाकर जानकारियाँ इक्ठ्ठा करता है। उनके बीच ही उसे प्यार हो जाता है। वह उनकी दुनिया को उनकी नजरों से देखता है। तब उसे इंसानो के खतरनाक इरादों का पता चलता है और वह उनकी तरफ से लड़ता है और पेड़ोरा को बचाता है।
भारतीय परिदृश्य में अगर इस फिल्म को रखने की कोशिश करें तो हम अपने आदिवासियों और सभ्य समाज के इंसानो के बीच के संबधों की झलक देख सकते है।
फिल्म अदभुत है, अवतार फिल्म देखनें से ऐसा लगता ही नहीं की हम एक फिल्म देख रहे है, जैसे ऐसा लगता हैं कि हम एक सपनों की दुनिया में खो गए है। एक ऐसी दुनिया जहाँ सब कुछ अलग है, पेड, पौधों, प्राणी, मनुष्य सब कुछ अलग फिल्म में जो नेचरल खूबसूरती दिखायी गयी है वो अदभुत है। इसे बहेतरीन तरीके से फिल्माया गया है। एक्सन रोमाचक है। फिल्म युद्ध के बाद शांति की बात करती है। विजुवल, कहानी और एक्शन के साथ संतुलित है। तकनीकी फिल्म की जान है। फोटोग्राफी, स्पेशल विजुवल इफेक्टस, कास्टूयम, डिजायन, संपादन बेहतरीन है। लाइट व शेड दिल को खुश करने वाले है। इस फिल्म सी.जी.आई.(COMPUTER GENRATED EMAGE) का शानदार प्रयोग किया है। कलाकारो का अभिनय भी शानदार है। अगर आप प्रकृति से प्रेम करते हैं, तो ये फिल्म अवश्य देखें.। इस फिल्म के जरिये आप एक काल्पनिक दुनिया का सफर कर सकते है।

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

सरकारी होनें की पीड़ा

 शीर्षक पढ़नें के पश्चात आप सोच रहे होगें कि ये क्या भाई सरकारी और पीड़ा। भई हमने तो सुना है कि सरकारी होने पर जिंदगी बड़े मजे से कटती है। कम परिश्रम और न अधिक काम, ऊपर से पारिश्रमिक (वेतन) परिश्रम से कहीं अधिक। तो ये सरकारी होने से पीड़ा कैसी ? हमने जितने लोगों को देख़ा है उन्हे तो सरकारी होने के नाते कोई पीड़ा नहीं हुई हैं।


खैर जब आपके मन मे ये सवाल जग ही गयें हैं तो मैं आपकी जिज्ञासा शान्त कर देता हूँ। घटना है इलाहाबाद स्थित मेरे घर के सामने लगे नीम के पेड़ की। ............ अब ये क्या नीम का पेड़...... सरकारी......पीड़ित.......दुखीं..........ये सब क्या हैं? पड़ गये ना चक्कर मे, मैं भी चक्कर मे पड़ गया था जब मैनें यह सुना था। विषय की जानकारी लेनें मैं पहुच गया नीम का साक्षात्कार लेनें।

नीम काफी दुखी था, मैने उसकी भावनाओं और भावों को जानने के लिए पूछाँ ‘ आप को सरकारी होने पर कष्ट क्यों हैं ? मेरी ओर दुखीं मन से देखतें हुए बोला ‘’मुझें इस बात का दुख़ हैं कि मैं सरकारी हूँ और ये सरकारी शब्द मेरे विकास मे अंत्यन्त ही बाधक है।“

नीम अपनी बात खत्म करता इससें पहले ही मेरा पत्रकार बालमन उत्सुकता मे दूसरा प्रश्न पूँछ बैंठा कि “विकास मे बाधक कैसें आप तो आनें वाले वक्त के युवा पत्रकार होगें ? नीम बोला “ ठीक कहा मित्र लेकिन आप लोग मुझें कभी विकसित नहीं होने देगें, और मेरा यह युवा वृक्ष का सपना अधूरा ही रह जायेंगा क्योंकि मैं एक सरकारी वृक्ष हूँ।

मैंने जोर दे कर पूछाँ “ क्यों ? ”। खिन्न मन से नीम बोला ‘’ मित्र जब से मुझें लगाया गया हैं, तब से सरकारी होने के कारण मेरी उपेक्षा की जाती रहीं। भला हो कुछ भलमानुषों का जिन्होनें मुझें सुरक्षा और खाद्य् पदार्थ दिया लेकिन एक घटना के बाद से मैं काफी दुखी हूँ ।अब सोचता हूँ कि इस संसार मे सरकारी होना किसी पापी होने से कम थोड़े ही हैं।“

मैनें पूछाँ “ कौन सी घटना, जरा विस्तृत वर्णन करों मित्र ”। नीम बोला “एक दिन की बात हैं कि एक बकरी चराने वाली महिलां आयी उसने मुझें झुकाया और बड़ी निर्दयता से मेरी रसोई रूपी पत्तियों को तोड़ा और बकरियों को खिला दिया, जब एक भलमानुष ने रोका तो उस महिला के जवाब ने मेरे भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया। “

मैनें उत्सुकता से पूछाँ “ वो कैसे ? ” नीम बोला उसने उस भलेमानुष से कहा कि “तोहार थोड़ई तोड़त हई, अरे इ त सरकारी हई। जब आपन लगाय त रोकअ, बड़ा आई हयेन हमे रोकई वाला “।

उस महिला की बात से भलामानुष तो चुप हो गया लेकिन उसने मुझें किसी तरह बचाया। इस घटना के बाद मुझें अपनें सरकारी होनें पर दुख़ हैं।अब मित्र आप ही बताओं कि मैं अपने सरकारी होने पर कहाँ से गर्व करू ? मुझें तो अपने जैसे उन सभी मित्रों के लिए दुख़ और संवेदना है जो सरकारी होने का दंश झेल रहें हैं।“ नीम ने मेरी ओर प्रश्न भरी निगाह से देख़ा और मुझसे पूछाँ कि “मित्र क्या सरकारी होना गुनाह हैं? मैनें कहा “नही मित्र “।वह फिर बोला “अगर नही तो क्यों हम हर उस चीज का उपयोग और रखरखाव ठीक ढ़ंग से नही करते हैं जो सरकारी है।“