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बुधवार, 28 अप्रैल 2010

सब अपनई हयेन

मैनें अपने मित्र अरविन्द का एक लेख पढा जिसमें भारत की विद्वानों की यूनीवर्सिंटी माने जाने वाली जेएनयू में बदलते राजनैतिक बहार की महक महसूस हुई। सच में बदलाव ही किसी प्रक्रिया की व्यवहारिकता है। हम सभी किसी न किसी राजनैतिक विचारधारा के समर्थक हो सकते हैं उस विचारधारा के समर्थक होने के नाते हमारा उस विचारधारा के प्रति झुकाव भी जायज है लेकिन उस विचारधारा के चलते हम मानवीयता के पैमानों को भूल जायें ये कौन सी विचारधारा का हिस्सा है। राजनीति में तो मानवीय पहलू ही केंद्र में होते हैं अगर आदिवासीयों के हक की लड़ाई लड़ रहे लोग मानवीयता की दुहाई देते हैं तो दंतेवाड़ा में मारे जाने वाला सिपाही कौन हैं । आखिर मानवीयता का कौन सा पैमाना इस हिंसा को जायज ठहरा सकता हैं। दंतेवाड़ा की हिंसा को किसी भी कीमत पर सहीं नहीं कहाँ जा सकता है। अभी हिन्दुस्तान की ओर से हमें लखनऊ भेजा गया हैं और दंतेवाड़ा में मारे गयें जवानों में से 42 उत्तर प्रदेश के थे और उन में से 25 जवानों के पार्थिव शरीर को अमौसी हवाई अड्डे पर उतार कर उनके गृह जनपदों को भेजा जाना था तो हमें भी मौका मिला वहाँ जाने का । बड़ा ही खामोश मंजर था सच में 400 से 500 की भीड़ के बाद इतनी खामोशी मैनें अपने जीवन में कभीं नहीं महसूस की, एक एक करके 25 शवों के बाद विचारशून्यता सी स्थिति न कोई भाव न कोई नक्सलवाद की बहस का विचार सिर्फ एकटक उनकी ओर निहारता रहा जो वहाँ थे ही नहीं। नया नया पत्रकार तो खबर लिखनी ही थी तो कुछ ऐसा लिखनें की इच्छा थी जो सच्चे चित्र उभार सके, तो देखा कि पास में कुछ महिलाएं रो रहीं है सारा मि़डिंया का मुँह उन्हीं की ओर सबने समझा किसी शहीद के परिवारी जन होगें । पहला सवाल आप का कोई परिवारीजन इसमें हैं कया ? जवाब मिला “सब अपनई त हयेन” इसके बाद किसी ने कुछ नहीं पूछाँ। सच में ये मानवीय पहलू हैं जिसें हमें समझना होगा।

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

सरकारी होनें की पीड़ा

 शीर्षक पढ़नें के पश्चात आप सोच रहे होगें कि ये क्या भाई सरकारी और पीड़ा। भई हमने तो सुना है कि सरकारी होने पर जिंदगी बड़े मजे से कटती है। कम परिश्रम और न अधिक काम, ऊपर से पारिश्रमिक (वेतन) परिश्रम से कहीं अधिक। तो ये सरकारी होने से पीड़ा कैसी ? हमने जितने लोगों को देख़ा है उन्हे तो सरकारी होने के नाते कोई पीड़ा नहीं हुई हैं।


खैर जब आपके मन मे ये सवाल जग ही गयें हैं तो मैं आपकी जिज्ञासा शान्त कर देता हूँ। घटना है इलाहाबाद स्थित मेरे घर के सामने लगे नीम के पेड़ की। ............ अब ये क्या नीम का पेड़...... सरकारी......पीड़ित.......दुखीं..........ये सब क्या हैं? पड़ गये ना चक्कर मे, मैं भी चक्कर मे पड़ गया था जब मैनें यह सुना था। विषय की जानकारी लेनें मैं पहुच गया नीम का साक्षात्कार लेनें।

नीम काफी दुखी था, मैने उसकी भावनाओं और भावों को जानने के लिए पूछाँ ‘ आप को सरकारी होने पर कष्ट क्यों हैं ? मेरी ओर दुखीं मन से देखतें हुए बोला ‘’मुझें इस बात का दुख़ हैं कि मैं सरकारी हूँ और ये सरकारी शब्द मेरे विकास मे अंत्यन्त ही बाधक है।“

नीम अपनी बात खत्म करता इससें पहले ही मेरा पत्रकार बालमन उत्सुकता मे दूसरा प्रश्न पूँछ बैंठा कि “विकास मे बाधक कैसें आप तो आनें वाले वक्त के युवा पत्रकार होगें ? नीम बोला “ ठीक कहा मित्र लेकिन आप लोग मुझें कभी विकसित नहीं होने देगें, और मेरा यह युवा वृक्ष का सपना अधूरा ही रह जायेंगा क्योंकि मैं एक सरकारी वृक्ष हूँ।

मैंने जोर दे कर पूछाँ “ क्यों ? ”। खिन्न मन से नीम बोला ‘’ मित्र जब से मुझें लगाया गया हैं, तब से सरकारी होने के कारण मेरी उपेक्षा की जाती रहीं। भला हो कुछ भलमानुषों का जिन्होनें मुझें सुरक्षा और खाद्य् पदार्थ दिया लेकिन एक घटना के बाद से मैं काफी दुखी हूँ ।अब सोचता हूँ कि इस संसार मे सरकारी होना किसी पापी होने से कम थोड़े ही हैं।“

मैनें पूछाँ “ कौन सी घटना, जरा विस्तृत वर्णन करों मित्र ”। नीम बोला “एक दिन की बात हैं कि एक बकरी चराने वाली महिलां आयी उसने मुझें झुकाया और बड़ी निर्दयता से मेरी रसोई रूपी पत्तियों को तोड़ा और बकरियों को खिला दिया, जब एक भलमानुष ने रोका तो उस महिला के जवाब ने मेरे भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया। “

मैनें उत्सुकता से पूछाँ “ वो कैसे ? ” नीम बोला उसने उस भलेमानुष से कहा कि “तोहार थोड़ई तोड़त हई, अरे इ त सरकारी हई। जब आपन लगाय त रोकअ, बड़ा आई हयेन हमे रोकई वाला “।

उस महिला की बात से भलामानुष तो चुप हो गया लेकिन उसने मुझें किसी तरह बचाया। इस घटना के बाद मुझें अपनें सरकारी होनें पर दुख़ हैं।अब मित्र आप ही बताओं कि मैं अपने सरकारी होने पर कहाँ से गर्व करू ? मुझें तो अपने जैसे उन सभी मित्रों के लिए दुख़ और संवेदना है जो सरकारी होने का दंश झेल रहें हैं।“ नीम ने मेरी ओर प्रश्न भरी निगाह से देख़ा और मुझसे पूछाँ कि “मित्र क्या सरकारी होना गुनाह हैं? मैनें कहा “नही मित्र “।वह फिर बोला “अगर नही तो क्यों हम हर उस चीज का उपयोग और रखरखाव ठीक ढ़ंग से नही करते हैं जो सरकारी है।“